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कहानी: सौतन

भारती भी मामूली घर की बेटी है. सम्मिलित परिवार था. मां, चाची मिल कर घर का काम करतीं. दादीमां भी हाथ पर हाथ धर कर नहीं बैठती थीं.
निकलते-निकलते उसे वहीं देर हो गई. सुबह से उस का सिर भारी था, सोचा था घर जल्दी जा कर थोड़ा आराम करेगा पर उठते समय ही बौस ने एक जरूरी फाइल भेज दी. उसे निबटाना पड़ा. वैसे, यह काम रमेश का है पर वह धूमकेतु की तरह उदय हो दांत निपोर कर बोला, ‘‘यार, आज मेरा यह काम तू निबटा दे. मेरे दांत में दर्द है, डाक्टर को दिखाना है, प्लीज.’’

‘‘कट कर दे.’’

‘‘बाप रे, बुड्ढा कच्चा चबा जाएगा. आजकल वह कटखना कुत्ता बना है.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ उसे, वह ठीकठाक तो है?’’

‘‘कुछ ठीकठाक नहीं, सब गड़बड़ हो गया है.’’

‘‘क्या गड़बड़ है?’’

‘‘इस उम्र में उस की बीवी ठेंगा दिखा कर भाग गई.’’

‘‘हैं…’’

‘‘तभी तो बौखला कर अब हमारे ऊपर गरज रहा है.’’ रमेश निकल गया और संजीव लेट हो गया. पत्नी भारती और 10 वर्ष की बेटी चांदनी उस की प्रतीक्षा में थे. उसे देखते ही भारती चाय का पानी रखने गई. संजीव सीधा बाथरूम गया फ्रैश होने. एक गैरसरकारी दफ्तर में मामूली क्लर्क है वह. मामूली परिवार का बेटा है. उस के पिता भी क्लर्क थे. उस का जीवन भी मामूली है. मामूली रहनसहन, मामूली पत्नी, मामूली समाज में उठनाबैठना. पर वह अपने जीवन में संतुष्ट है, सुखी है. कारण यह कि उस की आशाएं, योजनाएं, मित्र सभी मामूली हैं. मामूली जीवन में फिट हो कर भी संजीव एक जगह ट्रैक से अलग हट गया है. वह है बेटी चांदनी का पालनपोषण. अपने वेतन की ओर ध्यान न दे कर, भारती की आपत्ति को नजरअंदाज कर उस ने बेटी को एक महंगे अंगरेजी माध्यम स्कूल में डाला है. उस का वेतन हाथ में आता है 7 हजार रुपए. इस महंगाई के जमाने में क्या होता है उस में. पर भारती अपनी मेहनत, सूझबूझ और सुघड़ता से बड़े सुंदर ढंग से घर चला लेती है. किसी प्रकार का अभावबोध पति या बेटी को नहीं होने देती. पुराना घर और साथ में चारों ओर छूटी जमीन संजीव की एकमात्र पैतृक संपत्ति है. किराया बचता है और खुली, बड़ी जगह में रहने का सुख भी है.

भारती भी मामूली घर की बेटी है. सम्मिलित परिवार था. मां, चाची मिल कर घर का काम करतीं. दादीमां भी हाथ पर हाथ धर कर नहीं बैठती थीं, मिर्चमसाले कूटतीं, दाल, चावल, गेहूं बीन कर साफ करतीं. इसलिए शादी से पहले भारती को काम नहीं करना पड़ा. पर शादी के बाद सारा काम उस ने अपने सिर पर उठा लिया, और उस से उसे खुशी ही मिली. अपना घर, अपना पति और अपनी बच्ची, उन सब के लिए कुछ भी कर सकती है. प्राइवेट स्कूल में बेटी को डालने के बाद तो झाड़ूबरतन भी खुद ही करती, महीने के 500 रुपए बच जाते. उस ने वास्तव में घर को खुशहाल बना रखा था क्योंकि उस ने अपने घर में देखा था कि निर्धनता में भी कैसे सुखी रहा जाता है. वहां तीजत्योहार बड़े उत्साह से मनाए जाते, पूड़ीकचौरी, लड्डू, गुजिया बनते, हर मौसम का अचार पड़ता. यहां तक कि मार्चअप्रैल में मिट्टी के नए कलश में गाजरमूली का पानी वाला अचार पड़ता, पापड़ बनते, बडि़यां तोड़ी जातीं. अभावबोध कभी नहीं रहा. उसी ढंग से उस ने अपने इस घर को भी सुख का आशियाना बना रखा था. पति की हर बात मान कर चलने वाली भारती ने विरोध भी किया था बेटी को इतने महंगे स्कूल में डालने के लिए पर बापबेटी दोनों की इच्छा देख वह चुप हो गई थी.

चाय के साथ गरम पकौड़े ले कर आई भारती संजीव के पास बैठ गई. चांदनी पार्क में खेलने गई थी.

‘‘सुनोजी, वो बंसलजी आज फिर आए थे.’’ पकौड़े खातेखाते संजीव के माथे पर बल पड़ गए, ‘‘कब?’’

‘‘आज तो तुम लेट आए हो. तुम्हारे आने के 10-15 मिनट पहले.’’ चाय का घूंट भर कर उस ने एक और पकौड़ा उठाया, ‘‘अब क्या चाहिए? मैं ने मना तो कर दिया.’’

‘‘अरे, गुस्सा क्यों करते हो? वह तो निमंत्रण देने आए थे.’’

‘‘किस बात का निमंत्रण?’’

‘‘उन की सोसाइटी ‘आंचल’ का मुहूर्त है कल, मतलब गृहप्रवेश.’’

