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कहानी: आधी तस्वीर

भैया के लिए मनशा के मन में जो शक बैठ गया उसे वह जीवनभर हटा न सकी. मन की अदालत में भी वह उन्हें माफ न कर सकी.
वह दरवाजे के पास आ कर रुक गई थी. एक क्षण उन बंद दरवाजों को देखा. महसूस किया कि हृदय की धड़कन कुछ तेज हो गई है. चेहरे पर शायद कोई भाव हलकी छाया ले कर आया. एक विषाद की रेखा खिंची और आंखें कुछ नम हो गईं. साड़ी का पल्लू संभालते हुए हाथ घंटी के बटन पर गया तो उस में थोड़ा कंपन स्पष्ट झलक रहा था. जब तक रीता ने आ कर द्वार खोला, उसे कुछ क्षण मिल गए अपने को संभालने के लिए, ‘‘अरे, मनशा दीदी आप?’’ आश्चर्य से रीता की आंखें खुली रह गईं.

‘‘हां, मैं ही हूं. क्यों यकीन नहीं हो रहा?’’

‘‘यह बात नहीं, पर आप के इधर आने की आशा नहीं थी.’’

‘‘आशा…’’ मनशा आगे नहीं बोली. लगा जैसे शब्द अटक गए हैं.

दोनों चल कर ड्राइंगरूम में आ गईं. कालीन में उस का पांव उलझा, तो रीता ने उसे सहारा दे दिया. उस से लगे झटके से स्मृति की एक खिड़की सहसा खुल गई. उस दिन भी इसी तरह सूने घर में घंटी पर रवि ने दरवाजा खोला था और अपनी बांहों का सहारा दे कर वह जब उसे ड्राइंगरूम में लाया था तो मनशा का पांव कालीन में उलझ गया था. वह गिरने ही वाली थी कि रवि ने उसे संभाल लिया था. ‘बस, इसी तरह संभाले रहना,’ उस के यही शब्द थे जिस पर रवि ने गरदन हिलाहिला कर स्वीकृति दी थी और उसे आश्वस्त किया था. उसे सोफे पर बैठा कर रवि ने अपलक निशब्द उसे कितनी देर तक निहार कर कहा था, ‘तुम्हें चुपचाप देखने की इच्छा कई बार हुई है. इस में एक विचित्र से आनंद का अनुभव होता है, सच.’

मनशा को लगा 20-22 वर्ष बाद रीता उसी घटना को दोहरा रही है और वह उस की चुप्पी और सूनी खाली नजरों को सहन नहीं कर पा रही है. ‘‘क्या बात है, रीता? इतनी अजनबी तो मत बनो कि मुझे डर लगे.’’

‘‘नहीं दीदी, यह बात नहीं. बहुत दिनों से आप को देखा नहीं न, वही कसर पूरी कर रही थी.’’ फिर थोड़ा हंस कर बोली, ‘‘वैसे 20-22 वर्ष अजनबी बनने के लिए काफी होते हैं. लोग सबकुछ भूल जाते हैं और दुनिया भी बदल जाती है.’’

‘‘नहीं, रीता, कोई कुछ नहीं भूलता. सिर्फ याद का एहसास नहीं करा पाता और इस विवशता में सब जीते हैं. उस से कुछ लाभ नहीं मिलता सिवा मानसिक अशांति के,’’ मनशा बोली.

‘‘अच्छा, दीदी, घर पर सब कैसे हैं?’’

‘‘पहले चाय या कौफी तो पिलाओ, बातें फिर कर लेंगे,’’ वह हंसी.

‘‘ओह सौरी, यह तो मुझे ध्यान ही नहीं रहा,’’ और रीता हंसती हुई उठ कर चली गई.

मनशा थोड़ी राहत महसूस करने लगी. जाने क्यों वातावरण में उसे एक बोझिलपन महसूस होने लगा था. वह उठ कर सामने के कमरे की ओर बढ़ने लगी. विचारों की कडि़यां जुड़ती चली गईं. 20 वर्षों बाद वह इस घर में आई है. जीवन का सारा काम ही तब से जाने कैसा हो गया था. ऐसा लगता कि मन की भीतरी तहों में दबी सारी कोमल भावनाएं समाप्त सी हो गई हैं. वर्तमान की चढ़ती परत अतीत को धीरेधीरे दबा गई थी. रवि संसार से उठ गया था और भैया भी. केवल उन से छुई स्मृतियां ही शेष रह गई थीं.

