कहानी: बुझते दीये की लौ
बरसों बाद नूपुर से मिल कर एक बार फिर जिंदगी खुशनुमा सी लगने लगी थी. लेकिन जिंदगी के इस मोड़ पर हमेशा के लिए एकदूसरे का साथ पाना आज भी आसान न था.
अपने वीरान से फ्लैट से निकल कर मैं समय काटने के लिए सामने पार्क में चला गया. जिंदगी जीने और काटने में बड़ा अंतर होता है. पार्क के 2 चक्कर लगाने के बाद मैं दूर एकांत में रखी बैंच पर बैठ गया. यह मेरा लगभग रोज का कार्यक्रम है. मैं अंधेरा होने तक यहीं पड़ा रहता हूं.
बाग के पास कुछ नया बन रहा था. वहां की पहली सीढ़ी अभी ताजा थी इसलिए उस को लांघ कर सीधे दूसरी सीढ़ी पर पहुंचने में लोगों को परेशानी हो रही थी. मैं लोगों की असुविधा को देखते हुए हाथ बढ़ा कर उन्हें ऊपर खींचता रहा. बडे़बूढ़ों का पांव कांपता देख मैं पूरी ताकत से उन्हें ऊपर खींच रहा था पर आहिस्ता से.
‘हाथ दीजिए,’ कह कर मैं लगातार उस औरत को आगे आने को कहता और वह हर बार हिचकिचा कर सीढि़यों की बगल में खड़ी हो जाती. हलके भूरे रंग के सूट के ऊपर सफेद चुन्नी से उस ने अपना सिर ढांप रखा था. मैं ने फिर से आग्रह किया, ‘‘हाथ दीजिए, अब तो अंधेरा भी शुरू होने वाला है.’’
उस ने धीरे से मुझे अपना हाथ पकड़ाया. मैं ने जैसे ही उस के हाथ को स्पर्श किया उस के कोमल स्पर्श ने मुझे भीतर तक हिला दिया. इसी प्रक्रिया में उसे सहारा देते समय उस की चुन्नी सिर से ढलक कर कंधे पर आ गई. उस ने मुझे देखते ही कहा, ‘‘तब तुम कहां थे जब मैं ने इन हाथों का सहारा मांगा था?’’
‘‘तुम नूपुर हो न,’’ मैं ने हैरान हो कर पूछा.
‘‘शुक्र है, तुम्हारे होंठों पर मेरा नाम तो है,’’ कहतेकहते उस की आंखों में पानी आ गया और वह सीढि़यों से हट कर एक कोने में चली गई. मैं भी उस के पीछेपीछे वहां आ गया. वह बोली, ‘‘मैं ने परसों तुम को पार्क में देखा तो इन आंखों को सहज विश्वास ही नहीं हुआ कि तुम ही हो. कैसे हो?’’
‘‘ठीक ही हूं,’’ मैं ने बुझे मन से कहा और उस का पता जानने के लिए अधीर हो कर पूछा, ‘‘यहां कहां रहती हो?’’
‘‘सैक्टर 18 में. मेरे बडे़ भाई वहीं रहते हैं. जब मन बहुत उदास हो जाता है तो यहां आ जाती हूं.’’
मैं उस के चेहरे को देखता रहा. उस के बाल समय से पहले सफेदी पर थे पर उस की सफेद चुन्नी और सूनी मांग देख कर मैं सहम सा गया. कुछ भी पूछने की हिम्मत नहीं जुटा सका. दोनों के बीच में सन्नाटा पसर गया था. भाव व्यक्त करने के लिए शब्दों का अभाव लगने लगा. वर्षों की चुप्पी के बाद भी शब्दों को तलाशने में बहुत समय लग गया. खामोशी को तोड़ते हुए मैं ने कहा, ‘‘चलो, दूर पार्क में चल कर बैठते हैं.’’
एक आज्ञाकारी बच्ची की तरह वह मेरे साथ चल दी थी. उस के बारे में सबकुछ जानने के लिए मैं बेहद उतावला हो रहा था पर बातें शुरू करने का सिरा पकड़ में नहीं आ रहा था.
