कहानी: रफ कौपी
जब पड़ोसिन कह गई थी कि वह रफ कौपी का इस्तेमाल कभी नहीं करती क्योंकि उसे हमेशा लगता कि वह खुद रफ कौपी है.
मेरी रफ कौपी मेरे हाथ में है, सोच रही हूं कि क्या लिखूं? काफीकुछ उलटापुलटा लिख कर काट चुकी हूं. रफ कौपी का यही हश्र होता है. कहीं भी कुछ भी लिख लो, कितनी ही काटापीटी मचा लो, मुखपृष्ठ से ले कर आखिरी पन्ने तक, कितने ही कार्टून बना लो, कितनी ही बदसूरत कर लो, खूबसूरत तो यह है ही नहीं और खूबसूरत इसे रहने दिया भी नहीं जाता. इस पर कभी कवर चढ़ाने की जरूरत नहीं पड़ती. इस कौपी का यह हाल क्यों कर रखा है, कोई यह पूछने की जुर्रत नहीं करता. अरे, रफ कौपी है, रफ. इस से बेहतर इस का और क्या हाल हो सकता है. यह बदसूरत इसलिए कि कई बार पुरानी आधीभरी कौपियों के पीछे के खाली पृष्ठ काट कर स्टैप्लर से पिन लगा कर एक नई कौपी बना ली जाती है. रफ कौपी में खाली पृष्ठों का उपयोग हो जाता है. इसे कोई सौंदर्य प्रतियोगिता में रखना नहीं होता है. रफ है, रफ ही रहेगी.
इस में खिंची आड़ीतिरछी रेखाएं, ऊलजलूल बातें, तुकबंदियां, चुटकुले, मुहावरे, डाक्टर के नुसखे, कहानीकिस्से, मोबाइल नंबर, कोई खास बात, टाइम टेबल, किसी का जन्मदिन, मरणदिन, धोबी का हिसाब, किराने का सामान, कहीं जानेमिलने की तारीख, किसी का उधार लेनादेना, ये सारी बातें इसे बदसूरत बनाती हैं. दरअसल, इन बातों के लिखने का कोई सिलसिला नहीं होता है. जब जहां चाहा, जो चाहा, टीप दिया. कुछ समझ में नहीं आया तो काट दिया या पेज ही फाड़ कर फेंक दिया. पेज न फाड़ा जाए, ऐसी कोई रोकटोक नहीं है.
भर जाने पर फिर से एक नई या जुगाड़ कर बनाई गई रफ कौपी हाथ में ले ली जाती है. भर जाने पर टेबल से हटा कर रद्दी के हवाले या फिर इस के पृष्ठ, रूमाल न मिलने पर, छोटे बच्चों की नाक व हाथ पोंछने के काम भी आते हैं. हां, कभीकभी किसी आवश्यक बात के लिए रद्दी में से टटोल कर निकाली भी जाती है रफ कौपी. ऐसा किसी गंभीर अवस्था में होता है. वरना रफ कौपी में याद रखने लायक कुछ खास नहीं होता. आदत तो यहां तक खराब है कि जो भी कागज खाली मिला उसी पर कुछ न कुछ टीप दिया. इसे हम डायरी की श्रेणी में नहीं रख सकते, क्योंकि डायरी गोपनीय होती है और उसे छिपा कर रखा जाता है. उस का काम भी गोपनीय होता है. इसी से बहुत बार व्यक्ति के मरने के बाद डायरी ही उस व्यक्ति के गोपनीय रहस्य उजागर करती है.
रफ कौपी में यह बात नहीं है. एकदम सड़कछाप की तरह टेबल पर पड़ी रहती है, जिस का जब मन चाहे उस पर लिख कर चला जाता है. सच बात बता दूं, यह रफ कौपी मेरे लिए बड़ी सहायक रही है. मैं ने अपने हस्ताक्षर इसी पर काटापीटी कर बनाने का अभ्यास किया. बहुत सी कविताएं इसी पर लिखीं, तुकबंदी भी की. विशेषपत्रों की ड्राफ्ंिटग भी इसी पर की. विशेष सूचनाएं व पते भी इसी पर लिखे. पत्रपत्रिकाओं के पते व ईमेल आज भी यहांवहां लिखे मिल सकते हैं. यह तो मेरी अब की रफ कौपी है. पहली रफ कौपी सही तरीके से हाईस्कूल में हाथ में आई. तब टीचर कक्षा का प्रतिदिन का होमवर्क रफ कौपी में ही नोट कराती थीं. पहले छात्रों के पास डायरी नहीं होती थी, वे रफ कौपी में नोट्स बनवातीं. ब्लैकबोर्ड पर जो लिखतीं उसे रफ कौपी में उतारने का आदेश देतीं. उस समय रफ कौपी क्या हाथ लगी, कमाल ही हो गया. पीछे की पंक्ति में बैठी छात्राएं टीचर का कार्टून बनातीं. कौपी एक टेबल से दूसरी टेबल पर गुजरती पूरी कक्षा में घूम आती और छात्राएं मुंह पर दुपट्टा रख कर मुसकरातीं.