रवि के साथ जीवन को जोड़ने का सपना सहसा टूट गया था. घटनाएं रहस्य के आवरण में धुंधलाती गई थीं. प्रभात के साथ जीवन चलने लगा-इच्छाअनिच्छा से अभी भी चल ही रहा है. उन एकदो वर्षों में जो जीवन उसे जीना था उस की मीठी महक को संजो कर रखने की कामना के बावजूद उस ने उसे भूलना चाहा था. वह अपनेआप से लड़ती भी रही कि बीते हुए उन क्षणों से अपना नाता तोड़ ले और नए तानेबाने में अपने को खपा कर सबकुछ भुला दे, पर वह ऊपरी तौर पर ही अपने को समर्थ बना सकी थी, भीतर की आग बुझी नहीं. 20 वर्षों के अंतराल के बाद भी नहीं.

आज ज्वालामुखी की तरह धधक उठने के एहसास से ही वह आश्चर्यचकित हो सिहर उठी थी. क्या 20 वर्षों बाद भी ऐसा लग सकता है कि घटनाएं अभीअभी बीती हैं, जैसे वह इस कमरे में कलपरसों ही आ कर गई है, जैसे अभी रवि कमरे का दरवाजा खोल कर प्रकट हो जाएगा. उस की आंखें भर आईं. वह भारी कदमों से कमरे की ओर बढ़ गई.

कोई खास परिवर्तन नहीं था. सामने छोटी मेज पर वह तसवीर उसी फ्रेम में वैसी ही थी. कागज पुराना हो गया था पर रवि का चेहरा उतनी ही ताजगी से पूर्ण था. जनता पार्क के फौआरे के सामने उस ने रवि के साथ यह फोटो खिंचवाई थी. रवि की बांह उस की बांह से आगे आ गई थी और मनशा की साड़ी का आंचल उस की पैंट पर गया था. ठीक बीच से जब रवि ने तसवीर को काटा था तो एक में उस की बांह का भाग रह गया और इस में उस की साड़ी का आंचल रह गया.

2-3 वाक्य कमरे में फिर प्रतिध्वनित हुए, ‘मैं ने तुम्हारा आंचल थामा है मनशा और तुम्हें बांहों का सहारा दिया है. अपनी शादी के दिन इसे फिर जोड़ कर एक कर देंगे.’ वह कितनी देर तक रवि के कंधे पर सिर टिका सपनों की दुनिया में खोई रही थी उस दिन.

उन्होंने एमए में साथसाथ प्रवेश किया था. भाषा विज्ञान के पीरियड में प्रोफैसर के कमरे में अकसर रवि और मनशा साथ बैठते. कभी उन की आपस में कुहनी छू जाती तो कभी बांह. सिहरन की प्रतिक्रिया दोनों ओर होती और फिर धीरेधीरे यह अच्छा लगने लगा. तभी रवि मनशा के बड़े भैया से मिला और फिर तो उस का मनशा के घर में बराबर आनाजाना होने लगा. तुषार से घनिष्ठता बढ़ने के साथसाथ मनशा से भी अलग से संबंध विकसित होते चले गए. वह पहले से अधिक भावुक और गंभीर रहने लगी, अधिक एकांतप्रिय और खोईखोई सी दिखाई देने लगी.

अपने में आए इस परिवर्तन से मनशा खुद भी असुविधा महसूस करने लगी क्योंकि उस का संपर्क का दायरा सिमट कर उस पर और रवि पर केंद्रित हो गया था. कानों में रवि के वाक्य ही प्रतिध्वनित होते रहते थे, जिन्होंने सपनों की एक दुनिया बसा दी थी. ‘वे कौन से संस्कार होते हैं जो दो प्राणियों को इस तरह जोड़ देते हैं कि दूसरे के बिना जीवन निरर्थक लगने लगता है. ‘तुम्हें मेरे साथ देख कर नियति की नीयत न खराब हो जाए. सच, इसीलिए मैं ने उस चित्र के 2 भाग कर दिए.’ रवि के कंधे पर सिर रखे वह घंटों उस के हृदय की धड़कन को महसूस करती रही. उस की धड़कन से सिर्फ एक ही आवाज निकलती रही, मनशा…मनशा…मनशा.

वे क्षण उसे आज भी याद हैं जैसे बीते थे. सामने बालसमंद झील का नीला जल बूढ़ी पहाडि़यों की युवा चट्टानों से अठखेलियां कर रहा था. रहरह कर मछलियां छपाक से छलांग लगातीं और पेट की रोशनी में चमक कर विलीन हो जातीं. झील की सारी सतह पर चलने वाला यह दृश्य किसी नववधू की चुनरी में चमकने वाले सितारों की झिलमिल सा लग रहा था. बांध पर बने महल के सामने बड़े प्लेटफौर्म पर बैंचें लगी हुई थीं. मनशा का हाथ रवि के हाथ में था. उसे सहलातेसहलाते ही उस ने कहा था, ‘मनशा, समय ठहर क्यों नहीं जाता है?’

