कहानी: रंग प्यार के
अपनी पत्नी उर्वशी से जिंदगीभर मजबूती से साथ निभाने वाले रमेशजी रिटायरमैंट के बाद उसे जिंदगी के सब सुख देना चाहते थे लेकिन नियति को तो कुछ और ही मंजूर था.
आज रमेशजी के रिटायरमैंट के दिन औफिस में पार्टी थी. इस अवसर पर उन का बेटा वरुण बहू सीता और बेटी रोमी अपने पति के साथ आई हुई थी. सभी खुश थे. उन की पत्नी उर्वशी की खुशी आज देखते ही बनती थी. रमेशजी की फरमाइश पर वह आज ब्यूटीपार्लर से सज कर आई थी. उन्हें देख कर कोई उन की उम्र का अंदाजा भी नहीं लगा सकता था. वह बहुत सुंदर लग रही थी.
विदाई के क्षणों में औफिस के सभी कर्मचारी भावुक हो रहे थे. यहां रमेशजी ने पूरे 30 बरस तक नौकरी की थी. वे हर कर्मचारी के सुखदुख से परिचित थे. यह उन के कुशल व्यवहार का परिणाम था कि वे औफिस के हर कर्मचारी के परिवार के साथ पूरी तरह जुड़े हुए थे. उन्होंने हरेक के सुखदुख में पूरा साथ दिया था. जैसाकि हरेक के साथ होता है, इस अवसर पर सब उन की तारीफ कर रहे थे लेकिन अंतर इतना था कि उन की तारीफ झूठी नहीं थी. कहने वालों की आंखें बता रही थीं कि उन्हें रमेशजी की रिटायरमैंट पर कितना दुख हो रहा है.
हर कोई उन के बारे में कुछ न कुछ अपना अनुभव बांट रहा था. यह देख कर उर्वशी की आंखें फिर नम हो गई थीं. रमेशजी ने उन्हें कभी इतना कुछ नहीं बताया था जितना आज औफिस के कर्मचारी बता रहे थे. उन के साथ काम करने वाली आया फफकफफक कर रो पड़ी, ‘‘बाबूजी, आज लगता है जैसे मेरा यहां कोई नहीं रहा.’’
‘‘ऐसा नहीं कहते शांति. यहां पर इतने लोग हैं.’’
‘‘आप मेरे पिता समान हैं. आप के रहते मुढे लगता था मेरे ऊपर कोई परेशानी नहीं आएगी. आप सब संभाल लेंगे. अब क्या होगा?’’
‘‘तुम ऐसा क्यों सोचती हो?’’ रमेशजी उसे समझाते हुए बोले.
ढेर सारे उपहारों के साथ देर रात तक बच्चों के साथ वे घर लौट आए थे. सभी थके हुए थे. कुछ देर बाद वे सो गए. उर्वशी को भी नींद आ रही थी. उसे सुबह जल्दी उठना था. रोज सुबह 5 बजे उठ कर वह सब से पहले रमेशजी को चाय थमाती और उस के बाद घर के और कामों में लग जाती. आज जैसे ही अलार्म बजा, उर्वशी ने देखा रमेशजी उस के लिए चाय ले कर खड़े थे.
‘‘तुम कब उठे?’’
‘‘अभी थोड़ी देर पहले उठा हूं.’’
‘‘चाय बनाने की क्या जरूरत थी?’’
‘‘यह तुम नहीं समझोगी उर्वशी. मेरे दिल में बड़ी तमन्ना थी रिटायरमैंट के बाद मैं भी तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं.’’
‘‘आज सुबह चाय पिला कर तुम ने मेरा पूरा रूटीन खराब कर दिया.’’
‘‘वह कैसे?’’
‘‘मेरे दिन की शुरुआत तुम्हारे लिए कुछ कर के होती थी.’’
‘‘अब छोड़ो इस बात को और मेरे साथ बैठ कर आराम से चाय का आनंद लो. अभी बच्चे सो रहे हैं. तब तक हमतुम बातें करते हैं.’’
‘‘बातों के लिए सारा दिन पड़ा है.’’
‘‘अच्छा, बताओ चाय कैसी बनी है? मुझे एक ही काम आता है. इस के अलावा तुम ने मुझे कभी कुछ करने नहीं दिया.’’
