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कहानी: दूसरी औरत

अपनी आखिरी इच्छा में मांगता हूं. हर जन्म में तुम्हारे लिए ऐसा हमसफर जो तुम से इतना ही प्यार करे जितना तुम मुझ से करती हो और सिर्फ तुम से ही प्यार करे
मेरे दिमाग ने मेरे साथ खेल किया और पुरानी यादें किसी चलचित्र की भांति सामने चलने लगीं. लेकिन यह क्या, स्मृति कुछ उलट थी और मेरी आंखें मुझे धोखा दे रही थीं. एयरपोर्ट से निकलते ही चारों तरफ बिखरी बर्फ ने मन मोह लेने वाला स्वागत किया.

यदि मेरी जगह कोई और होता तो जरूर उस के मुख से विस्मय की चीख निकलती और वह इन नजारों को देख हतप्रभ रह जाता. लेकिन अफसोस, मेरी जगह मैं ही था और मेरे लिए इस जगह के माने कुछ और ही थे. मैं ने पहले ही हर विस्मित करने वाले दृश्य को सिरे से नकारने का फैसला कर लिया था.

कुछ जगहों की अप्रतिम सुंदरता भी वहां हुई दुर्घटनाओं को कभी ढक नहीं सकती.  हालांकि निश्चय तो मैं ने यह भी किया था कि कभी दोबारा कश्मीर नहीं आऊंगा पर मां की इच्छा थी कि फिर से कश्मीर देखना है. उन्होंने जब पहली बार यह बात कही तो मैं चौंक गया था और देर तक उन के चेहरे को पढ़ता रहा था. मुझे यकीन था कि इस बात का जिक्र करते वक्त मैं ने उन की आंखों में एक क्षणिक चमक देखी थी, ऐसी चमक जो अवश्य किसी ऐसे कैदी की आंखों में होती होगी जिसे बीते कई बरसों से कोई बंधन जकड़े हो और बहुत जद्दोजेहद के बाद वह कैदी अपनी बेडि़यां तोड़ आजाद होने को तैयार हुआ हो.

जिस जगह के नाम से हम इतने सालों बचते रहे और जिस का कोई जिक्र भी करे तो हम सब कांप जाते, उस जगह का नाम यों बेबाकी से, बिना विचलित हुए उन्हें लेते देख पूरे शरीर में एक बिजली सी कौंध गई थी, पर मां के सामने विरोध करने की हिम्मत मैं नहीं जुटा पाया पाया था. वजह शायद यह कि इसे हम बीते काफी समय में मां द्वारा प्रकट की गई पहली इच्छा कहें तो गलत नहीं होगा क्योंकि मां ने पिताजी की मौत के बाद अपनी डिमांड रखना बंद कर दिया था, जोकि पहले उन की क्षमता का मानक और पिताजी के लिए उन का पूर्ण समर्पित प्रेम लगता था, पर समय के साथसाथ पहले यह उन को पहुंचे सदमे का संघर्ष और फिर हम 5 भाईबहनों को अपनी विफलता नजर आने लगी.

सब से बड़ा बेटा होने के कारण मेरी जिम्मेदारियों का चोगा कुछ अधिक लंबा था, इसलिए मेरी नजर में यह भी था कि धीरेधीरे मां इंसान से अधिक हाड़मांस का बना एक व्यवस्थित और संतुलित पुतला नजर आने लगी हैं. उन के सारे भाव सतही होने लगे थे जिस बात से केवल मैं ही अनभिज्ञ नहीं था. घर के बाकी सभी सदस्य अब इस बाबत खुश थे कि मां ने आखिरकार अपनी कोई दिली ख्वाहिश जाहिर की थी और क्योंकि मां की यह भी शर्त थी कि सफर में सिर्फ वह और मैं जाएंगे, इसलिए सभी

मुझे बहलाफुसला कर मां के साथ जाने के लिए तैयार कर रहे थे. कौनकौन सी जगहें हैं जिन्हें हम देखेंगे, यह सब मां ने पहले ही तय कर लिया था.

हम एयरपोर्ट से सीधे पहलगाम गए, फिर वहां से सोनमर्ग. दिसंबर का महीना था. हर जगह ताजी बर्फ बिखरी थी. सफेदी में नहाए कश्मीर के जादू से मंत्रमुग्ध न होने वाले मेरे जैसे कोई बिरले ही होते होंगे.

