कहानी: पार्क में प्यार
वसुधा ने उन के हाथ से पैकेट लिया और मुसकराते हुए बोली, ‘‘एक गिफ्ट पैक तो खुलता नहीं और ख्वाब देख रहे हैं शादी करने के.
हमसफर के बिना जिंदगी का सूनापन क्या होता है, अब दिवाकरजी को महसूस हो रहा था वसुधा के बिना. वे अब जिंदगी सिर्फ जी रहे थे, जिंदा नहीं थे.
दिवाकरजी ने एक बार फिर करवट बदली और सोने की कोशिश की लेकिन उन की कोशिश नाकाम रही, हालांकि देखा जाए तो बिस्तर पर लेटेलेटे वे पूरी रात करवटें ही तो बदलते रहे थे.
नींद उन से किसी जिद्दी बच्चे की तरह रूठी हुई थी. समझ नहीं पा रहे थे कि नींद न आने का कारण स्थान परिवर्तन है या मन में उठता पत्नी मानसी की यादों का रेला.
मन खुद ही अतीत के गलियारे की तरफ निकल गया जब बरेली में अपने घर में थे तो पत्नी मानसी से बोलतेबतियाते कब नींद की आगोश में चले जाते उन्हें पता न चलता. नींद भी इतनी गहरी आती कि मानसी कभीकभी तो प्यार से उन को कुंभकरण तक की उपाधि दे डालती.
सुबह होने पर भी नींद मानसी की मीठी सी ि झड़की से ही खुलती क्योंकि मानसी द्वारा बनाई अदरक-इलायची वाली चाय की सुगंध जब उन के नथुनों में भर जाती तो वे झटपट फ्रैश हो कर पलंग पर ही बैठ जाते और फिर वहीं पर बैठ कर ही वे दोनों चाय का आनंद लेते. पीतेपीते वे मानसी की तरफ ऐसी मंत्रमुग्ध नजरों से देखते मानो कह रहे हों कि तुम्हारे हाथ की बनाई सुगंधित चाय का कोई जवाब नहीं.
मानसी उन्हें अपनी ओर इस तरह ताकते देख कर लजा कर लाल हो जाती, जानती थी कि संकोची स्वभाव के दिवाकरजी शब्दों का प्रयोग करने में पूरी तरह अनाड़ी हैं, उन की इन प्यारभरी निगाहों का मतलब वह बखूबी समझने लगी थी.
वे दोनों एकदूसरे के प्यार में पगे जीवन का भरपूर आनंद उठा रहे थे.
बेटे नमन की शादी कर वे अपनी जिम्मेदारियां पूरी कर चुके थे. उन को रिटायर हो कर 6 महीने हो रहे थे, दिवाकरजी मानसी के साथ भारतभ्रमण का प्रोग्राम मन ही मन बना चुके थे. मानसी को अपने इस प्लान की बाबत बता कर वे सरप्राइज देना चाहते थे क्योंकि नौकरी की आपाधापी, फिर बेटे नमन को उच्चशिक्षा दिला कर सैटल करने में ही उन की आय का अधिकांश भाग खर्च हो जाता था.
वह तो मानसी इतनी संतुष्ट प्रवृत्ति की थी कि उस ने कभी भी दिवाकरजी से किसी चीज की कोई मांग व किसी तरह की कोई शिकायत नहीं की. परिवार के सुख को ही अपना सुख माना. इसी कारण दिवाकरजी का मन कभीकभी अपराधबोध से भर उठता कि 30 साल के वैवाहिक जीवन में वे मानसी के मन की खुशी के लिए कुछ क्यों नहीं सोच पाए. चलो देर आयद, दुरुस्त आयद वाली कहावत सोच कर खुद ही मुसकरा दिए.
