कहानी: खोया हुआ सुख
दीवाली की रात सुलेखा का एक बंद ट्रक में ऐसा क्या मिला कि उसे देख कर घर के सभी लोगों की आंखें डबडबा आईं...
अमित जब अपने कैबिन से निकला तब तक दफ्तर लगभग खाली हो चुका था. वह जानबूझ कर कुछ देर से उठता था. इधर कई दिनों से उस का मन बेहद उद्विग्न था. वह चाहता था कि कोईर् उस से बात न करे. कम से कम उस की गृहस्थी या निजी जिंदगी को ले कर तो हरगिज नहीं. जब से अमित ने ज्योति से पुनर्विवाह किया है, तब से वह अजीब सी कुंठाओं में जी रहा था. लोग उसे ले कर तरहतरह की बातें करते. इन सब के कारण वह बेहद चिड़चिड़ा हो गया था.
सुषमा की कैंसर से अकाल मृत्यु ने अमित की गृहस्थी डांवांडोल कर दी थी. बच्चे भी तब बेहद छोटे थे, मुन्नू 4 ही साल का था और सुलेखा 6 की. परिवार में सिर्फ बड़े भैया और भाभी थीं, पर उन्हें भी इतनी फुरसत कहां थी कि वे अमित के साथ रह कर उस के बच्चों को संभालतीं.
1 महीने बाद उन्होंने अमित से कहा, ‘‘देखो भैया, मरने वाले के साथ तो मरा नहीं जाता. सुषमा तुम्हारे लिए ही क्या, हम सब के लिए एक खालीपन छोड़ गई है. बच्चों की तरफ देखो, ये कैसे रहेंगे? अब इन के लिए और दुनियादारी निभाने के लिए तुम्हें दूसरा विवाह तो करना ही पड़ेगा.’’
भाभी की बात सुन कर वह फूटफूट कर रो पड़ा. ऐसे दिनों की तो उस ने कल्पना तक नहीं की थी. उसे विमाता की उपेक्षा से भरी दास्तानें याद आने लगी थीं. अब इन बच्चों को भी क्या वही सब सहना होगा? वह दृढ़ शब्दों में भाभी से बोला, ‘‘अब मेरी शादी की इच्छा नहीं है. रही बात बच्चों की तो ये किसी तरह संभल ही जाएंगे.’’
चलते समय भाभी ने ठंडी सांस भर कर आंसू पोंछे. फिर बोलीं, ‘‘अमित, जहां हमारे 4 बच्चे रहते हैं, वहां ये 2 भी रह लेंगे, कुछ संभल जाएं तो ले आना. अभी अपना दफ्तर देखोगे या इन मासूमों को?’’
अमित चुप रह गया और दोनों बच्चे भाभी के साथ चले गए. उन सब को छोड़ कर एयरपोर्ट स्टेशन से घर आने के लिए उस के पांव उठ ही नहीं रहे थे. उत्तेजना के कारण निचला होंठ बारबार कांप रहा था. रुलाई फूट पड़ने को तैयार थी. वह अपने मन पर काबू पाने के लिए एक पार्क में चला गया.
किसी तरह अपने को संयत कर वह दफ्तर जाने लगा. कुछ दिनों तक तो सब सहयोगी उस के साथ सहानुभूतिपूर्ण तथा सहयोग भरा व्यवहार करते रहे. फिर सब पूर्ववत हो गया.
कुछ महीनों तक अमित को पता ही नहीं चला कि समय कैसे बीत गया. उस का कोई न कोई सहयोगी दफ्तर से निकलते समय उसे अधिकारपूर्वक अपने घर ले जाता. वह वहां से रात का भोजन कर केवल रात गुजारने के लिए ही घर आता.
मगर जल्द ही अमित ने यह महसूस किया कि वह जिन घरों में भोजन करने या समय गुजारने के लिए जाता है, वहां सब ने अब उस के सामने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से रिश्ते की बात रखनी शुरू कर दी थी. सब उस के ऊपर अपना पूरा अधिकार जताते और आत्मीयता का हवाला देते हुए उस से ‘हां’ कहलवाने की भरसक कोशिश कर रहे थे. अमित सम?ा नहीं पा रहा था कि वह इस विषम परिस्थिति का कैसे सामना करे? उसे यह भी दिखने लगा था कि दोस्तों की पत्नियां कुछ न कुछ बहाना बना कर ड्राइंगरूम से खिसक लेतीं. उसे एक अधूरी चीज समझ जाने लगा था.
नतीजा था, अब अमित अपने सहयोगी मित्रों से कतराने लगा था. जो लोग उस से रिश्ते की आशा लगाए बैठे थे, उन्हें देखते ही वह रास्ता बदल लेता था. तलाकशुदा या देर तक शादी न हो पाई लड़कियों को उस से मिलवाया जाता था जो खुद बुझीबुझी रहती थीं. अब अगर दफ्तर से चलते समय कोई उसे अपने घर ले जाना चाहता तो वह घर के किसी आवश्यक कार्य का बहाना बना कर जल्दी से खिसक जाता.
