कहानी: पतरसुटकी
कभीकभी इंसान की शराफत ही उसे मार देती है. बेचारे सक्सेनाजी इंसानियत के नाते ही तो कूड़ा बीनने वाली की मदद कर रहे थे लेकिन महल्ले वाले शरीफ इंसान को जीने कहां देते हैं.
6 फुट 2 इंच का कद, ऊंचा माथा, सांवला रंग, इतालवी मुखकृति, तिरछी मुसकराहट, नए स्टाइल का चश्मा, कनपुरिया टशन और बातों में विनोदभाव आदि सबकुछ तो है सक्सेनाजी के पास जो महिलाओं को उन से निकटता बढ़ाने को मजबूर कर देता है. उम्र भले ही 50 वर्ष के करीब हो पर कदकाठी से अभी 10 साल कम ही लगते हैं और चेहरा भले ही हिंदी फिल्मों के नायक जैसा न हो पर उस में बसी सचाई सब को यह बता देती है कि सक्सेनाजी किसी का बुरा नहीं चाहते हैं.
आजकल सक्सेनाजी नौकरी में स्थानांतरण के चलते धामपुर में रहने लगे हैं. भई, धामपुर ठहरा एक छोटा सा कसबा और जैसा कि छोटे कसबों में होता है, यहां की जिंदगी भी बड़ी सरल है. जल्दी सुबह लोगों का जग जाना, पुरुषों का अपनी आजीविका में जुट जाना, शाम सूरज की तपिश कम होते ही महल्ले की महिलाओं का अपनी छत पर आ कर पड़ोसिनों से खाने में क्या बनाया के साथसाथ पूरे महल्ले की खबरें चटकारों के साथ साथ करना और आखिरकार रात के 9 बजते ही सड़क पर सन्नाटा हो जाना, बस यही जिंदगी है धामपुर की.
सक्सेनाजी तो बोरियत में समय काट रहे थे, वह तो भला हो धर्मपत्नीजी का जो साथ रहने और गृहस्थी सैट करने धामपुर आ गईं. तब जा कर धर्मपत्नी के माध्यम से सक्सेनाजी को पता चला कि सामने के मकान वाली घर में बिना काम के बोर होती रहती हैं और पीछे वाले घर की जो 2 चचेरी नवयौवना बहनें हैं, एकदम बिलरिया माफिक हैं और जब तक सड़क के चार चक्कर न मार लें, उन का खाना नहीं पचता है और मिसेज वर्मा थोड़ी सी दिलफेंक हैं वगैरहवगैरह. मकान मालकिन ने आते ही घर में लगे आम के पेड़ से एक डलिया आम दिए और साथसाथ यह भी बता दिया कि सामने किराने की दुकान वाली का पंडित से और बगल में ढेर सारे कुत्ते पालने वाली शुक्लाइन का अपने किराएदार से चक्कर चल रहा है. सक्सेनाजी तो भौचक रह गए कि कैसे इतना छोटा कसबा इतना जीवंत हो सकता है और फिर चेहरे पर उन के एक मुसकान तैर गई.
अब वैवाहिक जीवन के इतने वर्षों बाद उन्हें यह समझ आ पाया कि आप ने भले ही देशदुनिया की तमाम खबरें याद कर के प्रतियोगी परीक्षाएं पास कर ली हों पर ये धर्मपत्नियां ही हैं जो महल्ले की सूचनाओं से पुरुषों को अपडेट रख सकती हैं. सक्सेनाजी को मुसकराते हुए देख धर्मपत्नीजी ने अपनी बड़ीबड़ी गोल आंखों को नचा कर नसीहत दी कि, ‘‘अपने काम से काम रखना और महल्ले की लड़कियों व भाभियों से दूर ही रहना वरना तिल का ताड़ बनते यहां देर नहीं लगेगी. वैसे भी, मिसेज वर्मा आप को बड़े स्टाइल से देखती हैं और मुझ ही से कह रही थीं कि अच्छा हुआ आप आ गईं वरना भाईसाहब को तो बहुत बोरियत होती होगी जैसे बोरियत मिटाने को वे ही उत्सुक हों.’’