‘‘उन बड़ेबड़े लोगों में हम जैसे मामूली लोगों का क्या काम?’’ भारती बहुत ही धीरगंभीर है. शांत स्वर में बोली, ‘‘देखो, मान के पान को भी आदर देना चाहिए. वह बड़ेबड़े लोगों की सोसाइटी है, सब जानते हैं. पर उन्होंने हमें निमंत्रण दिया है तो मान दे कर ही. फिर हमें उन का भी मान रखना चाहिए.’’

‘‘तुम बहुत ही भोली हो. आज के संसार में तुम जैसी को बेवकूफ माना जाता है क्योंकि तुम चालाक लोगों के छक्केपंजे नहीं पकड़ पातीं. अरे मानवान कुछ नहीं, स्वार्थ है उन का सिर्फ.’’

भारती अवाक् संजीव का मुंह देखने लगी, ‘‘अब क्या स्वार्थ, सोसाइटी तो बन चुकी?’’

‘‘उस का धंधा है सोसाइटी बनाना. एक बन गई तो क्या काम छोड़ देगा? चौहान का घर खरीद रखा है, अब दूसरी सोसाइटी वहां बनेगी. वह जगह कम है, साथ में लगा है हमारा घर. हमारा घर पुराना व छोटा है पर जमीन कितनी सारी है, यह मिल गई तो यहां ‘आंचल’ से दोगुनी बड़ी सोसाइटी बनेगी.’’

‘‘पर चांदनी तो जाने के लिए उछल रही है, उस की स्कूल की 2 सहेलियां भी यहां आ रही हैं.’’ ‘‘वह बच्ची है. एक काम करते हैं, कल शनिवार है, आधी छुट्टी तो है ही, सोमवार को सरकारी छुट्टी है. चलो, उसे आगरा घुमा लाते हैं. वह खुश हो जाएगी और तुम भी तो अपनी बूआ से मिलने की बात कब से कह रही हो. 2 दिन उन के घर में भी रह लेंगे.’’ भारती चहक उठी, ‘‘सच, तब तो बड़ा अच्छा होगा. चांदनी खुश हो जाएगी ताजमहल देख कर. पर आखिरी महीना है, हाथ खाली होगा.’’

‘‘अरे वह जुगाड़ हो जाएगा.’’

दूसरे दिन शनिवार को ही संजीव सपरिवार आगरा चला गया, लौटा मंगलवार को. रविवार को सोसाइटी में ‘गृहप्रवेश’ समारोह था. आतेआते रात हो गई. गेट के सामने से ही ‘आंचल’ सोसाइटी पर नजर पड़ी. 150 फ्लैटों में बस 4-6 फ्लैट ही बंद हैं, बाकी फ्लैटों की खिड़कियां दूधिया रोशनी से झिलमिला रही हैं. खिड़कियों पर परदे पड़े हैं. भारती अवाक्. फिर बोली, ‘‘अरे, लोग रहने भी आ गए?’’ रिकशे से बैग उतार पैसे चुका रहा था संजीव. उस ने नजरें उठाईं फिर देख कर बोला, ‘‘तो क्या घर खाली पड़ा रहता? दिल्ली में किराया तो आसमान छूता है.’’

‘‘पार्टी जबरदस्त हुई होगी?’’

‘‘क्यों नहीं, बड़े लोगों की पार्टी थी. खाना, पीना, नाच, मस्ती सभी कुछ…’’

‘‘अच्छा हुआ कि हम नहीं गए.’’

संजीव हंसा, ‘‘ऐसे लोगों में हम चल नहीं पाते, तभी निकल गया था.’’

‘‘चलो पड़ोस बसा. रोशनी, चहलपहल रहेगी. सूना पड़ा था.’’

‘‘शहर लगभग सीमा के पास है. तभी आबादी कम है.’’

‘‘इतने बड़े लोगों के बीच बंसलजी को हमें बुलाना नहीं चाहिए था.’’

‘‘अरे उस ने उम्मीद नहीं छोड़ी. दूसरी सोसाइटी में बड़े फ्लैट का लाखों रुपए का चारा जो डाल रखा है.’’ संजीव ने गलत नहीं कहा. ‘आंचल’ बनाते समय ही उस की नजर इस घर पर थी. घर तो पुराना और जर्जर है पर साथ में जमीन बहुत सारी है. कुल मिला कर 3 बीघा तो होगी. यह मिल जाती तो 4 स्विमिंग पूल, कम्युनिटी हौल बनवाता तो इन्हीं फ्लैटों के दाम 10-10 लाख रुपए और बढ़ जाते. एक फ्लैट और 20-30 लाख रुपए कैश देने को तैयार था. रातोंरात संजीव की आर्थिक दशा सुधर जाती. भविष्य सुनहरा होने के साथ ही साथ सुखआराम से भरपूर सुंदर झिलमिलाता घर मिलता. एक उच्च समाज का प्रवेशपत्र भी हाथोंहाथ मिल जाता. पर संजीव नहीं माना. 

मामूली आदमी जो ठहरा. उस के लिए ग्लैमर से ज्यादा अपनी जड़, अपनी पहचान कीमत रखती थी. निर्धन पिता से पाई एकमात्र संपत्ति थी यह घर. इस को वह जीवनभर संभाल कर रखना चाहता था. भारती भी घर में बहुत संतुष्ट थी. दिनरात घर की सफाई और साजसज्जा में लगी रहती थी. घर की मरम्मत के लिए खर्चे से बचा कर पैसे भी जोड़ रही थी. उसे बस एक ही चिंता थी सो एक दिन संजीव से बोली, ‘‘सुनोजी, दोनों ओर ऊंचीऊंची सोसाइटी बन गईं तो हमारे घर की धूप, हवा, रोशनी एकदम बंद हो जाएगी.’’

