कहानी: सहयात्री
रात के दस बज चुके थे । तूलिका अभिव्यक्ति को छोड़ने के लिए बाहर आई । उसने अभिव्यक्ति के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा—
“घबराओ नहीं ! प्रयास जारी रखो , समय के साथ सब कुछ ठीक हो जाएगा । अभिव्यक्ति की आंखों के आंसू अभी सूखे नहीं थे , गीली आंखों से उसने तूलिका की ओर देखा और गाड़ी मैं बैठ गई ।
रात के ग्यारह बजे अपने सारे बचे हुए कार्य को निपटा कर जब तूलिका सोने गई तो देखा , अपूर्व विचारमग्न होकर कुछ सोच रहा था । तूलिका ने चादर ठीक करते हुए पूछा—–
“सोये नहीं अपूर्व क्या बात है ? ”
अपूर्व उठ बैठा और शून्य में देखता हुआ बड़े ही क्षीण आवाज में कहा—
“आजकल के बच्चों की मनोवृति को समझना बड़ा ही कठिन है । हमारे मां-बाप इतना कहां सोचते थे । एक बार हमारे लिए जो निर्धारित कर दिया , तो कर दिया । हमनें भी आगे-पीछे देखे बिना उसी रास्ते पर चलना सीख लिया और कभी पलट कर अपने माता-पिता से कोई शिकायत नहीं की । यदि जीवन अच्छा चला तो मां-बाप को श्रेय देते थे और यदि बुरा हुआ तो अपने भाग्य को कोस कर हम लोग जीवन जी लेते थे । आखिर बच्चों का पालन-पोषण हम कितना सधा हुआ और संतुलित रखें कि कम से कम अपने माता-पिता से कोई गिला-शिकवा ना रहे । ”
तूलिका ने भी हां में सिर हिलाया और कहा—-
“विवाह के बाद बच्चों का आगमन जैसे ही होता है और एक स्त्री-पुरुष जब माता-पिता बन जाते हैं , तो उनकी पूरी दुनिया उन्हीं पर केंद्रित हो जाती हैं । भले ही हर माता-पिता का तरीका अलग होता है किंतु मूल में तो यही बातें होती हैं ।”
वर्तमान जीवन की दो विपरीत घटनाओं ने तूलिका और अपूर्व के जीवन को झकझोर कर रख दिया था ।
अपूर्व का प्रतियोगी परीक्षा में सफलता प्राप्त नहीं करना , असमय ही माता-पिता द्वारा उसका विवाह कर देना और अचानक वैवाहिक जीवन की जिम्मेदारियां ….. उसके जीवन की ऐसी हवाएं थी जिसने पतझड़ के सूखे पत्ते की तरह उसके जीवन को बिखेर दिया था । वह अपने आप को संभाल नहीं पाया और आनन-फानन में उसने एक निजी कंपनी में छोटी सी नौकरी को स्वीकारना ही उचित समझा । प्रकृति का तो यह स्वभाव हीं होता है कि जहां कांटे हों वहां फूल भी होता है । जब उनके जीवन में दिव्यांका का आगमन हुआ तो जिंदगी फिर से बसंत के फूलों सी महकने लगी ।
समय को खिसकते देर ना लगी । दिव्यांका बहुत जल्दी बड़ी होने लगी । दोनों ने एड़ी-चोटी लगा दी उसके लालन-पालन में । एक तरफ अपूर्व ने जहां अपने काम के घंटे बढ़ा दिये , वहीं दूसरी तरफ तूलिका ने कामवाली बाई को हटाकर स्वयं हीं घर का सारा कार्य करने लगी ताकि खर्च बढ़े नहीं और सारा पैसा दिव्यांका की पढ़ाई पर लग सके ।
उस दिन अपूर्व ने अपने को जीवन के उस हरे-भरे रास्ते पर खड़ा पाया जहां से वह अपने सपनों को जिंदा होते हुए देख रहा था। दिव्यांका का अच्छे नंबरों से मेडिकल के इम्तिहान में पास होना और एक अच्छे कॉलेज में एडमिशन होना ।
समय पर लगाकर उड़ चला । मेडिकल का अंतिम वर्ष था और दिव्यांका के लिए एक अच्छे , संपन्न परिवार से रिश्ता आया था । पति पत्नी ने दिव्यांका से बिना पूछे हां कर दिया था । जीवन मानो उनके लिए एक सौगात लेकर आया था । जीवन के सारे दुख , संघर्ष को वे भूल चुके थे उनकी पूरी जिंदगी मानो दिव्यांका में समाहित हो चुकी थी ।
