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कहानी: मखमल का पैबंद

राजा बिन सिंहासन अधूरा होता है तो एक अध्यापक बिन पढ़नेलिखने वाली एक कुरसीमेज के. उस का तो अब यही सिंहासन है. रजत ने कहा कि क्या ठाठ थे इस के तुम्हारे घर में.
“अरेअरेअरे, संभाल कर लाना, दरवाजा थोड़ा छोटा है,”  चारु ने एक एंटीक भारीभरकम मेज-कुरसी उठा कर कमरे में लाते हुए 3 लेबरों से कहा. कमरा बहुत बड़ा नहीं था. एक साधारण सा नवदंपति का कमरा जैसा होता है ठीक वैसा ही था. एक तरफ पलंग पड़ा था, एक तरफ एक छोटी सी श्रृंगार मेज रखी थी. दूसरी ओर पुराने चलन की कपड़े रखने वाली लोहे की अलमारी खड़ी थी. एक किनारे खिड़की के पास ही थोड़ी जगह शेष थी. चारु ने उसी स्थान की ओर उंगली से इशारा करते हुए कहा, “बसबस, वहीं रख दो इसे, संभाल कर.”  लेबरों ने मेजकुरसी चारु की बताई जगह पर रख दी. चारु ने उन्हें उन का मेहनताना दिया. फिर वे वहां से चले गए.

चारु कमरे में अकेले रह गई. उस ने एक ठंडी सांस ले कर उस कुरसीमेज पर दृष्टि डाली, फिर अपने कमरे को देखा. कैसे बेमेल लग रहे हैं दोनों. एक बिलकुल निम्न मध्यवर्गीय कमरे में एक राजसी कुरसीमेज का जोड़ा. दोनों में कोई साम्य ही नहीं था. कमरे का हर सामान जैसे उस के आगे अपने को हीन अनुभव करने लगा हो.

चारु उठ कर उस कुरसीमेज के पास पहुंची. उस ने कुरसी की नक्काशी पर बड़े प्रेम से हाथ फिराया. बहुत ही बारीक और कलात्मक नक्काशी की गई थी. उस के उभरे हुए एकएक बेलबूटे का उतारचढ़ाव उसे याद है. न मालूम कितनी बार अपनी कला की पुस्तिका में उस ने इसी की आकृति उकेरी थी और सदा अच्छे अंक पाए थे. मेज की लकड़ी की चमक उस की मज़बूती और स्वास्थ्य का पता दे रही थी.

चारु ने मन ही मन अनुमान लगाया-  कम से कम सौ साल पुरानी कुरसी होगी यह.  गहरे कत्थई रंग की मजबूत शीशम की लकड़ी की बनी ये कुरसीमेज उस की दादीमां की निशानी है. बचपन से ही उसे इसी कुरसीमेज पर बैठ कर पढ़ना पसंद था. अपनी दादी को इस कुरसी से हटा कर वह खुद बैठ जाती थी. तब दादी बगल के सोफे पर बैठ कर उस के लिए स्वेटर बुना करती थीं. जब वह बहुत छोटी थी, तब इसी पर सिर टिकाएटिकाए सो भी जाती थी. उस की दादी हंस कर कहती थीं, ‘तेरे दहेज में यही कुरसीमेज बांध दूंगी तुझे.’  और देखो हंसी में कही गई बात वास्तव में सच हो गई.

चार भाईबहनों में अकेले उसे ही यह कुरसीमेज मिली, वह भी इसीलिए क्योंकि उस का दादी से और इस कुरसीमेज से अत्यधिक लगाव था. बाकी सारे भाईबहनों को पिता की संपत्ति में हिस्सा मिला. पर उसे? उसे तो धिक्कार के साथ, बस, ये कुरसीमेज भिजवा दी गई थी.

बस, अब मायके से मिले स्त्रीधन के नाम पर यही शीशम की कुरसीमेज उस की अभिभावक थी. न मां का आंचल मिलना था अब और न ही पिता की गोद. बस, सारे सुखदुख उसे इसी कुरसीमेज पर बैठ कर काटने थे.

