कहानी: मायके की लाज
निकिता विवेक भैया की मुँहबोली बहन है। अपने पड़ोस में रहने वाले विवेक भैया को बखुबी पहचानती है। वह बचपन से ही जिद्दी स्वभाव के रहे हैं। प्यार से भले ही बात सुन लें पर जोर-जबरदस्ती से उनसे कुछ मनवाना असंभव कार्य था। सरकारी नौकरी लगते ही उनके लिये अच्छे घरों से रिश्ते आने लगे थे ऐसे में उन्हें अपने ही शहर की लड़की करुणा पसंद आ गई।
करुणा के पिता कपड़ों के व्यवसायी थे। शहर में अच्छा-भला नाम था उनका। दो भाइयों की अकेली बहन करुणा परिवार की राजदुलारी थी। जबतक माता-पिता जीवित रहे, खूब मान दान होता रहा और वह भी मायके के नाम पर वैसे ही इतराती रही जैसे उसकी पूछ मायके में कभी कम ना होगी। छः महीने पहले जब पिताजी गुजरे तो जैसे उसकी दुनिया ही लुट गई। अपने घर-परिवार का मोह त्याग कर वहीं रहने लगीं। एक बार बेटा मनाकर वापस लाया भी,पर वह माँ को संभालने की बात कहकर सबसे लड़कर मायके वापस चली गईं।
पुरूष का हृदय तो एक साथ कई लोगों के स्नेह को संभाल लेता है मगर स्त्री के लिए मुश्किल होता है। प्रेमी या पति,मायका या ससुराल,बेटी या बहु में अक्सर एक को ही चुन पाती है,क्योंकि स्वभावतः एकनिष्ठ प्रेम ही निभाने में यकीन करती है।
बस इसी तर्ज पर वह पिता के घर को ही अपना घर मानती रही। पति व बेटे भी इस अगाध मोह को देखते हुए किसी तरह एडजस्ट कर रहे थे। वह रोकने से भी कहां रुकती थी तो उन्होंने भी उसे उसके हाल पर छोड़ दिया। पिता के जाने का ग़म माँ से सहा ना गया तो पिछले माह उन्होंने भी दम तोड़ दिया। अब वह बदहवास सी वहीं रहने लगी। किसी हाल में घर आना ही नहीं चाहती। उसका अपने घर के प्रति प्रेम को देखते हुए विवेक भैया भी ऊब चुके थे। आना-जाना और वापस बुलाना ही छोड़ दिया। इसके बाद से वह अपने लोगों की आँखों में खटकने लगी।
“कब जायेंगी ये…जब तक माँ-बाप थे समझ में आता था.. उनकी देखरेख में सहुलियत होती थी .. पर अब जाने किसके मोह में यहाँ पड़ी हैं?”
“पता नहीं इनके पति भी कैसे हैं? जैसे कोई मतलब ही नहीं…लेने भी नहीं आते! मेरे पति तो साथ जाते हैं और साथ ही ले आते हैं। मायके में छोड़ते ही नहीं!”