‘‘तुम्हारे पास इन सब के लिए फुरसत कहां थी? सुबह से ले कर शाम तक परिवार के लिए काम करते रहते थे.’’
‘‘यह सब तुम्हारे सहयोग के कारण ही संभव हो सका उर्वशी, वरना मेरे बस का कुछ नहीं था.’’
‘‘कैसी बातें करते हो? आज तुम्हारी मेहनत की बदौलत दोनों बच्चे अच्छे पदों पर काम कर रहे हैं. यह सब तुम्हारे कारण संभव हुआ है.’’
‘‘उर्वशी मैं ने जीवन में केवल काम पर ध्यान दिया. मेरी कमाई का सही उपयोग तुम ने किया. तुम्हीं ने बच्चों और उन की पढ़ाई पर ध्यान दिया. मुझे कभी इन बातों का एहसास भी नहीं होने दिया.’’
‘‘अब सुबह से मेरी ही तारीफ करते रहोगे या मुझे काम भी करने दोगे?’’
‘‘मेरा बड़ा मन था रिटायरमैंट के बाद तुम्हारे साथ काम में हाथ बंटाऊं.’’
‘‘रहने दो, तुम्हारे साथ काम करने में मुझे घंटों लग जाएंगे. घर पर बच्चे आए हैं. मुझे जल्दी से सारा काम निबटाना है.’’
‘‘जैसी तुम्हारी मरजी,’’ कह कर रमेशजी व्यायाम करने लगे और उर्वशी अपने काम पर लग गई.
उन्होंने सोच लिया था कि वे पत्नी को हर प्रकार का सुख देने का प्रयास करेंगे. नौकरी करते हुए उन्होंने कभी परिवार की जिम्मेदारी नहीं उठाई. वे एक ईमानदार और मेहनती इंसान थे. छुट्टी के एवज में काम करने के उन्हें रुपए मिलते थे इसीलिए उन्होंने कभी बेवजह छुट्टी तक नहीं ली. वे उर्वशी तथा बच्चों को घुमाने भी न ले जाते. उन की आय के साधन इतने नहीं थे कि वे बच्चों और पत्नी को आलीशान जिंदगी दे सकें. यह बात उन्हें बहुत खटकती थी लेकिन मजबूर थे.
इस उम्र में आ कर उन के पास समय और थोड़ेबहुत रुपए भी थे जो उन्हें रिटायरमैंट पर मिले थे. वे इस से उर्वशी की उन इच्छाओं को पूरा करना चाहते थे जिसे वे नौकरी में तवज्जो न दे सके थे. कुछ देर बाद बच्चे सो कर उठ गए. वे अभी तक कल की पार्टी की ही चर्चा कर रहे थे. 2 दिनों बाद वरुण और सीता को जाना था.
वरुण बोला, ‘‘पापा, आप दोनों हमारे साथ चलिए.’’
‘‘कुछ दिन हमें घर पर सुकून से समय गुजारने दो बेटा.’’
‘‘मेरा घर भी आप का ही घर है.’’
‘‘यह बात तो है लेकिन इस घर पर इतने साल गुजारे हैं लेकिन कभी इसे इतना समय नहीं दे सका जितना देना चाहिए था.’’
‘‘आप यह बात दिमाग से निकाल दीजिए. आप ने जो किया वह अपनी क्षमताओं से बढ़ कर किया और हमें इस पद तक पहुंचाया.’’
‘‘इस में मेरा नहीं तुम्हारी मम्मी का योगदान ज्यादा है.’’
‘‘मम्मी आप की अर्धांगिनी हैं. उन्होंने हर सुखदुख में आप का पूरा साथ दिया है.’’
‘‘मैं चाहता हूं अब रिटायरमैंट के बाद उसे पहले कहीं घुमाने ले चलूं.’’
‘‘अच्छा सैकंड हनीमून मनाना चाहते हैं.’’