संजीव चाय पी रहा था. हंस कर बोला, ‘‘कुछ भी बंद नहीं होगा.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘अरे दोनों सोसाइटी हमारे अगलबगल में हैं. मतलब उत्तर और दक्षिण में. पर पूरबपश्चिम तो एकदम खुला है, कभी बंद होगा ही नहीं. सामने चौड़ा हाइवे, पीछे सरकारी कालेज का खेल मैदान. उगते और डूबते सूरज की पहली से ले कर अंतिम किरण तक हमारे घर में खुशियों की तरह बिखरी रहेगी. हवा, धूप की चिंता हमें नहीं.’’ भारती ने चैन की सांस ली. संजीव उस की हर समस्या का हल कितने आराम से कर देता. घर में भले ही हजार असुविधा थीं पर भारती तृप्त थी, संतुष्ट थी संजीव जैसे पति को पा कर. सोसाइटी ‘आंचल’ के मुहूर्त के बाद 5वें दिन लगभग 11 बजे का समय था, भोले सब्जी का ठेला ले कर आया, ‘‘भाभीजी, ताजी भिंडी लाया हूं, बिक्री की शुरुआत करा दो.’’ भारती के घर की जमीन पर केले और पपीते खूब उगते थे और चारदीवारी पर सेम की बेल भी खूब फलती थी. भोले सब ले जाता, बदले में हिसाब से दूसरी सब्जी दे जाता. भारती और उस का यह हिसाबकिताब बहुत पुराना था. इस तरह सब्जी खरीदने के पैसे बचा लेती थी वह.

भारती भिंडी छांट रही थी कि एक चमचमाती गाड़ी आ कर रुकी. चालक की सीट से एक युवती झांकी, ‘‘हाय.’’

सकपका गई भारती. इतनी अभिजात महिला से इस से पहले कभी संपर्क नहीं हुआ था उस का. ‘हाय’ के उत्तर में क्या कहे, यह भी उसे नहीं पता.

थोड़ी सी घबराहट के साथ उस ने कहा, ‘‘जी, जी.’’ युवती उतर आई. उस से 4-5 साल बड़ी ही होगी पर बड़े घर की छाप, वेशभूषा, हावभाव और महंगे कौसमेटिक्स ने उस को बहुत कोमल और आकर्षक बना रखा था. सुंदर तो थी ही, गोरीचिट्टी, तराशे नैननक्श और सुगठित लंबा तन भी. शरबती रंग की शिफौन साड़ी, मैचिंग ब्लाउज, कंधों तक कटे बाल और धूप का चश्मा सिर के ऊपर चढ़ाया हुआ. हाथ में मोबाइल.

‘‘नमस्कार, मैं ‘आंचल’ सोसाइटी में नईनई आई हूं.’’ वह तो भारती देखते ही समझ गई थी, कहने की जरूरत ही नहीं थी. ऐसी गाड़ी, यह व्यक्तित्व भला और किस का होगा. यहां के पुराने रहने वाले कम ही हैं. जो हैं वे लगभग उसी के स्तर के हैं. पर यह तो…घबरा कर भिंडी की टोकरी छोड़ उस ने हाथ जोड़े, ‘‘नमस्कार.’’

‘‘मैं सुदर्शना, फाइन आर्ट्स अकादमी में काम करती हूं. अकेली हूं. 105 नंबर फ्लैट मेरा है. आप का नाम?’’

‘‘भारती.’’

‘‘सुंदर नाम है. मैं आप से थोड़ी मदद चाहती हूं. यहां आबादी कम है. अपनी कालोनी से बस आप को ही देख पाती थी.’’ युवती के सहज व्यवहार ने उसे भी सहज बना दिया. कुछ लोग इतने सहजसरल होते हैं कि अगले ही पल में उन से दूसरे लोग घुलमिल जाते हैं, उन्हें अपना समझने लगते हैं. सुदर्शना उन लोगों में से एक है.

‘‘कहिए, मैं क्या कर सकती हूं?’’

‘‘यहां ही बात करें या…?’’

लज्जित हुई भारती को अपनी भूल का अनुभव हुआ, ‘‘नहींनहीं, आइए, अंदर बैठते हैं.’’

वह मुड़ी तो भोले ने कहा, ‘‘भाभीजी, भिंडी…’’

‘‘तू छांट कर दे जा,’’ फिर भारती उस महिला की ओर मुखातिब हुई, ‘‘चलिए.’’

युवती हंसी, ‘‘तुम मुझ से छोटी हो. दीदी कह सकती हो, भारती.’’

खिल उठी भारती. इतने बड़े हाईफाई लोग ऐसे सीधे, सरल भी होते हैं? बैठक में ला कर बैठाया. सुदर्शना ने मुग्ध हो कर देखा. पुराना घर, पुराना साजसामान, उन को भी भारती ने झाड़पोंछ कर इतने सुंदर ढंग से सजा रखा था कि देखते ही आंखों में ठंडक पहुंच जाए, मन खुश हो जाए.

‘‘तुम तो बहुत ही सुगृहिणी हो. घर को कितना सुंदर सजा रखा है.’’ लजा गई भारती. उस की प्रशंसा सभी करते हैं पर इन के द्वारा की गई प्रशंसा में दम था.

‘‘नहीं दीदी, मामूली साजसामान…’’

‘‘उसी को तुम ने असाधारण ढंग से सजा रखा है. तुम्हारे पति तुम से बहुत प्रसन्न रहते होंगे.’’ पानीपानी हो गई वह अपनी प्रशंसा सुन. पल में सुदर्शना उसे अपनी सगी सी लगने लगी.

