कहानी: सी सा
मां और बीवी के बीच दो पाटों में पिसता पूरन हताश हो चुका था। तंग आ कर एक दिन उस ने एक युक्ति निकाली और फिर सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी.
पूरन ने चैन की सांस ली. सालभर से वह परेशान था. वह दो पाटों के बीच पिसा जा रहा था. एक पाट थी मां और दूसरा थी पत्नी. पूरन इकोनौमिक्स में एमबीए था और एक एमएनसी में सीनियर ऐनैलिस्ट की जौब पर था. वह अलमोड़ा का निवासी था पर उस की शिक्षादीक्षा इलाहाबाद में हुई थी. अब यहीं के ब्रांच में उसे नौकरी मिल गई. पिता का देहांत बचपन में हो गया था. मां अभी भी पहाङिन बेटी थी. पति की अकाल मौत के बाद वह इकलौते बेटे को ले कर इलाहाबाद चली आई. उस ने एक स्कूल में नर्सरी में आया का काम कर के बेटे को उच्च शिक्षा दिलाई.
पढ़ाई पूरी करने के बाद बेटे को नौकरी भी मिल गई. 2 साल पहले एक सुंदर लङकी देख कर मां ने उस की शादी भी कर दी. पत्नी का नाम तारा था. उस का पिता सचिवालय में विभागाध्यक्ष था. तारा हर दृष्टि से सुंदर थी. उस ने हिंदी में प्रथम श्रेणी में एमए किया था. गृहकार्य में वह अधिक कुशल नहीं थी. पहाड़ी रीतिरिवाज, खानपान, भाषा आदि से भी वह अपरिचित थी, क्योंकि उस के पूर्वज 3 पीढ़ी पहले लखनऊ आ बसे थे. अब तो वे पहाड़ों पर सैलानियों की भांति ही जाते थे.
शादी के बाद तारा का 1 साल आनंद से बीता. वह कभी इलाहाबाद में रहती, कभी अपनी मां के पास लखनऊ चली जाती. सासबहू दोनों ही एकदूसरे को तौल रही थीं, आपस में तालमेल बैठाने का प्रयत्न कर रही थीं। सालभर बाद जब जम कर साथ रहने का अवसर आया तो दोनों एकदूसरे की कसौटी पर खरी नहीं उतरीं.
मां का पहले से पूरन पर पूरा अधिकार था. सात फेरे पड़ते ही जैसे किसी ने उस के अधिकार को चुनौती दे दी थी. उसे लगता, जैसे बेटे पर उस की पकड़ ढीली होती जा रही है. वह उस के हाथ से निकला जा रहा है. उस की ओर कम ध्यान देता है. उस की कम सेवा करता है. फुजूलखर्ची अधिक करता है और रात देर तक जागजाग कर अपना स्वास्थ्य चौपट कर रहा है.
मां को रात बहुत देर से और बहुत कम नींद आती. पास के कमरे से पूरन और तारा की गुटरगूं देर रात सुनाई पड़ती रहती. मां करवटें बदलती रहती और गठिया के दर्द को सहती रहती. मां ने सोचा था कि बहू के आ जाने पर वह पलंग पर बैठी राज करेगी.
उधर तारा की सब से बड़ी कसक यह थी कि पूरन उसे कहीं हनीमून के लिए नहीं ले गया था. शादी जिंदगी में एक ही बार तो होती है. पूरनचंद उसे मां के कारण ही हनीमून के लिए नहीं ले गया था. कहता रहा, ‘‘मां अकेली कैसे रहेगी.’’
तारा सोचती, ‘मां कोई बच्चा है कि उसे बंदर उठा ले जाएगा. पति न हुआ दूधपीता बच्चा हो गया, जो हर समय मिमियाता रहता है. हर समय मां का ही गुणगान करता रहता है. मां की सेवा, मां का त्याग, मां का परिश्रम. कौन मां अपने बच्चे के लिए यह सब नहीं करती. पशुपक्षी भी अपने बच्चों का ध्यान रखते हैं. मां को जब देखो, तब पहाड़ी गांव वाले व्यंजनों की रट लगी रहती है. उस ने कई बार कहा है कि वह बनाना नहीं जानती, न ही उसे पसंद है. पर वह उन्हीं के गुण गाती रहती है.’
