कहानी: वो अपना सा स्पर्श
शैलेश सही था, पर तब तक मुझ पर अंकित के प्यार का जादू चल चुका था. मैं उसे एकतरफ़ा प्यार तो करने ही लगी थी और जब मैं उसकी मोटरसाइकिल पे बैठी शहर की सैर करती, तब मुझे अपने भाग्य पर गर्व होता था. अंकित मुझे डिस्को, सिनेमा और अपने दोस्तों की पार्टियों में भी ले जाने लगा था.
पता नहीं भरी भीड़ में सबसे हटकर मेरी निगाह उस अजनबी पर कैसे पड़ गई. बस स्टैण्ड पर कुछ स्कूली बच्चों के अलावा दो-चार ही लोग थे. मई की उस उमसभरी दुपहरी में वह सबसे अलग, कुछ परेशान सा अपने बस के इंतज़ार में खड़ा था. मैंने अजनबी शहर के भीड़ भरे माहौल से, चेहरे पर तैरते परेशानी के भाव को छुपाते हुए उस सीधे-सादे आदमी को अपना पता दिखाया.
जवाब में उसने उस जगह जाने वाली बस का नम्बर और नाम बता दिया. क़रीब दस मिनट मैं इंतज़ार करती रही थी और इन दस मिनटों में उसने मेरी बेचैनी, घबराहट और हल्के से डर को मेरे चेहरे पर पढ़ लिया था. वो समझ चुका था कि मैं इस शहर में नई हूं.
जाने कब वो मेरे क़रीब आ गया और क्षमा मांगते हुए मुझसे जानना चाहा कि 'मैं कहां से आई हूं और कहां जाना है.' उस पर ग़ुस्सा तो बहुत आया कि मेरे पर्सनल मामले में धीरे-धीरे दख़लअंदाज़ी करना चाह रहा था वह. लेकिन उस शांत और निर्मल चेहरे को देखकर मैं सच्चाई के अलावा कुछ भी बयान नहीं कर पाई थी. दरअसल, मैं अपने छोटे से शहर से इस महानगर में नौकरी करने आई थी और एक लेडीज हॉस्टल खोज रही थी.
दो-चार मिनटों के बाद ही एक बस मुझे मिल गई थी और जब मेरे साथ वो शख़्स भी उस बस में सवार हुआ, तो मुझे लगा था कि 'इस आदमी से पता पूछकर मैंने बहुत बड़ी ग़लती की थी शायद. अब तो वो पीछे ही पड़ गया, पर बीस मिनटों के सफर में मुझे उसने बताया कि ये एक संयोग ही था कि वो भी मेरी तरह ही एक मकान की खोज में ही निकला है.
हालांकि वो इसी शहर का रहनेवाला है, पर उसे एक नए मकान की तलाश है और इसी तलाश में वो मेरे इलाके की ओर जा रहा था. कुछ देर आद वो अपना कार्ड मेरे हाथों में थमाकर जा चुका था. उसके द्वारा निर्देशित पते को में भी पा गई थी.
शैलेश से वो पहली मुलाक़ात मुझे आज भी ज्यों की त्यों याद है. आज बरसों बीत चुके है और मैं लेश की पत्नी भी बन चुकी हूँ. लेकिन शैलेश के साथ जुड़ी मेरी कुंआरी यादें आज भी महक रही हैं.
जब मैंने अपने पापा से शैलेश को मिलवाया था, तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि उनकी चंचल व शरारती बेटी को इतना सीधा-सादा और भद्र व्यक्ति कैसे पसंद आ गया. जिस लड़की ने बचपन से ही अपने पसंदीदा राजकुमार की छवि में अपने तरह ही स्मार्ट, चंचल और चुलबुले व्यक्तित्व की कल्पना की थी, उस लड़की को एक साधारणा से नैन-नक्शवाले व्यक्ति ने कैसे जीत लिया. शैलेश से मिलकर पापा भी बेहद ख़ुश हुए थे और उन्हें यक़ीन हो गया था कि उनकी बेटी शैलेश के साथ वाकई ख़ुश रहेगी.
पापा ने जब शैलेश के बारे में जानना चाहा था, तो में बताते चली गई थी.
शैलेश से मेरी दूसरी मुलाक़ात भी जल्दी ही हो गई थी. वो मुझसे मिलने मेरे हॉस्टल आया था. उसने भी ख़ुशी से बताया कि उसे एक अच्छा मकान मिल गया था.