‘‘चाय लेंगी या कौफी?’’

‘‘कुछ नहीं, बस, तुम से एक सहायता चाहिए.’’

‘‘कहिए,’’ भारती ने घड़ी देखी. आज शनिवार है. बापबेटी दोनों का हाफडे है, जल्दी लौटेंगे और खाने की तैयारी कुछ नहीं हुई. चिंता होने लगी उसे. पर सुदर्शना का साथ अच्छा भी लग रहा था.

‘‘मेरा किराए का घर यहां से 10 किलोमीटर दूर है. पुरानी कामवाली यहां नहीं आ सकती. यहां कोई मिली नहीं. एक कामवाली चाहिए.’’

‘कामवाली?’ भारती सकपका गई.

असल में कामवालियों से परिचय नहीं था उस का. सारा काम स्वयं करती थी. संजीव ने कई बार कहा भी पर वह तैयार नहीं हुई. बेकार में 600-800  रुपए महीना चले जाएंगे, उन्हीं पैसों से सागभाजी का खर्चा निकल आता है. ‘‘मैं अकेली हूं. साढ़े 8 बजे निकल कर साढ़े 5 बजे तक लौटती हूं. खानानाश्ता सब बनाना पड़ेगा. छुट्टी के दिन दोपहर का खाना भी. दूसरे दिन रात का खाना, बाकी सफाई, कपड़े, झाड़ू, बरतन, सौदासपाटा. सुबह साढ़े 6 बजे आ जाए, फिर शाम भी 6 बजे. पैसा जो मांगेगी दे दूंगी.’’

भोले इतने में भिंडी ले कर अंदर आ गया, ‘‘भाभीजी, रसोई में रख दूं?’’

‘‘रख दे. सुन भोले, कोई कामवाली ला देगा?’’

‘‘किस के लिए?’’

‘‘यह मेरी दीदी हैं. ‘आंचल’ सोसाइटी में रहने आई हैं. अकेली हैं. कामवाली को सारा काम, सौदासपाटा सब करना पड़ेगा. सुबह व शाम आना है.’’

‘‘भाभीजी, मेरी दीदी ही काम खोज रही हैं.’’

‘‘तेरी दीदी?’’

‘‘अब क्या कहूं. अलीगढ़ के पास एक गांव में ब्याही थीं. 8 बीघा जमीन, पक्का घर, 2 बच्चे 8वीं और छठी में पढ़ने वाले. जीजा अचानक चल बसे. देवर ने मारपीट कर भगा दिया. जमीन का हिस्सा नहीं देना चाहता. 2 महीने से यहां आई हुई हैं. मेरी ठेले की आमदनी है बस. घर में मां, अपने 2 बच्चे, बीवी. परेशानी है तो…

‘‘तो तू जा कर ले आ उसे.’’

‘‘मेरा ठेला…’’

‘‘यहां छोड़ जा.’’

‘‘सुबह की बिक्री नहीं होगी. उसे शाम को ले आऊंगा.’’

‘‘ठीक है फ्लैट नंबर 105. देख, ये मेरी दीदी हैं, अकेली रहती हैं. नौकरी पर जाती हैं. समय पर काम चाहिए.’’

‘‘जी, मैं दीदी को सब समझा दूंगा.’’

भोले चला गया. सुदर्शना ने कहा, ‘‘बड़ा उपकार किया तुम ने मुझ पर. फ्लैटों में तो कोई किसी की सहायता नहीं करता.’’

‘‘क्यों?’’

सुदर्शना हंसी, ‘‘बड़ेबड़े लोग हैं सब. सभी अपने को दूसरे से बड़ा समझते हैं. आपस में आनाजाना भी नहीं. बस, चढ़तेउतरते हायहैलो.’’ ‘‘अब जो भी काम हो यहां आ जाइए अपना घर समझ कर.’’ तभी संजीव, चांदनी को ले कर बाइक से घर लौटा. भारती ने आपस में परिचय कराया, ‘‘मेरे पति संजीव और ये हैं सुदर्शना दीदी, ‘आंचल’ सोसाइटी में नई आई हैं.’’ पता नहीं संजीव एकदम चौंका या सहमा. शायद स्तर के अंतर को समझ संकुचित हुआ, एक पल रुक कर उस के हाथ उठे, ‘‘नमस्कार.’’

‘‘नमस्कार.’’

‘‘यह मेरी बेटी चांदनी, प्राइवेट स्कूल में 8वीं में पढ़ती है.’’

सुदर्शना ने उसे गोद में खींच माथे को चूमा, ‘‘बड़ी प्यारी बच्ची है तुम्हारी. अब मैं चलूं?’’

भारती ने रोका, ‘‘घर में तो खानेपीने का जुगाड़ है नहीं. कामवाली शाम को आएगी तो आप दोपहर में खाना हमारे साथ खाइए.’’

‘‘अरे नहीं, मैं कैंटीन से लंच पैक करा कर लाई हूं, वह खराब हो जाएगा.’’ संजीव जल्दी से बोला, ‘‘नहींनहीं, तब तो नहीं रोकेंगे आप को.’’