मरकरी लाइट के पोल के पास नीचे हरी घास में हम दोनों एकदूसरे की मूक सहमति से बैठ गए, ठीक वैसे ही जैसे बचपन में बैठा करते थे. उस के शरीर से छू कर आने वाली ठंडी हवा मुझे भीतर तक सुखद एहसास दे रही थी.
‘‘और कौनकौन है यहां तुम्हारे साथ?’’ मैं ने डूबते हुए दिल से पूछा.
‘‘कोई नहीं. बस मैं, भैयाभाभी और उन की एक 8 साल की बेटी. और तुम्हारे साथ कौन है?’’
‘‘बस, मैं ही हूं,’’ मेरा स्वर उदास हो गया.
बातोंबातों में उस ने बताया कि शादी के 10 साल बाद ही उस के पति एक सड़क दुर्घटना में चल बसे थे. एक बेटी है जो वनस्थली में पढ़ती है और वहीं होस्टल में रहती है. संयुक्त परिवार होने के नाते सबकुछ वैसा चला जो नहीं चलना चाहिए था. उस घर में रहना और ताने सहना उस की मजबूरी बन चुकी थी. पति के गुजर जाने के बाद कुछ दिन तो सहानुभूति में कट गए, उस के बाद सब ने अपनेअपने कर्तव्यों से इतिश्री मान ली.
पिछले साल बेटी के होस्टल जाने के बाद थोड़ी राहत सी महसूस की पर मन बहुत ही उदास और अकेला हो गया. जिंदगी की लड़ाइयां कितनी भयंकर होती हैं, मन बहुत उदास होता है तो कुछ दिनों के लिए यहां चली आती हूं. यह सब बताने के बाद वह बिलखती रही और मैं पाषाण बना चुपचाप उस का रुदन सुनता रहा. मेरे मन में इस इच्छा ने बारबार जन्म लिया कि किसी न किसी बहाने उसे स्पर्श करूं, उस को सीने से लगाऊं, उस के लंबे केशों को सहला कर उसे चुप करा दूं पर शुरू से ही संकोची स्वभाव का होने के कारण कुछ भी न कर पाया.
मेरी आंखें भर आईं. मैं मुंह दूसरी तरफ कर के सुबकने लगा. एक लंबी ठंडी सांस ले कर मैं ने कहा, ‘‘पता नहीं यह संयोग है कि तुम्हें एक बार फिर से देखने की हसरत पूरी हो गई.’’
बातों का क्रम बदलते हुए उस ने अपनी आंखों को पोंछा और बोली, ‘‘तुम ने अपने बारे में तो कुछ बताया ही नहीं.’’
‘‘मेरे पास तुम्हारे जैसा बताने लायक तो कुछ नहीं है,’’ मैं ने कहा तो गहरे उद्वेग के साथ कही गई मेरी बातों में छिपी वेदना को उस ने महसूस किया और मेरा हाथ जोर से दबा कर सबकुछ कह कर मन हलका करने का संकेत दिया.
‘‘अपने से कहीं ऊंचे स्तर के परिवार में मेरा विवाह हो गया. पत्नी के स्वच्छंद व स्वतंत्र होने की जिद ने मुझे डंस लिया. अत्यधिक धनसंपदा ने भी इस को मुझ से दूर ही रखा. बातबात पर झगड़ कर मायके जाना और मायके वालों का मेरी पत्नी पर वरदहस्त, कुल मिला कर हमारी बीच की दूरियां बढ़ाता ही रहा. वह चाहती थी कि मैं घरजमाई बन कर हर ऐशोआराम की वस्तु का उपभोग करूं मगर मेरे जमीर को यह मंजूर नहीं था. 1-2 बार मेरे मातापिता उसे मनानेसमझाने भी गए पर उन्हें तुच्छ व असभ्य कह कर उस ने बेइज्जत किया. फिर मैं वहां नहीं गया.
