कहानी: करनी का फल
मीता अपनी दोस्त तनु के घर मिलने जा रही थी लेकिन मन ही मन यह सोचते हुए जा रही थई उससे यही बाते होनी है जो कल हुई थी.
मीता अपने घर से निकली. पूरे रास्ते वह बेचैन ही रही. दरअसल, वह अपने बचपन की सखी तनु से हमेशा की तरह मिलने व उस का हालचाल पूछने जा रही थी. हालांकि, मीता बखूबी जानती थी कि वह तनु से मिलने जा तो रही है पर बातें तो वही होनी हैं जो पिछले हफ्ते हुई थीं और उस से पहले भी हुई थीं. मीता का चेहरा देखते ही तनु एक सैकंड भी बरबाद नहीं करेगी और पूरे समय, बस, इसी बात का ही रोना रोती रहेगी कि, ‘हाय रे, यह कैसी जिंदगी? आग लगे इस जिंदगी को, मैं ने सब के लिए यह किया वह किया, मैं ने इस को आगे बढ़ने की सीढ़ी दी, पर आज कोई मदद करने वाला नहीं. गिनती रहेगी कि यह नहीं वह नहीं…’
मीता जानती थी कि जबरदस्ती की पीड़ा तनु ने पालपोस कर अमरबेल जैसी बना ली है. काश, तनु अपनी आशा व उमंग को खादपानी देती, तो आज जीवन का हर कष्ट, बस, कोई हलकी समस्या ही रह जाता और एक प्रयोग की तरह तनु उस के दर्द से भी पार हो जाती. मगर, तनु ने तो अपनी सोच को इतना सडा़ दिया था कि समय, शरीर और ताकत सब मंद पड़ रहे थे.
सहेली थी, इसलिए मीता की मजबूरी हो जाती कि उस की इन बेसिरपैर की बातों को चुपचाप सुनती रहे. आज भी वही सब दुखदर्द, उफ…
मीता ने यह सब सोच कर ठंडी आह भरी और उस को तुरंत 2 दशक पहले वाली तनु याद आ गई. तब तनु 30 बरस की थी. कैसा संयोग था कि तनु का हर काम आसानी से हो जाता था. अगर उस को लाख रुपए की जरूरत भी होती तो परिचित व दोस्त तुरंत मदद कर देते थे. मीता को याद था कि कैसे तनु रोब से कहती फिरती कि, ‘मीता, सुन, मैं समय की बलवान हूं, कुछ तो है मेरे व्यक्तित्व में कि हर काम बन जाता है और जिंदगी टनाटन चल रही है.’ मगर मीता सब जानती थी कि यह पूरा सच नहीं था.
असलियत यह थी कि तनु आला दर्जे की चंट और धूर्त हो गई थी. उस ने 5 सालों में ऐसे अमीर, बिगडै़ल व इकलौते वारिस संतानों को खूब दोस्त बना कर ऐसा लपेटा था कि वे लोग तनु के घर को खुशी और सुकून का अड्डा मान कर चलने लगे. मीता सब जानती थी कि कैसे प्रपंच कर के तनु ने लगभग ऐसे ही धनकुबेर दसबारह दोस्तों से बहुत रुपए उधार ले लिए थे और वह सीना ठोक कर कहती थी कि जिन से पैसा उधार लिया है वे सब अब देखना, कैसे जीवनभर मेरे इर्दगिर्द चक्कर काटते रहेंगे. मीता जब आश्चर्य करती तो वह कहती कि मीता, तुम तो नादान हो, देखती नहीं कि यह सब किस तरह अकेलेपन के मारे हैं बेचारे. लेदे कर इन को मेरे ही घर पर आराम मिलता है.
मगर मीता तनु की ये सब दलीलें सुन कर बहुत टोकती भी थी कि, बस, घूमनेफिरने और महंगे शौक पूरे करने का दिखावा बंद करो, तनु. आखिर दोस्त भी कब तक मदद करते रहेंगे?