‘‘आजकल के जमाने में शायद बच्चे इसे यही कहते हैं लेकिन हम ने कभी परिवार के साथ रह कर अपना पहला हनीमून भी नहीं मनाया. घरगृहस्थी में ऐसे फंसे रहे कि इस बारे में सोचने की न तो फुरसत थी और न ही कोई आकांक्षा. तुम्हारी मम्मी ने अपनी ओर से कभी कुछ नहीं मांगा. मैं अब उसे वह सब देना चाहता हूं जिस की वह हकदार थी.’’
‘‘ठीक है पापा, आप जो करना चाहें वह करें और जब फुरसत मिल जाए तब प्लीज हमारे पास चले आना. हम भी मम्मी को कुछ दिन के लिए आराम देना चाहते हैं.’’
2 दिन मम्मीपापा के साथ घर पर बिता कर वरुण और सीता वापस चले गए थे. अगले दिन रोमी भी चली गई. उर्वशी और रमेशजी को घर सूनासूना लग रहा था.
‘‘उदास मत हो, उर्वशी. हम दोनों भी कहीं घूमने चलते हैं.’’
‘‘मुझे तो घर पर ही अच्छा लगता है.’’
‘‘अपना घर तो अपना होता है लेकिन बदलाव के लिए कभीकभी घर से बाहर घूमने भी जाना चाहिए. दुनिया बहुत बड़ी है. उस का अनुभव भी लेना चाहिए.’’
‘‘अब इस उम्र में अनुभव ले कर क्या करेंगे?’’
‘‘सीखने की कोई उम्र थोड़े ही होती है? अपना सामान पैक कर लो. मैं ने घूमने के लिए 2 हवाई टिकट पहले ही बुक करा दी हैं.’’
‘‘मुझ से पूछे बगैर ही?’’
‘‘जानता था तुम इस के लिए राजी नहीं होगी इसलिए पूछने की जरूरत नहीं समझी.’’
‘‘हम कहां जा रहे हैं?’’
‘‘कश्मीर घूमेंगे. कुछ दिन ठंडी वादियों का मजा उठाएंगे. दिल में गुलमर्ग घूमने की बड़ी तमन्ना थी. अब जा कर पूरी होगी.’’
उन के कहने पर उर्वशी ने अपनी तैयारी शुरू कर दी. यह उस की पहली हवाई यात्रा थी. उसे हवाई जहाज में बैठने में डर लग रहा था, यह बात रमेशजी महसूस कर रहे थे.
‘‘डरो नहीं. मैं हूं न तुम्हारे साथ.’’
‘‘इतने रुपए खर्च करने की क्या जरूरत थी?’’
‘‘बस हर समय एक ही बात बोलती हो. अब रुपए बचाने की जरूरत क्या है? अपना घर है. बच्चे अच्छी नौकरी कर रहे हैं. हमारे पास जो कुछ है उसे घूमनेफिरने पर खर्च करेंगे.’’
‘‘मुझे फुजूलखर्ची पसंद नहीं.’’
‘‘ऐसा मत कहो उर्वशी. घूमनाफिरना कभी बेकार नहीं जाता. तुम यहां की सुंदर वादियों में घूम कर अपनेआप को तरोताजा महसूस करोगी.’’
रमेशजी की बात सच थी. उर्वशी के मन में भी कब से कश्मीर देखने की इच्छा थी लेकिन उम्र के इस पड़ाव पर आतेआते वह मुरझा गई थी.
रमेशजी के उत्साह ने उसे हवा दी तो वह फिर से तरोताजा हो गई. हफ्तेभर तक दोनों कश्मीर की वादियों में घूमते रहे. रमेशजी उन की हर इच्छा का सम्मान कर रहे थे. लगता ही नहीं था कि वे 60 बरस के हो गए हैं. वे दोनों अपनेआप को उम्र के इस पड़ाव पर भी युवा महसूस कर रहे थे.
एक हफ्ते बाद वे अपने साथ कश्मीर की ढेर सारी यादें ले कर वापस लौट आए थे. रमेशजी बोले, ‘‘मेरी एक इच्छा तो पूरी हो गई.’’
‘‘और भी कोई इच्छा पूरी करना चाहते हो?’’
‘‘इच्छाओं का क्या है. एक पूरी होती है 10 सिर उठा लेती हैं. मैं तुम्हारे लिए बहुतकुछ करना चाहता हूं, उर्वशी.