“अरे! मेरे साथ भी यही होता है।”
अक्सर उसके पीठ पीछे बड़ी और छोटी भाभियां कानाफूसी करती फिर भी उनकी बात को दिल पर लिये बिना वह पूरे मन से लगी रहती। भाइयों-भतीजों को उनके पसंद की चीजें बनाकर खिलाना,माँ की आलमारी खोलकर उनके कपड़े ठीक करना और उनके बिस्तर पर लेटना जैसे उसके शरीर में जान भरता था। उम्र भर का रिश्ता यूँ हीं कहाँ छूटता है। उसे छूटते-छूटते पूरी उम्र निकल जाती है। बड़ी बहन होने के नाते दोनों भाई बहुत इज्जत करते थे। उसके खिलाफ कोई कुछ ना बोलता। शायद यही कारण था कि उसका मोह टूटता ही नहीं था।
भाभियों का क्या था। उन्हें तो चौबीस घंटे वाली मुफ्त की नौकरानी मिल गई थी जबकि पैसों के आगे भी काम संभालने वाले नसीब से मिलते हैं। यहाँ तो बिल्ली के भाग्य से सींका टूटा था। सब भाँप चुके थे कि ना तो वह ससुराल जा रही हैं और ना ही कोई बुलावा आ रहा है। अब वे जब- तब घर के सारे काम करुणा पर छोड़कर बाहर जाने लगीं। बच्चे भी स्कूल से आकर उससे ही खाना माँगते। उनकी माँयें कभी कुछ तो कभी कुछ और कहकर बाजार ,सिनेमा या सहेलियों के पास चलीं जातीं। जिस रोज कोई और कार्यक्रम ना बनता तो दुकान पर जाकर अपने पतियों के कान भर आतीं। अब करुणा खुशी की वजह ना होकर बोझ बन चुकी थी। अपने भाइयों के स्नेह पर घमंड करती बहन से जब सगे भाई भी कतराने लगे तब उसे अफसोस होने लगा। सोचने लगीं कि काश! इतना मोह अपने घर-परिवार से किया होता तो कम से कम सम्मान तो पातीं। आज न तो मायका हाथ में था और न ही ससुराल,अंततः उसने निकिता को फोन किया।
“दीदी! आप मेरे मायके की लाज रख लीजिये!”
“क्या हुआ भाभी? आप ठीक तो हैं?”निकिता ने उनकी घबड़ाई आवाज सुनकर पूछा।
“अभी तक तो ठीक हूँ पर आगे का कुछ पता नहीं!”
“आप ऐसी बातें क्यों कर रहीं हैं? जरा खोल कर बताइये कि क्या बात है?” निकिता ने पूछा जबकि उसे पता था कि करुणा भाभी विवेक भैया से झगड़कर महिनों से मायके में जा बैठी हैं।
“मैंने तो पहले ही कहा था भाभी कि मां -बाप का घर चार दिन की चाँदनी है। असली घर तो पति गृह होता है पर आपको तो मायके का बहुत घमंड था।” निकिता ने कहा।
“घमंड नहीं,मोह था दीदी! अब वह भी भंग हो गया है। विवेक से लड़कर यहाँ आई थी। अब अगर खुद से लौटी तो वह सारी उम्र जली-कटी सुनायेंगे। अगर अभी यहाँ से ना निकली तो वापस कभी नहीं आ पाऊँगी। यहीं काम कर -कर के मर जाऊँगी।”
“अच्छा भाभी! मैं कुछ करती हूँ।” कहकर निकिता ने फोन रख दिया।
“घर की लक्ष्मी घर में ही अच्छी लगती है विवेक भैया! आप भाभी को ले आइये। सुबह-सुबह आंटी से टिफिन बनाना होता नहीं है। आखिर बच्चे कितने दिनों तक बाहर का खाना खायेंगे।”
उसने समझा- बुझाकर विवेक भैया को करुणा भाभी को मायके से वापस लाने के लिए भेजा। जब वह आईं तो उन्हें देखकर दिल धक़ से रह गया। आँखें अंदर तक धंस गईं थीं। चेहरे की हड्डियां निकल आईं थीं। वजन दस किलो तक कम हो गया था।
“ये आजकल की लड़कियाँ मायके बुहार लेंगीं मगर अपने घर की रानी बनकर रहना भी रास नहीं आता इन्हें..”
सास ने तंज मारा तो उनके पास ना तो ताकत था और ना ही पुराना वाला जोश कि पलटवार करतीं। चुपचाप अपने कमरें में चलीं गईं और तकिये में मुँह छुपाकर देर तक रोतीं रहीं। ऐसा लगा कि जैसे आज सचमुच अपने घर आई हों। महसूस हो गया था कि जब तक माँ-बाप हैं तभी तक वह घर अपना है। मायके की गलियाँ तभी तक खूबसूरत है जबतक आपके बचपन को पहचानने वाली नजरें जिंदा हैं वरना अपना घर ही सबसे सुंदर होता है। मन बदलने की ज्यादा चाहत हो तो सैर-सपाटे के लिये पार्क,बाजार और सिनेमाघर है ना!