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कहानी: पति के नोट्स

यदि पत्नी का काम और व्यक्तित्व अलग पहचान बनाने लगता है, तो फिर एक पति को जलन क्यों होने लगती है? एक पति क्यों चाहता है कि उस की पत्नी ताउम्र उस की दासी बन कर रहे...
दूसरे शादीशुदा लोगों की तरह मैं भी एक पति हूं. कुछ साल पहले मैं भी एक आम आदमी था, कुछ कर दिखाने की लगन वाला. पौपुलेशन कंट्रोल और टीएफआर के आंकड़े देख कर मुझे भी विश्व के भविष्य की चिंता होने लगी थी. शादी नहीं करूंगी. बिना शादी के आदमी के साथ रहूंगी. बच्चे पैदा नहीं करूंगी वगैरहवगैरह.

इन्हीं में से एक आवाज यह भी थी कि मैं शादी के बाद पति का नाम धारण नहीं करूंगी.

मेरा उन दिनों इश्क चल रहा था. यह इश्क एक पति को छोड़ कर आई वाली से था. मेरी हो सकने वाली बीवी ने शादी के लिए सिर्फ एक शर्त रखी थी कि वह मेरे नाम के बजाय अपने पिता के घर का सरनेम और पिछले पति का सरनेम इस्तेमाल करेगी. नई क्रांति मैं भी करना चाहता था और बाकी आवाजों के मुकाबले यह शर्त मुझे कुछ आसान भी लगी. लिहाजा शादी हो गई.

मेरी बीवी की पहली शादी और तलाक दोनों बिना अंबानी वाली शादी के हुए थे. कोई धूमधड़ाका नहीं, कोई 13 फंक्शन नहीं, बाद में कोर्टकचहरी भी थोड़ी सी. बहुतों को मालूम ही नहीं पड़ा कि कब शादी हुई, कब तलाक हुआ और अब कब मेरे से शादी हुई.

हम तो जमाने के साथ बदल गए पर जमाना नहीं बदला. मेरी तरह मेरी बीवी भी अखबारों और वैबसाइटों पर लिखती है. उस के नाम भी पार्टियों के न्योते आते हैं. बड़ी तकलीफ होती है जब निमंत्रणपत्र पढ़ कर लगता है कि मेरी बीवी का एक पति और भी है. निमंत्रण पत्र उस के और उस के पति के नाम आते हैं. आप को याद है न, वह अपने पिता के घर का नाम और पिछले पति का नाम इस्तेमाल करती है.

चलिए, यहां तक तो ठीक है. वह मुझे तसल्ली देती है कि मैं अब उस का इकलौता पति हूं. वह मुसलिम जरूर है पर इसलाम एक से ज्यादा पत्नियों की ही इजाजत देता है, एक से ज्यादा पतियों की नहीं.

अब इनवाइट आता है तो जाना भी पड़ता है. दिन का मामला हो तो आदमी गोल भी कर दे. काली अंधेरी रातों में दिल्ली में बमगोले फट रहे हों, बीवी बेचारी अकेली कैसे आएगी. हां, चली तो जाएगी पर वापस आने की दिक्कत है. कुछ अमीर बीवियां ड्राइवर इसीलिए रखती हैं पर पति की बात ही और है.

खैर, पार्टी में पहुंचे. भीतर घुसते ही आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘आइए जहीर साहब, कैसे हैं आप?’’

मैं पीछे मुड़ कर देखता हूं कि होस्ट किस से मुखातिब हैं. पर वहां कोईर् और नहीं दिखाई पड़ा. मेरी बीवी की बांछें खिल जाती हैं.

‘‘माफ कीजिए, मेरा नाम…’’  मैं सफाईर् देता हूं.

‘‘ओह, माफ कीजिए,’’ आननफानन में वे मुझ से पल्ला झाड़ लेते हैं.

‘‘अरे, जहीर साहब नहीं आए?’’ वे मेरी बीवी से पूछते हैं.

2-4 सैकंड यह तमाशा चला. मेजबान को बेहद शर्मिंदा करने के बाद हम आगे बढ़ते हैं. पीछे से कानों में आवाज आती है, मेजबान हम अजूबों के बारे में किसी को बता रहा है.