धर्मपत्नी के आने से अब सक्सेनाजी की जिंदगी भी आसान हो गई. होटलों के खाने से मुक्ति मिल कर घर का भोजन मिलने लगा उन्हें और शाम को पत्नी से अपने पैर दबवातेदबवाते, टैलीविजन देखते हुए सोने का सुख. धामपुर जैसे छोटे कसबे में इस से बढ़ कर जिंदगी और कितनी आसान हो सकती थी कि सुबह उठने के बाद बालकनी में बैठ अपने जीवनसाथी के साथ कड़क चाय की चुस्कियां लेने का समय मिल जाए.
बालकनी के सामने सड़क पार गन्ना समिति का कार्यालय है जो पेड़पौधों से भरपूर होने की वजह से आंखों को प्रकृति का महत्त्व समझते हुए एक अलग ही सुकून देता है. एक मिनी जंगल ही कह लीजिए, इतने पेड़ हैं यहां और इन पेड़ों पर पक्षियों की चहचहाहट, कोयल की कूक, तितलियों की मटरगश्ती, चील के एक परिवार की गुंडागर्दी करती आवाजें सबकुछ तो था यहां जो प्रकृति से आप को जोड़ कर रख सकता है.
अजी साहब, कानपुर में तो यह सब देखने के लिए टिकट ले कर चिडि़याघर ही जाना पड़ जाता पर प्रकृति से इतना जुड़ाव महसूस तब भी नहीं हो पाता. उस के ऊपर सुबह की चाय के समय बालकनी में बैठ कर महल्ले वालों से नमस्कार भी हो जाता है. कुछ लोग तो सुबह के रैगुलर ही हैं जैसे सामने वाली मोना की मम्मी, परचून वाले ताऊ, दूध वाला बनवारी और कूड़ा बिनने वाली एक हड्डी की मैलाकुचैला कपड़ा पहने एक अनाम किशोरी जिस को सक्सेनाजी की धर्मपत्नी ने पतरसुटकी नाम दिया है. कानपुर में रह कर तो रविवार को बालकनी में साथ बैठ चाय ही पी लें, यह भी कम ही संभव हो पाता था.
बहरहाल सक्सेनाजी की गृहस्थी सज गई और धर्मपत्नी का धामपुर प्रवास समाप्त होने का समय आ गया. सरकारी विद्यालय में धर्मपत्नीजी प्रधानाचार्या हैं, अवकाश खत्म हो गया तो विरह की बेला भी आ गई. ट्रेन में बैठ कर धर्मपत्नीजी की आंखों की कोर गीली हो चली थीं, सक्सेनाजी का भी गला रूंधा था और वे ट्रेन की चाल के साथ यथासंभव पदचाल कर, रेंगती ट्रेन में बैठी पत्नी को जाता हुआ देख विदा कर घर वापस पहुंच गए. घर में अब फिर से एक बार सन्नाटा पसर चुका है और पायलों की रुनझुन गायब है. शादी के बाद से यह पहला मौका है जब अपनी धर्मपत्नी से सक्सेनाजी को दूर रहना पड़ रहा है तो जनाब दुख तो बनता है. एक बार फिर से शाम अकेली और सुबह आलसी हो चली है.
हां, सुबह बालकनी में बैठ कर चाय की चुस्कियां लेते हुए नाश्ता करने की ऐसी आदत पड़ी है कि यही एक काम ऐसा बचा है जिस को सक्सेनाजी अभी भी तत्परता से करते हैं. भला हो व्हाट्सऐप का कि चाय के साथ वीडियोकौल चल रही होती है और दूसरी तरफ धर्मपत्नीजी फोन पर मुसकराते हुए गुडमौर्निंग कर लेती हैं. अंडे उबालते हैं सक्सेनाजी नाश्ते में ब्रैड के साथ खाने के लिए तो धर्मपत्नीजी हर बार याद दिलाती हैं कि अंडे की सिर्फ सफेदी खानी है, बीच का पीला हिस्सा नहीं वरना कोलैस्ट्रौल की शिकायत जो थोड़ीथोड़ी शुरू हो चुकी है, घर जमा लेगी शरीर में.