लखनऊ में तो तारा रोज शाम को घूमने निकल जाती थी, सहेलियों के साथ या भाइयों के साथ. यहां शाम को बोर होती. कितनेकितने दिन हो जाते फिल्म देखे, शौपिंग किए, घूमने गए. क्यों? कारण वही, मां का पुछल्ला. मां बोर न हो, पत्नी भले ही बोर होती रहे. टीवी या मोबाइल पर आखिर कितना कुछ क्या देखा जाए.
हाथपैर मारने के बाद तारा को एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी भी मिल गई.
मां चाहती कि बेटा दिनभर का हाराथका आता है, घर पर आराम करे. पत्नी जानती थी कि दफ्तर में कोई चक्की तो पीसता नहीं है. मां का मन करता है कि वह भी उन लोगों के साथ जाए. कोई जानपहचान का मिले तो बता सके कि यह मेरा बेटा पूरन है और यह उस की बहू. पर सिनेमा हौल में 3 घंटे बैठे रहना उस के बस का नहीं. बिना औटो के 2 कदम भी चलना उस से भी कठिन है. फिर औटो में 2 व्यक्ति बैठते हैं, 3 नहीं. तीनों को जाना होता तो टैक्सी करनी पढ़ती.
शौपिंग में मां की पंसद आधुनिकाओं के लिए कोई अर्थ नहीं रखती. दृष्टि क्षीण होने के कारण वैसे भी वह ठीक रंग या डिजाइन नहीं आंक पाती थी और आजकल जो भी मौल थे उन में चलना बहुत पड़ता था. घूम भी वह ज्यादा नहीं पाती थी. पर अकेला घर उसे काटने को दौड़ता. उस का जी घबराने लगता. कभी कोई पड़ोसिन आ जाती तो वह बेटेबहू की अपने प्रति उदासीनता की चर्चा करने लगती. पड़ोसिनें भी इक्कादुक्का ही थीं क्योंकि उन के आसपास जनरल कास्ट भी ज्यादा थे जो अब उन से बात करने में कतराते थे, क्योंकि वे पिछङी जाति से थे।
तारा के संबंध में वह पूरन से भी चोरीछिपे कहती. सलोनी सूरत पर रीझ जाने के अपने निर्णय पर मलाल करती. बहू के आलसी होने, गृहकार्य में कुशल न होने, सेवा न करने आदि की बात कहती. पुराने जमाने की, आपबीती कहती रहती. पूरन हां…हूं करता रहता. क्या कहता. उसे तो अपने प्रति समर्पण में तारा में कहीं कमी नहीं दिखाई देती थी. पर वह अशिक्षित सी मां की आंखों पर लगा एक पीढ़ी पुराना चश्मा कैसे उतार फेंकता. मां के संस्कारों को कैसे पलटता. जिस मां का समूचा स्नेह उसी को मिला हो, उसे कैसे समझाता.
मां और तारा दोनों ही पूरन के दफ्तर से लौटने की प्रतीक्षा करतीं. तारा भी स्कूल से 2 बजे तक आ जाती थी. उस का भी समय काटे नहीं कटता था. यदि वह मां के पास बैठ जाता तो तारा के बढ़े रक्तचाप का ज्ञान उसे रसोई में गिरतेखनकते बरतनों से हो जाता. वह रसोई में नहीं होती तो धपधप कर के आंगन में कई बार बेमतलब गुजरती. स्वागत की मुसकराहट के स्थान पर उस के अधरों पर उपेक्षा का भाव रहता.