हम ने दोनों ही जगहों पर केवल 2 काम किए थे- पहला, एक बैंच ढूंढ़ना और उस पर बैठ कर पूरे दिन पहाड़ों को देखना हालांकि जैसे ही

मुझे लगता कि नजारों की खूबसूरती मुझे  चकाचौंध कर रही है, मैं अपने जेहन में पुरानी घटना को ताजा कर लेता. दूसरा, अपने आसपास तरहतरह के सैलानियों के झुुुुरमुमुमट को, घोड़े वालों को, स्लेज वालों से भावतोल करते देखना और उन की जिंदगियों के बारे में अनुमान लगाना. हां, मैं ने एक तीसरा काम भी किया था, दूर पहाड़ों के शून्य में देखतेदेखते कभी मैं यह भी अनुमान लगाने की कोशिश करता कि मां इस वक्त क्या सोच रही होंगी, क्या वजह होगी कि वह कश्मीर आना चाहती थीं, कहीं वह पिताजी की याद में यहां से…

नहीं, मैं ने खुद को झकझोड़ा, मां यों हम सब को छोड़ कर थोड़ी… तीसरा और आखिरी दिन गुलमर्ग जाने का था. मैं ने तय किया कि मन में कुलबुला रहे सवाल को आज आवाज दी जानी चाहिए. सोनमर्ग से गुलमर्ग जाने का रास्ता लगभग साढ़े 3 घंटे का था. बीते दिनों की तरह गाड़ी में बैठ पहला आधा घंटा मां और मैं तरहतरह की बातें करते रहे. मां अपने बचपन के, परिवार के, पिताजी के कई किस्से सुनातीं और फिर जब थक जाती तो खिड़की से बाहर चलते नजारों को देखने लगतीं. आज भी यही हुआ.

पर मैं सवाल करने के लिए सही मौके की तलाश में था. जरा हिम्मत होती तो शब्द जैसे भीतर ही जमे रह जाते. मैं मां को देखता तो अचानक एक रुलाई अंदर उमड़ती, बिना किसी कारणवश.

मैं सोचता रहा और हम गुलमर्ग पहुंच गए.

‘‘यहां हम केवल बैंच पर नहीं बैठेंगे, फेज टू तक का गोंडोला भी करेंगे,’’ मां ने कहा.

मैं आतंकित हो उठा. शायदमुझे  जिस बात का संदेह था… मैं मां से इनकार करता कि मां ने फिर कहा, ‘‘तुम चिंता मत करो.’’

जैसे मां जानती थीं मैं क्या सोच रहा हूं. वह सबकुछ जो मेरे भीतर चल रहा था, सारी ऊहापोह वह मेरे आरपार देख सकती थीं जैसे मैं पारदर्शी था.

मां की इच्छा रखनी थी और अगले ही क्षण मैं ने खुद को गोंडोला में पाया.

फेज 2 तक का सफर बहुत हसीं था. स्वर्ग (जिस की कल्पना हम सब करते हैं) का नूर यहां बरसता था. मगर मेरे लिए नहीं.

नहीं, मैं ने नजारों को ललकारा- देखो, मैं तुम से प्रभावित नहीं हूं. मेरे लिए तुम स्वर्ग नहीं, नरक (जिस की कल्पना हम सब जैसी भी करते हैं) हो.

फेज 2 पर उतर कर अब मैं और मां फिर उस गहरी घाटी के आमनेसामने थे. इतना साहस मु?ा में नहीं था कि मैं फिर वहीं कदम रखूं. वहीं जहां वह हृदयविदारक घटना हुई थी.

पर मां मेरा हाथ पकड़ मुझे  वहां ले गईं और कुछ पन्ने मुझे  देने लगीं. मां की आंखों में फिर वह चमक थी.

‘‘ये कमलजीत की अस्थियां हैं. इन्हें यहीं से घाटी की फिजाओं के सुपुर्द कर दो.’’

मैं नहीं समझा, मां का क्या मतलब था और इस से पहले कि मैं कोई सवाल करता, उन के फिर कहने पर मैं ने उन पन्नों को पढ़ना शुरू किया…

‘मैं नहीं जानता तुम्हें यह खत कब मिलेगा, पर जब भी तुम इसे ढूंढ़ लो तो पढ़ने के बाद इस का क्या करना है, यह निर्णय मैं तुम पर छोड़ता हूं.

‘कोई खास तनाव नहीं है. वही रोजमर्रा की परेशानियां जो अमूमन सभी कोझेलनी पड़ती हैं पर एक बोझ है जिस का वजन इतने सालों उठा कर मेरे कंधे उकता गए हैं. हां, लेकिन खुशियां बहुत हैं. गिनूं तो शायद उंगलियां कम पड़ जाएं. शायद तुम हंसो कि यह कैसा सिरफिरापन है, कोई अनगिनत खुशियों के कारण थोड़ी अपनी इच्छा से दुनिया छोड़ता है पर तुम जानती हो मुझे हमेशा से इस बात से नफरत रही कि आत्महत्या को केवल दुनिया से हारे गए लोगों से जोड़ा जाता है. देखो, मैं यह बात बदलने वाला हूं, ऐसा व्यक्ति और जी कर क्या करेगा जिस ने वह सब पा लिया हो जितना वह पा सकता है.

‘और कहूंगा कि दुनिया में मुझ से बड़े सनकी भरे हैं. हां, चलो, तुम इसलिए तो मुसकराईं कि मैं ने यह माना कि मैं सनकी हूं.