सक्सेनाजी स्वयं भी स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हैं, सो अंडे में से पीला हिस्सा निकाल कर प्रोटीन वाला सफेद हिस्सा ही नमक व पिसी कालीमिर्च डाल कर खाते हैं और साथ में नीचे गली से गुजरने वाले लोगों से नमस्कार भी होता रहता है. गली के कुत्ते शुक्र मनाते हैं मुए कोलैस्ट्रौल का कि अब उन को रोज ही अंडे का पीला हिस्सा मिलता है खाने को और वह भी उबला हुआ.
वहीं, कूड़ा बीनने वाली किशोरी पतरसुटकी अपनी दुर्बल काया पर कूड़े की एक बड़ी सी गठरी लिए कूड़ा बीनती है और रोज की तरह कूड़ा बीनने के बाद ताऊ की दुकान से 5 रुपए वाला एक बन खरीद कमर में खोंस लेती है. फिर फुटपाथ पर गठरी रख सुस्ताते हुए बन खा कर सड़क के हैंडपंप से पानी पीती और अपनी राह चल देती. पता नहीं गली के कुत्तों को इन कूड़ा बीनने वालियों से क्या दुश्मनी होती है कि उन को देखते ही ये ऐसे भूंकने लगते हैं जैसे पिछले सात जन्मों की दुश्मनी हो. एकबारगी अपने जानी दुश्मन बिल्लियों को ये माफ कर दें पर बंदरों और कूड़ा बीनने वालों को तो गली के बाहर पहुंचा कर ही ये दम लेते हैं. इसलिए जब तक ये कुत्ते अंडे का पीला हिस्सा खाने के लालच में मुंह उठा कर सक्सेनाजी को घूरते रहने में व्यस्त रहते हैं, कूड़ा बीनने वाली पतरसुटकी शांति से गली पार कर लेती है. बस, अब यही रूटीन बचा है सक्सेनाजी की सुबह का.
आज लेकिन एक अचंभे वाली बात हो गई, बालकनी पर सक्सेनाजी अंडे का नाश्ता कर रहे हैं, परचून वाले ताऊ ने अपनी दुकान खोल ली है, बनवारी साइकिल में दूध के पीपे बांध दूध देने आ गया है, पतरसुटकी कूड़ा बीन रही है पर रोज समय के पाबंद कुत्ते आज गली में कहीं नहीं दिख रहे हैं. लगता है आज उन को अंडे के पीले हिस्से से ज्यादा लजीज नाश्ता कहीं मिल गया है. सक्सेनाजी को अंडे के पीले हिस्से को देख बुरा लग रहा है कि आज ये बेकार ही जाएंगे, इस से तो कुत्ते आ जाते तो कम से कम किसी के पेट में जाते. यह सोचतेसोचते सक्सेनाजी सीढि़यों से नीचे उतरे और अंडों के पीले हिस्से को एक दोने में गेट के बाहर रख आए ताकि जब भी कुत्ते आएं उन को पीले हिस्से खाने को मिल जाएं.
वापस बालकनी में पहुंचे ही थे कि देखा, पतरसुटकी ने आ कर पीतक को बन के बीच में लगा कर बर्गर बनाया और खाने लगी. उस की मिचमिची सी आंखों में सादे बन की जगह अंडे वाला बर्गर खाने की खुशी साफ दिख रही थी.
सक्सेनाजी ने पतरसुटकी से कहा, ‘‘क्यों री, तू तो देखती ही होगी कि मै अंडे का पीला हिस्सा नहीं खाता हूं, तू ने कभी अपने लिए क्यों नहीं मांगा? जानवर के पेट में तो जाने से अच्छा है कि वह तुम्हें मिल जाता.’’