मनशा ने एक बहुत ही मधुर दृष्टि से उसे देख कर दूसरे हाथ की उंगली उस के होंठों पर रख दी थी, ‘नहीं, रवि, समय के ठहरने की कामना मत करो. ठहराव में जीवन नहीं होता, शून्य होता है और शून्य-नहीं, वहां कुछ नहीं होता.’

रवि हंस पड़ा था, ‘साहित्य का अध्ययन करतेकरते तुम दार्शनिक भी हो गई हो.’

न जाने ऐसे कितने दृश्यखंड समय की भित्ती पर बनते गए और अपनी स्मृतियां मानसपटल पर छोड़ते गए. बीते हुए एकएक क्षण की स्मृति में जीने में इतना ही समय फिर बीत जाएगा और जब इन क्षणों का अंत आएगा तब? क्या फिर से उस अंत को झेला जा सकता है? क्या कभी कोई ऐसी सामर्थ्य जुटा पाएगा, जीवन के कटु और यथार्थ सत्य को फिर से जी सकने की, उस का सामना करने की? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, इसीलिए जीवन की नियति ऐसी नहीं हुई. चलतेचलते ही जीवन की दिशा और धारा मुड़ जाती हैं या अवरुद्ध हो जाती हैं. हम कल्पना भी नहीं कर पाते कि सत्य घटित होने लगता है.

मनशा के जीवन के सामने कब प्रश्नचिह्न लग गया, उसे इस का भान भी नहीं हुआ. घर के वातावरण में एक सरसराहट होने लगी. कुछ सामान्य से हट कर हो रहा था जो मनशा की जानकारी से दूर था. मां, बाबूजी और भैया की मंत्रणाएं होने लगीं. तब आशय उस की समझ में आ गया. मां ने उस की जिज्ञासा अधिक नहीं रखी. उदयपुर का एक इंजीनियर लड़का उस के लिए देखा जा रहा था. उस ने मां से रोषभरे आश्चर्य से कहा, ‘मेरी शादी, और मुझ से कुछ कहा तक नहीं.’

‘कुछ निश्चित होता तभी तो कहती.’

‘तो निश्चित होने के बाद कहा जा रहा है. पर मां, सिर्फ कहना ही तो काफी नहीं, पूछना भी तो होता है.’

‘मनशा, इस घर की यह परंपरा नहीं रही है.’

‘जानती हूं, परंपरा तो नई अब बनेगी. मैं उस से शादी नहीं करूंगी.’

‘मनशा.’

‘हां, मां, मैं उस से शादी नहीं करूंगी.’

जब उस ने दोहराया तो मां का गुस्सा भड़क उठा, ‘फिर किस से करेगी? मैं भी तो सुनूं.’

‘शायद घर में सब को इस का अंदाजा हो गया होगा.’

‘मनशा,’ मां ने उस का हाथ कस कर पक लिया, ‘तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है. जातपांत, समाज का कोई खयाल ही नहीं है?’

मनशा हाथ छुड़ा कर कमरे में चली गई. घर में सहसा ही तनाव व्याप्त हो गया. शाम को तुषार के सामने रोरो कर मां ने अपने मन की व्यथा कह सुनाई. बाबूजी को सबकुछ नहीं बताया गया. तुषार इस समस्या को हल करने की चेष्टा करने लगा. उसे विश्वास था वह मनशा को समझा देगा, और नहीं मानेगी तो थोड़ी डांटफटकार भी कर लेगा. मन से वह भी इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा था कि मनशा पराई जाति के लड़के रवि से ब्याह करे. वह जानता था, कालेज के जीवन में प्रेमप्यार के प्रसंग बन ही जाते हैं पर…

‘भैया, क्या तुम भी मेरी स्थिति को नहीं समझ सकते? मां और बाबूजी तो पुराने संस्कारों से बंधे हैं लेकिन अब तो सारा जमाना नईर् हवा में नई परंपराएं स्थापित करता जा रहा है. हम पढ़लिख कर भी क्या नए विचार नहीं अपनाएंगे?’

‘मनशा,’ तुषार ने समझाना चाहा, ‘मैं बिना तुम्हारे कहे सब जानता हूं. यह भी मानता हूं कि रवि के सिवा तुम्हारी कोई पसंद नहीं हो सकती. पर यह कैसे संभव है? वह हमारी जाति का कहां है?’