कहते हैं कि इंसान का भविष्य उस के जन्म के समय ही लिख दिया जाता है. इंसान सोचता कुछ और है, होता कुछ और है. मानसी एक रात को सोई तो सुबह उस के लाख झक झोरने के बाद भी न उठी तो अचानक लगे इस आघात से दिवाकरजी हतप्रभ रह गए थे. किसी तरह हिम्मत बटोर कर बेटे नमन को फोन कर के इस अप्रत्याशित घटना की सूचना दी. दोनों बेटा व बहू फ्लाइट ले कर पहुंच गए थे. कुछेक दिन इस अप्रत्याशित घटना से उबरने में लगे, फिर आगे के बारे में उन के बहूबेटे ने आपस में विचारविमर्श किया कि अब पापाजी को यहां अकेले छोड़ कर जाना ठीक नहीं रहेगा.
सारे जरूरी क्रियाकलापों से निबटने के बाद नमन व नीरा दिवाकरजी के काफी नानुकुर करने के बाद भी उन का अकेलापन दूर करने के लिए उन्हें अपने साथ मुंबई ले आए थे. दिवाकरजी अपने बच्चों के साथ मुंबई आ जरूर गए थे लेकिन उन का मन यहां रम नहीं पा रहा था. अकेलेपन से पीछा यहां भी नहीं छूटा था. वहां बरेली में तो फिर भी उन के कुछ पहचान वाले व यारदोस्त थे. यहां तो उन की किसी से जानपहचान नहीं थी और नमन व नीरा सुबह 8 बजे घर से निकल कर रात 8 बजे तक ही घर लौट पाते थे.
उन दोनों के औफिस जाने के बाद खाली घर उन को एकदम खाने को दौड़ता. कामवाली बाई आ कर घर की साफसफाई कर जाती, साथ ही, उन को खाना बना कर खिला देती.
एकाएक गला सूखने का एहसास होते ही उन्होंने पानी पीने के लिए पलंग के पास रखी साइड टेबल की ओर हाथ बढ़ाया. टेबल पर रखा जग खाली था. शायद नीरा जग में पानी भरना भूल गई होगी, यह सोच कर दबेपांव उठ रसोई में जा कर फिल्टर से पानी भरा और अपने कमरे में आ कर पलंग पर बैठ कर पानी पिया.
नींद तो आ नहीं रही थी, सो अब उन को चाय की तलब लगने लगी थी. वैसे, चाय बनानी तो उन को आती थी लेकिन रसोईघर में होती खटरपटर से कहीं नमन व नीरा की नींद न टूट जाए, इस ऊहापोह में उल झे कुछ देर पलंग पर ही बैठे रहे.
सिर में कुछ भारीपन सा महसूस होने पर सोचा, कुछ देर खुली हवा में ही घूम आएं. वैसे भी इन 10-15 दिनों में वे केवल 2 बार ही घर से निकले थे. एक बार बहू नीरा उन को कपड़े दिलाने मार्केट ले गई थी. दूसरी बार बेटा नमन घर के पास बनी लाइब्रेरी दिखा लाया था ताकि मन न लगने पर वे लाइब्रेरी में जा कर मनपसंद किताबें पढ़ कर अपना मन बहला सकें. लाइब्रेरी के पास ही एक पार्क भी था, नमन ने पापाजी को पार्क का भी एक चक्कर लगवा दिया था, जबकि नमन जानता था कि उन को घूमने का कोई खास शौक नहीं है.
उन्होंने सोचा कि पार्क में जा कर कुछ देर ठंडी हवा का आनंद लिया जाए और पार्क की तरफ कदम बढ़ा दिए. घर से बाहर निकलने पर पाया, धुंधलका कुछकुछ छंटने लगा था, सूरज आसमान में अपनी लालिमा बिखेरने की तैयारी में था. पार्क में इक्कादुक्का लोग घूम रहे थे, कुछेक जौगिंग भी कर रहे थे.
एक खाली बैंच देख कर दिवाकरजी उस पर जा कर बैठ गए. एक तो रातभर की उचटती नींद, दूसरे पार्क में बहती ठंडी बयार ने जल्दी ही उन्हें अपनी गिरफ्त में ले लिया. अभी उन को सोते हुए कुछ ही समय हुआ होगा कि उन को महसूस हुआ जैसे उन को कोई झक झोर रहा है. आंखें खोलीं तो पाया कि एक महिला, जिस की उम्र लगभग 50-55 वर्ष के आसपास की होगी, उन के ऊपर झुकी हुई थी. दिवाकरजी उसे देख कर एकदम सकपका गए और एकदम सीधे खड़े हो गए. ‘‘अरे, यह कैसा मजाक है?’’