‘‘अब हमारेतुम्हारे पास समय ही समय है. जब जी चाहेगा उन्हें पूरा कर लेंगे. काम को कभी टालना नहीं चाहिए. मौका मिलते ही उसे प्राथमिकता दे कर पूरा कर लेना चाहिए,’’ रमेशजी बोले.
अब वे उर्वशी की हर तरह से मदद करने के लिए तत्पर रहते. यह बात उर्वशी भी अच्छी तरह जानती थी. रिटायरमैंट के 2 महीने कब बीत गए पता ही नहीं चला. वरुण बारबार फोन कर के उन्हें अपने पास बुला रहा था और रमेशजी इसे टाले जा रहे थे.
‘‘एक बार वरुण और सीता के पास हो कर आ जाते हैं. उसे भी अच्छा लगेगा. कितना कह रहा है.’’
‘‘तुम जानती हो उस के पास जा कर क्या होगा? वह हमें ड्राइंगरूम में सजे शोपीस की तरह एक जगह पर बैठा देगा और कुछ नहीं करने देगा. मैं ऐसी जिंदगी नहीं जीना चाहता.’’
‘‘आजकल के जमाने में ऐसी औलाद कहां मिलती है जो मम्मी और पापा का इतना खयाल रखे.’’
‘‘जानता हूं फिर भी मैं अपने को उस माहौल में ढाल नहीं पाता. मैं ने इतने बरस बड़े बाबू की नौकरी की है. काम में मेरा दिल लगता है. खाली बैठे समय ही नहीं कटता. यह बात उसे कैसे समझाऊं?’’ रमेशजी बोले तो उर्वशी चुप हो गई.
वह जानती थी वरुण उन का बहुत खयाल रखता है. इसी कारण रमेशजी का समय काटे नहीं कटता था.
‘‘तुम उसे समझा दो. हम कुछ समय बाद आएंगे.’’
‘‘ठीक है, कह दूंगी. एक बार उस की इच्छा का भी मान रख लो.’’
रिटायरमैंट के बाद रमेशजी सही माने में जीवन का मजा ले रहे थे. एक शाम वे शहर के मशहूर लच्छू हलवाई से उर्वशी के लिए समोसे ले कर आ रहे थे. तभी वह घट गया जिस की उन्होंने कल्पना तक नहीं थी. एक तेज मोटरसाइकिल सवार ने उन्हें टक्कर मार दी. वे इस टक्कर से दूर गिर पड़े. उन के दिमाग पर चोट आई थी और मोटरसाइकिल का पहिया पैर पर चढ़ गया था.
एक्सीडैंट की बात सुन कर उर्वशी धक रह गई. उस ने तुरंत वरुण और रोमी को खबर की. दूसरे दिन ही वे घर पहुंच गए. रमेशजी को अभी होश नहीं आया था. उर्वशी का रोरो कर बुरा हाल था. तीसरे दिन रमेशजी को होश आया.
‘‘डाक्टर, पापा बोल क्यों नहीं रहे?’’
‘‘सिर पर चोट के कारण इन के दिमाग में खून का थक्का जम गया है. इस के कारण इन्हें पैरालिसिस अटैक पड़ा है. इसी वजह से ये जबान नहीं चला पा रहे हैं.’’
‘‘यह क्या कह रहे हैं डाक्टर?’’
‘‘वही जो मरीज की हालत बता रही है. इन का बायां हाथ और पैर भी काम नहीं कर रहा है और उसी पैर की हड्डियां भी टूट गईं जिस पर प्लास्टर चढ़ाना है.’’
‘‘ऐसा मत कहिए, डाक्टर. इन्हें चलने में कितने दिन लगेंगे?’’ वरुण ने पूछा.
‘‘अभी कुछ कहना मुश्किल है. कुछ दिन इंतजार कीजिए. उस के बाद ही सही स्थिति सामने आ पाएगी.’’
उर्वशी के लिए एकएक पल बिताना मुश्किल हो रहा था. वरुण और रोमी मम्मी को ढाढ़स बंधा रहे थे.
‘‘हिम्मत रखिए मम्मी, पापा ठीक हो जाएंगे.’’
