कहानी: भाभी
भाभी गहरी नींद सो चुकी थीं. बिस्मिल छत पर चला गया. तारा का अतापता नहीं था. दरक चुकी दीवार के बीच भी नीम के नन्हेंनन्हें 2 पौधे मुसकरा रहे थे.
समय के दरीचे हर दर्रे की कहानी कह रहे हैं. उन्हीं में मैं अपने इश्क़ की निशानी तलाश रहा हूं. लंबे अंतराल के बाद आया हूं. एक पल को भी उसे भूला हूं, ऐसा कभी नहीं हुआ. हर इश्क़ की तरह ही हमारा इश्क़ भी धर्म के नाम पर ही क़ुरबान हुआ था. ठाकुर चाचा के साथ हमारे अब्बा की दांतकाटी रोटी थी. हम सब बच्चे एक ही आंगन में खेलते रहते थे. तब किसी ने नहीं कहा कि बिस्मिल, तुम तारा के साथ मत खेला करो. जब हम घरघर खेलते हुए घर सजाने के सपने संजोने लगे तब तारा की भाभी को न जाने क्या हो गया कि उन्होंने हम दोनों के मिलने पर रोक लगानी शुरू कर दी.
भाभी घर की बड़ी थीं. हम सब की भाभी थीं. मैं तो उन्हें बहुत पसंद भी करता था. बर्फ जैसे सफ़ेद रंग की वे मुझे बहुत सुंदर लगती थीं. ईद में मिली ईदी से शिवालय जा कर मैं उन के लिए गुलाबी चुटीला भी लाया था. ऐसा नहीं कि वे मुझे प्यार नहीं करती थीं, बहुत प्यार करती थीं. फिर उन्हें हमारे इश्क़ से क्यों नफ़रत हुई, उस वक़्त मैं समझ ही नहीं सका था. हमें एकसाथ देख कर वे तुरंत कहतीं- ‘बिस्मिल, आप अपने घर जाइए. बहुत रात हो चुकी है. तारा, आप भी चलिए या तो पढ़ाई करिए या फिर आइए रसोई में हमारा हाथ बंटाइए.’
भाभी लखनऊ की थीं. उन की भाषा हमारे कानपुर की भाषा से थोड़ी अलग थी. अभी मेरी दाढ़ीमूंछों में स्याह रंग फूटना शुरू ही हुआ था. सिर पर टोपी लगाना भी अब मुझे अच्छा लगने लगा था. समझ गया था कि हमारे मज़हब में इस जालीदार टोपी की क्या ख़ासीयत है. दिल में हर वक़्त तारा के नाम के हिलोरे उठते रहते थे. तारा भी मेरे लिए दिन में कईकई बार छत पर आती. वह अब सलवारक़मीज़ के साथ दुपट्टा भी डालने लगी थी.
अब्बा की दुकान से ही पीला ज़रीवाला दुपट्टा ले कर मैं ने उसे जन्मदिन पर तोहफ़े में दिया था. अब्बा ने कहा भी था- ‘तेरी अम्मी उस के लिए पूरा सूट ले कर गई हैं. सहबज़ादे, फिर आप अपनी तरफ़ से दुपट्टा क्योंकर ले जाना चाहते हैं?’
मैं थोड़ा सा हकलाया तो अब्बा ने मेरे कान मरोड़ते हुए कहा- ‘बरखुरदार, क्या हमारी दोस्ती को रिश्ते में बदलवाना चाहते हो?’
मैं शर्म से लाल हो गया था. मेरे चेहरे पर आई सुर्ख़ी देख कर अब्बा थोड़ा चिंतित हुए, फिर बोले- ‘ज़नाब, यह इश्क़ बड़ी ज़ालिम चीज़ है. इस की आतिश से ख़ुद को बचा कर रखिए ताकि हमारे शीरीं रिश्ते की मिठास बची रहे.’
अगर उसी वक़्त कह देता कि अब्बा, ठाकुर चाचा से आप मेरी ख़ातिर बात कर लो तो कितना अच्छा होता. मुझे तो वैसे भी दुकान ही संभालनी थी. ‘भाईजी सलवारक़मीज़ वाले’ कानपुर के जनरलगंज की मशहूर दुकान थी. आख़िर बापदादा का बिज़नैस बेटे को ही तो देखना था. यह बात मेरे दिमाग़ में बैठी हुई थी, तभी पढ़ाई में भी मेरा मन नहीं लगता था.
उस जन्मदिन पर भाभी ने मुझ से कहा- ‘बिस्मिल, आप और तारा अब बड़े हो रहे हो. अब आप को मर्यादा का खयाल रखना होगा. हमारे घरों में बहुत अच्छी दोस्ती है किंतु हमारे धर्म अलग हैं. हम अपनी बेटी ठाकुरों के घर ही ब्याहेंगे. बड़ों की दोस्ती में कोई दरार न आए, इसलिए आप दोनों को समझा रही हूं. मैं ने कई मर्तबा रिश्तों का ख़ून होते देखा है, नहीं चाहती कि आप दोनों की वज़ह से ऐसा कुछ हो. अच्छा होगा तारा से दूरी बना कर रहिए.’
मैं सहम गया था. ऐसा लगा जैसे मैं ने कोई चोरी की हो. डबडबाई आंखें लिए बिना तारा से मिले ही मैं वापस आ गया. उस पूरी रात मैं सो नहीं सका. दूसरी सुबह तारा भी छत पर नहीं आई.
