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कहानी: नश्तर

बचपन में ऐसा क्या हुआ था सियोना के साथ कि बड़ी होने के बाद ही वह अपनी मां से छुटकारा पाने की कोशिश करने लगी...
सियोना का मोबाइल काफी देर से बज रहा था. वह  जानबूझ कर अपनी मां के फोन को इग्नोर कर रही थी. बारबार फोन कटता और फिर से उस की मां उसे कौल करतीं. लेकिन शायद वह फैसला कर चुकी थी कि आज फोन नहीं उठाएगी. मगर उस की मां थीं कि बारबार फोन मिलाए जा रही थीं. हार कर उस ने मोबाइल बंद कर दिया और लैपटौप औन कर अपने ब्लौग पर कुछ नया टाइप करने लगी.

डायरी से शुरू हुआ सफर अब ब्लौग का रूप ले चुका था. अपने फैंस के कमैंट पढ़ कर सियोना एक पल को मुसकरा उठती पर दूसरे ही पल उस की आंखें नम भी हो जातीं.

ऐसा आज पहली बार नहीं हुआ था. सियोना अकसर अपनी मां का फोन आते देख विचलित हो उठती. उस के मन में गुस्से का ज्वार अपने चरम पर होता और वह मां का फोन इग्नोर कर देती. यदि कभी फोन उठाती भी तो नपेतुले शब्दों में बात करती और फिर मैं बिजी हूं कह कर फोन काट देती.

सियोना की मां एकाकी जीवन जी रही थीं. पिताजी तो अपने दफ्तर के काम में अति व्यस्त रहते. कभीकभार अपनी बेटी के लिए समय निकाल कर उस से बात करते या यों कहें कि अपनी बेटी के बारे में जानकारी लेते.

सौफ्टवेयर कंपनी में काम करने वाली सियोना चेहरे से आकर्षक, बोलने में बहुत सभ्य थी, लेकिन उस के व्यवहार में कुछ कमियां उसे दूसरों से कमतर ही रखतीं. न तो वह किसी से खुल कर बात कर पाती और न ही किसी को अपने करीब आने देती. अपनेआप को खुद में समेटे बहुत अकेली सी थी. बस ब्लौग ही उस का एकमात्र सहारा था जहां वह अपने दर्द को शब्दों में ढाल देती.

आज सुबह जब सियोना उठी तो व्हाट्सऐप पर मां का मैसेज था कि सियोना तुम्हें कितने फोन किए. उठाती क्यों नहीं? फिर फोन बंद आने लगा… क्या बात है बेटी?

संदेश पढ़ कर उस के होंठों पर कुटिल मुसकान तैर गई. फिर धीरे से

बुदबुदाई कि अब तुम्हें मेरी याद सताने लगी मां जब मैं ने खुद को अपने अंदर समेट लिया है.

तभी उस के पिताजी का फोन आया. बोली, ‘‘जी पापा, कहिए कैसे हैं?’’

‘‘मैं तो ठीक हूं बेटी पर तुम्हारी मां बहुत परेशान हो रही है… तुम से बात करना चाहती है. कहती है कि तुम फोन नहीं उठा रही सो मैं ने अपने फोन से तुम्हारा नंबर डायल कर के देखा… लो अपनी मां से बात कर लो.’’

मजबूरन सियोना को मां से बात करनी पड़ी, ‘‘हां, बोलो मां क्या बात है? कहो किसलिए फोन कर रही थीं?’’

‘‘किसलिए? क्या मैं अपनी बेटी को बिना कारण फोन नहीं कर सकती?’’

सियोना को अपनी मां द्वारा उस पर हक जताने पर उलझन सी महसूस होने लगी थी. मन का कसैलापन उस के चेहरे पर साफ दिखने लगा था. उस के नथुने फूल गए थे और आंखों से अंगारे बरस रहे थे. कुछ सोच कर बोली, ‘‘क्या बात है आज कहीं बाहर जाने को नहीं मिला क्या? वह तुम्हारा सत्संग गु्रप क्या बंद है आजकल?’’

‘‘हां, वह तो धीरेधीरे छूट ही गया. घुटने में दर्द जो हो रहा है… अब कहां बाहर आनाजाना होता है… सारा दिन घर में अकेली पड़ी रहती हूं… अपने पापा को तो तू जानती ही है. पहले तो अपने दफ्तर के काम में व्यस्त रहते हैं और फिर उस के बाद अपनी किताबों में आंखें गड़ाए रहते हैं.’’