‘जब जिंदगी इतनी भरीपूरी रही हो, कामयाबी के उच्चतम शिखर पर मां ने मुझे  देखा हो, कदम से कदम मिला कर चलने वाली पत्नी हो, 5 ऊंचे ओहदों पर पहुंची औलादें हों, उन की अपनी स्वस्थ औलादें हों तो दुनिया को हराने का पागलपन तो भीतर आ ही जाएगा.

‘देखो, मैं ने फिर फुजूल बातें शुरू कर दीं. तुम्हारे सामने ये सब बातें दोहराना फुजूल ही तो है. तुम ने तो ये सारे दिन मेरे साथ देखे हैं, जिए हैं.

‘पर अब जो मैं चला जाऊंगा, एक बात है जो मैं कन्फैस करना चाहता हूं. मुझे  पता है, तुम्हें कई बार शक हुआ और शायद वह शक यकीन में भी बदला हो पर तुम ने मुझ से कोई सवाल नहीं किया. मैं ने कई दफा सोचा था कि यदि तुम मुझसे पूछोगी तो मैं क्या जवाब दूंगा, कैसे अपनी मजबूरियां गिनाऊंगा, गिड़गिड़ाऊंगा, कितनी मिन्नतें करूंगा पर तुम ने मुझे यह मौका नहीं दिया. मुझे  इस बात का अंदाजा था कि तुम्हें लगता रहा कि सवाल के जवाब में मैं तुम्हें छोड़ दूंगा. पर नहीं, तुम मु इस से बेहतर जानती हो. मैं तुम्हें जीतेजी कभी नहीं छोड़ सकता था. पत्नी का दर्जा प्रेमिका से ऊंचा रहता है.

‘और अब तुम्हारे सवाल न करने के बावजूद मैं तुम्हें जवाब देना चाहता हूं. परिवार, बच्चों, घरबार से परे केवल हम दोनों के हिस्से का जवाब. तुम में कोई कमी नहीं है. कोई ऐसी बात नहीं जिस पर मैं उंगली रख सकूं और कहूं कि इस कारण मैं किसी दूसरी औरत के चक्कर में पड़ा. तुम ने मुझे  अपना परमेश्वर माना और मुझसे बेइंतहा निश्च्छल प्रेम किया. यहां तक कि मुझे हैरत होती है कि मेरी जिंदगी में तुम कैसे लिखी गईं. सब हमें देखते और रश्क करते कि शादी तो इन की तरह निभाई जाती है. और मुझे लगता, मैं भी उन देखने वालों का हिस्सा हूं और सिर्फ तुम से कह रहा हूं कि शादी तो इन की तरह निभाई जाती है.

‘पर तुम जानती हो कि हम इतने सालों एक झूठ जीते रहे. मेरा झूठ. जिस ने तुम्हारे सच को भी मैला कर दिया. इस बोझ ने मेरे अंदर इतनी ग्लानि भर दी है कि मैं इस घाव को रोज कुरेदता रहा हूं और इस का खुरंट खुद पर मलता रहा.

‘लेकिन अब मैं तुम्हें खुद से आजादी देना चाहता हूं, यह भी शायद मेरा ही स्वार्थ है और मैं तुम्हें नहीं, खुद को एक अपराधबोध से आजाद कर रहा हूं.

‘पत्नी के रूप में मैं ने हमेशा तुम से प्रेम किया और मैं हर जन्म में तुम सी पत्नी मांगा करता था पर यह तुम्हारे साथ अन्याय है.

‘इसलिए अब मैं अपनी आखिरी इच्छा में मांगता हूं. हर जन्म में तुम्हारे लिए ऐसा हमसफर जो तुम से इतना ही प्यार करे जितना तुम मुझ से करती हो और सिर्फ तुम से ही प्यार करे.’

‘‘मां, यह खत आप को कब और कहां मिला?

‘‘आप और पिताजी तो एकसाथ हमेशा इतने खुश थे.’’

‘‘यह दूसरी औरत?’’

एक के बाद एक ये सवाल बेमानी लगते हुए मेरे भीतर ही घुट गए और अचानक सबकुछ खुदबखुद सैंस बनाने लगा.

मेरे दिमाग ने मेरे साथ खेल किया और पुरानी यादें किसी चलचित्र की भांति सामने चलने लगीं.

लेकिन यह क्या? स्मृति कुछ उलट थी और मेरी आंखें मुझे धोखा दे रही थीं. पिताजी मेरे साथ बैठे थे पर मां कहीं नहीं थी जबकि आसपास के लोग चिल्ला रहे थे.

‘अरे, मैडम का पैर फिसल गया. बचाओ मैडम को. अरे, मैडम खाई में गिर रही है.’

मैं ने डर के कारण अपनी आंखें भींच लीं. ओफ, मैं यह क्या सोच रहा था और ? हकीकत में मैं ने मां को अपना हाथ पकड़ते महसूस किया. – जूही 
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