कहानी: हीरा
आलोक के घर पार्टी में उस के जख्म फिर हरे हो गए थे और वह हीनभावना से भर उठा था. साधारण सी रूपरंग वाली इरा पर आलोक बुरी तरह फिदा था...
आसमानी औफ शोल्डर ड्रैस में लिपटी अपनी देहयष्टि को शीशे में निहार कर आत्मतुष्टि के भाव से युक्त नेहा जब बाहर निकली, तब सीतेश कार निकाल रहा था. एक पल के लिए सीतेश की नजरें नेहा पर गढ़ सी गईं. प्रशंसात्मक निगाहों से उसे देखता हुआ बोला, ‘‘जल्दी करो, नेहा वरना हम लेट हो जाएंगे.’’
ऊफ, कितना शुष्क है सीतेश. प्यारमुहब्बत की बातें, लाडमनुहार तथा प्रशंसा में दो शब्द कहना भी इसे नहीं आता. अपनी खीज दबाती नेहा कार की बगल की सीट पर बैल्ट लगा बैठ गई.
सीतेश के दफ्तर में नवनियुक्त आलोक ने अपनी शादी की पहली सालगिरह के उपलब्ध में सभी साथी इंजीनियरों को अपने घर आमंत्रित किया था. आलोक की जिंदादिली और खुशमिजाजी की तारीफ नेहा भी काफी सुन चुकी थी.
रंगबिरंगी लाइटों से सजी कोठी गेट पर आलोक व उस की पत्नी मेहमानों की अगवानी कर रहे थे. अपनी पुरानी क्लासमेट इरा को आलोक की पत्नी के रूप में देख कर नेहा सुखद आश्चर्य से भर उठी. 1-2 पल तो दोनों हैरत से एकदूसरे का चेहरा देखती रहीं, फिर गले लग गईं.
सीतेश से इरा का परिचय कराती हुई नेहा बोली, ‘‘इरा, यह मेरे पति सीतेश हैं.’’
इरा ने हाथ जोड़ कर अभिवादन किया. फिर दोनों सखियां बातों में उल झ गईं. तभी आलोक का चहकता स्वर गूंजा, ‘‘इरा, डियर इरा, कहां व्यस्त हो गई हो? देखो, गैस्ट आ रहे हैं.’’
इतने लोगों के बीच ऐसा संबोधन सुन कर इरा के गाल लज्जा के कारण लाल हो गए.
‘‘नेहा, पार्टी के बाद रुक जाना. तुम से बहुत सी बातें करनी हैं,’’ कह कर डिजाइनर भारी साड़ी का पल्ला समेटती हुई इरा आलोक की बगल में जा खड़ी हुई. पार्टी में काफी अच्छा इंतजाम था. कालेज के जमाने की साधारण से रंगरूप वाली इरा डिजाइनर साड़ी और स्पैशल मेकअप में काफी आकर्षक लग रही थी.
उस के जरा दूर होते ही आलोक पुकार उठा, ‘‘डियर, कहां खो गई हो? कम से कम आज तो हमारे पास ही रहो.’’
सकुचाती सी इरा आलोक के पास सरक आई.
अनजाने ही नेहा इरा से अपनी तुलना करने लगी. इरा के विवाह को 1 साल हो गया है. फिर भी आलोक कैसे भंवरे सा उस के चारों ओर मंडरा रहा है. कैसे मीठीमीठी बातों से वह इरा को गुदगुदाता रहता है. और एक वह है, शादी को अभी 6 महीने भी नहीं हुए हैं परंतु सीतेश के गंभीर स्वभाव और चुप रहने की आदत ने उस के अंदर भी कैसी अजीब परिपक्वता सी पैदा कर दी है. उन की शादी लगभग अरेंज्ड मैरिज थी इसलिए शादी से पहले डेटिंग का मजा भी नहीं रहा था और न ही आलोक को सम झने का मौका मिला था.
पार्टी खत्म हो जाने पर कैटरर के आदमी इधरउधर बिखरा सामान सहेजने लगे. सीतेश और आलोक दफ्तर से संबंधित बातों मेें व्यस्त हो गए.
नेहा को अपने पास बैठाती हुई इरा बोली, ‘‘अब बताओ नेहा, कैसी हो तुम? लगभग 3 वर्षों के बाद हम मिल रहे हैं.’’
और फिर कालेज के जमाने की खट्टीमीठी बातों का जो अंतहीन सिलसिला शुरू हुआ तो समय का कुछ पता ही नहीं चला. हां, आलोक बीचबीच में इरा को छेड़ते हुए फुल झडि़यां सी छोड़ता रहा.
इरा जब चाय बना कर लाई तो उसे देख कर आलोक बोल पड़ा, ‘‘आज तो तुम गजब ढा रही हो,’’ फिर वह नेहा की ओर देख कर बोला, ‘‘नेहा, तुम ही बताइए, आज इरा बहुत सुंदर लग रही है न?’’