यदि पूरन सीधा पत्नी के पास भीतर चला जाता तो मां कराहती, घिसटती, घुटनों के जोड़ों में दर्द को कोसती, स्वयं कमरे के बाहर बरामदे में आ जाती और कहने लगती, ‘‘कफ सिरप से खांसी में तो लाभ है, पर जोड़ों के दर्द में कतई फायदा नहीं है. उन से यह भी कहना कि भूख एकदम कम हो गई है. पूछना, मुनक्के सर्दी तो नहीं करेंगे…’’
फिर वह साड़ी ऊपर उठा कर घुटनों की सूजन पर हाथ फेरने लगती. तारा को चायनाश्ता लाने का आदेश देती.
तारा कुढ़ जाती. मां नहीं कहेंगी तो क्या वह नाश्ता नहीं देगी. रात देर तक तारा का मूड बिगड़ा रहता. वह कहती कि मां का बुढ़ापा है, रोग भी है पर वह नाटक अधिक करती हैं. दिन में खुद 2 बार बाथरूम हो आती हैं, गैस पर पानी गरम कर लेती हैं, पर पूरन के आते ही ठिनकने लगती हैं.
पूरन समझाता, ‘‘बच्चे और बूढ़े एकजैसे होते हैं. जीवन के आखिरी दौर में हैं, जितनी बन पड़े सेवा कर लो.’’
तारा सुबह जल्दी उठती थी. पर स्कूल जाने में कुछ और काम करने का समय नहीं होता. पूरन भी सवेरे जल्दी उठता. तारा को बैड पर ही चाय देता. उस के बिना तो उस की आंख ही नहीं खुलती थी. फिर मां को हाथमुंह बिस्तर पर ही धोने को गरम पानी देता. बाथरूम ले जाता. शेव बना कर नहाताधोता और बाजार से दूध का पैकेट और सब्जी लेने चला जाता. उसी समय लौट कर नाश्ता करता और काम पर चल देता.
शाम को हाराथका लौटता. चायनाश्ते के बाद मां के पास बैठता. उस के जोड़ों पर हाथ फेरता, तेल लगाता, दवा के बारे में पूछता, डाक्टर की दवाई लाने की पेशकश करता. तारा तब तक खाना बनाती. पूरन मां को गरम खाना खिलाता. दर्द अधिक बताती तो सिंकाई करता. उसे बिस्तर पर लिटा कर फिर अपराधी की तरह तारा के सम्मुख जाता.
तारा खाना सामने रखती हुई कहती, ‘‘मिल गई छुट्टी?’’
सोने जाने से पहले पूरन फिर एक बार मां को देख कर आता, दवाई देता.
मां तो यहां तक चाहती थीं कि पूरन या तारा में से कोई एक रात को उस के ही कमरे में सोए, वह घूमाफिरा कर कहती, ‘‘रात को आंख खुल जाती तो बहुत जी घबराता है. कोई पानी देने वाला भी नहीं होता. किसी दिन ऐसे ही तड़पतड़प कर मर जाऊंगी. कोई पास हो तो दर्द बढ़ने पर दवा तो मल सकता है. बाथरूम जाना होता है तो बिजली का स्विच खोलने में दीवार से टकरा जाती हूं.’’
पूरन कहता, ‘‘मां पुकार लिया करो न. बराबर के कमरे में ही तो हम सोते हैं. रातभर बिजली खुली रखा करो.’’ पर रोशनी में मां को नींद नहीं आती थी. वह आंखों की रहीसही रोशनी से भी हाथ धो बैठने का डर बताती.