‘‘कभी सोचा नहीं था कि ऐसी नौबत आएगी.’’
‘‘आप ही टूट जाएंगी तो पापा का क्या होगा?’’ रोमी बोली.
उर्वशी कुछ देर के लिए शांत हो गई लेकिन पति की हालत देख कर उसे रोना आ रहा था. एक हफ्ते बाद भी रमेशजी बोलने की स्थिति में नहीं थे. उन का मुंह थोड़ा तिरछा हो गया था और जबान नहीं चल रही थी. डाक्टर ने पैर पर प्लास्टर चढ़ा दिया था.
होश आने पर उर्वशी को देख कर रमेशजी की आंखों में आंसू बहने लगे. उर्वशी ने झट से उन्हें पोंछ दिया.
‘‘मैं आप की आंखों में आंसू नहीं देख सकती. आप जल्दी ठीक हो जाएंगे. हिम्मत रखिए.’’ रमेशजी ने कुछ बोलना चाहा लेकिन जबान ने साथ नहीं दिया. दाएं हाथ के इशारे से उन्होंने कुछ कहा. उर्वशी ने उन का हाथ अपने हाथों में ले लिया और उन्हें हिम्मत बंधाने लगी. 2 हफ्ते हौस्पिटल में रहने के बाद वे घर आ गए थे. वरुण ने उन के लिए नर्स का इंतजाम कर दिया था. डाक्टर ने पहले ही बता दिया कि उन की स्थिति में सुधार बहुत धीरेधीरे होगा. किसी चमत्कार की उम्मीद मत रखिएगा.
डाक्टर की बात सही थी. एक महीने बाद उन की जबान थोड़ीबहुत चलने लगी और वह हकलाते हुए अपनी बात कहने लगे. पापा की हालत में सुधार देख कर वरुण उन्हें अपने साथ ले जाना चाहता था लेकिन उर्वशी ने मना कर दिया.
‘‘तुम चिंता मत करो, बेटा. यहां पर मैं हूं और हमारे बहुत सारे रिश्तेदार भी हैं. सब से बड़ी बात डाक्टर यहीं पर हैं जो उन्हें देख रहे हैं. कोई ऐसी बात होगी तो मैं तुम्हें इत्तिला कर दूंगी. तुम वापस काम पर जाओ. कब तक यहां रहोगे?’’
‘‘आप अकेले इतना सबकुछ कैसे संभालेंगी मम्मी?’’
‘‘तुम मेरी हिम्मत हो, बेटा. मेरी चिंता मत करना मैं उन्हें देख लूंगी,’’ कहते हुए उर्वशी की आंखें भर आई थीं.
वह जानती थी कि इतनी बड़ी जिम्मेदारी उस ने जीवन में कभी नहीं उठाई. पहली बार किसी तरह हिम्मत जुटा कर उसे करने के लिए तैयार हो गई थी. भारी मन से वरुण काम पर चला गया. रोमी कुछ दिन पहले चली गई थी. अब घर पर रमेशजी और उर्वशी रह गए. डेढ़ महीने बाद पैर से प्लास्टर कट गया था लेकिन वे चलने की स्थिति में नहीं थे. उन के दाहिने हाथों और पैरों ने काम करना बंद कर दिया था.
नर्स उन के सारे काम कर रही थी. रमेशजी उस के साथ अपने को असहज महसूस करते. जीवन में उन्होंने कभी किसी पराई स्त्री को छुआ नहीं था. यह बात उन्होंने उर्वशी को बता दी. उन की भावनाओं का खयाल करते हुए वह नर्स की जगह खुद ही उन के काम करने लगी. शुरू में बड़ी परेशानी हुई लेकिन धीरेधीरे आदत पड़ गई. वह व्हीलचेयर पर बैठा कर उन्हें बाथरूम तक ले जाती. उन्हें नहलाधुला कर बरामदे में बैठा देती. आतेजाते लोगों को देख कर रमेशजी का मन लगा रहता. उन की स्थिति बिलकुल एक छोटे बच्चे की तरह हो गई थी.