आलोक के इस बेबाक खुलेपन से नेहा झेंप सी गई. फिर बोली, ‘‘इरा भला कब सुंदर नहीं थी? हम तो पुरानी सहेलियां हैं.’’
नेहा व सीतेश जब वापस आ रहे थे तो नेहा की अस्वाभाविक चुप्पी को देख कर सीतेश बोला, ‘‘क्या बात है नेहा तुम कुछ गुमसुम हो?’’
नेहा सीतेश को नहीं बता सकी कि उस के अंदर कैसा बंवडर उमड़ रहा है. उस के भीतर घाव टीस रहे थे.
रात पलंग पर लेटी हुई नेहा लगातार अंधेरी छत की ओर ताकती रही. देर तक उसे नींद नहीं आई. उसे याद आया कि स्कूल में 10वीं के बाद से ले कर कालेज के जमाने तक में उस की सुंदरता से आकर्षित लड़कों का झुंड हर वक्त उस के आसपास मंडराता रहता था.
‘वाह, क्या चाल है,’ ‘कैसा चांद सा चेहरा है,’ जैसी फिकरेबाजी नेहा के मन के किसी कोेने को गुदगुदा जाती थी. इस तरह की बातें सुन कर बाहर से अपनी खीज जाहिर करती किंतु मन ही मन खुश होती हुई वह गर्व से आगे बढ़ जाती थी.
उसे पता था कि वह रूप से सुंदर है. दमकता रंग, कटावदार आंखें, घुटनों तक लहराती चोटी, किस चीज की कमी थी उस में? सहेलियां भी उसे छेड़ते हुए अकसर कह देती थीं, ‘‘तुम से मैरिज करने वाला व्यक्ति कितना सुखी होगा.’’
मां की भी हार्दिक इच्छा थी कि उस का जोड़ उस जैसा ही हो. सीतेश से शादी की बात चलने पर पहली नजर में ही सब ने सीतेश को पसंद कर लिया था. नेहा भी सीतेश के सुदर्शन व्यक्तित्व से प्रभावित हो गईर्. फिर वे विवाह बंधन में बंध गए.
सीतेश अल्पभाषी, सौम्य व मृदु स्वभाव का व्यक्ति था. लंबीलंबी बातें बनाना उसे नहीं आता था. उस के सौम्य व्यक्तित्व से नेहा काफी संतुष्ट थी. इसलिए शादी के बाद नेहा और निखर आई. बाहर जाते समय जब वह सजसंवर कर आती तो उस के रूप की चौंध से सीतेश मुग्ध हो उठता. नेहा चाहती थी कि सीतेश उस की सुंदरता की सराहना करे, पर ऐसे वाक्य सुनने को उस के कान तरस गए थे.
हालांकि सीतेश की आंखों की चमक तथा उस की आंखों की मौन भाषा सबकुछ प्रकट कर देती थी पर इस मौन भाषा से नेहा का अहं संतुष्ट नहीं होता था. शादी से पहले तो न जाने कितने लड़के उस के रूप पर आकर्षित थे पर शादी के बाद तो उस के साथ सीतेश को देख कर वह छींटाकशी भी बंद हो गई थी जो उसे भली लगती थी. अब तो अपने रूप की सराहना सुने हुए उसे काफी समय हो गया था.
कई बार नेहा को लगता कि क्या इस ठंडी पत्थर की शिला के लिए ही उसे यह सुंदरता मिली है. फिर वह स्वयं ही अपने मन को तसल्ली दे देती कि सीतेश चाहे मुंह से कुछ
न कहे पर मन से वह उसे बहुत प्यार करता है. उस का उष्ण स्पर्श, उस की आंखों की चमक, उस के मुसकराते होंठ सभी उस के जज्बात व्यक्त कर देते हैं, भले ही वह उन्हें शब्दों में नहीं ढाल पाता हो.
मगर आज आलोक के घर पार्टी में उस के जख्म फिर हरे हो गए. उस के अंदर हीनभावना सी पैदा हो गई. साधारण से रूपरंग वाली इरा पर उस का आलोक किस कदर फिदा है. उस के होंठों पर कैसे प्रशंसात्मक जुमले रहते हैं और उन्हें सुन कर इरा भी किसी नवविवाहिता सी सकुचा जाती है.
सुबह नेहा जब सो कर उठी तो उस की थकीथकी लाल आंखें देख कर सीतेश चिंतित हो उठा, ‘‘क्या बात है नेहा रात नींद नहीं आई क्या?’’
‘‘वैसे ही, सिर जरा भारी है. अपनेआप ठीक हो जाएगा. रात पार्टी के बाद बैठने के कारण नींद नहीं आई,’’ नेहा ने टालते हुए कहा.