2 घंटे की पार्टी में करीब 6 लोगों से इस तरह का वास्ता पड़ा. दूसरे आदमी के बाद मैं ने सफाई देना बंद कर दिया. बाकी 4 लोगों ने जब मुझे ‘जहीर साहब’ कह कर संबोधित किया तो मैं ने वैसे ही तपाक से जवाब दिया जैसे ‘रमेश’ कहे जाने पर देता. अब कुछ लोगों के लिए मैं ‘जहीर साहब’ था और बाकी के लिए ‘रमेश’ किसी तरह पार्टी खत्म हुई. मैं ने ड्राइवरी का रोल संभाला और घर आ पहुंचा.

घर पर भी काफी देर तक पार्टी के चेहरे नजर आते रहे. पार्टी निहायत आर्टी किस्म की थी. ऐसी पार्टी वह होती है जिस में लोग टाट और परदों के बने कपड़े पहन कर आते हैं. लोहा कूटने वाली औरतों जैसे मोट चांदी के जेवर पहनते हैं और शास्त्रीय संगीत पर अमेरिकन अंगरेजी में बहस करते हैं.

इतमीनान की बात सिर्फ यह थी कि इस में बाकी पति भी मेरे जैसे थे. इन पतियों की जमात बढ़ती जा रही है. अकसर आप ने देखा होगा कि नयानया पैसा आने के बाद लोग अपनी बीवीबहनों को महंगे होटलों और रेस्ताराओं में ले जाते हैं. वहां पति तो अपने व्यापार या राजनीति और क्रिकेट पर बहस करते हैं और बीवियां अपनी मेज पर या दूसरी मेजों पर बैठी दूसरी औरतों के कपड़े और गहनों को निहारती रहती हैं.

उस पार्टी में जाने के बाद मुझे एक और राज पता चला. पति वहां खुल कर शराब पीने जाते हैं. घर पर तो पत्नी डांट देती है लेकिन खुलेआम कुछ कहना मुश्किल होता है. हर शाम नशे में धुत्त हो जाने की शुरुआत इन्हीं पार्टियों से होती है. शराब मुफ्त की होती है. पत्नी कहीं और व्यस्त होती है. आप को कोई घास डालने वाला नहीं होता. लिहाजा, आप अपने को जाम में डुबो देते हैं.

उस दिन पहली बार यह भी एहसास हुआ कि हम पतियों ने अपनी बीवियों को कितनी सदियों तक बोर किया है और बीवियों ने उफ तक नहीं की. उन्हें गहनों से लाद दिया, महंगी साड़ी में लपेट दिया.

उन्होंने अपने होंठों पर एक स्थायी उबाऊ मुसकान पोत ली और आप निश्चिंत हो कर हाहा, हूहू करते रहे. आप की बीवी से या तो शुरू में एक बात होती है, ‘‘कहिए भाभीजी, कैसी हैं?’’ या अंत में, ‘‘अच्छा भाभीजी कभी घर आइए न.’’

पत्नी का जवाब होता है, ‘‘क्या करूं मेरा तो इन के बगैर निकलना होता ही नहीं और फिर इन बच्चों का होमवर्क. आजकल तो पता नहीं इन टीचरों को क्या हो गया है. होमवर्क बच्चों को नहीं, मातापिता को मिलने लगा है.’’

मेरे वाली पार्टी में ऐसा कुछ नहीं था. एक तात्कालिक सर्वेक्षण से पता चला कि या तो वहां आई बीवियों के बच्चे थे नहीं या फिर आया या नौकरों के हवाले कर दिए गए थे. लेकिन वहां बच्चों के होमवर्क की नहीं, अनुष्का के लेटैस्ट अफेयर का जिक्र हो रहा था.