उन के आंखें खोलते ही वह महिला भी हड़बड़ा गई और पीछे हट गई, ‘‘आप ठीक तो हैं न, मैं ने सम झा आप लंबी यात्रा पर निकल गए,’’ कह कर खिलखिला कर हंसने लगी, ‘‘अब जब आप ठीक हैं तो प्लीज मेरा यह बैग देखते रहिएगा,’’ कह कर दिवाकरजी की सहमति व असहमति जाने बिना दौड़ गई.
दिवाकरजी सोचने लगे, बड़ी अजीब महिला है, जान न पहचान बड़े मियां सलाम और उन्हें यों सोते देख कर इतना खिलखिला कर हंसने की क्या बात थी.
दिवाकरजी ने ध्यान से देखा, व्हीलचेयर पर बैठी वह महिला सैर करने को निकल गई.
दूसरे दिन दिवाकरजी ने नोट किया कि वही महिला आज अपनी मेड को साथ ले कर आई थी. उस की मेड व्हीलचेयर धकेल कर उन को सैर करवा रही थी. किसीकिसी दिन वह महिला एक युवक के साथ भी आती जो उस के बेटे जैसा लगता था. एक दिन वही महिला खुद ही अपनी व्हीलचेयर चला कर आ रही थी कि अचानक किसी गड्ढे के आ जाने से व्हीलचेयर फंस गई. दिवाकरजी ने देखा तो उस की व्हीलचेयर को बाहर निकालने में उस की मदद की.
इस के बाद से दोनों की बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ. उस ने बताया, तकरीबन 5-6 महीने पहले चोट लगने के कारण उस की हिपबोन सर्जरी हुई थी, इसी कारण व्हीलचेयर की जरूरत हुई.
तकरीबन 15-20 मिनट के बाद वही महिला अपने रूमाल से पसीना पोंछती हुई दिवाकरजी की बगल में आ कर बैठ गई. उन से अपना बैग लिया. उस में से फ्लास्क निकाला और एक कप में चाय उड़ेल कर दिवाकरजी की ओर बढ़ा दिया, साथ ही पूछा, ‘‘वैसे, चाय तो पीते हैं न आप?’’ चाय की तलब तो उन को कब से हो रही थी, सो सारा संकोच एक तरफ रख चाय का कप ले लिया और चाय पीने लगे, साथ ही, कनखियों से उस महिला की ओर भी देखते जा रहे थे.
फ्लास्क के ढक्कन में चाय डाल कर वह खुद भी वहीं बैठ कर चाय पीने लगी.
दिवाकरजी ने उस महिला की तरफ उचटती सी नजर डाली, वह ट्रैक सूट पहने हुए थी, कसी हुई काठी और खिलता हुआ गेहुंआ रंग, चमकीली आंखें, एकदम चुस्तदुरुस्त लग रही थी. इस से पहले उन्होंने किसी महिला को बरेली में ऐसी ड्रैस पहने नहीं देखा था. अपनी पत्नी मानसी को सदैव साड़ी पहने ही देखा था.
चाय पीतेपीते वह बोली, ‘‘मेरा नाम वसुधा है, यहीं पास की उमंग सोसाइटी में रहती हूं, पास के ही एक स्कूल में पढ़ाती हूं. हर रोज इस पार्क में सैर करना मेरा नियम है. पार्क के 3-4 चक्कर लगाती हूं, फिर बैठ कर चाय पीती हूं और घर चली जाती हूं.
मानसी के अलावा दिवाकरजी ने कभी किसी महिला से बातचीत नहीं की थी, सो पहले वसुधा से बात करने में उन्हें संकोच सा अनुभव हो रहा था.
‘‘लगता है आप यहां नए आए हैं, वरना मैं ने आज तक पार्क में किसी को इस तरह सोते नहीं देखा?’’