दिमाग में चोट आने की वजह से अकसर वे चुप ही रहते. मिलने आने वाले उन्हें अपने तरीके से समझाने की कोशिश करते. यह बात उन्हें बड़ी अखरती थी. वे खुद भी एक पढ़ेलिखे और जिम्मेदार इंसान थे. वे जानते थे कि इस उम्र में उन के लिए ऐसी हालत में क्या उचित है और क्या अनुचित. लेकिन जब शरीर का कोई अंग काम करना बंद कर दे तो वे क्या कर सकते थे. हर एक का नसीहत देना उन्हें चिड़चिड़ा बना रहा था. यह बात उर्वशी भी महसूस कर रही थी लेकिन वह किसी को कुछ कहने से रोक नहीं सकती थी.
एक दिन रमेशजी बोले, ‘‘उर्वशी, लोग मुझ से मिलने क्यों चले आते हैं?’’
‘‘तुम्हारा हालचाल पता करने आते हैं.’’
‘‘मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता. मुझे हुआ क्या है? मैं तुम्हारे अलावा किसी पर बोझ नहीं हूं फिर लोगों को मुझ से इतनी सहानुभूति क्यों है?’’
‘‘सब का बात करने का अपना तरीका होता है. आप उन की बात का बुरा मत माना करो.’’
‘‘एक ही बात सब लोग कहें तो बुरी लगती है. मुझे यह सब पसंद नहीं. तुम उन्हें यहां आने से मना कर दिया करो.’’
‘‘बात समझने की कोशिश कीजिए. हम दुनिया से कट कर नहीं रह सकते,’’ उर्वशी ने अपनी असमर्थता जाहिर की तो रमेशजी को अच्छा नहीं लगा.
ऐसी हालत में उन्हें किसी से सहानुभूति नहीं हिम्मत चाहिए थी.
ऐसी हालत में हरकोई उन्हें सहानुभूति के साथ 2-4 बातें भी सुना रहा था. यह बात वे सहन नहीं कर पा रहे थे. एक झटके में उन के सारे सपने बिखर गए थे. क्या सोचा था और क्या हो गया? ऊपर से दुनियाभर की बातें यह सब उन के लिए असहनीय हो रहा था. उर्वशी भी मजबूर थी. हफ्ते में एक दिन डाक्टर घर आ कर देख जाते. दोपहर में एक नर्सिंग असिस्टैंट आ कर जरूरी काम कर चला जाता. इस के अलावा उन की सारी जरूरतें उर्वशी पूरी कर रही थी.
वह महसूस कर रही थी कि रमेशजी दिनप्रतिदिन चिड़चिड़े होते जा रहे हैं. आज तक उन्होंने किसी से ऊंची आवाज में बात नहीं की थी. अपशब्दों का इस्तेमाल करना तो दूर की बात थी. अब जरा सी भी मन की बात न होती तो वे अपना आपा खो देते और उर्वशी के लिए कुछकुछ बोलने लगते.
एक दिन तो हद ही हो गई. उर्वशी किचन में काम कर रही थी.
रमेशजी ने उन्हें आवाज लगाई. शायद वह सुन न सकी. कुछ देर बाद जब वह उन के पास आई तो उन्होंने सामने मेज पर रखा हुआ खाली गिलास उठा कर उस पर दे मारा. संयोग था कि उर्वशी ने हाथ से गिलास रोक दिया वरना उस से उसे चोट लग सकती थी.
‘‘यह क्या कर रहे हो?’’
‘‘कब से आवाज दे रहा हूं तुझे सुनाई नहीं देता. अब तुम्हारे लिए भी मैं एक बेकार की चीज हो गया?’’
‘‘कैसी बातें करते हो? मैं किचन में खाना बना रही थी. कुकर की सीटी में मुझे आप की आवाज नहीं सुनाई दी.’’
‘‘मैं तुम जैसी औरतों से तंग आ गया हूं. मैं तुम्हारा चेहरा भी नहीं देखना चाहता. तुम मुझे छोड़ कर चली क्यों नहीं जातीं’’
उन की कर्कश बात सुन कर उर्वशी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ. उसे बहुत बुरा लगा फिर भी उन की तबीयत को ध्यान में रख कर उस ने इसे दिमाग से निकाल दिया और उन की खिदमत में लगी रही. उर्वशी का ठंडा व्यवहार रमेशजी को रास नहीं आया. उस दिन से वे हर समय उसे उकसाने की बात करते रहते. उर्वशी भी पता नहीं किस मिट्टी की बनी थी जो उन की बातों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखा रही थी.