चारु अचानक जैसे खुद को बहुत शक्तिहीन अनुभव करने लगी. उस के पैरों से जैसे किसी ने सारा बल खींच लिया हो. वह खड़ी न रह सकी, धम्म से उसी कुरसी पर बैठ गई और मेज पर उस ने अपना सिर टिका लिया. एक क्षण के लिए उसे लगा जैसे उस ने वास्तव में किसी अभिभावक की गोद में सिर रख कर आत्मसमर्पण कर दिया हो.

कितना मुश्किल था पिता का घर छोड़ना. पिता भी पिता से अधिक ठाकुर रघुवीर प्रताप सिंह थे, जिन की आनबानशान ही उन के लिए सबकुछ थी. पिता के कहे अंतिम शब्द आज भी उस के कानों में गूंजते हैं- ‘अपनी मरजी से शादी कर रही हो उस दूसरी जाति के लड़के से जो कभी हमारे यहां 20 हज़ार रुपये माह पर नौकरी करता था. पलट कर इस घर में वापस पांव मत रखना अब. हमारे लिए आज से तुम मर गईं.

कहां राजसी धनी ठाकुर परिवार में पलीबढ़ी चारु और कहां यह निम्न मध्यवर्गीय परिवार. रजत के प्रेम में पड़ कर उस ने विवाह कर के कहीं गलत निर्णय तो नहीं ले लिया? निभा तो पाएगी न? कहीं वह इस परिवार में ऐसे ही बेमेल न लगे जैसे ये राजसी मेजकुरसी इस कमरे में कहीं खप ही नहीं पा रहीं.

अभी थोड़े ही दिन हुए हैं उस के विवाह को, पर उसे इस परिवार में खुद का असंगत लगना शुरू हो चुका था. दरवाजे पर गृहप्रवेश के लिए आरती उतारती सास अपनी बहू के रूप पर रीझ कर बलैया लिए जा रही थीं. वहीं आसपड़ोस की सब पड़ोसिनें और बच्चे उसे कुतूहल से देखे जा रहे थे. अंत में पड़ोस वाली रामा चाची, जो एक हाथ से आंचल मुंह में दबाए आश्चर्य से उस का मुख ताके जा रही थीं, बोल ही पड़ीं, ‘बहू तो परी जैसी ले आए हो लल्ला. पर अब इस के लिए परीमहल खड़ा करना पड़ेगा. तुम्हारी खाट के खटमल देख लेना, इस का अधिक खून न पिएं.’

उन का इतना कहना था कि पास पड़ोस में एक ठहाका गूंज उठा.

‘चलचल रामा, ज़्यादा खींसे न निपोर. अधिक चिंता है तो एक पलंग तू ही उपहार में दे दे. अब बहू अगर परी है तो अपनी जादू की छड़ी भी लाई होगी. ख़ुद ही बना लेगी अपना परीस्तान’, उस की सास ने बात को बनाया और उसे अंदर पैर धरने को कहा. पैर अंदर धरा तो उस ने पाया एक तरफ फर्श का सीमेंट उखड़ा हुआ है. उस का गोरा, चिकना, सुंदर पैर काले, उखड़े, टूटेफूटे फर्श पर रखते ही मैला हो गया. अपने घर में कभी उस ने संगमरमर के अतिरिक्त कोई

अन्य प्रकार का फर्श देखा ही न था. इस के बाद नित नए अनुभव उस के सामने आते गए. हलकी स्टील के सस्ते, कहींकहीं से दबेपिचके बरतनों में खाना खाने से उसे अच्छे से अच्छे भोजन में भी तृप्ति न मिलती थी. खानेपीने की चीज़ों में भी वह क्वालिटी नहीं थी. सुबह चाय के साथ पड़ोस के हलवाई से मंगवाई हुई सस्ती सी दालमोठ और बिस्कुट आ जाते थे, जो उस के गले से नीचे न उतरते थे. बाथरूम सब का एक ही था. वहां एक सस्ता सा साबुन नहाने के लिए रखा रहता था. अपने घर में तो वह विदेशी ब्रैंड के साबुन से नहाती थी.