पूरन की अपनी जिंदगी जैसे कुछ रह ही नहीं गई थी. भरसक दोनों की सेवा करता था. पर कोई भी उस से संतुष्ट नहीं था. तारा के लिए कपङे लाता तो मां का मुंह टेढ़ा हो जाता, ‘‘मेरे लिए भी कफन ले आया होता. बढ़िया, महंगी दवाएं तो लाता नहीं है और…’’
तारा को सदा शिकायत रहती, ‘‘तुम्हारा सारा वेतन मां की दवादारू पर खर्च हो जाता है और मेरे लिए हाथ तंग…’’
पूरन के अपने शौक तो जैसे हिरण हो गए थे. उस का जी करता, वह दोस्तों में बैठे, गपशप करे. जब घर पर कम रहता तो चिकचिक भी कम सुनने को मिलेगी. आखिर कहता भी तो किस से. करता भी तो क्या. फिर कौन दर्द बांटता है.
सालभर में पूरन टूट सा गया. दिनभर दफ्तर में खपता और शेष मां व पत्नी में खप जाता. सासबहू का माध्यम बनेबने तो वह पिसता चला जाएगा. उसे लगा वह अब अधिक नहीं निभा पाएगा.
एक शाम दफ्तर से लौटते समय मोहल्ले के बाहर पार्क का जंगला पकड़ कर वह 2 मिनट के लिए रुक गया. बच्चे खेल रहे थे. किलकारी मार रहे थे. दौड़ रहे थे. सब से अधिक भीड़ झूलों पर थी. तभी उस की दृष्टि ‘सी सा’ पर संतुलन करती 2 छोटी लड़कियों पर पड़ी स्थिर स्तंभ पर लंबा तख्ता लगा हुआ था. एक लङकी एक छोर पर और दूसरी लङकी दूसरे छोर पर बैठी थी. तख्ता किसी पक्षी के पंखों की तरह हवा में लहरा रहा था.
एक लङका पास में खड़ा था. वह कभी एक छोर पर बैठ जाता, कभी दूसरे पर. जिस छोर पर वह बैठता, वह नीचा हो जाता और दूसरा हलका होने के कारण अनायास ऊपर उठ जाता. ऊपर जाती लङकी चीख पड़ती. लङका खुश हो कर ताली बजाता. हंसने लगता. वह कूद पड़ता तो फिर संतुलन हो जाता. वह बारीबारी कभी इधर के, कभी उधर के छोर पर बैठ कर संतुलन बिगाड़ देता. जिधर वह बैठा होता उस छोर की लङकी स्वयं को सुरक्षित महसूस करती. दूसरी लङकी को अकस्मात ऊपर उठ जाने से गिरने का भय रहता.
पूरनचंद विचार में डूब गया. यही स्थिति तो उस की है. मां के पास बैठता है तो पत्नीत्व डोलने लगता है और पत्नी के पास रहने में मातृत्व डगमगाने लगता है. यदि वह हट जाए, किनारा कर जाए तो दोनों संतुलित रह सकती है. उसे लगा कि असंतुलन का कारण यही है.
रातभर वह कुछ सोचता रहा. अगले दिन उस ने 1 माह की छुट्टी ली और मुंबई में एक मित्र के पास जाने का कार्यक्रम बना लिया. घर पर उस ने कह दिया कि उस का मुंबई में तबादला हो गया है. फिलहाल अकेला जाएगा. मुंबई में मकान आसानी से नहीं मिलता. जब मकान की सुविधा हो जाएगी तब मां व पत्नी को भी ले जाएगा.
मां परेशान हो गई. पूरन के बिना कैसे काम चलेगा. कौन उस की सेवा करेगा. बोली, ‘‘बेटा, तबादला रुक क्यों नहीं सकता.’’
‘‘तरक्की पर जा रहा हूं मां, मार्केटिंग मैनेजर हो कर. अवसर छोड़ दिया तो फिर आगे कोई नहीं पूछेगा. सारी जिंदगी ऐनैलिस्ट में सड़ते रहना पड़ेगा.’’