मेरे भीतर पनपा इश्क़ सुलग उठा. उसे किसी भी तरह एक नज़र देखने को मैं बेचैन होने लगा. छत और आंगन के कई चक्कर लगा लिए पर भाभी छोड़ तारा एक बार भी नहीं दिखी. भाभी मुझे टहलते देख कर बोली भी थीं- ‘जा कर पढ़ लीजिए. हाईस्कूल की परीक्षा ज़िंदगी में आगे बढ़ने के लिए पहली सीढ़ी होती है.’
मैं समझ गया कि वह मेरी बेक़रारी को समझ मुझे ताना मार रही हैं. जी किया छत पर पड़ा ईंटा उठा कर उन के ऊपर दे मारूं पर डबडबाई आंखें लिए नीचे आ गया.
दोपहर तक अचानक शहर ही जल उठा. नारे तक़दीर और जय श्रीराम के नारों ने गलियों की गंगाजमुनी तहज़ीब को नंगा कर के रख दिया.
मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि हो क्या रहा है?
जनरलगंज से अब्बा को ठाकुर चाचा अपनी कार में छिपा कर ले कर आए. हम सब ठाकुर चाचा के घर में छिपा दिए गए. ठाकुर चाचा ने ही ख़बर दी कि हमारी दुकान जला दी गई है. आठ दिन हम उन के घर के नीचे बने तहख़ाने में छिपे रहे. उस वक़्त भी भाभी ने हम सब का बहुत खयाल रखा था. ठाकुर चाचा बाहर के सभी लोगों से छिप कर हमारे लिए बहुत सारे इंतज़ाम करते रहे.
फिर अब्बा ने अपनी और मेरी टोपी बैग में रख कर चेन लगा दी. रात के अंधेरे में हमें अपना शहर और देश दोनों छोड़ कर विदेश जाना पड़ा था. कई बरसों तक अब्बा और ठाकुर चाचा का टैलीफ़ोन पर संपर्क बना रहा. फिर वक़्त ने दूरियों को गले लगा लिया.
बीते कई वर्षों के अंतराल बाद इस साल कई बार भाभी का फ़ोन आया कि उन की तबीयत बहुत ख़राब है, वे मिलना चाहती हैं. तब मुझे दुबई से आना ही पड़ा. भाभी का सफ़ेद चेहरा पुराने काग़ज़ सा पीला पड़ा हुआ था.
मिलते ही भाभी ने हमें हमारे घर के काग़ज़ दिए और कहा- “बहुत सालों से आप की अमानत संभाली हुई थी. अब आप के हवाले करती हूं. बड़ों की दोस्ती में कोई दाग़ न लगे, इसीलिए अपनों से लड़ कर भी हवेली बचाती रही.”
मुझ से रहा न गया, पूछ ही बैठा- “भाभी, आप इतनी अच्छी हो, फिर भी आप से एक बात पूछना चाहता हूं.”
“तारा के बारे में?”
“नहीं, आप बस यह बताइए जब आप ने हमारे परिवार का तब से ले कर अब तक इतना खयाल रखा तो आप को मेरा और तारा का मिलन क्यों मंज़ूर नहीं था?”
“आप अभी तक बात को दिल में गांठ बांध कर बैठे हैं.”
“जी, मुझे तारा कभी नहीं भूली यहां तक कि मैं ने अपनी बेटी का नाम भी तारा ही रखा है. ज़िंदगी में आगे भी बढ़ा. जितना खोया था उस से कहीं ज़्यादा पाया. पर तारा मेरी दुनिया में आज भी टिमटिमाती रहती है.”
“बिस्मिल, चंद सांसें बची हैं. आप से सच ही कहूंगी. मैं इश्क़ की दुश्मन नहीं थी. मैं तो ख़ुद इश्क़ की मारी हुई थी. आप के भाईसाहब, जिन्हें मैं ब्याही गई थी, उम्र में मुझ से 10 साल बड़े थे. ऐसा नहीं था कि यह बात हमारी अम्मा और बाऊजी को अखरी न हो. वे चाहते तो मेरे लिए मेरा हमउम्र भी तलाश सकते थे किंतु उन्हें हमारे इश्क़ का पता चल गया था. बस, मेरी पढ़ाई छुड़वा कर बिना कुछ भी सोचेसमझे तुरंत हमारी शादी कर दी गई. हमारी सहेली ने ही हमें बताया था कि उस ने ज़हर ख़ा कर अपनी जान दे दी थी. आप की ही तरह वह भी अपनी अम्मी का इकलौता ही था.”
यह सब कहते हुए भाभी की आंखें भीग गईं. उन की गहराई जान कर मेरा सिर उन के लिए और झुक गया. उन का हाथ थाम कर मैं ने पूछा, “भाभी, तारा कैसी है?”
भाभी ने आंखें मूंदते हुए कहा, “जैसी आप की यादों में है उसे वैसी ही रहने दीजिए.”
भाभी गहरी नींद सो चुकी थीं. मैं छत पर चला आया. दरक चुकी दीवार के बीच भी नीम के नन्हेंनन्हें 2 पौधे मुसकरा रहे थे. कड़वी नीम गहरी चोट पर भी ठंडा लेप ही देती है, बिलकुल भाभी की तरह.- ज्योत्सना सिंह