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कहानी: रूपांतरण

मैंने पापा को टोक दिया था, “पापा प्लीज़ आपका ज़माना और था. अब ज़माना अलग है…”
“मैंने इसके आगे तेरी बात सुनी ही नहीं. मेरे कानों में तो दिवंगत बाबूजी के ये शब्द गूंजने लगे थे. मैंने दुनिया देखी है बेटा. कई भूलें की हैं. कष्ट उठाए हैं. मेरे बच्चों को वह सब न झेलना पड़े, इसलिए टोक देता हूं…”
अलका जी भुनभुन करती हुई आकर पति के संग लिहाफ़ में घुस गईं. वे पानी पीने उठी थीं तभी योगेश जी की नींद तो उचट ही गई थी. अब उनके तेवरों से उन्हें एहसास हो गया कि बाहर कुछ तो घटा है.
“क्या हुआ?”
“अवि चहलकदमी कर रहा था गलियारे में… मैंने पूछा इतनी रात गए क्यों घूम रहा है? तबीयत तो ठीक है? तो श्शश… करता अपने बेडरूम में घुस गया. अब कुंभकरण की नींद सोनेवाला बच्चा यदि इस तरह आधी रात को चहलकदमी करता दिखेगा, तो चिंता तो होगी ही ना!”
“पहली बात तो अवि अब बच्चा नहीं रहा. एक बच्चे का पिता हो गया है वह! दूसरे अपनी शंका का निवारण तुम उससे सवेरे भी कर सकती हो. अभी सो जाओ और मुझे भी सोने दो.”
“हुं ह… पुरुषों की यही तो मुसीबत है. दिल नामक चीज़ से इनका कोई वास्ता ही नहीं होता. कहते हैं सो जाओ. एक मां का दिल ये क्या समझें? भला चिंता के मारे रात कटेगी मेरी?” नींद तो योगेश जी की भी उचट ही चुकी थी. और अब पत्नी के ताने ने रही सही नींद भी उड़ा दी. वे कैसे समझाएं अपनी पत्नी को कि पुरुषों के सीने में भी दिल होता है. जैसे एक स्त्री का मां बनते ही कायाकल्प हो जाता है वैसे ही एक पुरुष का भी पिता बनते ही रूपांतरण शुरू हो जाता है. हम पुरुषों का दुर्भाग्य है कि दुनिया मां का जितना महिमामंडन और स्तुतिगान करती है, उसका एक छोटा-सा हिस्सा भी पिता के हिस्से में नहीं आ पाता. मां संतान को नौ महीने कोख में रखती है, तो पिता दिमाग़ में. महत्वाकांक्षा स्तुतिगान करवाने की नहीं है. बस कोई हमारी भी मूक भावनाओं को समझ ले, यह तुच्छ सी आकांक्षा है. पर शायद गूंगे की भाषा गूंगा ही समझ सकता है.

योगेश जी की आंखों के सम्मुख अस्पताल का दृश्य घूम गया, जब बहू ने पुत्र को जन्म दिया था. रुई से मुलायम, कोमल, हल्के अंश को जब नर्स ने लाकर उसके पिता की गोद में थमा दिया था, तो सबकी नज़रें नवजात सुकुमार शिशु पर ही टिककर रह गई थीं.  
“अपनी मां पर गया है… मुझे तो अपने पापा जैसा लग रहा है… आंखें कितनी गोल-मटोल हैं… उंगलियां कितनी पतली-पतली हैं.”
जैसी टिप्पणियों से कमरा गुंजायमान हो उठा था. एकमात्र योगेश जी ही थे जिनकी नज़रें अपने बेटे पर जमकर रह गई थी. ख़ुशी से डबडबाई उसकी आंखें, बच्चे को थामे उसके थरथराते हाथ उन्हें अपने पिता बनने की याद दिला रहे थे. जब इसी तरह एक दिन उन्होंने नवजात अवि को बांहों में थामा था. रुई सा हल्का शिशु ज़िम्मेदारी के महती बोझ का एहसास करा गया था. पुरुष से पिता में रूपांतरित होने का यह एहसास इतना सुखद था कि ख़ुशी से उनकी आंखें भी ऐसे ही भर आई थीं, जिन्हें उन्होंने बाद में सबसे नज़रें बचाकर पोंछ लिया था.
अवि से पोते को गोद में लेते हुए उन्होंने चुपके से उसे अपना रुमाल थमा दिया था. आंखों ही आंखों में कृतज्ञता और आभार के इस आदान-प्रदान को और कोई नहीं देख पाया था. हमारा समाज मानता है कि पुरुष फौलाद से बना होता है. ख़ुशी हो या दुख, आंख में आंसू ना लाना ही मर्दानगी है. अवि कृतज्ञ था कि पिता ने उसकी तथाकथित मर्दानगी बनाए रखी और योगेशजी आभारी थे कि बेटे ने उन्हें दादा की पदवी दिलवाई और वंशबेल को भी बढ़ाया.

चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई पड़ी, तो दोनों ने बिस्तर त्यागना ही उचित समझा. नित्यकर्म से निवृत्त हो दोनों नाश्ते की टेबल पर पहुंचे, तो अवि ऑफिस निकलने की तैयारी में था.
“तू ठीक है न? रात को गलियारे में क्यों घूम रहा था?”
“अंश को सुला रहा था मां! पूरी रात जाने कितनी बार उठ जाता है? कल तो शायद मेरा हाथ लगने से उठ गया था.”
“तू सोता ही इतना फैलकर है और वह भी एकदम कुंभकरण की तरह.”
“कहां मां? गए वो ज़माने. अब तो अंश हम दोनों के बीच फैलकर सोता है. हम दोनों तो बेचारे सारी रात सिकुड़े से पड़े रहते हैं.” अवि चला गया, तो अलका जी ने गहरी निश्‍वास छोड़ी.  
“अब तो सचमुच पिता बनना भी ज़िम्मेदारी का काम हो गया है.“ योगेश जी के दिमाग़ में अब तो धंसकर रह गया. उधर बहू अपनी मां से फोन पर बतिया रही थी, “पूरी रात और पूरा दिन फीड करते, डायपर बदलते ही निकल जाता है मां… तिस पर कभी वैक्सीन लगवाना है, तो कभी ज़ुकाम, कभी बुखार…”
“अरे मां की पदवी इतनी आसानी से थोड़े मिल जाती है बेटी! काफ़ी पापड़ बेलने पड़ते हैं.”
योगेश जी फिर सोचने पर मजबूर हो गए थे. ‘और पापा की पदवी?’
शाम को बहू कुछ फ्री हुई, तो अपनी चाय लेकर दोनों के पास आ बैठी.
“अवि का जन्मदिन नज़दीक आ रहा है. क्या प्लानिंग है तुम लोगों की? कहीं घूमने जा रहे हो या दोस्तों के संग पार्टी करोगे?” अलका जी ने बात छेड़ी.
घूमने और पार्टी करने में अवि की जान बसती थी. कभी सोलो ट्रिप, तो कभी मम्मी-पापा, तो कभी दोस्त, तो कभी बीवी के संग घूमने और पार्टी के लिए उसकी बकेट लिस्ट में कोई ना कोई जगह जुड़ती ही रहती थी. इस बार भी अलका जी को ऐसी ही कुछ उम्मीद थी.
“अवि इस बार बर्थडे नहीं मना रहे मम्मीजी!”
“अरे, क्यों?”
“इनके बर्थडे के थोड़े दिनों बाद ही तो अंश का बर्थडे है. कह रहे हैं इस बार अंश का बर्थडे धूमधाम से मनाएंगे. फर्स्ट बर्थडे के वक़्त वह बहुत छोटा था. कुछ समझता नहीं था. इस बार उसके संग पूरा दिन किड्स ज़ोन में बिताएंगे. शाम को रिश्तेदारों, दोस्तों के संग होटल में मौज-मस्ती डिनर करेंगे. अगले साल से तो वह स्कूल जाने लग जाएगा, तो उसका अपना फ्रेंड सर्कल बन जाएगा. तब उनकी पार्टी करनी होगी.” अंश उठ गया था, तो बहू उसे संभालने चली गई.
“आप क्या सोचने लगे?” पति को सोच  में डूबा देख अलका जी बोल पड़ीं.
“सोच रहा हूं संतान के लिए इंसान क्या से क्या बन जाता है? यह जानते हुए भी कि बेटा बाहर चला जाएगा, बेटी ससुराल चली जाएगी, पैरेंट्स उनके लिए सतत प्रयत्नशील बने रहते हैं. अपने पैसों से घूमने, पार्टी करने वाले यकायक बचत, समझौतों की बात करने लग जाते हैं.”

“बात तो आप सही कह रहे हैं. अवि भी तो ऑफिस छूटते ही सीधा घर लपकता है. पहले तो दोस्तों, पार्टियों में लगा रहता था. अब उसे वह सब नीरस लगने लगा है. घर पुकारने लगा है. रात को अंश को सुला रहा था. मुझे तो बिना चश्मे के पूरा दिखा ही नहीं. फिर मैंने देखा भी पीछे से था. सच कितना बदल गया है वह!”
“बदल नहीं गया है. पुरुष से पिता बन रहा है.”
डोरबेल बजी, तो दोनों के वार्तालाप को विराम लग गया. अपने दोस्त को सपत्नी आया देख योगेश जी ने हर्ष से उसे गले लगा लिया.