एक दिन तो अमरजी ने हद कर दी. वे उस की मेज पर बैठ कर मुंह में पान दबाए उस से बोले, ‘‘बरखुरदार, काम खत्म हो गया? रह गया हो तो कर लेना. आज हमारी मेम साहिबा सुनयना ने तुम्हें साधिकार घर बुलवाया है. कहा है कि ले कर ही आना.’’
अमित मुसकरा कर बोला, ‘‘कोई खास बात है क्या?’’
वे आंखें फैला कर बोले, ‘‘खास ही समझे, अंबाला वाले उन के भाई केदार अपनी बेटी को ले कर आ गए हैं. उस की तसवीर तो तुम ने देख कर पसंद कर ही ली थी. अब जरा पूरी बात कर लो.’’
अमर की बात सुन कर वह हैरान रह गया. बोला, ‘‘आप किस की बात कर रहे हैं? मैं ने भला कौन सी तसवीर पसंद की थी?’’
वे हंस कर बोले, ‘‘अरे, भूल भी गए. उस दिन सुनयना ने अपने मोबाइल से निकाल कर फोटो नहीं दिखाया था?’’
अमित अचकचा कर बोला, ‘‘अरे, उस दिन सुनयना ने अपने मोबाइल से निकाल कर एक गु्रप फोटो दिखाते हुए सहमति मांगी थी कि अच्छी है न और मैं ने भी कह दिया था अच्छी है और कोई बात तो नहीं हुई थी?’’
वे चिढ़ कर बोले, ‘‘यह लो, अच्छा बेवकूफ बनाया तुम ने तो… खैर…’’ और वे जोर से कैबिन का दरवाजा बंद कर के चले गए.
अमित कितनी ही देर तक अकेला बैठा रहा. आंखों में उस गु्रप फोटो फैशनपरस्त सी युवती की तसवीर घूम रही थी. वह सुषमा की जगह हरगिज नहीं ले सकती, सोचता हुआ वह उठ खड़ा हुआ.
अगले दिन से ही अमर ने उसे कोसने और मुफ्तखोर पेटू की उपाधि दे कर बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.
भाभी का उस के मोबाइल पर फोन आया कि सुलेखा बीमार चल रही है. जान कर अमित का कलेजा दो टूक हो गया. वह हर तरफ से परेशान था. सुषमा के होते वह कितना निश्चिंत था. सुषमा की याद आते ही उस का निचला होंठ उत्तेजना के कारण कांपने लगा. आखिर वह हफ्तेभर की छुट्टी ले कर आगरा एक टैक्सी कर के चला गया.
जब अमित वहां पहुंचा, सुलेखा अचेत सी पलंग पर पड़ी थी. मुन्नू गंदे कपड़ों में नंगे पांव, धूलधूसरित सा बच्चों के साथ कंचे खेल रहा था. सारे घर के कामकाज संभालती भाभी बेदम हुई जा रही थीं. उस के आने से राहत महसूस करती हुई बोलीं, ‘‘बड़ा अच्छा किया, भैया जो तुम आ गए. बच्चे भी बहुत याद कर रहे थे. सुलेखा के इलाज में भी सुविधा रहेगी. मुझे तो कई बार दवा देने की भी याद नहीं रहती.’’
बच्चों की यह हालत देख कर अमित सचमुच बौखला गया. उस ने पहले इस बात की कल्पना भी नहीं की थी. देर तक वह सुलेखा के सिरहाने बैठ उस के सिर पर हाथ फिराता रहा. बच्चों की दशा देख कर उसे महसूस हो रहा था कि उस ने कितनी मूल्यवान निधि गंवा दी है.
कई दिन आगरा में रहने पर सब बच्चे उस से फिर से घुलमिल गए. सुलेखा भी काफी स्वस्थ हो गई थी. एक दिन आंगन में कपड़े धो कर तार पर डालते हुए भाभी बोलीं, ‘‘अब इतना भी बच्चों के साथ मत घुलमिल जाओ. 2-4 दिन में तुम चले जाओगे तो फिर वे पापा के लिए रोएंगे.’’
अमित चुपचाप फूलों की क्यारियां देखता रहा.
‘‘देख, बच्चों को अपने साथ ले जाना हो तो पहले विवाह कर ले. फिर पूरी गृहस्थी के साथ हंसीखुशी यहां से जाना.’’