सीतेश ने दफ्तर से भी 2 बार फोन कर के उस का हाल पूछा. किंतु नेहा उसे अपने मन का दर्द नहीं बना सकी.
अब इरा के घर उन का आनाजाना काफी बढ़ गया था. आलोक हर बार जिंदादिली से उन का स्वागत करता और हर बार कांटों की चुभन लिए नेहा घर आ जाती थी.
फिर नए साल के उपलक्ष्य में इरा ने उन्हें डिनर के लिए आमंत्रित किया था. औरंगाबादी गुलाबी सिल्क की साड़ी और कश्मीरी शाल पहन कर जब वह बाहर आई तो सीतेश उस के रूप की लौ से पिघल सा गया पर वह कुछ नहीं बोला. आलोक के घर पहुंच कर घंटी दबाने पर दरवाजा आलोक ने ही खोला. नेहा का अनुपम सौंदर्य देख कर वह ठगा सा रह गया. फिर बोला. ‘‘नेहा, आज तो तुम अप्सरा सी लग रही हैं.’’
इसे कहते हैं प्रशंसा. नेहा को लगा कि उस का साजशृंगार सार्थक रहा. कोई तो उस के सौंदर्य का कद्रदान निकला.
इरा ने डिनर के लिए काफी अच्छा इंतजाम किया हुआ था. सब खाने की मेज पर बैठ कर खाना खाने लगे. सब्जी में नमक कुछ तेज था. नेहा व सीतेश तो चुप रहे, पर आलोक ने जैसे ही मुंह में निवाला रखा, वह गुस्से से तमतमा उठा, ‘‘इरा, तुम ने सारे खाने का सत्यानास कर दिया. सालभर हो गया है परंतु तुम्हें अब तक नमक का अंदाजा नहीं आया.’’
यह सुन कर इरा का मुंह उतर गया.
नेहा ने बात संभाली, ‘‘नमक कोई खास तेज तो नहीं है. दही के साथ तो ठीक लग रहा है,’’ पर आलोक का मूड उखड़ाउखड़ा सा ही रहा.
इस बोझिल वातावरण में सीतेश व नेहा भी ज्यादा देर नहीं बैठ सके और उन से विदा
ले कर घर आ गए. आलोक का यह दूसरा रूप देख कर नेहा सन्न सी रह गई. अपमान से तिलमिलाया हुआ इरा का चेहरा बारबार उस के सामने आ रहा था.
अचानक नेहा को 3 माह पहले की एक घटना याद आ गई जब सीतेश का दोस्त अमर उन के यहां 2-3 दिन के लिए आया था. उसे घर का खाना ज्यादा पसंद था और नेहा कुकिंग ऐंजौय भी करती थी. बड़ी मेहनत से उस ने कोफ्ते तैयार किए थे. वह रसोई में फुलके सेंक रही थी कि सीतेश की आवाज आई, ‘‘नेहा, कोफ्ते बहुत अच्छे बने हैं पर नमक कुछ तेज है, फ्रिज में टमाटर हों तो जरा फीकी तरी बना कर मिला दो. तब तक हम गप्पें मार रहे हैं.’’
नेहा ने चख कर देखा, नमक सचमुच काफी तेज था. बात आईगई हो गई, पर आज 3 माह बाद घटना नेहा के आगे चलचित्र सी घूम गई, अगर सीतेश भी उस समय आलोक की तरह बरस पड़ता तो? फिर भी सीतेश के प्यार का क्या वह सम्मान कर पाई थी? इस बात पर मन ही मन वह आत्मग्लानि से भर उठी.
दिन में इरा का हाल पूछने वह उस के दफ्तर चली गई. उस का औफिस भी इरा के औफिस कौंप्लैक्स में ही था. तो उस की लाल आंखें देख कर वह चौंक पड़ी. कारण पूछने पर इरा फफक पड़ी, ‘‘आज सुबह काम ज्यादा होने से नाश्ते में देर हो गई तो आलोक को गुस्सा आ गया. वे प्लेट पटक कर भूखे ही दफ्तर चले गए. आलोक का गुस्सा बड़ा तेज है. किसी के भी सामने मेरी बेइज्जती कर देते हैं.’’
नेहा का मन दुख से भर गया. इरा को किसी तरह समझाबुझा कर वह वापस आ गई. उसे लगा कि मृगमरीचिका सी प्रशंसा की भूख में वह पागल हो गई थी. सीतेश की सौम्यता को उस ने गलत सम झा. आलोक के बड़बोलेपन के एक पहलू को ही वह देख पाई थी जबकि दूसरा पहलू तो उस ने देखा ही नहीं, जिसे इरा भोग रही है और नेहा के मन का अपराधबोध उस की आंखों से आंसू बन कर बह निकला. यह हीरा है उस के पास चाहे तराशा सही न गया हो, पर है खालिस, दाम बिना.