“एक ही सोसायटी में रहते हुए भी मिलना नहीं हो पाता. आज तो मैंने पत्नी से कह दिया था कि हर हाल में सर के यहां होकर ही आएंगे.”
“यह सर-वर छोड़ो. मैंने पहले भी कहा था रिटायरमेंट के बाद सब बराबर है. बल्ब चाहे 100 वॉट का हो या 40 वॉट का, फ्यूज़ होने के बाद सब ज़ीरो हैं.”
“नहीं सर, आप तो हमारे हीरो हैं और हमेशा रहेंगे. नौकरी में थे तब भी आपने कोई बड़े-छोटे का भेदभाव नहीं बरता. वरना राजेश सर तो हमारे नमस्कार का भी जवाब नहीं देते थे.”
“छोड़ो वह सब…”
“नहीं, बोलने दीजिए हमें. आज उनका बेटा भी सीए है और मेरा बेटा भी. दोनों एक ही कंपनी में हैं, एक ही पैकेज पर. सर मैंने सोच लिया था कि मैं भले ही कम पढ़ा-लिखा हूं, पर अपने बच्चों को ख़ूब पढ़ाऊंगा. रोज़ ऑफिस से आकर उनसे पढ़ाई, होमवर्क की बाबत बात करता था. उन्हें किसी ट्यूशन आदि की ज़रूरत तो नहीं है? उन्हें सिखाता था कि अगर ज़िंदगी में सफल होना है, तो पैसों को जेब में रखना, दिमाग़ में नहीं.”
“बहुत अच्छी बात है.” योगेश जी के प्रोत्साहन से दोस्त और भी उत्साहित हो गया.
“सर… सॉरी आदत जाएगी नहीं सर सर… करने की.” योगेश जी मुस्कुरा दिए.
“मैं तो कसरती पहलवान रहा हूं. अखाड़े में एक ही दांव में सामनेवाले को चित कर देता था. पर बच्चों से झूठ-मूठ की लड़ाई में हार जाने में जो आनंद था, उसकी बात ही निराली थी. शहर के सबसे प्रतिष्ठित स्कूल में दाख़िला करवाया था मैंने बेटे का! अरे आपको क्या बता रहा हूं? अपने-अपने बच्चों के एडमिशन फॉर्म लेने के लिए हम सवेरे सात बजे से लाइन में लगे थे. याद आया, राजेश सर भी तो थे लाइन में. मैंने ऑफिस आकर उनका ख़ूब मज़ाक उड़ाया था कि मैं जहां खड़ा होता हूं, लाइन वहीं से शुरू होती है… की डायलॉग बाजी वाले हीरो आज चुपचाप लाइन में सबसे पीछे लगे हुए थे. और सर, कैंपस प्लेसमेंट वाले दिन तो वे मुझसे ज़्यादा बेचैनी और तनाव में इधर-उधर घूम रहे थे. उस दिन तो मुझे उनसे सहानुभूति होने लगी थी.”

“मान गए न एक अच्छे बॉस न सही, एक अच्छे पिता तो हैं वे!”
दोस्त गंभीर हो गए थे.
“बात तो आपने सोलह आने सही कही है. ऑफिस में सब पर गरजने-बरसने वाले राजेश सर को स्कूल पैरेंट्स मीटिंग में मैंने शांति से टीचर की बातें सुनते देखा है.”
“क्योंकि टीचर उन्हें उनके बच्चे के अच्छे भविष्य के लिए ही समझा रही होती थी.”
“यही नहीं, एक बार मैं उनके घर एक फाइल देने गया था. लाल बत्ती वाली या लग्जरी गाड़ी में घूमने वाले राजेश सर को बेटे की साइकिल की सीट पकड़कर पीछे भागते देख मैं तो अचंभित हो गया था. आज आपने मेरी आंखें खोल दीं. अब मेरे मन में उनके प्रति कोई द्वेष नहीं है. वे भी एक अच्छे पिता हैं और मैं भी! आप तो हैं ही!” दोस्त सपत्नी विदा हो गए, तो अलका जी ने पति को गर्व से देखा.
“आप अच्छे बॉस, पति, पिता होने के साथ-साथ एक अच्छे इंसान भी हैं.”
“बच्चों को बड़ा करते कब बुढ़ापा आ गया ध्यान ही नहीं रहा.”
“किसके बूढ़े होने की बात हो रही है?” अंश को कंधे पर बैठाए अवि अवतरित हुआ.
“अभी तो अंश और फिर उसके बच्चों को भी आपको ही देखना है.” अवि उमंग-उत्साह के साथ अंश के बर्थडे सेलिब्रेशन की योजना बताने लगा.