पर तनु जोरजोर से हंस देती थी और कंधे झटक कर कहती कि मीता, मेरी दोस्ती तो ये लोग तोड़ ही नहीं सकते. देखो, मैं कौन हूं, मैं यहां नगरनिगम की कर्मचारी हूं. मेयर तक पहुंच है मेरी. मैं सब के बहुत काम की हूं वगैरहवगैरह. यह सुन कर मीता खामोश हो जाती थी. पर वह कहावत है न कि, परिवर्तन समय का एक नियम है. इसलिए समय ने रंग दिखा ही दिया. तनु का अपने पति से अलगाव हो गया और उस की इकलौती बेटी गहरे अवसाद में आ कर बहुत बीमार रही. कहांकहां नहीं गई तनु, किसकिस अस्पताल के चक्कर नहीं लगाए. पर कोई लाभ नहीं हुआ. एक दिन बेटी कोमा मे चली गई. मगर अभी और परीक्षा बाकी थी. एक दिन तनु का नगर निगम में ऐसा विवाद व कानूनी लफड़ा हुआ कि वह विवाद महीनों तक लंबा खिंच गया. और उस महज पचास की उम्र में नौकरी से त्यागपत्र देना पड़ा. यही उपाय था, वरना, उस को सब के सामने धक्के मार मार कर कार्यस्थल से निकाला जाता. आज वह बीमार बेटी को संभाल रही थी. पर कोई पुराना मित्र या परिचित ऐसा नहीं था जो, उस से मिलना तो बहुत दूर की बात, उस को मोबाइल पर संदेश तक भी गलती से नहीं भेजता था.
यह सब सोचतीसोचती मीता अब तनु के घर पर पहुंच चुकी थी और वह बाहर गमलों को पानी देती हुई मिल गई. मीता के मुंह से निकल पड़ा, “आहा, खूबसूरत फूलों की संगत में वाहवाह.”
यह सुना तो तनु फट कर बोल पड़ी, “हां, जानपहचान वालों ने तो मुझ को, बस, कैक्टस और कांटे ही दिए. फिर भी कुछ फूल कहीं मिल ही गए.” और फिर पाइप से बहते पानी से अधिक आंसू उस की आंख से बहने लगे और वह बेचारी व कमजोर इंसान बन कर हर परिचित को धाराप्रवाह बुराभला कहने लगी.
तब मीता ने कोई पल गंवाए बगैर कहा, “तनु, सुनो, यह जो दुख है न, हमारी उस याददाश्त की देन है जो खराब बातें ही याद दिलाती है. तुम को यह वर्तमान नहीं, बल्कि अतीत है जो रुला कर समय से पहले इतना जर्जर किए दे रहा है. बारबार लोगों को याद कर के लानतें मत दो. अच्छे लोगों की कीमत तब तक कोई नहीं जानता, जब तक वे हमारे व्यवहार से आहत हो कर दूर जाने न लगें. हमारे जीवन में कुछ सुकून की जो सांस चल रही होती है, वह इन सदगुणी लोगों के कारण ही होती है. तनु, गौर से सुनो और तुम एक बार याद तो करो कि तुम को कितने सहयोगी दोस्त एक के बाद एक मिलते रहे.”
तनु कुछ बोली नहीं. बस, चुपचाप सुनती रही. मीता बोलती गई, “तनु, कई लोग तो दशकों बिता देते हैं और संयोग से मिल रहे हितैषियों से भरपूर लाभ भी लेते रहते हैं पर वे लोग लापरवाह हो जाते हैं. वे अपनी उस ख़ुशी या उन मित्रों की अहमियत पर कभी ध्यान नहीं देते हैं जिन की वजह से उन की खुशी और आनंद आज अस्तित्व में हैं. और सच कहा जाए तो वह ही उन का सबकुछ है. कैसी विडंबना है कि आदमी इतना संकीर्ण हो जाता है कि वह सब से पहले उसी अनमोल खजाने को बिसरा देता है.”
“मैं ने सब के लिए कितना किया,” तनु गुस्से व नाराजगी से बोली, “रमा को हर हफ्ते मेयर की पार्टी में ले जाती थी. सुधा को तो सरकारी ठेके दिलवाए. उस उमा को तो नगर निगम के विज्ञापन दिला कर उस की वह हलकीफुलकी पत्रिका निकलवा दी. सब का काम किया था मैं ने. पर आज कोई यहां झांकता तक नहीं.”
“नहीं तनु, यह निहायत ही एकतरफा सोच है तुम्हारी. यह संकुचित सोच भी किसी अपराध से कम नहीं है क्योंकि ऐसे नकारात्मक सोचने वाला अपने दिमाग को सचाई से बिलकुल अलग कर लेता है.”
तनु यह सुन कर तमतमाता हुआ चेहरा कर के मुंह बनाने लगी पर मीता निडर हो कर आगे बोली, “तुम पूरी बात याद करो, तुम कह रही हो कि रमा को तुम दावतों में ले जाती थीं. पर उस के एवज में रमा की एक कार हमेशा तुम्हारे पास ही रही. और तुम ने रमा की नर्सरी से लाखों के कीमती पौधे मुफ्त में लिए, याद करो.”