टीचर की शान में जुगलबंदी भी हो जाती. आपस में कमैंट्स भी पास हो जाते. कहीं जाने या क्लास बंक करने का कार्यक्रम भी इसी पर बनता. कई बार कागज फाड़ कर तितली या हवाई जहाज बना कर हम सब खूब उड़ाते. कभी टीचर की पकड़ में आ जाते, कभी नहीं. थोड़ा और आगे बढ़े तो रफ कौपी रोमियो बन गई. मन की प्यारभरी भाषा को इसी ने सहारा दिया. शेरोशायरी इसी पर दर्ज होती, कभी स्वयं ईजाद करते, तो कभी कहीं से उतारते. प्रथम प्रेमपत्र की भाषा को इसी ने सजाना सिखाया. इसी का प्रथम पृष्ठ प्रेमपत्र बना जब कुछ लाइनें लिख कर कागज का छोटा सा पुर्जा किताब में रख कर खिसका दिया गया.
इशारोंइशारों में बातें करना इसी ने समझाया. ऐसेऐसे कोडवर्ड इस में लिखे गए जिन का संदर्भ बाद में स्वयं ही भूल गए. लिखनाकाटना 2 काम थे. उस की भाषा वही समझ सकता था जिस की कौपी होती थी. सहेलियों के प्रेमप्रसंग, कटाक्ष और जाने क्याक्या होता. फिल्मी गानों की पंक्तियां भी यहीं दर्ज होतीं. जीवन आगे खिसकता रहा. रफ कौपी भी समयानुसार करवट लेती रही, लेकिन उस का कलेवर नहीं बदला. पति के देर से घर लौटने तथा उन की नाइंसाफी की साक्षी भी यही कौपी बनी.
रफ कौपी आज भी टेबल पर पड़ी है और यह लेख भी मैं उसी की नजर कर उसी पर लिख रही हूं. आप को भी कुछ लिखना है, लिख सकते हैं. रफ कौपी रफ है न, इसीलिए रफ बातें लिख रही हूं. शायद आप रफ या बकवास समझ कर इसे पढ़ें ही न. क्या फर्क पड़ता है. रफ कौपी के कुछ और पृष्ठ बेकार हो गए. रफ कौपी रक्तजीव की तरह मरमर कर जिंदा होती रहती है. फिर भी एक बात तो है कि भले ही किताबों पर धूल की परत जम जाए पर रफ कौपी सदा सदाबहार रहती है.
हां, उस दिन जरूर धक्का लगा था जब पड़ोसिन कह गई थी कि वह रफ कौपी का इस्तेमाल कभी नहीं करती क्योंकि उसे हमेशा लगता कि वह खुद रफ कौपी है. उस के मातापिता बचपन में मर गए थे और मामामामी ने उसे पाला था. पढ़ायालिखाया जरूर था पर उस का इस्तेमाल घर में मामामामी, ममेरे भाईबहन रफ कौपी की तरह करते – ‘चिन्नी, पानी ला दे,’ ‘चिन्नी, मेरा होमवर्क कर दे,’ ‘चिन्नी, मेरी फ्रौक पहन जा,’ ‘चिन्नी, मेरे बौयफ्रैंड कल आए तो मां से कह देना कि तेरा क्लासफैलो है क्योंकि तू तो बीएड कालेज में है, मैं रैजीडेंशल स्कूल में.’ उस ने बताया कि वह सिर्फ रफ कौपी रही जब तक नौकरी नहीं लगी और उस ने प्रेमविवाह नहीं किया. - सुधा