‘‘मेरे जुड़वां बेटाबेटी हैं, उसी के पास रहते हैं. जब कभी मेरा मन बच्चों से मिलने को चाहता है, मैं उन्हें कहीं बाहर बुला कर मिल लेता हूं. उन के मन में मेरे प्रति न प्यार है न नफरत. जब से मेरे ससुरजी का देहांत हुआ है, उस ने दोनों बच्चों को होस्टल में भेज दिया है. पत्नी के मन में आज भी मेरे प्रति नफरत कूटकूट कर भरी है. सारा जीवन यों ही बीत गया.
‘‘जीवन कैसा भी बीते, पर उसे छोड़ने का मन ही नहीं करता. धीरेधीरे यह दर्द मेरे जीवन का हिस्सा बन गया है, फिर तो अकेले ही जिंदगी जीने की जंग शुरू हो गई जो आज तक चल रही है. मैं पिछले 3 सालों से इसी शहर में हूं और पास ही के एक बैंक में मैनेजर हूं. बस, यही है मेरी कहानी.’’
हम दोनों ही अतीत की यादों में खो गए. जिंदगी की किताब के पन्ने पलटते रहे और एकएक पड़ाव जांचते रहे. यही भटकाव कभीकभी आदमी के भविष्य की दिशा तय कर देता है. रात काफी घिर चुकी थी. बड़े बेमन से हम ने एकदूसरे से विदा ली.
नूपुर से मिलने के बाद मेरा दिल बहुत बेचैन हो गया था. खाना खाने का मन नहीं था इसलिए महरी को दरवाजे से ही वापस भेज दिया. मैं चाय का गिलास लिए ड्राइंगरूम में बैठ गया. सहसा स्मृति कलश से फिर एक स्मृति उभर कर मुझे कई बरस पीछे ले गई. मेरे विचारों के तार कब अतीत से जुड़ गए, पता ही न चला.
उस छोटे से शहर में कालोनी के कोने वाले मकान में वे लोग नएनए आए थे. मां प्रतिदिन सवेरे टहलने जातीं तो नूपुर की मां का भी वही नित्यकर्म था. हम अपनीअपनी मां के साथ पार्क में आते और जब तक मां टहलतीं, हम पार्क में एक तरफ बैठ कर बातें करते रहते. हमउम्र होने के कारण हमारी आपस में बहुत बनने लगी. खेलतेखेलते कब जवान हो कर एकदूसरे के करीब आ गए, पता ही न चला.
दिन बीतते गए. हमारी खुशियों का कोई अंत नहीं था. मगर एक दिन सूर्योदय होने से पहले ही सूर्यास्त हो गया. उस के पिताजी को दिल का दौरा पड़ा और वे सदा के लिए संसार से कूच कर गए. इस तरह एक दिन उस परिवार पर कहर टूट पड़ा.
उस रोज की शाम हर रोज की तरह नहीं हुई. जब तक मैं कालेज से आया, उन का सामान ट्रक में लादा जा चुका था. पता चला वे लोग पूना अपने घर जा रहे हैं. मैं नूपुर से मिल भी नहीं सका. उस से मिलने की हसरत मन में सिमट कर रह गई. न तोप चली न तलवार, न सूई चली न नश्तर पर हृदय पर ऐसा गहरा आघात लगा कि मैं ठीक से संभल न पाया.
वह साल बेहद उदासी में बीता. मैं पार्क में बैठ कर पुरानी यादों को दोहराता रहता. मेरे पास उस का अब कोई संपर्क सूत्र भी नहीं था.
एम कौम करने के बाद मेरी बैंक में नियुक्ति हो गई तो मुझे देहरादून जाना पड़ा. बातों का सिलसिला इस के बाद जा कर थम गया. लेकिन उस की यादें मेरे मन में बनी रहीं.
एक बार दीवाली पर घर आया तो मां ने यों ही दिल के तार छेड़ दिए, ‘तुझे याद है, हमारे पड़ोस में वर्माजी रहते थे, वही जिन की बेटी नूपुर के साथ तू अकसर खेला करता था.’
‘हां,’ मेरा दिल धक से कर गया, ‘कहां है वह?’
‘पिछले दिनों उस की मां का फोन आया था. अपनी बेटी के रिश्ते की बात करने लगीं.’