सब कुछ योजना अनुसार ही हुआ. अंश के साथ-साथ सबका पूरा दिन ख़ूब मौज-मस्ती में गुज़रा. लेकिन रात
पार्टी से लौटने के बाद अलका जी ने गौर किया कि योगेश जी कुछ बुझे-बुझे से थे.
“बाहर शांत दिखने के लिए अंदर से बहुत लड़ना पड़ता है ना?” अलका जी ने कारण जानना चाहा, तो योगेश जी ने दिनभर की थकान कहकर टालना चाहा. लेकिन पत्नी के कुरेदने पर दिल का दर्द ज़ुबां पर आ ही गया.
“आज बाबूजी की बहुत याद आ रही है. उनसे माफ़ी मांगने का दिल कर रहा है. पिता और समय जाने के बाद ही उनकी अहमियत समझ आती है. याद है, जब मैंने अवि को कोटा कोचिंग के लिए भेजने का फ़ैसला किया था, तब बाबूजी ने मुझसे उसे ना भेजने का अनुरोध किया था.
“क्यों बच्चे को दूसरे अनजान शहर में भेज रहा है? तू भी तो यही पढ़कर इतना बड़ा ऑफिसर बना है. यहां अपने शहर में ही इतने अच्छे इंस्टीट्यूट हैं. बच्चा घर में रहेगा, तो वह भी निश्‍चित रहेगा और हम भी.” मैंने आवेश में उन्हें टोक दिया था.
“आपका ज़माना और था बाबूजी! अब ज़माना अलग है. ज़माने के अनुसार नहीं चलेंगे, तो हमारा बच्चा पीछे रह जाएगा.”
मैंने ज़िद करके अवि को भेज तो दिया था. लेकिन जब भी कोटा में स्टूडेंट सुसाइड के समाचार पढ़ता, मेरी रूह कांप जाती थी. छुट्टियों में अवि घर आया, तो सूखकर कांटा हो गया था. डॉक्टर ने बताया उसे वहां का खाना-पानी, क्लाइमेट सूट नहीं कर रहा था. पहला सुख निरोगी काया मानकर हमें उसे यहीं रोकना पड़ा था. स्वस्थ हुआ तब तक परीक्षाएं सिर पर आ गई थीं. बाबूजी के प्रोत्साहन से वह तन-मन से पढ़ाई में जुट गया था और पहले ही प्रयास में परीक्षा क्रैक कर ली थी. पर तब तक बाबूजी जा चुके थे.”
“यह सब तो मुझे पता है, पर आज यह सब याद करने
की वजह?”
“वजह मैं बताता हूं मां…” गोद में अंश को थपथपाते अवि कमरे में प्रविष्ट हुआ, तो दोनों चौंक उठे.
“सो गया. एक मिनट इसे यहां सुला देता हूं. आज अंश को केक कटवाने के बाद मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ बतिया रहा था, तो बच्चों के एडमिशन की बात चल पड़ी. एक दोस्त ने किसी नामी महंगे स्कूल का सुझाव दिया, जहां उसका बेटा पढ़ रहा है. उसने बताया कि वहां के अधिकांश बच्चों का आगे हायर स्टडीज़ के लिए विदेशी यूनिवर्सिटी में चयन हो चुका है. मेरा भी पक्का मन बन गया था.  दोस्तों को विदा कर जब मैं सामान समेट रहा था, तब पापा मेरे पास आए थे. बोले, “तू क्या अंश को विदेश पढ़ने भेजेगा?”
“उसके अच्छे फ्यूचर के लिए भेजना ही पड़ेगा पापा!” मैंने कहा.
“तूने भी तो यहीं से आईआईटी क्रैक कर ली थी. इतने बड़े पैकेज पर जॉब भी मिल गया था. विदेश में पढ़ेगा तो उसके ख़र्चे भी ज़्यादा होंगे. लोन भी लेना पड़ेगा. फिर उसे चुकाने के लिए वह वहीं जॉब करने लग जाएगा. फिर शायद वहीं के रंग में रंग जाए. वापस स्वदेश लौटना ही ना चाहे. उसमें प्रतिभा होगी, तो यहीं अच्छे से पढ़ लेगा.”
मैंने पापा को टोक दिया था, “पापा प्लीज़ आपका ज़माना और था. अब ज़माना अलग है…”
“मैंने इसके आगे तेरी बात सुनी ही नहीं. मेरे कानों में तो दिवंगत बाबूजी के ये शब्द गूंजने लगे थे. मैंने दुनिया देखी है बेटा. कई भूलें की हैं. कष्ट उठाए हैं. मेरे बच्चों को वह सब न झेलना पड़े, इसलिए टोक देता हूं.”
“तब से आप दोनों का ही वार्तालाप सुन रहा हूं पापा. अपने शब्दों के लिए माफ़ी चाहता हूं.”
योगेश जी ने आगे बढ़कर बेटे को सीने से लगा लिया. - संगीता
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