इस बीच दिव्यांका की तरफ से स्पष्टीकरण आया था कि फाइनल परीक्षा के बाद ही वह शादी करेगी । उस वक्त तूलिका और अपूर्व की खुशी का ठिकाना नहीं था । दिव्यांका की प्रतिक्रिया से उन्होंने दुगुने उत्साह से विवाह की तैयारी शुरू कर दी थी ।
समय ने उड़ते हुए पति-पत्नी के पर काट कर उन्हें कठोर धरातल पर गिरा दिया था । सगाई वाले दिन अपने हीं क्लासमेट के साथ विवाह करना और कुछ समय के बाद ही उससे अलग होकर घर लौटना । और अपने रुदन से माता-पिता के जीवन को मातम में बदल देना……. यह सब इतनी जल्दी हुआ मानो किसी फिल्म की स्क्रिप्ट थी । जिसे तीन घंटे में पूरा करना था । दोनों ने मौन दर्शक की तरह बस पूरी फिल्म देख ली । दिव्यांका के शब्दभेदी डायलॉग ने दोनों की आत्मा को झकझोर कर रख दिया था । मानो दिव्यांका ने सागर की विकराल लहर बनकर अपूर्व और तूलिका को कहीं दूर उठा कर फेंक दिया था ।
“आप लोगों ने अपनी कमियों को मुझ पर थोप दिया था । आप लोगों का संघर्ष , आपका जीवन , आपके सपने …इन सबने मानों मुझे किसी लोहे की जंजीर में जकड़ दिया था । मेरी इच्छाएं क्या थीं , यह तो मैंने जाना ही नहीं ।
परिस्थितियों से मैंने समझौता कर लिया था । आप लोगो की इच्छाओं को मैंने अपनी इच्छा बना ली । पापा के पास पैसे कम थे इसलिए मैंने कभी जुबां नहीं खोली । मेरी इच्छा कभी भी मेडिकल पढ़ने की नहीं थी । मैं तो फैशन डिजाइनिंग करना चाहती थी । आप लोगों ने शुरू से मुझे बंधन में रखा । मुझे उड़ने नहीं दिया क्योंकि आप लोगों को एक सुरक्षित जीवन चाहिए था और जब आप लोगों ने मुझसे बिना पूछे मेरी शादी की तैयारी शुरू कर दी तो मेरा दम घुटने लगा था । मैं अभी विवाह के पक्ष में नहीं थी । आप लोगों के कारण ही गुस्से में मैंने अपनी मर्जी से विवाह कर लिया । विस्मय मुझे सिर्फ पसंद करता था । आप लोगों ने मुझे समय नहीं दिया कि मैं उसे एक बार परख तो लूं । बाद में जाना कि वह तो मेरे लायक था ही नहीं । आप लोगों के सपनों ने मेरा जीवन बर्बाद कर दिया ।” कहते हुए दिव्यांका रोने लगी ।
“एक बार कह कर तो देखती बेटा ।”
तूलिका ने सिसकते हुए उससे कहा ।
“कैसे कहती मां ? आप लोगों ने तो मुझे कुछ कहना सिखाया ही नहीं था । आप लोगों की परिस्थितियों के बंधन में मैं हमेशा जकड़ी रही । मन में कुछ इच्छाएं भी उमड़ती तो उसे मन में ही कुचल डालती क्योंकि पापा को दुखी होते मैं नहीं देख सकती थी ।”
समय ने बीतने में फिर से होड़ लगा दी थी दिव्यांका छोटे शहर से निकलकर बड़े शहर के किसी बड़े हॉस्पिटल में डॉक्टर बन चुकी थी । उसने विस्मय से तलाक ले लिया था ।
सालों बाद तूलिका के बचपन की दोस्त अभिव्यक्ति का आना और उसके जीवन के झंझावातों से रूबरू होना तूलिका के सामने हजारों सवाल खड़े कर दिए थे । दुविधा , संशय , बंधन , आजादी , परवरिश , त्याग, प्रेम , स्नेह , जिम्मेदारी , संघर्ष ये सारे ब्रह्मांड में उन ग्रहों के समान थे जो उसे सूर्य बनाकर उसके चारों तरफ घूम रहे थे । तूलिका उस मुकाम पर खड़ी थी जहां पर उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह पछतावा करे या गर्व से अपना मस्तक ऊंचा करें ।