‘‘अच्छा अब और कुछ कहना है? मुझे दफ्तर जाने को देर हो रही है. नईर् नौकरी है न बहुत सोच कर चलना पड़ता है,’’ सियोना बोली.

‘‘कहां बेटी तू दूसरे शहर चली गई… यहीं रहती हमारे पास तो अच्छा रहता… इतना बड़ा घर काटने को दौड़ता है… कामवाली सफाई कर देती है, कुक 3 समय का खाना एकसाथ ही नाश्ते के समय बना देती है. ठंडा खाना फ्रिज से निकाल कर माइक्रोवैव में गरम करती हूं, न कोई स्वाद न कोईर् नई रैसिपी. बस वही एक ही तरह की दाल रोज बना देती है. तड़के में प्याज नहीं डालती. बस दाल के साथ उबाल देती है. ऐसा लगता है अब जीवन यहीं समाप्त हो गया है… तू रहती तो कम से कम कामवाली से काम तो करवा लेती.’’

‘‘हां मां समझती हूं तुम्हें बेटी नहीं, अभी भी एक टाइमपास और जरूरत पूरा करने वाला जिन्न चाहिए जो जैसा तुम कहो करे, जहां तुम कहो तुम्हें ले जाए और जब तुम चाहो तुम्हारे सामने मुंह खोले,’’ कहतेकहते उस की आंखें नम हो आईं और फिर उस ने फोन काट दिया.

दफ्तर पहुंच अपने काम में जुट गई. हां, दफ्तर में उस के बौस उस से हमेशा खुश रहते. काम की कीड़ा जो है वह… जब तक पूरा न कर ले चैन की सांस नहीं लेती. कई बार तो टी ब्रेक और लंच टाइम में भी अपने लैपटौप में घुसी रहती है. आज भी उस की नजरें तो लैपटौप में ही गड़ी थीं, लेकिन दिमाग पुरानी स्मृतियों में खोया था. हर वाकेआ उस की निगाहों के आगे ऐसे तैर रहा था जैसे अभी की बात हो… कहां भूल पाती है वह एक पल को भी हर उलाहने, हर बेइज्जती को…

जब सियोना मात्र 10 साल की थी तो एक सहेली के जन्मदिन की पार्टी में गई. सब सहेलियां सजधज कर पहुंचीं. स्कूल में 2 चोटियां करने वाली सारा ने आज बाल धो कर खोले हुए थे. सभी कह रहे थे कि तुम्हारे बाल कितने सिल्की और शाइनी हैं… बिलकुल स्ट्रेट, सामने से कटी फ्रिज कितनी सुंदर लग रही है. ऊपर से तुम्हारा गुलाबी फ्रौक, तुम बेबी लग रही हो. सब के साथ सियोना को भी यही एहसास हुआ था. किंतु वह स्वयं तो अपने कपड़ों के बटन भी ठीक से नहीं लगा पाई थी.

क्या करती मां तो घर पर थीं नहीं… हर संडे उन का किसी न किसी के घर भजनसत्संग जो होता है… और बाल तो उस ने भी सुबह धोए थे. लंबे बाल शाम तक उलझ गए थे, जिन्हें ठीक करना उसे नहीं आता था. सो वह एक रबड़बैंड बांध कर ऐसे ही पार्टी में आ गई थी. आज उसे पहली बार अपनी मां की अनदेखी का एहसास हुआ था और शर्मिंदगी भी.

जिस लड़की के जन्मदिन की पार्टी थी उस की मां ने पार्टी में थोड़ा खाना भी हाथ से बनाया था, केक भी स्वयं बेक किया था. केक इतना स्वादिष्ठ था कि देखते ही सभी उस पर जैसे लपक पड़े थे. उस की मां के हाथ के बनाए खाने की भी सब तारीफ कर रहे थे और केक से तो जैसे मन ही नहीं भर रहा था.