‘क्या उस के दूसरी जाति के होने जैसी छोटी सी बात ही अड़चन है.’

‘तुम इसे छोटी बात मानती हो?’

‘भैया, इस बाधा का जमाना अब नहीं रहा. उस में कोई कमी नहीं है.’

‘मनशा…’ तुषार ने फिर प्रयास किया, ‘‘आज समाज में इस घर की जो प्रतिष्ठा है वह इस रिश्ते के होते ही कितनी रह जाएगी, यह तुम ने सोचा है? यह ब्याह होगा भी तो प्रेमविवाह अधिक होगा अंतर्जातीय कम. मैं सच कहता हूं कि बाद में तालेमल बैठाना तुम्हारे लिए बहुत कठिन होगा. तुम एकसाथ दोनों समाजों से कट जाओगी. मां और बाबूजी बाद में तुम्हें कितना स्नेह दे सकेंगे? और उस घर में तुम कितना प्यार पा सकोगी? इस की कल्पना कर के देखो तो सही.’

मनशा ने सिर्फ भैया को देखा, बोली कुछ नहीं. तुषार ही आगे बोलता रहा, ‘व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर जीवन के सारे पहलुओं पर जरा ठंडे दिल से सोचने की जरूरत है, मनशा. जल्दी में कुछ भी निर्णय ठीक से नहीं लिया जा सकता. फिर सभी महापुरुषों ने यही कहा है कि प्रेम अमर होता है, किसी ने ब्याह अमर होने की बात नहीं कही, क्योंकि उस का महत्त्व नहीं है.’ अपने अंतिम शब्दों पर जोर दे कर वह कमरे से बाहर चला गया.

मनशा सबकुछ सोच कर भी भैया की बात नहीं मान सकती थी. किसी और से ब्याह करने की कल्पना तक उस के मस्तिष्क में नहीं आ पाती थी. घर के वातावरण में उसे एक अजीब सा खिंचाव और उपेक्षा का भाव महसूस होता जा रहा था जो यह एहसास करा रहा था मानो उस ने घर की इच्छा के विरुद्ध बहुत बड़ा अपराध कर डाला हो. भैया से अगली बहस में उस ने जीवन का अंत करना अधिक उपयुक्त मान लिया था. उसे इस सीमा तक हठी देख तुषार को बहुत क्रोध आया था, पर उस ने हंस कर इतना ही कहा, ‘नहीं, मनशा, तुम्हें जान देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी.’

घर के तनाव में थोड़ी ढील महसूस होने लगी, जैसे प्रसंग टल गया हो. तुषार भी पहले की अपेक्षा कम खिंचा हुआ सा रहने लगा. पर न अब रवि आता और न मनशा ही बाहर जाती थी. मनशा कोई जिद कर के तनाव बढ़ाना नहीं चाहती थी.

तभी सहसा एक दिन शाम को समाचार मिला कि रवि सख्त बीमार है और उसे अस्पताल में भरती किया गया है. मांबाप के मना करने पर भी मनशा सीधे अस्पताल पहुंच गई. देखा इमरजैंसी वार्ड में रवि को औक्सीजन और ग्लूकोज दिया जा रहा है. उस का सारा चेहरा स्याह हो रहा था. चारों ओर भीड़ में विचित्र सी चर्चा थी. मामला जहर का माना जा रहा था. रवि किसी डिनर पार्टी में गया था.

नाखूनों का रंग बदल गया था. डाक्टरों ने पुलिस को इत्तला करनी चाही पर तुषार ने समय पर पहुंच कर अपने मित्र विक्टर की सहायता से केस बनाने का मामला रुकवा दिया. यह पता नहीं चल पा रहा था कि जहर उसे किसी दूसरे ने दिया या उस ने स्वयं लिया था. रवि बेहोश था और उस की हालत नाजुक थी.

मनशा के पांव तले से धरती खिसकती जा रही थी. एकएक क्षण काटे नहीं कट रहा था. वह समझ नहीं पा रही थी कि ऐसा क्यों और कैसे हो गया. फिर सहसा बिजली की तरह मस्तिष्क में विचार कौंधा. कल शाम को भैया भी तो उस पार्टी में गए थे. फिर तबीयत इन्हीं की क्यों खराब हुई? बहुत रात गए वह लौट आई.

डाक्टर पूरी रात रवि को बचाने का प्रयत्न करते रहे पर सुबह होतेहोते वे हार गए. दाहसंस्कार बिना किसी विलंब के तुरंत कर दिया गया. मनशा गुमसुम सी कमरे में बैठी रही. न बोल सकी और न रो सकी. रहरह कर कुछ बातें मस्तिष्क की सूनी दीवारों से टकरा जातीं और उन के केंद्र में तुषार भैया आ जाते.