पतरसुटकी ने सकुचाते हुए बताया, ‘‘मुझे कुत्तों से डर लगता है और मांगने में शर्म आती है, इसलिए कभी कहने की हिम्मत नहीं हुई.’’
‘‘कोई बात नहीं, अब तुम कल से जीने में आ कर मुझ से अंडा ले लिया करना, कुत्ते परेशान नहीं करेंगे,’’ यह कह कर सक्सेनाजी अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए और पतरसुटकी भी अपने रास्ते पर बढ़ गई.
तो अब अगले दिन से रूटीन बदल गया. सक्सेनाजी पतरसुटकी के ‘साहब’ आवाज लगाते ही जीने पर आते और अंडे का पीला हिस्सा अब कुत्तों की जगह पतरसुटकी को मिलने लगा. सक्सेनाजी रात का बचा भोजन भी अब पतरसुटकी को ही देने लगे. एक सुकून अब उन के दिल में था कि चलो अन्न बरबाद नहीं हो रहा है. अब किसी इंसान का भला हो जाएगा. ऐसे तो अन्न खराब नहीं होता, किसी न किसी का ग्रास बनता ही है, फिर चाहे वह मनुष्य हो या कोई सूक्ष्म जीव लेकिन किसी इंसान के पेट में चला जाए तो अन्न उगाने वाले किसान की मेहनत सफल रहती है.
जैसे सूखी धरती पर बारिश का पानी पड़ते ही मिट्टी के नीचे दबे बीजों में कोंपलें फूट पड़ती हैं वैसे ही पतरसुटकी के कुपोषित शरीर में अंडा और भोजन जाते ही निखार आने लगा था. मिचमिचाई सी आंखें सक्सेनाजी के प्रति कृतज्ञता के भाव में अब बड़ी दिखने लगी थीं और पिचके हुए गाल अब फूलने लगे थे. चेहरे पर भरे हुए पेट का सुकून झलकने लगा था.
जैसा कि धामपुर जैसे छोटे कसबों में होता है, यह खबर भी बाकी अन्य खबरों की तरह महल्ले में फैल गई. समय बीता तो धीरेधीरे तिल का ताड़ और राई का पहाड़ भी बनने लगा. अब महल्ले में बात यह नहीं हो रही थी कि कुत्तों की जगह पतरसुटकी को अंडा मिलता है बल्कि चर्चा का केंद्र इस बात पर था कि पतरसुटकी अंडा लेने जाते समय जीने में कितनी देर रुकती है, सक्सेनाजी और उस के बीच इतनी देर में क्याक्या होता और हो पाता होगा. और सब से बड़ी बात यह कि सक्सेनाजी का इस दरियादिली के पीछे का छिपा वाला मकसद क्या हो सकता है.
मिसेज वर्मा ने महल्ले में अपने गुप्त सूत्रों के माध्यम से पता कर के बताया कि शरीफों के इस महल्ले में बाहर से आने वाले सक्सेनाजी जरूर पत्नी न होने के चलते चक्कर चलाने की कोशिश कर रहे हैं. ‘‘पता नहीं इस कूड़ा बीनने वाली में क्या है जो सक्सेनाजी इस के पीछे पड़े हैं,’’ मिसेज वर्मा द्वारा बालों को पीछे करते हुए महल्ले की महिलाओं से प्रश्न दागा गया.
उत्तर में परचून वाले ताऊ की ताई ने मुंह से पल्लू निकाल कर अपने अनुभवों का निचोड़ सांझ किया कि, ‘‘मर्द होते ही ऐसे हैं, इन के जब आग लगती है तो ये शक्ल और उम्र नहीं देखते.’’
मौका देख शुक्लाइन ने अपने पशुप्रेम को जाहिर किया कि ‘‘इस से तो कुत्तों को ही अंडा मिल जाता, इंसान तो अपनी खुराक का इंतजाम कहीं न कहीं से कर ही लेता है पर बेजबान क्या करे.’’