सियोना को अपने जन्मदिन की याद हो आई जब उस की मां ने सारी सहेलियों को बुला कर बाजार से लाया केक काटा और बाजार के बौक्स में पैक्ड खाना सब को हाथ में दिया और कहा घर जा कर खा लेना. इस बात को पहले तो वह समझ नहीं थी, किंतु अब उसे एहसास हुआ था कि उस की सहेली की मां ने कितने शौक से अपनी बेटी के जन्मदिन की तैयारी की थी. वह स्वयं भी उस की मां के बनाए खाने को खा कर उंगलियां चाटती रह गई थी और फिर पार्टी के अंत में अपनी सहेली की मां से बोली, ‘‘आंटी, क्या मैं घर के लिए भी खाना ले जा सकती हूं?’’

वह मासूम नहीं समझती थी कि यह समाज की नजर में एक व्यावहारिक दोष है, पेटभर खाना खाने के बाद भी वह मांग रही है. उस की सहेली की मां ने उसे घर के लिए खाना तो दिया, किंतु अगले दिन उस की सहेलियां उस की खिल्ली उड़ा रही थीं कि यह खाना मांग कर ले जाती है और वह जवाब में कुछ न बोल पाई. बस मन मसोस कर रह गई. कैसे बताती वह सब को कि उस के घर में तो कुक ही खाना बनाती है. सो वह स्वादिष्ठ खाने को देख अपनेआप को रोक न पाई.

उस की मां तो सहेलियों के साथ कभी इस तीर्थ पर जातीं, तो कभी उस तीर्थ पर. कभी उस पंडे की कथा सुनने 10 दिनों तक बनठन कर जाने का समय हमेशा रहता था जहां नाचना और भरपूर खाना होता था पर बेटी के लिए समय नहीं होता.

4-5 दिन पहले ही फिर उस की मां का फोन आया. उस ने न चाहते हुए भी फोन उठाया, क्योंकि वह जानती थी कि यदि उस ने मां से बात न की तो पिताजी जरूर फोन करेंगे.

फोन उठाते ही मां कहने लगीं, ‘‘मन नहीं लगता सारा दिन घर में पड़ेपड़े.’’

‘‘क्यों मां तुम्हारे पास तो स्मार्ट फोन है… अपनी सहेलियों से वीडियो कौल कर लिया करो… तुम्हें उन के दर्शन हो जाएंगे और उन्हें तुम्हारे या कभी उन्हें घर ही बुला लिया करो… अब तुम तो चलफिर नहीं सकतीं.’’

‘‘किसे कर लूं फोन? सब की सब अपने परिवारों में मस्त हैं. किसी के बेटीदामाद अमेरिका से आए हैं, तो कोई अपने पोते से मिलने बेटे के घर गई है. जो थोड़ी जवान औरतें हैं वे अपने बच्चों में व्यस्त हैं. किसी को फुरसत नहीं मेरे लिए… तेरे पापा भी अब तो दूरदूर रहते हैं. कुछ बोलती हूं तो कहते हैं भजन लगा देता हूं म्यूजिक सिस्टम में या फिर टीवी देख लो… कोई पास बैठ कर बात नहीं करना चाहता.’’

‘‘अच्छा मां मैं फोन रखती हूं हमारे बौस का तबादला दूसरे शहर में हो रहा है. सभी को मिल कर उन की फेयरवैल पार्टी की तैयारी करनी है,’’ कह उस ने फोन काट दिया और अपने बौस के लिए गिफ्ट लेने बाजार निकल गई.

रिकशे में बैठेबैठे उसे फिर अपने अतीत का एक नश्तर चुभ गया… जब वह 12 साल की थी. उस की एक सहेली के पिताजी का तबादला हुआ था और वह सपरिवार पुणे जा रही थी. सभी सहेलियों को मिल कर उस के लिए स्नैक्स लाने थे. उस सहेली को जो गिफ्ट देना चाहे वह गिफ्ट भी ले जा सकती थी.

शाम 5 बजे का समय तय कर सभी लौन में पहुंचने वाले थे कि अचानक मौसम बदला और बारिश आ गई. एक सहेली की मां ने सलाह दी कि उस के घर में पार्टी कर लो वरना तुम्हारा सारा मजा किरकिरा हो जाएगा. सारी सहेलियां उस के घर पहुंच अपनाअपना स्नैक्स एकदूसरे को दिखा रही थीं. जब सियोना की सहेली ने उस से पूछा कि तुम क्या लाई हो तो उस का जवाब था, ‘‘मेरे घर में कुछ था ही नहीं तो मैं क्या लाती?’’