भारती ने अवाक् हो संजीव का मुख देखा. इतने वर्षों से उसे देख रही है. उसे संजीव का आज का व्यवहार बड़ा ही अजीब लगा. वह लोगों को खिलाना बहुत पसंद करता है. दोस्त आते हैं तो जबरदस्ती उन को खाना खिला कर भेजता है. असल में उसे भारती के हाथ से बने स्वादिष्ठ भोजन पर गर्व है. आज स्वभाव के विपरीत आग्रह करना तो दूर, सुदर्शना को भगाने को उतावला हो उठा. क्या उसे भी पहले सुदर्शना जैसी एलिट क्लास की महिला को देख कर घबराहट हुई जैसे उसे हुई थी. पर सुदर्शना वैसी नहीं है. वह बहुत अच्छी है. दो मिनट बैठ बात करता तो समझ जाता जैसे वह समझ गई है. सुदर्शना ने उन से विदा ली. जाते समय फिर चांदनी को प्यार किया. सब को अपने फ्लैट पर आने का निमंत्रण दिया और चली गई.

कुछ देर बाद जब सब खाने बैठे तब चांदनी ने कहा, ‘‘मैं आंटी को जानती हूं.’’

संजीव चौंका, ‘‘अरे, कैसे?’’

‘‘हमारे स्कूल की चित्र प्रदर्शनी का उद्घाटन करने आई थीं. ये फाइन आर्ट अकादमी की डायरैक्टर हैं.’’

भारती का मुंह खुल गया, ‘‘हैं…’’

‘‘हां मम्मी. और इन के बनाए चित्र लाखों में बिकते हैं.’’

‘‘बाप रे, देखने में लगता नहीं. इतनी सीधीसादी हैं न जी.’’ संजीव खाने में मस्त था, शायद सुना ही नहीं, चौंका, ‘‘क्या, क्या कह रही हो?’’

‘‘सुना नहीं, सुदर्शनाजी कितनी बड़ी नौकरी पर हैं. इन के चित्र लाखों में बिकते हैं. पर देखो, कितनी अच्छी हैं, हम लोगों से कैसे घुलमिल गईं. लगता ही नहीं कि इतने ऊंचे स्तर की हैं.’’

‘‘हां, हां, वह तो है. पर भारती, हमारे और इन के स्तर में बहुत बड़ा अंतर है. तुम जरा संभल कर मिलनाजुलना.’’

‘‘अरे, वह मैं समझती हूं. मैं तो गई नहीं, वही मदद मांगने आई थीं. सो, भोले सब्जी वाले की बहन को उन के घर काम पर लगा दिया, बस. अब कौन रोजरोज आएंगी वे.’’

संजीव ‘यह भी ठीक है.’ सोच कर चुप हो गया. पर इन लोगों ने जैसा सोचा था कि बात आईगई हो गई, ऐसा हुआ नहीं. क्योंकि सुदर्शना ने स्वयं ही बारबार आ कर घनिष्ठता बढ़ा ली. स्वभाव भी उस का इतना मधुर और मिलनसार था कि ये लोग भी उस से घुलमिल गए. वह चांदनी की आदर्श, भारती की स्नेहमयी दीदी और संजीव की शुभचिंतक बन गई. भोले भी बड़ा खुश था, उस की दीदी को सुदर्शना मोटा वेतन देती और रोज ही कुछ न कुछ घर ले जाने को देती. उस का आर्थिक संकट दूर हो गया. अब भारती के घर सुदर्शना का आनाजाना बहुत हो गया. धीरेधीरे संजीव भी खुल गया उस के सामने. अब तो घर की व्यक्तिगत बातें भी उस के सामने करते यह परिवार नहीं हिचकता. जैसे उस दिन दीवार पर फ्रेम किए चांदनी के बनाए 2 चित्रों को देख उस ने कहा, ‘‘चांदनी का हाथ बहुत अच्छा है. इसे आर्ट स्कूल में क्यों नहीं भेजती.’’

भारती ने रुकरुक कर जवाब दिया, ‘‘स्कूल…से…लौट…समय…होमवर्क भी रहता है.’’

‘‘पर वहां शाम की क्लासेज भी होती हैं शनिवार और रविवार को, तो क्या परेशानी है.’’

‘‘नहीं, असल में पूरे वर्ष की फीस जमा करते हैं वहां, अब एकदम 24 हजार रुपए…’’ सुदर्शना चुप हो गई. एक हफ्ते बाद चांदनी का जन्मदिन आया. शाम को बच्चों की पार्टी हो गई. रात को खाने पर सुदर्शना को बुलाया था भारती ने. उस दिन वह कुछ काम में व्यस्त थी, देर से आई 11 बजे के आसपास. चांदनी को ले कर एक बार बाजार गई थी. उसे सुंदर सा एक ड्रैस खरीद दिया. रात खाने पर आई तो सब से पहले उस ने चांदनी को खूब प्यार किया, आशीर्वाद दिया. फिर बोली, ‘‘भारती, मैं ने चांदनी को कोई गिफ्ट नहीं दिया अभी तक.’’

भारती से पहले संजीव बोल पड़ा, ‘‘अरे, इतना महंगा ड्रैस…’’

‘‘वह गिफ्ट नहीं. गिफ्ट यह है,’’ उस ने एक लिफाफा बढ़ा दिया संजीव की ओर.

संजीव हैरान था, ‘‘यह क्या?’’

‘‘बर्थडे गिफ्ट.’’

चांदनी के होंठों पर दबी मुसकान अर्थात उसे पता है कि इस में क्या है. संजीव ने भारती की ओर देखा, उस ने असमंजस से सिर हिलाया. उसे भी कुछ पता नहीं. संजीव ने सोचा, इस में चैक होगा. खोला तो चौंका, मुंह से निकला, ‘‘अरे, यह कब…?’’