एक हफ्ते बाद डाक्टर गुप्ता से उर्वशी ने उन के बदले हुए व्यवहार की चर्चा की. वे बोले, ‘‘जैसा कि इन की रिपोर्ट बता रही है. इन की तबीयत में पहले से कोई गिरावट नहीं आई है.’’
‘‘फिर यह ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हैं?’’
‘‘यह बात मेरी समझ से परे है. दिमाग की सूजन भी धीरेधीरे कम हो रही है.’’
‘‘पता नहीं यह हर समय गुस्से में क्यों रहते हैं? मुझे अपने नजदीक बिलकुल सह नहीं पाते. ऐसीऐसी बात कहते हैं कि कई बार झेलना मुश्किल हो जाता है. वे मेरे पति हैं इसीलिए मैं उन्हें अनसुना करने की कोशिश करती हूं लेकिन मैं भी इंसान हूं. दिल पर उन की बातों का बहुत समय तक असर रहता है.’’
‘‘आप चिंता मत करें. मैं 2-3 दिनों में किसी मनोचिकित्सक को अपने साथ ले कर आऊंगा. वहीं उन से बातोंबातों में जानने की कोशिश करेंगे आखिर इन्हें हुआ क्या है? घर में कोई ऐसीवैसी बात तो नहीं हुई जिस से उन का अहम आहत हो गया हो?’’
‘‘नहीं डाक्टर, यहां हम दोनों के अलावा कोई है भी नहीं. कभीकभी मिलने के लिए रिश्तेदार आ जाते हैं. इन्हें उन से भी बात करना पसंद नहीं आता.’’
‘‘रमेशजी के साथ जबरदस्ती न किया करें.’’
‘‘मिलने आने वालों को मैं नहीं रोक सकती लेकिन इन से दूर बैठाने की कोशिश जरूर करूंगी. इन के बदले व्यवहार से मैं बहुत आहत हो जाती हूं. प्लीज, कुछ कीजिए.’’
2 दिन बाद डाक्टर गुप्ता अपने साथ मनोचिकित्सक विपिन को ले कर आ गए थे. उन्हें देख कर रमेशजी ने पूछा, ‘‘यह कौन है?’’
‘‘मरीजों को देखने मेरे साथ कभीकभी विपिनजी भी चले आते हैं. मैं उन का दवाई से इलाज करता हूं और यह बातों से. यह भी हमारे इलाज का एक हिस्सा है.’’ यह सुन कर रमेशजी ने उन के लिए हाथ जोड़ दिए.
‘‘आप कैसे हैं?’’
‘‘एक अपाहिज आदमी कैसा हो सकता है?’’
‘‘मानता हूं तकलीफ आप के शरीर पर है. उसे मन पर मत लगने दीजिए. मन स्वस्थ हो तो शरीर भी स्वस्थ होने लगता है.’’
‘‘मेरी हालत अब मेरे जाने के बाद ही सुधरेगी.’’
‘‘आप अपनी सोच बदलने की कोशिश कीजिए रमेशजी.’’
‘‘यह कहना जितना आसान है करना उतना ही मुश्किल होता है,’’ रमेशजी बोले.
डाक्टर विपिन ने उन्हें अपनी बातों में उलझा दिया था. तभी वहां उर्वशी पानी ले कर आ गई. रमेशजी के चेहरे के भाव देख कर उन्हें समझते देर न लगी कि वे पत्नी को ले कर परेशान हैं.
‘‘लगता है, घर वाले आप पर ध्यान नहीं दे रहे.’’
‘‘ऐसी बात नहीं है, उर्वशी मेरा जरूरत से ज्यादा खयाल रखती है. यही बात मैं पचा नहीं पा रहा हूं. इस औरत ने जीवनभर मेरे लिए इतना कुछ किया. अब जब मेरे करने का वक्त आया तो मेरी ऐसी हालत हो गई. मुझ से यह सब सहन नहीं होता.’’
‘‘क्या वे आप को ले कर परेशान रहती हैं?’’