तभी दूसरी सहेली आई और बोली, ‘‘मैं बाहर सुपर मार्केट से कुछ स्नैक्स ले कर आती हूं. सियोना तुम भी सुपर मार्केट से ले आओ स्नैक्स.’’

सियोना ने मां से फोन पर बात की तो मां ने कहा, ‘‘बिस्कुट रखे हैं घर में ले जाओ.’’

‘‘मां, जब घर में कुछ था तो मुझे खाली हाथ क्यों भेज दिया तुम ने? क्यों किसी न किसी तरह मुझे दूसरों के सामने नीचा दिखाती हो मां,’’ और गिफ्ट तो कुछ ले कर ही नहीं गई थी वह अपनी सहेली के लिए. जब फेयरवैल पार्टी कर सब ने उसे गिफ्ट दिया तो वह खाली हाथ थी. बस सब को गिफ्ट देते देखती रही.

सियोना की समझ में नहीं आता कि आखिर ऐसा क्यों करती थीं मां. वे गरीब तो नहीं थे… पिताजी की अच्छी आमदनी थी. घर में कुक और कामवाली तो तब भी आती थीं. मां स्वयं सोशल सर्किल मैंटेन करती थीं, लेकिन उस के बारे में कभी क्यों न सोचा? न जाने उस के रहनसहन और मूर्खताभरे व्यवहार के चलते लोग उस के बारे में क्या बातें बनाते होंगे… कभीकभी तो ऐसा लगता जैसे सारी सहेलियां उसे इग्नोर करने लगी हैं… सब एकसाथ खेलतीं पर कई बार उसे बताया भी न जाता कि सब किस के घर खेलेंगी. वह सब को इंटरकौम करती तब कहीं जा कर उसे कुछ मालूम होता.

अगली सुबह 6 बजे ही मां का फोन आया. सियोना ने नींद से जाग कर देखा और फिर से चादर ओढ़ कर सो गई. फिर जब वह जागी तो देखा मां का मैसेज था कि बेटी, मैं तुम से मिलने आ रही हूं. तुम्हारे पिताजी को बोला है कि मुझे सियोना के पास छोड़ आओ… कुछ दिन तुम्हारे साथ रहूंगी तो जी बहल जाएगा.

अब तो सियोना का गुस्सा 7वें आसमान पर था कि मां तुम मेरा पीछा क्यों नहीं छोड़तीं… वह बड़बड़ाते हुए नहाधो कर दफ्तर पहुंची. लैपटौप औन किया और काम में लग गई. किंतु आज कहां काम में मन लगने वाला था. दिमाग में तो जैसे कोई हथौड़े मार रहा था. उस का सिर चकराने लगा था. उस ने बैग से सिरदर्द की दवा निकाली और पानी के साथ गटक ली.

अब मां को आने को तो मना नहीं कर सकती. कुछ दिन बाद मां उस के घर आ पहुंची थी. मां के आते ही उस का रूटीन बिगड़ गया. सियोना उन्हें समय पर नाश्ताखाना दे देती, किंतु बात कम ही करती. उस की मां उस के आगेपीछे घूमतीं तो वह कह देती, ‘‘मां क्यों हर वक्त मुझे डिस्टर्ब करती हो… लेट कर आराम करो वरना तुम्हारे घुटने का दर्द बढ़ जाएगा.’’

जैसे ही वह दफ्तर से आती उस की मां चाय की रट लगा देतीं. जब तक वह हाथमुंह धो कर आती तब तक तो उस की मां का स्वर तेज हो चुका होता, ‘‘अरे, पूरा दिन अकेली पड़ी रहती हूं बेटी… अब तो तू चाय बना कर मेरे पास आ जा 2 घड़ी के लिए.’’

‘‘मां तुम भी न बस क्या कहूं… तुम्हें तो चौबीसों घंटे की नौकरानी चाहिए… मुझ से कोई लेनादेना नहीं तुम्हें.’’

‘‘कैसी बातें करती है तू… भला मां को चाय बना कर देने से कोई

नौकरानी हो जाती है… तुम्हें पालपोस कर बड़ा किया है मैं ने तो क्या इतना भी हक नहीं कि तुम से चाय बनवा लूं?’’

‘‘हूं… तो मुझे हिसाब चुकता करना है तुम्हारा… तुम ने मुझे पैदा किया, लेकिन सही परवरिश नहीं दी मां.’’