दिवाकरजी यह सुन कर कुछ झेंप से गए, ‘‘वह क्या है कि घुटनों के दर्द के कारण अधिक घूम नहीं पाता,’’ उन्होंने जैसे बैंच पर बैठ कर सोने के लिए सफाई सी दी.
किसी अपरिचित महिला से बातचीत का यह उन का पहला मौका था. मानसी के अलावा किसी और महिला से बातचीत उन्होंने कभी न की थी. और तो और, बहू नीरा से भी वे अभी तक कहां खुल पाए थे. लेकिन वसुधा की जिंदादिली व साफगोई ने उन को अधिक देर तक अजनबी नहीं रहने दिया.
‘‘अब जब मैं आप का नाम जान ही चुकी हूं तो आप को आप के नाम से ही पुकारूंगी. वह क्या है कि भाईसाहब का संबोधन मु झे बहुत औपचारिक सा लगता है,’’ कह कर वह एक बार फिर से खिलखिला कर हंस पड़ी. इस बार उन को वसुधा की खनकती हंसी बहुत प्यारी लगी, प्रतिउत्तर में वे भी हलका सा मुसकरा दिए. फिर मन ही मन सोचा, पत्नी मानसी के जाने के बाद शायद आज ही मुसकराए हैं, यह कमाल शायद वसुधा के बिंदास स्वभाव का ही था.
वे आश्चर्यचकित थे, वसुधा की तरफ देख रहे थे और मन ही मन सोच रहे थे कि कितनी जिंदादिल है यह. वे भी अब वसुधा से कुछकुछ खुलने लगे थे.
‘‘अच्छा, आप के घर में कौनकौन है,’’ उन्होंने वसुधा से पूछा.
‘‘कोई नहीं, मै अकेली हूं. पति का निधन हुए 8 साल हो चुके हैं.’’
‘‘फिर आप इतनी खुश व जिंदादिल कैसे रहती हैं?’’
‘‘अरे, मैं खुद हूं न अपने लिए, मैं सिर्फ जीना ही नहीं चाहती, जिंदा रहना चाहती हूं. जिंदगी हर समय पुरानी यादों के बारे में सोच कर मन को मलिन करने का नाम नहीं है. जीना है तो जिंदगी में आगे बढ़ना ही पड़ता है. वर्तमान में जीना ही जीवन का असली आनंद है. वैसे भी जिंदगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए. कितना जिएं, इस से महत्त्वपूर्ण यह है कि किस तरह जिएं.
‘‘खुश रहने के लिए मैं ने ढेर सारे शौक पाल रखे हैं. कभी मार्केट जा कर ढेर सारा ऊन खरीद कर ले आती हूं, उस से स्वेटर, मोजे, टोपे बनाबना कर घर के सामने बनी झुग्गियों में बांट देती हूं. इस से उन लोगों की आंखों में खुशी की जो चमक आती है, मेरा मन खुश हो जाता है. व्यस्त रहने से समय अच्छी तरह बीत जाता है और मन भी खुश रहता है.
‘‘अच्छा, अब आप अपने बारे में कुछ बताइए,’’ वसुधा ने कहा.
‘‘हां, मैं यहां पास ही की सनशाइन सोसाइटी के फ्लैट नंबर 703 में अपने बहूबेटे के साथ रहता हूं. पत्नी मानसी मेरा साथ छोड़ कर लंबी यात्रा पर चली गई है.
बहूबेटे मल्टीनैशनल कंपनी में कार्यरत हैं. सुबह 8 बजे घर से निकलते हैं, फिर रात 8 बजे तक ही लौट पाते हैं. मेड आ कर घर की साफसफाई करती है, मु झे खाना खिला कर चली जाती है. टीवी देखना मु झे अधिक पसंद नहीं है, खाली घर सारा दिन काटने को दौड़ता है.’’