खिलखिला उठी चांदनी, ‘‘जब ड्रैस लेने गई थी…’’ आर्ट कालेज में चांदनी के भरती होने की पूरे 2 वर्ष की फीस 48 हजार रुपए की रसीद. संजीव के पैरों के नीचे की जमीन खिसकने लगी. भारती ने भी देखा, वह कुछ बोलती कि सुदर्शना ने रोका, ‘‘देखो भारती, आज खुशी का दिन है. चांदनी को मैं अपनी बेटी मानती हूं. उस के लिए 2 रुपए का सामान लाने में भी मुझे बड़ा सुख मिलता है. मैं तुम लोगों को अपना मानती हूं. तुम लोग भले ही मुझे पराया समझते हो.’’ व्यावहारिक ज्ञान भारती को संजीव से ज्यादा है. उस ने बात संभाली, ‘‘नहीं दीदी, आप को भी हम परिवार का हिस्सा समझते हैं.’’

‘‘तो फिर इतने परेशान क्यों हो?’’

संजीव अब तक संभल गया था, बोला, ‘‘सुदर्शनाजी, रकम बहुत बड़ी है.’’ ‘‘देखिए, संजीवजी, मैं संसार में एकदम अकेली हूं, मेरी आय काफी है. मेरे लिए यह सजा है कि मेरे पास कोई नहीं है जिस पर मैं 10 रुपए भी खर्च करूं. पता नहीं, किस अच्छे काम के चलते इतने दिनों बाद मुझे एक ऐसा परिवार मिला जो मुझे अपना लगा, जिस ने मुझे अपना समझा. कृपया, कुछ कर के मुझे सुख मिले तो मुझे रोक कर उस सुख से वंचित मत करिए.’’ यह कह कर उस ने हाथ जोड़े. भारती लिपट गई उस से.

‘‘ना-ना दीदी, आप जो मन में आए, करिए, हम कुछ नहीं कहेंगे. चांदनी आप की ही बेटी है.’’ दोनों के बीच स्तर के नाम की जो कांच की दीवार थी वह झनझना कर टूट गई. सुदर्शना इस परिवार की सदस्या बन गई. वास्तव में इन लोगों को याद ही न रहा कि सुदर्शना पड़ोस में रहने वाली एक पारिवारिक मित्र भर है. उस के बिना ये लोग अब कुछ सोच भी नहीं सकते थे. घूमना, खाना, भविष्य योजना, यहां तक कि आर्थिक योजना सब कुछ में सुदर्शना शामिल हो गई. संजीव ने थोड़ा रोकने का प्रयास न किया हो, ऐसी बात नहीं पर चांदनी व भारती की खुशी देख वह चुप रह जाता. धीरेधीरे घर की कायापलट हो रही थी. 

सब से पहले उस ने एक माली लगाया जिस से बगीचा सजसंवर जाए. वह अकादमी में काम करता रविवार पूरा दिन यहां काम कर जाता, वेतन नहीं लेता. पैसों की बात करते ही हाथ जोड़ता, ‘‘मैडमजी का बहुत उपकार है मेरे ऊपर. आप उन के अपने हैं, पैसे की बात न करें. बहुत ले रखा है उन से. भारती को ठंड में काम करने में कष्ट होता है, जल्दी ठंड लग जाती है. उस ने भोले की दीदी को भारती के घर काम के लिए लगा दिया. 8 बजे के बाद आ कर पूरा काम करती, यहां तक कि सागसब्जी, दाल भी रात के लिए बना जाती. रात को भारती…

बस गरम रोटी सेंकती थी. इस बीच, भारती का जन्मदिन आया तो उसे एक माइक्रोवेव गिफ्ट, कर गई. सुदर्शना से परिचय होने के बाद भारती के परिवार में मानो सुख, उल्लास की बाढ़ आ गई. सुखी परिवार तो पहले भी था पर अब एक मजबूत, घने पेड़ की छाया और मिल गई. काम है नहीं, चिंता भी कुछ नहीं तो भारती नित नया कुछ व्यंजन या पकवान बनाती. अब हाथ में पूरा समय है तो उस ने पुराने सामानों की सफाई शुरू की.

उसे सुदर्शना की याद आई. कुछ हफ्ते पहले ही उस की तबीयत खराब हुई थी. तब भारती अधिकतर समय उसी के पास बैठी रहती. सूप, चायकौफी बना कर पिलाती. बातें करती. उस समय पूछा था, ‘‘दीदी, आप इतनी सुंदर, पढ़ीलिखी, इतनी बड़ी नौकरी, आप के पिता भी कितने बड़े डाक्टर थे, जैसा कि आप ने बताया तो आप की शादी नहीं की उन्होंने?’’ वह हंसी, ‘‘सब को परिवार, पति, संतान का सुख नहीं मिलता.’’

‘‘पर क्यों, दीदी?’’

‘‘अरे, मैं कुंआरी नहीं. शादी हुई थी मेरी, पूरे सात फेरे, सिंदूरदान सबकुछ.’’

चौंकी भारती, हाय, कैसा न्याय है? इतनी नेक हैं दीदी और उन को विधवा का जीवन.

‘‘दीदी, आप के पति का देहांत कैसे हुआ था?’’

सिहर उठी थी सुदर्शना, ‘‘न, न, वे जीवित हैं, सुखी हैं. स्वस्थ हैं.’’

‘‘तो क्या उन्होंने आप को छोड़ दिया? क्यों?’’

‘‘नहीं रे, वे मुझे कभी नहीं छोड़ते पर मजबूरी थी. देख, एक तो हम दोनों ही नाबालिग थे. स्कूल से भाग शादी की थी. फिर वे थे गरीब परिवार के. मेरे पिता इतने पैसे वाले और प्रभावशाली व्यक्ति थे. उन्होंने मेरे पति को बहुत डराया. उन के पिता को बुला कर धमकी दी कि अगर अपने बेटे को नहीं समझाया तो पुलिस में रिपोर्ट कर देंगे. वह हम दोनों का पहला प्यार था. बहुत छोटेपन से हम एक आर्ट स्कूल में थे. वहां से ही प्यार था. उस के बाद मुझे छोड़ बाहर चले गए वे. हम हमेशा के लिए अलग हो गए.’’ भारती के आंसू आ गए, ‘‘कितनी दुखभरी कहानी है. फिर आप ने शादी नहीं की?’’