तनु को वह सब याद आ गया और वह अपने होंठ काटती हुई कुछकुछ विनम्र हो गई. अब मीता ने कहा, “सुधा को तुम ने जुगाड़ कर के ठेका दिलवाया. हां बिलकुल, पर तुम्हारे घर पर कोई भी आयोजन होता था तो सुधा की तरफ से मुफ्त कैटरिंग होती थी. बोलो, सच है या नहीं?” “ओह, हां, हां,” कह कर तनु चुप हो गई.
मगर अब मीता बिलकुल चुप नहीं रही, बोली, “उमा की पत्रिका में तुम्हारी बेटी की कविता छपना जरूरी था. इतना ही नहीं, तुम ने उमा की पत्रिका को अपने ही एक प्रिय पार्षद का प्रचार साधन भी बनाया. याद आया कि नहीं, जरा ठीक से याद करो.”
“हां,” कह कर तनु कुछ उदास हो गई थी. मीता को लगा कि उसे कहीं पार्क या किसी खुली जगह में चलने को कहना चाहिए.
आखिर मीता भी इंसान थी और तनु को उदास देख कर उस का मन भी खुश नहीं रह सकता था. मीता ने उस के जीवन का हर रंग देख लिया था. तनु और उस ने कितना समय साथ गुजारा था. मीता ने उस से कहा कि तनु, सुनो, अभी तो सहायिका काम कर रही हैं, वे बिटिया को भी देखती रहेंगी. चलो, हम पास वाले पार्क तक चहलकदमी कर आते हैं. तनु के लिए मीता सबकुछ थी- बहन, दोस्त, हितैषी सबकुछ. वह चट मान गई और उस के साथ चल दी.
घर की चारदीवारी से पार होते ही तनु को कुछ अच्छा सा लग रहा था. वह आसपास की चीजों को गौर से देखती जा रही थी. पार्क पहुंच कर दोनों आराम से एक बैंच पर बैठ गईं.
तनु वहां पर उड़ रही तितली को यहांवहां देखने लगी. मीता को अब लगा कि आज तनु को सब याद दिलाना ही चाहिए, ताकि यह अपनी सोच को सही व संतुलित कर के सकारात्मक ढंग से विचार कर सके और खुद भी किसी पागलपन जैसी बीमारी का शिकार न हो जाए. तनु को उम्र के इस मोड़ पर मानसिकरूप से सेहतमंद होना बहुत अनिवार्य था. मीता यह सोच ही रही थी कि तनु अचानक अपने पति पुष्प का जिक्र करते हए पुष्प को बुराभला कहने लगी. उन की पुरानी गलतियां बता कर शिकायतें करने लगी.
पर मीता ने उस को बीच में ही फिर टोक दिया और जरा जोर दे कर कहा, “तनु, अगर तुम्हारे पति प्राइवेट स्कूल में शिक्षक न हो कर कोई बढ़िया नौकरी कर रहे होते तो तुम इतना रोब दिखातीं उन को, जरा ईमानदारी से याद करो, तनु. सुनो तनु, तुम उन की सारी तनख्वाह को जब्त कर लेती थीं और अपने ढंग से कहीं प्लौट खरीद लेतीं और लोन की किस्तें पुष्पजी के वेतन से चुकाई जातीं. वे कुछ कहते, तो तुम अपना रोबदाब दिखाने लगती थीं. तुम ने एक सरल व सच्चे इंसान को हौलेहौले मंदबुद्धि बना दिया, तनु. वे तुम्हारे चलते यह शहर ही छोड़ कर चले गए. पर आज वे आनंद से हैं, अकेले हैं, पर समाज की सेवा में बहुत खुश हैं.”
तनु यह सब चुपचाप सुनती रही. उस से कोई जवाब देते ही नहीं बन रहा था. मीता आगे बोली, “तनु, याद है एक बार तुम उन को अपने मेयर साहब से सिफारिश कर के नगर निगम का कोई सम्मान दिलवा लाई थीं, जबकि पुष्पजी तो चाहते ही नहीं थे कि उन को कोई मानपत्र दिया जाए. पर तुम ने कितना भौंडा प्रदर्शन किया. मुझे तो पुष्पजी का चेहरा याद आता है कि वे तुम्हारे इस दिखावे के शोरशराबे और आत्मप्रदर्शन से कितने आहत हो गए थे.