‘तो क्या कहा आप ने?’ मैं ने उत्सुकता से सांसें थाम कर पूछा.
‘मैं भला क्या कहती. जब भी तुझ से रिश्ते की बात करती, तू टाल जाता था. मुझे लगा तेरे मन में कोई है और जब समय आएगा तू खुद ही बता देगा.’
‘नहीं मां, मेरे मन में ऐसा कुछ भी नहीं था, न है,’ मैं ने सारा संकोच त्याग कर मां से मनुहार की, ‘चाहो तो एक बार फिर से बात कर के देख लो.’
और जब तक मां ने बात की, बहुत देर हो चुकी थी. मां ने रोंआसी सी हो कर बताया कि नूपुर की शादी तेरे साथ करने को उन का बड़ा मन था और नूपुर की भी रजामंदी थी पर समय से मैं कुछ जवाब न दे सकी तो वे उदास हो गईं. अब तो नूपुर की सगाई भी हो चुकी है.
मेरा दिल भारी हो गया और अगले दिन ही मैं वापस देहरादून चला गया. उस जैसा फिर मन को कोई प्यारा न लगा. मैं ने उस का अस्तित्व ही भुला देना चाहा पर भूलने के लिए भी मुझे हमेशा याद रखना पड़ा कि मुझे उसे भूलना है जो सहज न हो सका.
आज इतने सालों के बाद सारी बातों की पुनरावृत्ति ने मुझे झकझोकर कर रख दिया. मैं ने धीरे से आंखें मूंद लीं पर फिर भी आंसू का एक कतरा न जाने कहां से निकल कर मेरे गाल पर आ गया.
अगले दिन सुबह घूमने के लिए मैं बाहर जाने लगा तो दरवाजे पर नूपुर को देख कर रुक गया. हैरानगी से पूछा, ‘‘नूपुर, तुम?’’
‘‘घूमने जा रहे हो, चाय नहीं पिलाओगे, देखूं तो तुम अकेले कैसे रह लेते हो.’’
उस के शब्दों के इस आक्रमण से मैं सकपका सा गया परंतु उस के साथ रहने का कोई मौका भी गंवाना नहीं चाहता था. सो बोला, ‘‘चलो, आज सैर रहने देता हूं.’’
‘‘नहीं, तुम जाओ, तब तक मैं चाय तैयार करती हूं,’’ अपने होंठों पर चिरपरिचित मुसकान के साथ नूपुर बोली, ‘‘नित्यकर्म नहीं छूटना चाहिए, चाहे शरीर छूट जाए,’’ उस ने यह उसी अंदाज में कहा जैसे पार्क का चौकीदार टहलने वालों से कहा करता था. हम दोनों बीती बातों को याद कर हंस पड़े.
वह मेरे साथ ही घर के अंदर आ गई. दिन पखेरू की तरह उड़ने लगे. जिंदगी ने खुद ही खुशनुमा वारदात की शुरुआत कर दी. हमारा मिलनाजुलना लगातार जारी रहा और निरंतर एकदूसरे को सहारा देते रहे. उस ने भी अपनी छुट्टियां बढ़वा लीं.
उस दिन दोपहर से ही मेरा मन बहुत बेचैन और क्षुब्ध था. शाम होतेहोते उस ने वह बात बता दी जो मैं पहले से ही जानता था. मेरे पास आते ही साड़ी के पल्लू को उंगलियों पर इस तरह लपेट रही थी जैसे कोई महत्त्वपूर्ण बात कहने की भूमिका सोच रही हो.
‘‘मेरे स्कूल की छुट्टियां समाप्त होने जा रही हैं, कल वापस चली जाऊंगी.’’ यह सुन कर मुझे काठ मार गया. मैं तड़प उठा. बेहद धीमी आवाज में डूबते हुए दिल से पूछा, ‘‘फिर कब लौटोगी, क्या फैसला किया है?’’
‘‘कुछ फैसले हिसाब लगा कर नहीं किए जाते, जिंदगी खुद ही कर देती है.’’
‘‘फिर भी?’’ मैं उस के मुंह से सुनना चाहता था.