‘‘मेरा कहा मानिए, हर रोज सुबह सैर करने की आदत बना लीजिए. सैर करने से तन स्वस्थ व मन प्रफुल्लित रहता है. रोज यहां आने से आप के कुछेक मित्र भी बन जाएंगे, फिर टाइम का पता ही नहीं चलेगा.’’ यह कह कर वसुधा अपने घर की ओर निकल गई. वसुधा के जाने के बाद दिवाकरजी काफी देर तक उस की कही बातों को मन ही मन दोहराते रहे. वैसे कह तो ठीक ही रही थी, बीती यादों के सहारे जिंदगी नहीं काटी जा सकती. वसुधा पार्क से चली जरूर गई थी लेकिन दिवाकर के दिलदिमाग पर अपने विचारों की गहरी छाप छोड़ गई थी.
घर पहुंचने पर दरवाजे की घंटी बजाई, सकुचाती हुई बहू नीरा ने दरवाजा खोल दिया, ‘‘इतनी सुबहसुबह आप कहां चले गए थे, पापाजी?’’ नीरा ने पूछा.
‘‘पास के पार्क में चक्कर लगाने चला गया था.’’
‘‘अच्छा, अब आप फ्रैश हो लीजिए, तब तक मैं चाय बनाती हूं.’’
‘‘अरे नहीं बहू, तुम अपने औफिस जाने की तैयारी करो, आज चाय मैं बनाता हूं.’’
नीरा ने आश्चर्यचकित हो कर उन की तरफ देखा क्योंकि पिछले 10-15 दिनों से जब से यहां आए हैं, उन के मुंह से सिर्फ हां या हूं शब्द ही सुने थे. आज वे उन दोनों के लिए चाय बनाने की कह रहे थे, कुछ बात तो जरूर है वरना एकदम चुपचाप रहने वाले पापाजी आज उन दोनों के लिए चाय बनाने की जिद ठान कर बैठे हैं. शायद पार्क में कोई हमजोली मिल गया हो. चाय पी कर बहूबेटे दोनों अपने औफिस के लिए निकल गए. हां, जातेजाते इतनी अच्छी चाय बना कर पिलाने के लिए उन का धन्यवाद करना नहीं भूले.
दिवाकरजी का मन आज बहुत खुश था. आज उन को घर काटने को नहीं दौड़ रहा था. अपना बिस्तर ठीक किया. तब तक मेड आ चुकी थी. अच्छी तरह घर की साफसफाई करवाई. अपनी पसंद का खाना बनवाया. खा कर थोड़ी देर आराम किया. फिर अपना चश्मा ठीक करवाने मार्केट निकल गए.
मार्केट में घूमतेघूमते याद आया कि कितने दिनों से उन्होंने हेयरकटिंग नहीं करवाई है. हेयरकटिंग करवा कर लौटे तो उन के चेहरे पर हलकी सी मुसकराहट थी. उन्हें याद आया कि मानसी को उन के बड़े बालों से कितनी चिढ़ थी. घर लौटते समय उन का मन खुश था. वे मन ही मन मुसकरा दिए और सोचा वे अब से सिर्फ जिएंगे ही नहीं, जिंदा रहेंगे. मानसी के जाने के बाद आज कितने दिनों बाद वे मुसकराए थे.
अब हर रोज सुबह पार्क जाने का नियम बना लिया. पार्क में वसुधा से रोज मुलाकात होती लेकिन अब पार्क में जा कर बैंच पर बैठने के बजाय वे धीरेधीरे पार्क के 2-3 चक्कर लगाने लगे, फिर बैंच पर बैठ कर वसुधा का इंतजार करते. वसुधा दौड़ लगा कर आती, फ्लास्क से कप में चाय उड़ेल कर उन की ओर बढ़ा देती. चाय पीतेपीते वे दोनों थोड़ी देर गपशप करते, फिर अपनेअपने घर की तरफ निकल लेते.
दिवाकर ने महसूस किया कि उन्हें वसुधा के साथ की आदत पड़ती जा रही है. वसुधा को भी उन के साथ समय बिताना अच्छा लगता. पिछले कई महीनों से यही सिलसिला चल रहा था.
एक दिन दिवाकर सो कर उठे तो सिर में भारीपन सा महसूस हुआ, चैक किया तो पता चला कि उन को तेज बुखार है. ऐसे में पार्क जाने का तो सवाल ही नहीं उठता था. औफिस जाने से पहले नमन ने डाक्टर को दिखा कर दवा दिलवा दी थी. उन दोनों के औफिस में औडिट चल रहा था, सो, छुट्टी लेना मुमकिन न था.