उसकी दोस्त अभिव्यक्ति की भी वही कहानी थी किंतु यहां तो विचारधारा ही अलग थी । पेशे से अभिव्यक्ति और उसके पति दोनों ही डॉक्टर थे । बड़ा डॉक्टर बनना , बड़ा हॉस्पिटल खोलना इन महत्वाकांक्षाओं को लिए हुए उन्होंने अपनी बेटी की परवरिश की । आजाद खयालात के मां-बाप ने बेटी को भी अपने सपनों की दुनिया में जीने की आजादी दे दी थी । समय निकलता रहा । एक तरफ माता-पिता की व्यस्तता थी , दूसरी तरफ बिना किसी दिशा , मार्गदर्शन और बंधन के बेटी के सपनों ने विकृत आकार ले लिया था ।
समाज में प्रतिष्ठा , ओहदा और संपन्नता का तमगा लिए जब वे खुशी-खुशी बेटी के पास लौटे तब तक बहुत देर हो चुकी थी । ड्रग्स , शराब , बार , कैफे को अपनी दुनिया बनाकर , चारित्रिक पतन जैसे विकृत सपनों को लेकर घूमते-घूमते अपराध की दुनिया से ताल्लुक रखने वाला किसी लड़के से उसने विवाह कर लिया था और जब माता-पिता ने सवाल करने के लिए मुंह खोले ही थे की बेटी ने हजारों सवालों से उनके होंठ सिल दिए थे।
“दोषी आप लोग हैं मम्मी-पापा । आप लोगों ने मुझे सही राह पर चलना नहीं सिखाया । मेरी कच्ची उम्र को सही दिशा नहीं दिया । मेरे सपनों को इतनी छूट दे दी कि वह अनजाने राह पर चल पड़ा जहां मुझे एक भी यात्री नहीं मिला जो मुझे सही राह दिखा सके । मैं गीली मिट्टी की तरह थी , आकार देना आप लोगों का काम था । किंतु आप लोगों ने तो मुझे चाक पर रख कर छोड़ दिया और मैं विकृत आकार की होती गई । आप लोगों के पास समय कहां था मेरे लिए कि मुझे किसी सांचे में डालकर खूबसूरत बना सके । मुझे इतनी आजादी नहीं , बंधन भी चाहिए था । आप लोगों के प्यार-दुलार के अतिरिक्त डांट की भी जरूरत थी
रात के बारह बज चुके थे । तूलिका और अपूर्व अतीत से लौट आए किंतु मौन थे । तूलिका ने मौन तोड़ा…….
“आखिर बच्चों को हमसे क्या चाहिए ? सपने पालने की छूट या जंजीरों में जकड़े सपने ?”
मेरी बेटी छूट यानि आजादी के लिए तरसती रही और अभिव्यक्ति की बेटी छूट से नफरत करती रही । यह क्या है अपूर्व …?
अपूर्व कुछ देर चुप रहा और फिर गंभीरता से उसने कहा……
“दोनों ”
तूलिका चौंक पड़ी ।
“हां तूलिका ! परवरिश में संतुलन की आवश्यकता होती है बच्चों को सही दिशा में ले जाने के लिए उनके पांव बांधने की जरूरत नहीं है बल्कि उनके साथ-साथ चलने की है । ताकि हर कदम पर उन्हें एहसास हो कि वह स्वयं चल रहे हैं , किंतु निरंतर कोई सहयात्री है जो उन्हें जीवन के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं से अवगत कराते हुए और सही रास्ता दिखाते हुए साथ-साथ चल रहा है । साथ ही सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके भीतर किस तरह के सपने पल रहे हैं वह जानने के लिए हमें एक दोस्त बनकर उनके करीब जाना होगा ना कि एक अभिभावक या माता-पिता बनकर ताकि वह खुलकर हमारे सामने अपने आप को अभिव्यक्त कर पाए । यहां बंधन भी है और चलने की छूट भी है । माता-पिता को सिर्फ मार्गदर्शक ही नहीं सहयात्री भी बनना पड़ेगा । ”