‘‘मैं नहीं जानती,’’ वह रोंआसी सी हो गई, फिर खुद को नियंत्रित कर लड़खड़ाते शब्दों में पूछा, ‘‘तुम?’’
‘‘मेरा क्या है, जब तक मन चाहा, रह लूंगा. फिर ढलते सूरज का क्या पता कब अस्त हो जाए.’’
‘‘ऐसा क्यों कहते हो,’’ कहते हुए नूपुर ने मेरे कंधे पर सिर टिका दिया. मेरी सिसकियां रुलाई में फूट पड़ीं. प्रेम का एहसास इतना गहरा होता है, मैं ने कभी सोचा भी न था. हम एकदूसरे के बाहुपाश में बंध गए.
आखिर वह मनहूस घड़ी आ ही गई. मैं उसे स्टेशन तक छोड़ने गया. गाड़ी के जाने तक मैं भागदौड़ कर उस के लिए पानी और फलों का इंतजाम करता रहा. बड़े भारी मन से मैं ने उसे विदा किया. मुझे लगा, लगातार मेरे शरीर का एक हिस्सा कटता जा रहा है पर मुझे तो अपने हिस्से की पीड़ा भोगनी थी, उसे अपने हिस्से की.
नूपुर क्या गई, मेरा सारा सुखचैन ही चला गया. मुझे सबकुछ वीराना सा लगने लगा. बरसों तक जो बात सीने में छिपी थी वह फिर से पपड़ी पड़े घाव को कुरेद गई. वह न मिलती तो अच्छा था. मैं जल्द से जल्द घर पहुंचना चाहता था ताकि रास्ते में मुझे कोई रोता हुआ न देख ले.
नूपुर की यादों ने फिर मुझे तोड़ कर रख दिया. उस के बिना कुछ भी करने को मन न करता. जब मन ज्यादा बेचैन होने लगता तो उसे लंबेलंबे पत्र लिखता और फाड़ कर फेंक देता.
इस उम्र में जब मैं जिंदगी को समेटने में व्यस्त था, नूपुर के प्रति इतनी चाहत बनी रहेगी, यह पहले पता होता तो उस से कभी न मिलता. घंटे दिनों में बदल गए, दिन हफ्तों में और हफ्ते महीनों में. हमारे बीच निरंतर संपर्क बना रहा. फोन की हर घंटी पर मैं दिल की धड़कन में तेजी महसूस करता.
मेरा वीआरएस (रिटायरमैंट) स्वीकृत हो गया. मैं ने शहर से दूर पहाड़ी पर बनी कालोनी में एक फ्लैट ले लिया और जब नूपुर को इस बारे में बताया तो वह बहुत खुश हुई. उस ने पूछा, ‘‘कब तक कब्जा मिलेगा?’’
‘‘वह सब तो मिल चुका है. बस, गृहप्रवेश बाकी है.’’
‘‘अच्छा, कब कर रहे हो गृहप्रवेश?’’
‘‘जब तुम आ जाओ. मेरा इस दुनिया में और है ही कौन? 14 मार्च ठीक रहेगी.’’
‘‘सम?ा गई, तुम्हारे जन्मदिन वाले दिन. इस से अच्छा और कोई दिन हो भी नहीं सकता. मैं कोशिश करूंगी पर मेरा इंतजार मत करना.’’
14 मार्च के दिन सुबह से ही मैं ने घर धुलवा कर गेंदे की 2 मालाएं दरवाजे पर लटका दी थीं और मौली में आम के पत्ते बांध कर ऊपर तोरण बांध दिया. मुझे मां के कहे शब्द अचानक याद आ गए. वे कहा करती थीं, ‘बाहर दरवाजे पर आम के पत्ते मौली में गूंथ कर जरूर बांधना क्योंकि आम हमेशा हराभरा रहता है.’
आम के पत्ते बांधने के बाद मेरी गृहस्थी कितनी हरीभरी रही, इस को देखने के लिए आज मां मेरे बीच नहीं थीं. उन के बारे में सोच कर मेरी आंखें भर आईं.