तारा अलग परेशान थी. कैसे रहेगी अकेली. और फिर मां के साथ या मायके चली जाए. पर स्कूल की जौब भी थी. कम पैसे मिलते थे तो क्या समय तो कटता था और घर के खर्च पूरे होते थे. पर लोग क्या कहेंगे. दोस्त रिश्तेदार थूकेंगे. पीछे कहीं मां दुनिया छोड़ गई तो मिट्टी खराब होगी. रात को आंसुओं से पूरन की छाती भिगोते हुए उस ने भी वही बात कही, ‘‘तबादला रुक नहीं सकता क्या?’’
और पूरन ने वही उत्तर दोहरा दिया.
आखिर पूरन चला गया.
अगली सुबह तारा बिस्तर में ही थी कि सास चाय ले कर आ गई. तारा आश्चर्यचकित आंखें मलमल कर देखती रही. मां ही थी. वह हड़बड़ा कर उठ बैठी. सास बोली, ‘‘गरम पानी करने को गैस जलाई थी. सोचा, तेरी चाय भी बना दूं.’’
घंटे भर बाद मां सब्जी की टोकरी उठाती हुई बोली, ‘‘ला तारा, सब्जी ला दूं. तू इतने में स्कूल जाने की तैयारी कर। दोपहर को क्या खाएगी? यहां तो ठेले वाला दोपहर को आएगा, वह भी बासी सब्जी लिए. बेचेगा भी महंगी. मसालावसाला तो कुछ नहीं लाना है? डाक्टर को अपना हाल बता कर दवाई भी लेती आऊंगी.’’
तारा ने खोएखोए 500 का नोट बढ़ा दिया, ‘मां ने तो बेटे का काम संभाल लिया,’ वह बुदबुदाई.
बाजार से लौट कर मां अपने घुटनों पर तेल मलने बैठ गई. तारा ने जब झाड़ूपोंछा किया तो सास का कमरा भी साफ कर दिया. बिस्तर धूप में डाल दिया. पहले यह काम पूरन करता था. तारा को कमरे में जहांतहां पड़े थूकबलगम से उबकाई आती थी. आज पहली बार उसे घृणा नहीं हुई.
1 सप्ताह में सासबहू पर्याप्त निकट आ गईं, अब मां को पूरन का अभाव नहीं अखर रहा था. कोई तो है उस की देखभाल को. तारा को भी सास से अपनत्व होता जा रहा था. सालभर का अलगाव धीरेधीरे पिघलता जा रहा था. तारा ने अपनी खाट सास के कमरे में ही डाल ली. सास तो जैसे निहाल हो गई.
1 माह बाद पूरन लौटा. आंगन में घुसते ही उस का चेहरा खिल गया. तारा बरामदे में बैठी मां के घुटनों पर तेल मल रही थी. दोनों के चेहरे तनावमुक्त थे. दिनभर दोनों में से किसी ने उस से कोई शिकवाशिकायत नहीं की. पूरन की मां से अकेले में भी बातचीत हुई. वह तारा की भूरिभूरि प्रशंसा कर रही थी. कह रही थी, ‘‘खरा सोना है मेरी तारा.’’
रात को तारा से भेंट होने पर पूरन बोला, ‘‘प्लेन में पहाड़ के एक पंडित मिले थे. मां को जानते हैं. कह रहे थे हरिद्वार भेज दो. वृद्धाश्रम है, सस्ता भी है. लंगर में खा लिया करेंगी. बहुत से बुजुर्ग वहां रहते हैं.’’
तारा तेवर चढ़ाती हुई बोली, ‘‘क्या कह रहे हो. मां क्या कोई हम पर भार है. मैं उन्हें कहीं नहीं भेजने दूंगी. जब तक हैं, यहीं रहेंगी.’’
पूरन की आंखों में खुशी के आंसू छलक आए. अगले दिन उस ने घर पर बताया कि मुंबई की जलवायु माफिक न आने के कारण उस ने इलाहाबाद अपने पुराने पद पर ही तबादला करा लिया है. सास और बहू के मुंह से एकसाथ प्रसन्नता से निकला, ‘‘सच.’’
पूरन के जीवन का ‘सी सा’ पूर्ण संतुलित हो गया था.