तब तक मैं भी अपनी नई नौकरी और नए शहर के साथ तालमेल बैठाने की कोशिश में लग चुकी थी. शैलेश के अनुरोध पर उसके नए मकान के सामानों और फर्नीचर वगैरह के विषय में मैं सहायता कर दिया करती थी.
मैंने देखा कि शैलेश सीधी-सादी चीज़ों में ज़्यादा विश्वास करता था. तब में उसे साधारण साज-सज्जा से हटकर नए ज़माने के साथ कदम मिलाने की राय देने से नहीं चूकती थी. इस पर वह मुझे महानगर के चकाचौंधवाली दुनिया से सावधान कराने की कोशिश करता,
मैं ज़िंदगी की कड़वाहट और दर्द भरी सच्चाइयों से दूर एक मौज-मस्तीवली ज़िंदगी के सपने देखा करती थी. मुझे तलाश थी एक ऐसे हीरो की जो मुझे डिस्को, पार्टी, पिकनिक आदि पर ले जाए, जो खूबसूरत हो. एक शाम शैलेश ने जब बेझिझक मुझसे कहा कि वो मुझे चाहता है और अपने घरवालों से मुझे मिलवाना चाहता है तो… मैं उसके साहस को देखकर खीझ उठी थी. ग़ुस्सा तो इतना आया था कि उस बेढंगे आदमी से कहूं कि क्या ऐसा कहने से पहले उसने ख़ुद को आईने में ठीक से देखा भी है. ये तो मेरी उदारता है कि मैं उस जैसे आदमी के साथ दोस्ती निभा रही हूं.
पर मैं उस नेक इंसान को कोई दुख भी नहीं दे सकती थी, खुद को संभालकर मैंने उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया था. उस समय शैलेश के चेहरे पर उठे भावों को मैं पढ़ नहीं पाई थी और ना ही उसे पढ़ने में मेरी रुचि ही थी.
मेरी सारी स्तुति ने मुझसे कहा भी था कि शैलेश मुझे बेहद
प्यार करता है. पर उसका प्यार मेरे लिए लए कोई मायने नहीं रखता था. अब मैं उससे कतराने भी लगी थी. एक बार शैलेश ने किसी काम से मुझे अपने दफ्तर बुलाया था पर मैं पहुंच नहीं पाई बाद मैं शलेश ने मुझसे पूछा था, "खुशबू कल तुम मेरे दफ्तर आने वाली थी ना! मैं सारे दिन तुम्हारा इंतजार करता रहा था और शाम को तुम्हारे हॉस्टल भी फोन किया था. तब स्तुति ने बताया कि तुम किसी अंकित के साथ कहीं बाहर गई हुई हो. वैसे कौन है ये अंकित?"
शैलेश के लहज़े में एक अधिकार और प्यार की झलक स्पष्ट थी और मैं इससे चिढ़ गई.
"क्यों? अब क्या कहीं किसी के साथ जाने के लिए भी तुम्हारी अनुमति लेनी पढ़ेगी?" शैलेश को मेरी इस रुखाई से बुरा तो ज़रूर लगा था. मुझे लगा था मुझे मनाएगा, लेकिन वो मिट्टी का माधो कुछ न कह सका, वो मेरी समझ से परे था.
उसने बस इतना कहा था, "तुम इस शहर में नई ही. तुम्हें अभी अपने सही और ग़लत दोस्तों की पहचान नहीं है. रात गए किसी अजनबी के साथ…"
शैलेश की पूरी बात सुनने का धैर्य मुझमें नहीं था. मैंने उसे काटते हुए कहा, "शैलेश, मैं बच्ची नहीं हूं. मैं चौबीस साल की हो गई हूं और अंकित मेरे ऑफिस का दोस्त है." शैलेश ने मुझे समझाते हुए फिर आगे कहा था, "तुम अंकित को ऑफिस के एक दोस्त के रूप में ही तो जानती हो और तुम उस पर इतना विश्वास करने लगी हो कि देर रात डिस्को में उसके साथ बिताओ? और… मैं एक दोस्त के रूप में इतना भी हक़ नहीं रखता कि तुमसे कुछ पूछ सकूं?"
शैलेश सही था, पर तब तक मुझ पर अंकित के प्यार का जादू चल चुका था. मैं उसे एकतरफ़ा प्यार तो करने ही लगी थी और जब मैं उसकी मोटरसाइकिल पे बैठी शहर की सैर करती, तब मुझे अपने भाग्य पर गर्व होता था. अंकित मुझे डिस्को, सिनेमा और अपने दोस्तों की पार्टियों में भी ले जाने लगा था.