मैं मिठाई की दुकान से एक डब्बा काजू की कतली और नमकीन ले आया. दोनों ही नूपुर को बहुत पसंद थे. मुझे आशा ही नहीं, विश्वास भी था कि नूपुर यहां पहुंचने का हरसंभव प्रयत्न करेगी.
मुझे नूपुर का ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा. वह सीधी मेरे फ्लैट पर आ गई. उस के साथ उस की बेटी भी थी. एकदम वैसी ही जैसे नूपुर को मैं ने बचपन में देखा था. मुझे देख कर उस का चेहरा खिल उठा तो मन में आया कि उसे सीने से लगा लूं. आज मेरे बच्चे भी इतने ही बड़े होंगे. रुंधे गले से मैं इतना ही कह पाया, ‘‘काश, आज मेरे बच्चे भी होते.’’
‘‘यह भी तो तुम्हारी ही बच्ची है, फिर भी अपने बच्चों को देखना चाहते हो तो सामने देखो,’’ उस ने मेरे कंधों का सहारा ले कर सामने टैक्सी की तरफ इशारा किया, ‘‘मैं इन्हें होस्टल से ले कर आई हूं. मैं जानती थी कि पत्नी के मरने के बाद तुम इन की कमी महसूस करोगे.’’
‘‘क्या वह नहीं रही?’’ मैं चौंक गया.
‘‘उन्हें गुजरे तो 6 माह हो गए हैं. उन्होंने जानबूझ कर तुम को नहीं बताया,’’ फिर मुझे एक तरफ ले जा कर बोली, ‘‘इन बच्चों के मन में तुम्हारे प्रति यह कह कर जहर भर दिया गया है कि तुम उन की अंत्येष्टि में भी नहीं आए. बड़ी मुश्किलों और आश्वासनों के साथ इन को यहां लाई हूं.’’
मुझे अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. मैं झट से नूपुर को साथ ले कर टैक्सी के पास गया और कस कर बच्चों से लिपट गया.
थोड़ी देर साथ रहने के बाद नूपुर वापस जाने लगी तो मेरा मन टूटने लगा. किस अधिकार से उसे रोकूं. फिर भी भरे कंठ से बोला, ‘‘रुक जाओ, नूपुर. मुझे इस तरह अकेला छोड़ कर मत जाओ.’’
वह खामोश असहजता को छिपाने का असफल प्रयत्न करती रही. उस की चुप्पी मुझे निराश कर गई. एक दीर्घ ठंडी सांस ले कर मैं ने पूछा, ‘‘नूपुर, क्या मेरा कोई अधिकार है तुम पर?’’
‘‘ऐसा शरीर में कोई कोना नहीं जहां तुम्हारा अधिकार न हो,’’ वह मेरी आंखों में झांकते हुए बोली थी. उस के शब्द मेरे दिल की गहराइयों में उतर गए. जैसे इस छोटे से वाक्य में जीवन का सारा निचोड़ समाया हो. फिर डबडबाई आंखों से बोली, ‘‘तुम क्या चाहते हो?’’
‘‘मैं तुम्हें चाहता हूं, नूपुर. क्या अब हम सब साथसाथ नहीं रह सकते?’’
‘‘तुम ने ऐसी वस्तु मांगी है जो पहले से ही तुम्हारी थी,’’ वह सिसकने लगी. शायद वह भी मुझ से सहारा चाहती थी.
मैं ने एक बार बच्चों की तरफ देखा. मेरे मन के भावों को पढ़ते हुए नूपुर बोली, ‘‘अब ये बच्चे इतने नादान नहीं हैं. मैं ने उन्हें अपने और तुम्हारे बारे में सबकुछ साफसाफ बता दिया है. कल पूरी रात बच्चे मेरे साथ थे. ये सबकुछ समझते हैं.’’
मैं ने दूर से बच्चों की तरफ देखा. तीनों बच्चे आंखों से इस रिश्ते को स्वीकार कर रहे थे.
समय कब, कौन सी करवट बदले कोई नहीं जानता. इस नए बंधन की झुर-झुरी हमारे मन के भीतर तक फैल गई.