पर अब जो होना था हो चुका. अब एक नए जीवन की शुरुआत है. उस घर के दरवाजे तो उस के लिए सदा के लिए बंद हो ही चुके हैं. कुछ रास्तों पर बढ़ने के बाद ही पता चलता है कि वे मात्र जाने के लिए बने थे, लौट कर आने के लिए उन में कोई संभावना नहीं होती. जब वह रजत का हाथ थाम कर अपने मायके की गलियां छोड़ आई थी, तब उस ने यह नहीं सोचा था कि वो गलियां अब सदा के लिए पराई हो जाएंगी. अब तो रजत के प्रेम के साथ उसे अपने इसी

छोटे से घर को सजाना है, संवारना है. ससुराल की आर्थिक तंगी में ही उसे संतोष व सुख के धन को जोड़जोड़ कर रखना है. यह उस के पिया का घर है. और वह रानी है इसी घर की.

चारु की आंखों में आंसू झिलमिला उठे. मांपिता, भाईभाभी, बहन सब के चेहरे उस के मन में बारीबारी से झलक रहे थे. क्या अपनी मरजी से विवाह करना इतना बड़ा पाप था कि बस इसी कारण से पिता का स्नेह सिमट कर शून्य हो गया है? मां की आंखों के लाललाल डोरे उसे बरबस याद आने लगे. जब अंतिम घड़ी आ गई थी और वह हवेली के फाटक पर खड़ी अपना सूटकेस लिए, जाने के लिए पैर बढ़ाने वाली थी. पिता ने तो अंतिम बार पैर छूने का मौका तक नहीं दिया. जैसे ही वह और रजत पैर छूने चले उन्होंने पैर पीछे हटा लिए. पर मां…? मां की आंखों से तो अश्रुओं का बांध टूट गया था. रोती हुई मां का विदा में उठा हाथ कितनी देर तक हिलता रहा था, उस ने मोटरसाइकिल के पीछे बैठे बैठे तब तक देखा था जब तक वह दृश्य उस की आंखों से ओझल नहीं हो गया था. पर अब जो डोर टूट चुकी तो टूट गई.

बाहर अंधेरा घिर आया था. चारु अभी भी मेज पर सिर टिकाए थी. अतीत में विचरतेविचरते आप कितने पीछे समय में चले जाते हो, कुछ पता नहीं चलता. चारु की आंखों के नीचे काजल की लकीरें फैल गई थीं. मन का सारा अंधकार जैसे उस की आंखों के नीचे ही जम गया हो. आधे घंटे तक मानो वह एक अंधेरे थिएटर में बैठी रही थी जहां उस का मन एक कुशल निर्देशक की तरह उसे उस के अतीत का चलचित्र दिखाए जा रहा था.

फिर चारु ने मन ही मन कुछ निर्णय किया. उस ने उठ कर कमरे की बत्ती जलाई. पूरे कमरे में प्रकाश जगमगा गया. एक बार फिर वही छोटा कमरा और उस से तनिक भी मेल न खाती हुई कुरसीमेज का जोड़ा मुंह चिढ़ाते हुए दृष्टि के सामने आ कर जम गया,  अब क्या करोगी, चारु?

चारु ने अपने आंसू पोंछ डाले. रजत के आने का समय हो रहा था. सामने रखी कपड़ों की अलमारी को चारु ने खोला. सब से ऊपर के खाने में वह चादर, तकिया के गिलाफ़ रखा करती थी. वहीं से उस ने कुछ पुरानी और थोड़ा कम प्रयोग में आने वाली 2 चादरें निकालीं. एक उस ने कुरसी पर डाल दी और दूसरी को उस ने फैला कर मेज को ढक दिया.