‘‘अरे, कैसी बातें करती हो… सारा दिन अकेले पड़ेपड़े मेरी पीठ थक जाती है… जरा कुछ बोलती हूं तो तू काटने को दौड़ती है.’’

‘‘तो मां बाहर खुली जगह में थोड़ा टहल आया करो.’’

अगले दिन जब सियोना दफ्तर से आई तो टेबल पर चाय के कप लुढ़के पड़े थे. रसोई में स्लैब पर चायपत्ती व चीनी बिखरी थी और चींटियां घूम रही थीं. बिस्कुट का डब्बा भी खुला पड़ा था.

सियोना रसोई से ही चीखी, ‘‘मां, आज घर में कोई आया था क्या मेरे पीछे से?’’

‘‘चीखती क्यों है, यहीं बाहर एक सहेली बनी थी कल… मैं ने उसे आज घर बुला लिया. सारा दिन घर पर पड़े बोर होती हूं. तु?ो तो मेरे लिए फुरसत नहीं. किसी से थोड़ा बोलचाल लूं तो मन हलका हो जाता है.’’

‘‘मां अपना बोलनाचालना बाहर तक ही सीमित रखो. रसोई का कितना बुरा हाल किया है… घर में मिट्टी ही मिट्टी हो रही है. सहेली से बोल देतीं कि चप्पलें बाहर ही खोले.’’

‘‘उफ, तुम्हारे घर क्या आई तू तो बड़ा एहसान दिखा रही है मुझ पर जैसे मैं तो तेरी कुछ लगती ही नहीं… क्या तुम्हारी पहचान के लोग नहीं आते घर पर?’’

‘‘नहीं आते मां, मुझे आदत नहीं किसी को घर बुलाने की. तुम ने क्या कभी मुझे अपनी सहेलियों को घर बुलाने दिया था? तुम हमेशा कह देतीं कि घर गंदा हो जाता है जब तुम्हारी सहेलियां आती हैं. सारा सामान इधरउधर कर देती हैं. बारिश और गरमियों के दिनों में मैं अकेली घर पर पड़ी रहती थी. तुम तो सत्संग और मंदिरों के फेरे लगाने में व्यस्त रहीं और मैं सदा घर पर अकेली. बाहर तुम नहीं निकलने देतीं और यदि किसी को बुलाना चाहती तो तुम सदा ही टोक दिया करतीं.’’

‘‘हद हो गई… कब की बातें मन में लिए बैठी है… मुझे तो ये सब याद भी नहीं.’’

‘‘पर मैं भूलने वाली नहीं मां. तुम्हारा दिया हर दंश अच्छी तरह याद है मुझे. न भरने वाले नासूर दिए हैं तुम ने मुझे.’’

तभी पिताजी का फोन आया तो बोली, ‘‘पापा, मां का वापसी का टिकट बुक करा दीजिए… मां यहां बोर हो रही हैं… मुझे तो समय नहीं मिलता…’’

‘‘हां बेटी, मैं स्वयं ही आ कर ले जाता हूं. मैं तो पहले ही जानता था कि वह तुम से ज्यादा दिन नहीं निभा पाएगी.’’

‘‘जातेजाते मां ने भरे मन से सियोना से कह दिया, ‘‘अब मैं तभी आऊंगी जब तू बुलाएगी.

‘‘अलविदा मां, मैं तुम्हें कभी नहीं बुलाऊंगी. तुम से पीछा छुड़ाने के लिए ही मैं ने नौकरी के लिए दूसरा शहर चुना पर तुम तो यहां भी मुझे चैन से नहीं रहने देती,’’ उस के नथुने फूले हुए थे और मन ही मन सोच रही थी कि हो सका तो किसी दूसरे देश में नौकरी ढूंढ़ेगी मां ताकि तुम से छुटकारा मिल सके. तुम्हारे दिए घाव न जाने क्यों भरते ही नहीं मां. काश, तुम मुझे जन्म ही न देतीं और फिर भरे मन से दफ्तर रवाना हो गई.

आज लैपटौप खोलते ही सब से पहले उस ने मां को फेसबुक पर ब्लौक किया. उस के बाद फोन उठाया और व्हाट्सऐप पर भी ब्लौक कर दिया… एक गहरी सांस ले कर काम में जुट गई.
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