पूरे 2 दिन हो गए थे उन को बिस्तर पर पड़े हुए, बुखार तो उतर गया था लेकिन कमजोरी अभी बाकी थी.
तीसरे दिन दोपहर को दरवाजे की घंटी बजी. इस समय कौन होगा, सोचते हुए उठे और दरवाजा खोला. सामने वसुधा खड़ी थी. वसुधा को यों अचानक अपने घर पर देख वे हैरान रह गए. फिर ध्यान आया कि परिचय देते समय खुद उन्होंने ही तो अपना फ्लैट नंबर वसुधा को बताया था.
‘‘मु झे लग ही रहा था कि तुम्हारी तबीयत खराब होगी,’’ वसुधा आते ही बोली, ‘‘डाक्टर को दिखाया, नहीं दिखाया होगा, आदतन खुद ही प्रश्न कर खुद ही जवाब भी दे दिया. पूरे दिन वह दिवाकर के साथ ही रही. इस बीच दिवाकर ने कई बार वसुधा से उस के घर जाने को कहा लेकिन मन ही मन वसुधा का उन की इस तरह चिंता करना बहुत अच्छा लग रहा था.
2-3 दिन आराम करने के बाद दिवाकर ने ठीक महसूस होने पर पार्क जाना शुरू कर दिया. उन्हें देख कर वसुधा के चेहरे पर उजली सी मुसकान खिल गई.
धीरेधीरे वसुधा व दिवाकर की पार्क में समय बिताने की अवधि बढ़ती गई. सैर करते, फिर बैंच पर बैठ कर कई बार चाय पीतेपीते एकदूसरे के जीवन जीने के नजरिए के बारे में अपनीअपनी राय एकदूसरे के सामने रखते. जब से वे वसुधा से जुडे़ थे उन के स्वभाव में काफी परिवर्तन आ गया था. अब उन्हें वसुधा की बातें अच्छी लगने लगी थीं.
एक दिन दिवाकरजी जैसे ही पार्क से घर लौटे, बेटे नमन ने टोका,
‘‘पापा, आजकल आप पार्क में कुछ ज्यादा समय नहीं बिताने लगे हैं. जहां तक मु झे मालूम है, आप को घूमने का इतना अधिक शौक तो है नहीं.’’
‘‘हां तो, पार्क में ठंडी हवा चल रही होती है, लोग घूम रहे होते हैं, फिर मैं पेपर भी वहीं बैठ कर पढ़ लेता हूं,’’ दिवाकरजी ने जवाब दिया.
‘‘नहीं, पापा, वह बात नहीं है. मेरा दोस्त बता रहा था कि आजकल आप किसी औरत के साथ…’’ आगे की बात नमन ने बिना कहे ही छोड़ दी.
दिवाकरजी ने आग्नेय नेत्रों से नमन की ओर देखा, फिर लगभग चिल्लाते हुए बोले, ‘‘तुम्हें अपने दोस्त के कहे पर विश्वास है पर अपने पापा पर नहीं. अब इस उम्र में क्या यही सब करने को रह गया है,’’ कह कर तेजी से अपने कमरे की तरफ जा कर दरवाजा बंद कर लिया.
मन बहुत खिन्न था. पूरे दिन मन में विचारों का घमासान चलता रहा. क्या वे व वसुधा सिर्फ अच्छे दोस्त हैं, क्या उन को वसुधा के साथ जीवन की नई शुरुआत करनी चाहिए, परंतु वसुधा के मन में क्या है, कैसे पता करें आदिआदि.
दूसरे दिन पार्क पहुंचे तो चेहरे पर परेशानी साफ नजर आ रही थी.
‘‘क्या बात है, कुछ परेशान लग रहे हो?’’ वसुधा ने पूछा.
‘‘कल मेरा बेटा हमारे, तुम्हारे रिश्ते पर सवाल उठा रहा था.’’
‘‘तो तुम ने क्या कहा?’’