कुरसीमेज के शीशम की ठसक, उस की राजसी चमक, उस का नक्काशीदार अभिमानी सौंदर्य, उस का श्रेष्ठता का भाव, उस का मूल्यवान होने का दर्प सबकुछ उन चादरों के आवरण के नीचे ढक चुका था. अब कुरसीमेज उस के मध्यवर्गीय कमरे से पूरी तरह मेल खा रही थी. अब कोई नहीं कह सकता था कि यह टाट की पट्टी में लाल मखमल का पैबंद है.

तभी रजत लौट आया था. चारु कुरसीमेज की ओर ही मुंह किए खड़ी थी. अभी भी उसी ओर ताक रही थी. कमरे में घुसते ही रजत की सब से पहली दृष्टि किनारे रखी कुरसीमेज पर ठहर गई, फिर उस ने चारु को लक्ष्य कर के कहा, “अरे वाह, लैक्चरर साहिबा, आप ने अपने पढ़नेलिखने के लिए कुरसीमेज का इंतज़ाम भी कर लिया?” यह उस ने चहकते हुए कहा. उसे पता था, चारु बिना कुरसीमेज के कुछ पढ़लिख ही नहीं पाती है. वह कुरसीमेज लाने का मन बना ही रहा था.

उस ने सोचा था कि किसी दिन वह चारु को अचानक से उपहार दे कर अचंभित कर देगा. पर यहां तो चारु ने उसे ही सरप्राइज़ दे दिया. रजत चारु के बिलकुल निकट आ कर खड़ा हो गया और कुरसीमेज को चारु के साथ ही खड़े हो कर देखने लगा.

चारू ने उधर से अपनी दृष्टि उठाई और रजत की आंखों में देखा, फिर बोली, “हां जी पति महोदय, जैसे राजा बिन सिंहासन अधूरा होता है न, वैसे ही एक अध्यापक बिन पढ़नेलिखने वाली एक कुरसीमेज के अधूरा होता है. यही आज से मेरा सिंहासन है.”

“अच्छा जी, मतलब आप नाइट लैंप जला कर यहां देररात पढ़ा करेंगी और मैं वहां पलंग पर करवटें बदलबदल कर आप की प्रतीक्षा करूंगा?” रजत ने अपना बैग एक कोने में फेंका और शरारत के साथ चारु को अपनी बांहों में ले लिया.चारु मुसकराई, “ये सब तो पहले सोचना था न. अब रिसर्च का काम होता ही इतना जटिल है, मैं क्या करूं?

हूं, जानता हूं भई. और इस पर यह चादर क्यों डाल रखी है? हटाओ, ज़रा देखूं तो इस की क्वालिटी.” और रजत ने चादर हटाने के लिए हाथ बढ़ाया. पर चारु ने उस का हाथ रोक लिया.

“क्या हुआ?”  रजत ने पूछा.

“आप को बताया था न, दादी की एक कुरसीमेज थी, जो मुझे बहुत प्रिय थी,” चारु ने कहा.

“हां, जानता हूं. बहुत बार देखा है उसे मैं ने तुम्हारे घर पर. यह भी देखा था कि तुम उस पर बैठी पढ़ती रहती थीं मोटीमोटी किताबें.”  रजत के स्वर में अभी भी विनोद झलक रहा था.

“पिताजी ने भिजवाई है.”  चारु के स्वर में विषाद का भाव उतर आया था.

“ओह, रजत को जैसे ही बात समझ में आई वह गंभीर हो गया, फिर बोला, “तो इस पर चादर क्यों डाल दी? यह तो ऐसे ही बड़ी सुंदर दिखती थी. क्या ठाठ थे इस के तुम्हारे घर में. हटा दो न, चादर.”

“नहीं, इसे ऐसे ही रहने दीजिए,” चारु भावुक हो कर रजत के गले लग गई, “मुझे अब आप के साथ ही अपने जीवन को सुंदर बनाना है. मैं अपने अतीत पर चादर डाल आई हूं.” -ट्विंकल सिंह
 
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