हंसी सुदर्शना, ‘‘पगली, शादी, प्यार, यह सब जीवन में एक बार ही होता है.’’

‘बेचारी,’ भारती ने गहरी सांस ली. यह घटना उस ने पति को सुनाई थी. संजीव ने ध्यान नहीं दिया, उलटे समझाया था, ‘‘देखो, बड़े घरों में घटनाएं भी बड़ीबड़ी घटती हैं. तुम इतनी अंदर मत घुसा करो.’’ अगले दिन भारती के पास करने के लिए कुछ खास काम नहीं था. संजीव की एक पुरानी अलमारी साफ करने की सोची. वैसे वह अलमारी उस के ससुरजी की थी. उस में ससुरजी के कपड़ेलत्ते जितने थे, वे सब संजीव ने उन की बरसी पर ही गरीबों में बांट दिए थे. उस के बाद से इस अलमारी में संजीव अपने कागजपत्तर रखता था. फिर उस ने एक छोटी स्टील की अलमारी खरीदी तो उस को कोने में रख दिया. आज लगभग 6 वर्ष बाद उसे भारती ने खोला था. 

सोचा, इस की मरम्मत, रंगरोगन करा कर चांदनी को दे देगी. भारती ने सोचा कि पहले सारा सामान नीचे उतार कर रैक अच्छी तरह साफ कर के फिर सारा सामान झाड़ कर ऊपर रखेगी. उस ने सब से पहले ऊपर के खाने को टटोला. एक लैदर का पुराना छोटा सा पोर्टफोलियो बैग लौकर में मिला. आजकल इन का चलन समाप्त हो गया है, पहले था. संजीव को कभी लेते नहीं देखा. शायद, ससुरजी का होगा. उस पर मोटी धूल की परत थी. एक फटे तौलिए का टुकड़ा ले वह बैग को ले कर कुरसी खींच कर बैठ गई. पहले सोचा था ऊपरऊपर से पोंछ कर रख देगी पर फिर सोचा कि अब जब निकाला ही है तो अंदर के कागजपत्तर भी झाड़ दे. बेकार के कागज होंगे तो उन को फेंक बैग को हलका कर देगी.

बैग खोलते ही संजीव के स्कूल के कागज, रिपोर्टकार्ड और कुछ सर्टिफिकेट मिले. उस ने कभी बताया नहीं कि वह आर्ट स्कूल में भी जाता था. तभी चांदनी का हाथ ड्राइंग में इतना साफ है. पिता से विरासत में मिली सौगात है उस को. मन ही मन गर्व का अनुभव किया उस ने. तभी उस की नजर एक लिफाफे पर पड़ी. कुतूहल के साथ उस ने उसे उठाया. मथुरा के किसी फोटोस्टूडियो का लिफाफा है. मथुरा से तो दूरदराज तक इन लोगों का कोई मतलब नहीं है. हो सकता है ससुरजी कभी परिवार सहित दर्शन करने गए हों, तब फोटो खिंचवाया हो. उस ने उस में से फोटो निकाला और देखते ही उस के पूरे शरीर को मानो लकवा मार गया. संजीव और सुदर्शना विवाह की वेदी के सामने विवाह के जोड़े और जयमाला के साथ. लगभग 19-20 वर्ष पुराना फोटो है. 

उस समय रंगीन फोटो कम लिए जाते थे. पर यह फोटो रंगीन है. सुदर्शना की मांग में लाल सिंदूर की रेखा, संजीव के गले में फूलों की माला, माथे पर टीका और गुलाबी चादर में गठजोड़ा. दोनों की ही उम्र 16-17 वर्ष से कम ही है. बहुत बदल गए हैं दोनों. पर पहचानने में कोई परेशानी नहीं. पीछे बड़ेबड़े अक्षरों में लिखा है ‘संजीव वैड्स सुदर्शना’. बेहोशी की दशा से उभर भारती को होश में आते ही मानो क्रोध का ज्वालामुखी फूट पड़ा. संजीव उस का वह पति जिस पर उसे गर्व है. वह अपने को सारी सहेलियों से ज्यादा पति सुहागिन मान इतराती है, गर्व से फूलीफूली फिरती है. वह विश्वासघाती है. वह पहले से ही विवाहित था. सुदर्शना उस की पहली पत्नी ही नहीं, उस का पहला प्यार भी है. तो क्या ‘आंचल’ में उस का फ्लैट लेना, फिर कामवाली के बहाने उस के घर में घुसना और फिर उस से, परिवार में बेटी से इतना घुलमिल जाना, यह सब सोचीसमझी साजिश है? दोनों जरूर मिलते होंगे आज भी. यह सब जो हो रहा है, सब इन दोनों की योजना है. वह मूर्ख की मूर्ख ही बनी रही. 