“वे यही सोचते कि एक सरल जीवन जिया जा सकता है. पर तुम तो न जाने किस लत में पड़ गई थीं कि यहां की गोटी वहां फिट कर दो, इस को आगे करो, उस को पीछे करो, इस से इतना रुपया ऐंठ लो और भी न जाने क्या सनक थी तुम को. तुम ऐसा क्यों करती थीं. तनु, कितनी ही बार पुष्पजी कोशिश करतेकरते हार गए कि तुम्हारा यह दंभ और अहंकार और झूठे पाखंड किसी तरह कम हो जाएं, पर एक बूंद के बरसने से ज्वालामुखी कहां शांत होता है.
“तुम तो पूरी महफिल में सरेआम न जाने क्या से क्या बोल जातीं. तुम हमेशा पुष्पजी के ड्रैसिंग सैंस का मजाक उड़ाया करतीं और उन के पहने हुए लिबास को बदलवा कर दोबारा तैयार होने को कहतीं थीं. वे कितना दुखी हो जाते पर तुम को तो, बस, दिखावा ही चाहिए था. तुम उन के अच्छे कपड़ों पर कैसे टिप्पणी कर देती थीं कि यह देखो, मैं खरीद कर लाई हूं, यह मेरी पसंद की जींस है. इस पर वे बेचारे कितना झेंप जाते थे. पर तुम को कुछ समझ नहीं आता था.
“पुष्पजी तुम्हारे साथ बहुत असहज होने लगे थे. वे कई बार ऐसे लगते जैसे किसी कैदखाने में घुट रहे हैं. बस, एक दिन उन्होंने फैसला कर लिया होगा कि चाहे किसी जंगल में खुशीखुशी रह लेंगे, पर तुम्हारी इस झूठ से भरी हुई नौटंकीशाला में कतई नहीं.
“और तनु, तुम्हारी आंखों में तो कितने परदे पड़े थे. सावन के अंधे को सब हरा ही हरा दिखता है. तुम को अपनी जोड़जुगाड़ वाली कूटनीति के चश्मे से यही दिखता था कि पुष्पजी से ले कर सब परिचित, बस, इक तुम्हारी ही छत्रछाया में सुकून से हैं.”
तनु यह सब ऐसे सुन रही थी मानो उस के खिलाफ कोई झूठा मुकदमा चलाया जा रहा हो.
मीता धाराप्रवाह बोलती गई, “तनु, पता है, तुम जब तक उन के सामने नहीं होती थीं वे जिंदगी का आनंद लेते पर तुम दफ्तर से आतीं तो वे सकपका से जाते. तुम जैसे कोई तबाही बन गई थीं उन के लिए. हम लोग कितना संकेत करते, पर तुम इतनी जोरदार व भारी आवाज में हमारी हर बात काट दिया करती थीं.”
यह सब कहतेकहते जब मीता जरा देर के लिए चुप हो गई तो तनु बोल पड़ी, “हुंह, मीता, तुम तो आज मुझे दोस्त लग ही नहीं रही हो. हद करती हो तुम, पुष्प के परिवार को गोवा तक घुमाने ले गई वह भी सरकारी खर्च पर. ऐसा शाहीभ्रमण उन के वश की बात ही नहीं है, मीता.”
“नहीं तनु, तुम फिर एकतरफा सोच रही हो. वह परिवार बहुत सादगीपसंद है. तुम्हारी चालें, तुम्हारे दांवपेंच वे नहीं जान सका कभी. तुम अपनी ननद और ननदोई को जिद कर के उन की मरजी के विरूद्ध गोवा ले गईं और उस से पहले ही तुम ने इस बात का हर जगह भोंपू बजा कर इतना प्रचार कर दिया था कि सुनसुन कर पुष्पजी शर्मिंदा हो जाते थे मानो वे कोई नितांत फकीर हैं और तुम ने उन को व उन के गरीब परिवार को शाहीजीवन उपहार में दिया है. पर तुम को यह सब कभी समझ नहीं आया.