‘‘मु झे क्या कहना चाहिए था?’’ दिवाकर ने वसुधा की तरफ प्रश्नउछाल दिया.
‘‘मुझे नहीं पता, आज मु झे घर पर कुछ काम है, सो जल्दी जाना है,’’ कह कर वसुधा अपने घर जल्दी ही चली गई.
दिवाकरजी ने सोचा, कहीं इस तरह का प्रश्न पूछ कर उन्होंने कोई गलती तो नहीं कर दी वरना रोज तो घंटों बैठ कर दुनियाजहान की बातें करती थी. पता नहीं वह उन के बारे में न जाने क्या सोच रही होगी. कहीं वसुधा ने उन से बातचीत करना बंद कर दिया तो?
वे घर तो आ गए थे लेकिन मन में उठ रहे विचारों की उठकपटक से बहुत परेशान थे. वे समझ नहीं पा रहे थे कि किसी औरत से मिलने पर नमन को एतराज क्यों है? क्या एक स्त्री, पुरुष सिर्फ अच्छे दोस्त नहीं हो सकते? परंतु अगले ही पल विचार आया कि इस में उन के बेटे का भी क्या दोष है. इस तथाकथित समाज में इस तरह के रिश्तों को सदैव शक की निगाह से ही देखा जाता है तो क्या उन्हें अपने व वसुधा के रिश्ते को कोई नाम दे कर इस उलझन को दूर कर देना चाहिए.
कुछ निर्णय नहीं ले पा रहे थे. मन में ऊहापोह की स्थिति निरंतर बढ़ती जा रही थी क्योंकि वे वसुधा जैसी जिंदादिल व बेबाक बात करने वाली दोस्त को खोना नहीं चाहते थे. एक दिन औफिस से आ कर नमन ने कहा, ‘‘पापा, आप से कुछ बात करनी थी?’’
‘‘हां, हां, कहो क्या बात है?’’
‘‘पापा, मेरा प्रमोशन हो गया है.’’
‘‘अरे, यह तो बड़ी खुशी की बात है परंतु यह सब बताते हुए तुम इतना सकुचा क्यों रहे हो?’’
‘‘पापा, असल में बात यह है कि मेरी कंपनी किसी प्रोजैक्ट के सिलसिले में
3-4 साल के लिए मुझे विदेश भेज रही है और नीरा भी मेरे साथ जा रही है. ऐसे में आप का यहां अकेले रहना व इतने बड़े फ्लैट का किराया देना मुश्किल हो जाएगा. सो, आप का बरेली वापस जाना ही ठीक रहेगा.’’
‘‘तुम अपनी लाइफ का फैसला करो, मेरा मैं खुद देख लूंगा,’’ दिवाकरजी ने तुनक कर कहा.
दूसरे दिन पार्क जाते समय मन ही मन एक फैसला कर लिया, आज वसुधा से वे क्लीयर बात कर ही लेंगे कि वह उन के बारे में क्या सोचती है. आखिर मालूम तो करना ही पड़ेगा कि उस के मन में क्या चल रहा है.
बेटे के विदेश जाने के समय तक उन दोनों में परस्पर कुछ लगाव सा हो गया था, लेकिन सिलसिला अभी तक सिर्फ बातचीत तक ही सीमित था. दोनों ने आपस में इस पर खुल कर कोई बातचीत नहीं की थी. दिवाकरजी अपने इस रिश्ते को ले कर सीरियस थे. बेटे के जाने से पहले ही वे इस बात को अंजाम देना चाहते थे, इसीलिए आज उन्होंने वसुधा से बात करने की ठानी ताकि कोई फैसला लिया जा सके.
जैसे ही वसुधा पार्क के चक्कर लगा कर उन की बगल में आ कर बैठी, बिना किसी लागलपेट के वसुधा की तरफ देख कर कहा, ‘‘वसुधा, शादी करोगी मुझ से?’’
‘‘शादी और तुम से, वह भी इस
उम्र में,’’ वसुधा ने चौंकते हुए उन की तरफ देखा.