पर दूसरी ओर शैलेश जैसे मुझसे और भी ज़्यादा चिपकता जा रहा था. उसके सवाल अब मुझे बिंधने लगे थे. उसके साथ समय बिताना अब मुझे भारी लगने लगा था.
अंकित ने मुझे जल्दी ही इस लेडीज हॉस्टाल के चहारदीवारी की रोक-टोक से भी मुक्ति दिलाने का इंतज़ाम कर लिया, साउथ के एक महंगे अंचल में मुझे जब एक कमरे का फ्लैट किराए पर मिला, तो मैंने आज़ादी की एक गहरी सांस ली. शैलेश को बिना बताए मैंने अपना सामान लेडीज हॉस्टल से समेट लिया था. हालांकि स्तुति ने मुझे रोकने की असफल कोशिश करने के बाद शैलेश को ख़बर कर दी थी. शैलेश जब फ्लैट पर आया था, तब मैं अंकित का इंतज़ार कर रही थी. कुछ ही मिनटों में जब अंकित मुझे लेने आया, तब शैलेश को देखकर उसने एक रूखा सा 'हाय' फेंका था. मैं अंकित के सामने शर्मिन्दा हो रही थी कि कहीं वो शैलेश को मेरे दोस्त के रूप में देखकर 'वेरी पूअर टेस्ट' ना कह दे. किसी तरह मैं शैलेश को विदा कर अंकित के साथ बाहर निकली थी.
अब मैं चाहती थी कि अंकित जल्दी से अपने प्यार का इज़हार कर मुझसे शादी कर ले, ताकि शैलेश की शंका को मैं हमेशा के लिए दूर कर सकूं. पर अंकित अभी कुछ और मौज-मस्ती करना चाहता था, उसके अनुसार शादी के बाद घर-परिवार के झमेलों मैं उलझने के बाद घूमना-फिरना कहां हो पाता है. इसलिए वो एक सप्ताह के लिए मुझे डायमंड हार्बर लेकर गया. वहां उसने पहले से ही एक ही कमरा बुक करा रखा था. दिनभर की चहल-पहल के बाद रात को जब उसने एक ही कमरे में सोने की
बात कही तो मैं घबरा गई थी. मैं तब समझ पाई थी कि ऊपर से मैं चाहे लाख कोशिश कर आधुनिकता का रंगीन नकाब लगा लूं, अंदर से मैं अपने छोटे से शहर की एक भारतीय लड़की ही थी.
मेरा दिल तब वहां से निकलना चाह रहा था, लेकिन अंकित मेरी अनुनय-विनय को ठुकराता हुआ मुझे शराब के पैग बढ़ा रहा था. मैं अब अकेले इतनी रात गए यहां से बाहर निकलने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रही थी.
तब मुझे शैलेश का ख़्याल आया, जो मेरी हर छोटी-बड़ी सही-ग़लत बात को पूरी किया करता था.
जब अंकित मेरे साथ बदतमीजी पर उतर रहा था, तब मुझे एहसास हुआ कि पिछले दो वर्षों की दोस्ती में शैलेश ने कभी भी मुझे एकांत में छूने की कोशिश नहीं की थी, और जब मैं अंकित से बचकर भाग रही थी, तब शैलेश के सहारे की उम्मीद साथ थी.
इसके बाद दो दिनों तक मैं अपने कमरे में क़ैद रही थी और जब दो दिनों बाद हॉस्पिटल में मेरी आंखें खुली थीं, तो शैलेश मेरे क़रीब था. मैं बिना कुछ कहे रो पड़ी थी और शैलेश शर्मिन्दगी के साथ कह रहा था. "मुझे माफ़ करना!" मैं अचरज में बोल पड़ी थी, "तुम क्यों शर्मिन्दा हो? तुम क्यों क्षमा मांग रहे हो?"
"वो इसलिए कि मैं सही समय पर तुम्हें अंकित के साथ जाने से रोक नहीं पाया था, वरना… तुम पर ये मुसीबत नहीं आती. खैर, अब मैं तुम्हें अकेले कहीं नहीं जाने दूंगा."
शैलेश ने अपनी बांहों में मुझे थाम लिया था और मुझे ये स्पर्श अपना सा लगा था.- सीमा मिश्रा