“तुम को याद भी नहीं. पर तुम्हारे ननद और ननदोई गोवा जा कर बहुत परेशान हो गए थे. तुम से कहना चाहते थे पर तुम तो अपने प्रभाव व अपने रोब के खोल में बंद रहती थीं. तुम ने एक बार पलभर को भी उन दोनों का मन नहीं जाना. पर यह बात तुम्हारी ननद ने अपने भाई यानी पुष्पजी से कही कि वहां इतने ओछे और छिछोरे लोगों के साथ तुम ने उन को पलपल कितना विचलित किया. वे दूसरे दिन लौट जाना चाहते थे पर तुम ने उन को दबाव में ले कर पूरा सप्ताह जैसे उन का मानसिक शोषण किया था.
“तनु, वे बहुत ही सरल लोग हैं. इतना छलकपट, इतना दिखावा उन के वश की बात नहीं है. पर तुम तो गोवा से लौट कर भी अपनी उदारता का बखान करती रहीं कि ननदननदोई को घुमा लाईं वगैरहवगैरह.”
“पर आज देखो, तुम्हारे ननद और ननदोई सिर्फ अपने खूनपसीने की मेहनत के बल पर कितने सफल उद्योग चला रहे हैं. कितनों को रोटी दे रहे हैं. और तुम उन पर ऐसे अपना सिक्का जमाने की कोशिश करती थीं. तनु, पुष्पजी हों या उन के बहनबहनोई, वे सब मुझ से बहुत प्रेम रखते हैं. मगर मैं आज भी, बस, तुम से ही लगाव रखती हूं, बस, तुम से स्नेह रखती हूं. क्योंकि, एक जमाने में तुम्हारे पापा ने मेरी एक साल की स्कूल फीस जमा कराई थी. तनु, मेरे पास सब की खबर है, पर मेरा मन हमेशा तुम से ही जुडा रहेगा. मैं सदैव तुम्हारी ही भलाई चाहती हूं.” यह सब कह कर मीता चुप हो गई.
तनु यह सुन कर एकदम खामोश हो गई. थोड़ी देर बाद बोली, “मीता, एकएक बात सच कह रही हो. मैं जल्दी मालदार बनना चाहती थी और अमीरों की कमजोरी भांप कर उन का काम करवा कर रुपया मांग लेती थी. पर आज यह लगता है कि शायद मेरी यह फितरत सब भांप गए और मुझ से दूर होने लगे. सच मीता, अगर मैं यह प्रपंच वगैरह न करती तो कम पैसा होता पर कितनी खुशी होती और कितने अपने मेरे साथ होते. आज, बस, तुम ही हो जो मेरा साथ निभा रही हो. अब तुम देखना, मैं संकल्प करती हूं कि अपनी सोच बदल दूंगी. मैं, बस, प्रकृति की सेवा करूंगी और बेटी जल्द सही हो, इस की कोशिश. कोई मदद मांगने आए, तो गुप्तदान करूंगी,” कहते हुए तनु का गला भर आया और वह किसी तरह अपने आंसू रोकने लगी.
“हां तनु, यह ही सही मार्ग है. आखिर तनु, ऐसी समुचित मानसिक स्थिति होगी तो फिर किसी भी हाल में तुम्हारा बुरा कैसे संभव है? अब तुम इसी पल से अपने को बदल कर रख दो. वह मन सुधार लो जो अपना काम निकालने को परिचय की जोड़तोड़ करता रहे. बोलो तनु, कुदरत का भी अपना एक अटल कानून है. वह अच्छे लोगों से मिलवाती रहती है.
मगर जब हम उन सहयोगी जनों को बारबार नजरअंदाज करते हैं तो वे अंतिमरूप से चले जाते हैं और उस के बाद तो फिर संसार की कोई भी ताकत उन को वापस नहीं बुला सकती है. इस के साथ ही किसी की भी सिफारिश काम नहीं आती है. इस में किसी भी रिश्वत का आदानप्रदान नहीं होता है. इस अच्छे संबंध को तो आप बाजार से नहीं खरीद सकते हैं. और चाहकर भी इसे आप किसी को नहीं दे सकते हैं और किसी से छीनझपट कर भी ले नहीं सकते हैं.
“अब यह पूरी तरह से हम सब के ऊपर ही तो निर्भर करता है कि हम जैसा चाहें, इस अच्छी संगति को अंत दे सकते हैं.” “हां मीता, सच कहा, इस जीवन को खुशियों से संपन्न करने के लिए मुझ को ही यह जिदंगी सफल करनी पड़ेगी. इस जीवन के अंदर समझदारी की स्थापना करनी पड़ेगी.”
“हांहां तनु, हां,” कहते हुए मीता की आंखों में तनु की आंखों से टकराती इंद्रधनुषी आभा प्रतिबिंबित होने लगी.