‘‘हायहाय अब तो इस महल्ले में शरीफों का सांस लेना दूभर हो जाएगा,’’ एक आंख दबा कर मिसेज वर्मा ने जो यह कहा तो बाकी औरतें हंस पड़ीं.
ऐसे तो कोई बात नहीं थी पर सक्सेनाजी की मकान मालकिन को यह चुभ गई, आखिरकार सक्सेनाजी रहते तो उन्हीं के मकान में हैं. वह कहते हैं न कि बात फैली है तो दूर तलक जाएगी तो साहब यह बात भी दूर तक चलतेचलते मोबाइल के माध्यम से सक्सेनाजी की श्रीमती तक पहुंच ही गई. मकान मालकिन ने श्रीमती सक्सेना की शुभचिंतक होने के नाते महल्ले की बातों को हमराज किया और सलाह दी कि पतियों को टाइट रखने की जरूरत होती है. फिर क्या था, ट्रिंगट्रिंगट्रिंग आखिरकार सक्सेनाजी के फोन की घंटी बज ही गई.
‘‘समझया था न कि महल्ले की लड़कियों से दूर रहो. परोपकार करना था तो क्या वही पतरसुटकी मिली आप को. अब देखो, पीठपीछे क्याक्या बातें चल रही हैं महल्ले में. मैं आप को जानती हूं तो मुझे आप पर विश्वास है पर वह कहते हैं न कि बद अच्छा और बदनाम बुरा तो मुफ्त की बदनामी मोल क्यों ले रहे हो?’’ श्रीमतीजी का पारा सातवें आसमान पर था और बिना सांस लिए धाराप्रवाह में उन्होंने सक्सेनाजी को फोन पर ही अच्छे से दुनियादारी की हकीकत समझ दी.
सक्सेनाजी अपनी सफाई में सिर्फ इतना बोल पाए, ‘‘मैं तो पतरसुटकी का असली नाम तक नहीं जानता, बाकी तो बहुत दूर की बातें हैं.’’ लेकिन श्रीमतीजी की बात में भी दम था, ‘आखिर जहां रहना है वहां के मिजाज से ही रहना चाहिए’ जो बात सक्सेनाजी के दिल में तो न घुसी पर दिमाग में उस ने घर बना लिया.
अगले दिन ही सक्सेनाजी ने जीने में पूरी बात सम?ाते हुए पतरसुटकी से बड़ी झिझक के साथ अपनी मजबूरी को साझ किया. पतरसुटकी बदन से भले कमजोर थी पर दिमाग की सही थी, रोज कूड़ा बीनने के बाद भी दिमाग में कूड़ा नहीं भरा था उस के. बात का सार समझ गई और भरी आंखों से उस के मुंह से बस यह निकला कि, ‘‘कोई बात नहीं.’’
अचानक उस ने आगे बढ़ कर सक्सेनाजी के पैर छू लिए और अब सक्सेनाजी भी भरी आंखों से सिर्फ इतना कह पाए कि ‘‘खुश रहो.’’
शायद कलियुग में निस्वार्थ अबोध रिश्तों का अंजाम भरी आंखों पर ही होता है. बहरहाल, महल्ले में शराफत फिर से जिंदा हो गई है, कुत्तों को भरपेट भोजन मिलने लगा है और बहूबेटियां भी अब खुल कर सांस ले पा रही हैं. ताऊ दुकान खोल चुके हैं, मोना घर के बाहर झाड़ू लगा रही है, दूधवाला आ चुका है, पतरसुटकी आज भी 5 रुपए वाला बन कमर में खोंसे कूड़ा बिन रही है. बस, सक्सेनाजी अब छज्जे पर बैठ कर नाश्ता नहीं कर पा रहे हैं. पतरसुट्की, जिस का सही नाम उन को आज भी नहीं पता, से निगाह मिलने का डर जो है कि कैसे किसी कुपोषित इंसान के सामने अंडे की सफेदी का नाश्ता कर पाने की विलासिता को वे जी पाएंगे. -एकता सक्सेना