अपने ऊपर भी गुस्सा आया, क्या किया उस ने? अपनी मूर्खता के कारण स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली. पति पर इतना अंधा विश्वास अपनी कोई सहेली कभी नहीं करती है. एक वही आज तक मूर्ख बन कर धोखे की दुनिया में जीती रही. अब इस विश्वासघाती पति के साथ एक दिन नहीं रहेगी और उस डायन को उसी के फ्लैट में जा कर सब के सामने झाड़ू से पिटाई कर के आएगी. तभी भारती की कुछ व्यावहारिक बुद्धि जागी, संजीव के साथ न रहेगी यह तो तय है पर वह जाएगी कहां? मांबाप नहीं हैं, दादी भी नहीं. घर पर बहुओं की सरकार है. वे ननद और उस की बेटी को तो अपने घर पैर भी न धरने देंगी. ‘हाय, क्या करूं मैं’ सोचसोच कर बहुत रोई भारती. फिर आंसू पोंछ ठंडे दिमाग से सोचने बैठी. 14 वर्ष पूरे हो चुके थे विवाह को. चांदनी 10 वर्ष पूरा कर 11वें साल में चल रही थी.

उस ने आज तक संजीव के चरित्र में कोई उन्नीसबीस नहीं देखा. उस की किसी इच्छा को अपनी क्षमता में रहते अपूर्ण नहीं रखा. तब क्या पता था कि यह सब चालाकी थी. उस के सारे मन पर तो सुदर्शना का अधिकार था. आज दोनों के मुखौटे नोच फेंकेगी वह, आग लगा देगी परिवार को और सब से पहले इस मनहूस फोटो को, जिसे इतने वर्षों से सीने में छिपा रखा है और उसे भनक तक नहीं लगने दी. वह उठ कर फोटो को ले कर गैस पर जलाने ले जा रही थी कि तभी एक बात ध्यान में आई. अच्छा, इतने वर्षों में कभी भी संजीव को अलमारी खोलते तो नहीं देखा. उस ने फिर फोटो को देखा, दो मासूम बच्चे ही लग रहे हैं. 

5-6 वर्षों में ही अपनी चांदनी इतनी ही बड़ी हो जाएगी. संजीव…उस का पति है, पति के धर्म को निभाने में कहीं भी वह चूका नहीं. किसी प्रकार की समस्या, कठिनाई आई तो ढाल बन कर उस के सामने आ गया. उसे हर कठिनाई से बचाता रहा. उसे हर तरह से खुश रखने का प्रयास करता रहा. आज तक एक कटु शब्द तक नहीं बोला वह उस से. पति उस का इतना अच्छा है कि उस से उस की हमउम्र स्त्रियां ईर्ष्या करती हैं. और सुदर्शना, वह भी तो ठीक बड़ी बहन की तरह उस पर लाड़प्यार बरसाती है, उस का ध्यान रखती है, उस के लिए चिंता करती है. सब चालाकी तो नहीं लगती.

संजीव भी अपनी सीमा में रह कर ही सुदर्शना से मिलता है. शालीनता बनाए रखता है, मर्यादा बनाए रखने में सतर्क रहता है. सुदर्शना भी संजीव के साथ व्यवहार में सदा ही औपचारिकता बना कर रखती है जबकि चांदनी और उस के साथ एकदम एकात्म हो कर घुलमिल गई है. सब प्रकार के आमोदप्रमोद में घुलमिल उपभोग करती है जबकि दोनों रीतिरिवाजों के तहत बंधनों के पतिपत्नी हैं. पल में सारा क्रोध, सारी उत्तेजना शांत हो गई भारती की. उस का कितना ध्यान रखते हैं दोनों. वह आहत न हो, मन में संदेह न हो, उस का विश्वास न टूटे, यही सोच वे कितने संयत, कितने सतर्क हो कर एकदूसरे से औपचारिक संपर्क बना कर रखते हैं. कितना कष्ट होता होगा उन दोनों को ही. एकदूसरे को समर्पित थे दोनों. बाल बुद्धि में भाग कर भले ही विवाह किया हो पर विवाह तो झूठा नहीं था. 

भले ही समाज ने दोनों को खींच कर अलग कर दिया हो पर मन का बंधन क्या टूटता है कभी? सच तो यह है कि वही खुद सुदर्शना का संसार, अधिकार यहां तक कि पति कब्जा किए बैठी है. ये दोनों तो तिलतिल मर कर जी रहे हैं प्रतिदिन. एकदूसरे को सामने पाते ही कितनी पीड़ा होती होगी मन में. उसे दुख न हो, यही सोच वे दोनों सहज भाव से बस अच्छे पड़ोसी की तरह एकदूसरे से हंसतेबोलते, योजनाएं बनाते हैं. बस, इसलिए कि उस के सुखी जीवन में दुख की छाया न पड़े और एक वह है कि उन को ही अभियुक्त बना कठघरे में खड़ा करने चली थी. छि:छि:, कितना ओछापन है उस में. संयोग से सुदर्शना को संजीव फिर से मिल गया. 

पर अब वह उस का नहीं, भारती का पति है. चाहती तो वह भारती से उस के पति को छीनने की कोशिश कर सकती थी पर उस ने ऐसा नहीं किया. वह उस की बहन और संजीव की अच्छी दोस्त बन गई. इस परिवार की सच्ची शुभचिंतक बन गई और वह उस पर ही आक्रोश में भर कर अपने हाथ से सजाए गृहस्थी में आग लगाने जा रही थी. कितना छोटा मन है उस का.आंसू पोंछ भारती ने फोटो को लिफाफे में भर कर बैग में रख कर धूल की परत समेत जहां था वहीं रख दिया. ताला लगा उस ने हाथ धोए. 

खिड़की से ठंडी हवा के झोंके ने आ कर उस के माथे को चूमा. उस का मन हलका हो गया मानो हरी घास के ऊपर हिरशृंगार के फूल बखर गए हों. उस ने सोचा आज रात सुदर्शना को खाने पर बुला उस के पसंद के दहीबड़े, आलूपरांठा बनाएगी जो संजीव और चांदनी को भी पसंद हैं और उसे तो हैं ही.
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