उसी पार्टी में मुझे यह भी पता चला कि दिल्ली के उच्चवर्ग में इन दिनों इन्फ्लुऐंसर के सितारों का जोर है. इस तरह की कोई पार्टी तब तक पूरी नहीं होती, जब तक कोई कोई इन्फ्लुऐंसर आधे कपड़ों वाली वहां मौजूद न हो और फिल्म, डांस और थिएटर की तरह इन दिनों टैलीविजन और इंटरनैट शादियां तोड़ने में लगा हुआ है. एक की शादी टूट चुकी है, दूसरी की टूटने वाली है और तीसरी ने फैसला किया है कि शादी में रखा ही क्या है. बाकी मामलों में पति ने पुराने किस्म की पत्नी की भूमिका निभा ली है. हम भी तो इसी को झेल रहे थे.

उस भूमिका की सटीक व्याख्या यह है कि पति पत्नी की सरेआम डांट खाए, उस के मेहमानों के सामने खीसें निपोरे खड़ा रहे, घंटों की खरीदारी के दौरान थैला उठाए और उस का ड्राइवर बनने को तैयार रहे. अगर वह ऐसा नहीं करेगा तो शादी में दरार पड़ जाएगी. पत्नी अपने अलग दोस्त बना लेगी और उसे शराब के सहारे छोड़ देगी. कोई दूसरी मिलेगी इस का चांस कम है.

मगर इस में औरत का कोई दोष नहीं है. सारा मसला पुरुष मन का है. सदियों से पुरुषों ने औरतों पर राज किया है, उन से खाना बनवाया है, उन्हें बच्चे पैदा करने और उन्हें पालने में लगाए रखा है. जब मांबाप शादी तय करते हैं तो यह सब पता चल जाता है.

लड़का कहता है, ‘‘मैं ने नहीं, तुम्हारे बाप ने मेरे बाप से कह कर शादी तय की है, इसलिए यह तो तुम्हें करना ही होगा.’’

जहां पैसा हकारत का हैऔर सारा काम नौकरों से करवाने का चलन है, वहां औरतें लेटीलेटी मोटी होती रहती हैं या फिर समाज कल्याण में लग जाती हैं.

मगर इश्क की बात और है. वहां लड़का शादी के लिए मिन्नत करता है, लड़की का  पलड़ा भारी हो जाता है. चाहे वह पहले कितनों के साथ रह चुकी हो या शादी कर चुकी हो. जब इश्क का जोर ठंडा होता है तो टकराहट शुरू होती है और आदिम पुरुष का अहं जाग उठता है. अधिकांश मामलों में शुरू की टकराहट के बाद समझौता हो जाता है. लेकिन यदि पत्नी का काम और व्यक्तित्व अपनी अलग पहचान बनाने लगता है तो या तो पति अपने को समेट लेता है या फिर पत्नी को छोड़ देता है. अकसर पति अपनी बीवी के मुकाबले अपने काम में बड़ी लाइन खींचने या कुछ ज्यादा कर दिखाने के बजाय उस से जलने, कुढ़ने और परेशान रहने लगते हैं.

इस बारे में ऐक्सपर्ट्स में मतभेद है कि 2 मजबूत और आजाद व्यक्तित्व वाले पतिपत्नी आपस में अच्छी तरह निभा पाते हैं या नहीं. वैसे है यह किसी मजबूर रस्से पर चलने के समान. आसान रास्ता तो यह है कि पत्नी दबे व्यक्तित्व वाली हो, आप महीने में एक बार ट्रिप पर ले जाएं. 4 बार बाहर खाना खिला दीजिए, 2 बार मायके छोड़ आइए, उस की ड्रैस, लिपस्टिक और हेयरस्टाइल की तारीफ कर दीजिए, दफ्तर जाने से पहले और पहुंचने  के बाद भींच कर प्यार कर लीजिए और किचन समेट दें कभी कोई संकट नहीं आएगा.

मगर यदि वह आप की चालबाजी समझ जाती है और अपनी जिंदगी से ज्यादा बड़ा हिस्सा मांगती है तो सब से पहले आप को अपने काम में आगे बढ़ना होगा और फिर उस की नकेल को सफाई से थामना होगा कि कहां ढील देनी है और कहां कसना है. यह न भूलें कि जो ठोकर खाई होती है उसे मालूम रहता है कि अड़चन कैसी होती है.- ओम गुप्ता
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