‘‘कुदरत का धन्यवाद कि मुझे उर्वशी जैसी पत्नी मिली है. उस ने मेरी हालत को अपना भाग्य समझ कर स्वीकार कर लिया है. जरा सोचिए, पति के रूप में उसे इस ढलती उम्र में क्या मिला? मैं अब उसे जीवन का कोई सुख नहीं दे सकता.’’
‘‘क्या वे आप से कुछ खास अपेक्षा रखती हैं?’’
‘‘वह आज भी मेरे लिए पूरी तरह समर्पित है. यही सोच कर मैं परेशान हूं. मेरे जीवन का अंत हो जाता तो कम से कम उर्वशी को कष्टों से मुक्ति
मिल जाती.’’
‘‘ऐसा नहीं सोचते. कभी उस की नजरों से देखने की कोशिश कीजिए कि उन के लिए आप क्या हैं? उन्होंने आप से दिलोजान से प्रेम किया है. आप का भी फर्ज बनता है उस के प्यार का मान रखें.’’
‘‘प्यार एकतरफा हो तो उस से क्या हासिल हो जाएगा? मैं ने उस के मन में बहुत सारी उम्मीदें जगाई थीं. मुझे क्या पता था मेरी ऐसी हालत हो जाएगी. अब मैं उन्हें पूरा नहीं कर सकता. यह सोच कर मुझे बहुत कष्ट होता है. मैं चाहता हूं कि वह मुझे छोड़ कर चली जाए. तब उस के सारे कष्ट खत्म हो जाएंगे. मेरा क्या है? मैं ऐसी हालत में किसी अस्पताल के कोने में भी पड़ा रह सकता हूं.’’
‘‘यह आप की सोच है उस की नहीं.’’
दरवाजे पर खड़ी उर्वशी सबकुछ सुन रही थी. उस के लिए भी अपने को रोकना मुश्किल हो रहा था. किसी तरह मुंह में रूमाल ठूंस कर उस ने अपनी हिचकियां रोकीं. वह समझ गई रमेशजी उस से क्या चाहते हैं? ऐसी हालत में भी उन्हें अपने से ज्यादा पत्नी की चिंता खाए जा रही थी.
डाक्टर के समझाने का रमेशजी पर अच्छा असर पड़ा था. कुछ देर बाद डा. गुप्ता विपिन को साथ ले कर चले गए.
उन के जाते ही उर्वशी उन के लिए पानी ले कर आ गई. डाक्टर के साथ बात कर के उन का गला सूख गया था. उस ने हौले से पानी का गिलास उठा कर उन के मुंह से लगाया तो रमेशजी अपनेआप को न रोक सके. उन्होंने उर्वशी का हाथ पकड़ लिया और फूटफूट कर रोने लगे. उर्वशी भी उन के गले लग कर रो पड़ी. कुछ देर बाद अपने को संयत कर रमेशजी बोले, ‘‘मुझे माफ कर दो उर्वशी, मैं स्वार्थी हो गया था.’’
‘‘माफी तो मुझे मांगनी चाहिए जो आप की भावनाओं को समझ न सकी.’’
‘‘तुम्हें मेरे कारण इस उम्र में कितनी परेशानियां उठानी पड़ रही हैं.’’
‘‘ऐसा नहीं कहते. तुम्हारे अलावा मैं कुछ और सोच भी नहीं सकती. आइंदा कभी दूर जाने की बात मत कहना,’’ उर्वशी बोली तो रमेशजी ने उस का हाथ कस कर पकड़ लिया और बोले, ‘‘तुम ही मेरी दुनिया हो. मुझ से दूर मत जाना उर्वशी वरना मैं जी नहीं पाऊंगा.’’
उर्वशी ने बड़े प्यार से उन के माथे पर हाथ फेरा. एक बच्चे की तरह रमेशजी ने उस का हाथ पकड़ कर चूम लिया. रमेशजी को लगा जैसे उर्वशी के रूप में उन की दिवंगत मां उसे सहला रही हैं. उम्र के इस पड़ाव पर स्त्री के अनेक रूप में से उन्हें उर्वशी का वात्सल्य रूप स्पष्ट नजर आ रहा था.