‘‘उम्र की बात छोड़ो, तुम तो सिर्फ यह बताओ कि शादी करोगी या नहीं मु झ से?’’
वसुधा कोई जवाब न दे कर चुपचाप उन को देखती रही.
इस के बाद उन दोनों के बीच चुप्पी छा गई. 5 दिन हो गए थे, वे दोनों पार्क आते, वसुधा पार्क के चक्कर लगा कर उन के पास बैठती, चाय पिलाती लेकिन पहले की तरह गपशप व बातचीत का आदानप्रदान बंद था, क्योंकि दोनों के मन में ही विचारों की जंग छिड़ी हुई थी.
एक दिन दिवाकर पार्क पहुंचे, 2-3 चक्कर लगा कर बैंच पर आ बैठे. उन की दृष्टि बारबार पार्क के गेट की तरफ जाती क्योंकि वसुधा आज अभी तक पार्क में नहीं आई थी. उन को वसुधा की कमी बहुत ज्यादा खल रही थी क्योंकि आज उन का बर्थडे था और इस खुशी को वे वसुधा के साथ बांटना चाहते थे. बहूबेटे को तो शायद याद भी नहीं था कि आज उन का बर्थडे है. पत्नी मानसी उन के इस दिन को बहुत खास बना देती थी. उन की पसंद का खाना बना कर और भी न जाने बहुत सी ऐसी गतिविधियां कर के वह उन को खुश कर देती. तभी उन की नजर पार्क के गेट की तरफ पड़ी, देखा, सामने से वसुधा चली आ रही थी. उस के हाथ में आज एक गिफ्ट पैक था.
रोज की तरह वसुधा ने अपना बैग व गिफ्ट पैकेट उन को थमाया और बिना कुछ बोले, सैर करने निकल गई. जब लौट कर आई, उन की बगल में बैठते हुए बोली, ‘‘हैपी बर्थडे टू यू. हां, यह गिफ्ट पैकेट तुम्हारे लिए है.’’
‘‘तो तुम्हें याद था कि आज मेरा बर्थडे है?’’
‘‘लो, उस दिन तुम ने ही तो बताया था कि मानसी मेरा जन्मदिन बहुत धूमधाम से मनाती थी. गिफ्ट देख कर उन के चेहरे पर खुशी की चमक आ गई.
दिवाकर ने गिफ्ट को खोलने की बहुत कोशिश की परंतु गिफ्ट पैकिंग पर लगा टेप खोल ही नहीं पा रहे थे.
वसुधा ने उन के हाथ से पैकेट लिया और मुसकराते हुए बोली, ‘‘एक गिफ्ट पैक तो खुलता नहीं और ख्वाब देख रहे हैं शादी करने के.
‘‘इस में तुम्हारे लिए शर्टपैंट है और सैर करने के लिए ट्रैक सूट. कुरतापाजामा पहनने वाले आदमी मुझे कतई पसंद नहीं और पार्क में आ कर बैंच पर बैठ कर सोने वाले तो बिलकुल नहीं. मुझे स्मार्ट पति पसंद है,’’ कह कर आदतन खिलखिला कर हंस दी, ‘‘सो, यह ट्रैक सूट पहन कर पार्क के 3-4 चक्कर लगाने पड़ेंगे हर रोज. घूमने का शौक तो है नहीं और मन में लड्डू फूट रहे हैं शादी करने के,’’ वसुधा ने मुसकराते हुए कहा.
वसुधा उन की बगल में आ कर बैठ गई. दिवाकर ने कुछ नहीं कहा. कुछ देर दोनों के बीच चुप्पी छाई रही. लेकिन कनखियों से दोनों एकदूसरे को देख रहे थे. एकाएक दोनों की नजरें मिलीं तो दोनों ठहाका मार कर हंस दिए. इस हंसी ने सारे सवालों के जवाब दे दिए थे. वे दोनों ही जिंदगी की एक नई शुरुआत करने को मन ही मन तैयार थे. अपने बच्चों से इस बाबत बात की तो उन को खुशी हुई सुन कर कि कैसे 2 बुजुर्ग अपनी दूसरी पारी खेलने के लिए तैयार हैं. – माधुरी