‘तुम्हें जान देने की जरूरत नहीं पड़ेगी.’ कोई महीनेभर पहले उन्होंने कहा था, फिर पार्टी में तुषार के साथ रवि का होना उस की उलझन बढ़ा रहा था. वहां क्या हुआ? क्या भैया से कोई बहस हुई? क्या भैया ने उसे मेरा खयाल छोड़ने की धमकी दी? क्या इसीलिए उस ने आत्महत्या कर ली कि मुझे नहीं पा सकता था? एक बार उस ने कहा भी था, ‘तुम्हारे बिना मैं नहीं जी सकता, मनशा.’ क्या यह स्थिति उस ने मान ली थी कि बिना उस से पूछे? या…उसे… नहीं…नहीं…कौन कर सकता है यह काम…क्या भैया… ‘नहीं…नहीं…’ वह जोर से चीखी. मां हड़बड़ा कर कमरे में आईं. देखा वह बेहोश हो गई है. थोड़ीथोड़ी देर में होश आता तो वह कुछ बड़बड़ाने लगती.

धीरेधीरे वह सामान्य होने लगी. उस ने महसूस किया, भैया उस से कतरा रहे हैं और इसी आधार पर उन के प्रति संदेह का जो सांप कुंडली मार कर उस के मन में बैठा वह भैया के जीवनपर्यंत वैसा ही रहा. उन की मृत्यु के बाद भी मन की अदालत में वह उन्हें निर्दोष घोषित नहीं कर सकी.

दुनिया और जीवन का चक्र जैसा चलना था चला. प्रभात से ही उस का ब्याह हुआ. बच्चे हुए और अब उन का भी ब्याह होने जा रहा था.

न जाने आंखों से कितने आंसू बह गए. रीता दरवाजे पर ही खड़ी रही. मनशा ने ही मुड़ कर देखा तो उस के गले लग कर फिर रो पड़ी. रवि की मृत्यु के बाद वह आज पहली बार रोई है. रीता कुछ समझ नहीं पा रही थी. हम सचमुच जीवन में कितना कुछ बोझ लिए जीते हैं और उसे लिए ही मर भी जाते हैं. यह रहस्य कोई कभी नहीं जान पाता है, केवल उस की झलक मात्र ही कोई घटना कभी दे जाती है.

वे दोनों ड्राइंगरूम में आ कर बैठ गईं. मनशा ने स्थिर हो कौफी पी और अपने बेटे की शादी का कार्ड रीता की ओर बढ़ा दिया. वह बेहद प्रसन्न हुई यह देख कर कि लड़की दूसरी जाति की है. रीता की जिज्ञासा फूट पड़ी, ‘दीदी, जो आप जीवन में नहीं कर सकीं उसे बेटे के जीवन में करते समय कोईर् दिक्कत तो नहीं हो रही है?’

‘हुई थी…भैया ने जैसे सामाजिक स्तर की बातचीत की थी वैसा तो आज भी पूरी तरह नहीं, फिर भी हम इतना आगे तो बढ़े ही हैं कि इतना कर सकें…प्रभात नहीं चाहते थे. बड़ेबुजुर्ग भी नाराज हैं, पर मैं ने मनीष और दीपा के संबंध में संतोषजनक ढंग से सब जाना तो फिर अड़ गई. मैं बेटा नहीं खोना चाहती थी. किसी तरह का खतरा नहीं उठाने की ठान ली. सोच लिया अपनी जान दे दूंगी पर इस को बचा लूंगी, मन का बोझ इस से हलका हो जाएगा.’ उस के चेहरे पर हंसी की रेखा उभर कर विलीन हो गई.

घरपरिवार की कितनी ही बातें कर मनशा चलने को उद्यत हुई तो बैग से एक कागज का पैकेट सा रीता के हाथ में थमा कर कहा, ‘इसे भी रख लो.’

‘यह क्या है दीदी?’

‘आधी तसवीर, जिसे तुम्हारे रवि भैया जोड़ना चाहते थे. जब कभी तुम सुनो कि मनशा दीदी नहीं रहीं तो उस तसवीर से इसे जोड़ देना ताकि वह पूरी हो जाए. यह जिम्मेदारी तुम्हें ही सौंप सकती हूं, रीता.’ वह डबडबाती आंखों के साथ दरवाजे से बाहर निकल गई. अतीत को मुड़ कर दोबारा देखने की हिम्मत उस में नहीं बची थी.
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