अमित कुछ नहीं बोला, उस की तरफ से कोई नकारात्मक जवाब न पा कर भाभी का हौसला कुछ और बढ़ा. वह उसे समझती हुई बोलीं, ‘‘देख अमित, चाहे तू मुंह से कुछ न बोल पर यह तो मानेगा कि दुनियादारी निभाना कितना मुश्किल काम है.’’
अमित ने सिर नीचे कर लिया. सच ही तो कह रही है भाभी. अपनेअपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए ही तो दफ्तर के सहयोगी और मित्र जो लड़की नहीं दिखाते थे वे उस पर एहसान करते दिखते और 2-4 दिन में मुआवजा पाने की आस में कोई ऐप्लिकेशन ले कर खड़े हो जाते थे. दोस्त उसे रोज अपने घर भोजन पर बुलाते रहे थे. बाद में अपनी इच्छा पूरी न होने पर वे उसे मुफ्तखोर या पेटू कहने से भी नहीं चूके.
बच्चे रात का भोजन कर चुके थे. बड़े भैया के साथ अमित चौके में पहुंचा तो घरेलू खाने की सुगंध उस के नथनों में भर गई. कितने दिन हो गए हैं ऐसा खाना खाए हुए.
भाभी भोजन परोसती हुई बोलीं, ‘‘अमित, तेरी शादी के लिए रिश्ते तो बहुत आ रहे हैं पर सोचती हूं कि तेरी शादी उसी लड़की से करूंगी जो तेरी तरह जीवन डगर पर बीच में ही जीवनसाथी को खो बैठी हो.’’
अमित प्रश्नसूचक दृष्टि से उन्हें देखने लगा.
अमित को अपनी तरफ देखते हुए पा कर वे हंस कर बोलीं, ‘‘अरे ऐसे क्या देख रहा है? कुंआरी लड़कियों को कुंआरों के लिए रहने दे. जरा सोच, कुंआरी लड़कियां तेरे साथ सच्चे दिल से निभा पाएंगी? टूटे दिल को टूटा दिल ही समझ सकता है.’’
अब तक अमित को ऐसी ही लड़कियां दिखाई गई थीं पर किसी ने इतने साफ शब्दों में समझाया नहीं था.
अमित रातभर करवटें बदलता रहा. भाभी की बात उस के मनमस्तिष्क में गूंजती रही. उसे भी नजर आ रहा था कि इस तरह उस की गाड़ी नहीं चलेगी. दफ्तर में हिकारत भरी नजरों का सामना, किसी महिला से बात करते सशंकित निगाहों का आगेपीछे घूमना, बच्चों की दुर्दशा इन सब का निस्तार तो करना ही पड़ेगा. उस ने भाभी के आगे हथियार डाल दिए.
और फिर 3 माह में ही बिना किसी आडंबर से मैट्रीमोनियल साइट से मिली ज्योति के साथ उस का विवाह हो गया. 2-4 रोज में ही उस ने अपनी गृहस्थी का बोझ अपने सिर पर ले लिया. बच्चे भी उस से घुलनेमिलने लगे. अमित सोचने लगा कि भाभी ने गलत नहीं कहा था. कुंआरी लड़की इतनी सहृदयता से सब को नहीं अपना सकती थी जितनी अच्छी तरह अपने घर का सपना संजोने वाली ज्योति ने कर दिखाया.
भोपाल आते ही ज्योति ने घरगृहस्थी अच्छी तरह संभाल ली. बच्चों का स्कूल में दाखला हो गया. हर सुबह वह बच्चों को प्रेम से नाश्ता करा कर अपनेअपने स्कूल भेजने लगी. अमित का खोया हुआ आत्मविश्वास दोबारा लौट आया. सच ही है कि पुरुष को जीवन में सफलता पाने के लिए नारी का प्रेम आवश्यक है. यह केवल नारी ही है जो पुरुष के व्यक्तित्व की अंतरिम गहराइयों का पोषण करती है, उसे समग्रता प्रदान करती है और भटकाव से रोकती है.
अमित की घरगृहस्थी सुचारू रूप से चलने लगी थी. वह ज्योति के साथ खुश था. ज्योति का व्यक्तित्व कहींकहीं सुषमा से उन्नीस था, तो कहीं इक्कीस. अमित जब कभी सुषमा को ले कर उदास होता तो न जाने कैसे ज्योति पलभर में सब जान कर उसे उदासी के जाल से मुक्त कर हंसा देती. पर जब कभी वह अनमनी हो जाती तब अमित न जाने क्यों उद्विग्न हो जाता. शायद इसलिए कि पुरुष में उतनी सहनशक्ति नहीं होती. वह पत्नी को पूरी तरह अपने में ही बांध कर रखना चाहता है.
अमित शाम को दफ्तर से सीधा घर आता. दोनों बच्चे साफसुथरे कपड़ों में लौन में खेलते हुए मिलते. स्वयं ज्योति भी व्यवस्थित ढंग से रहती और उसी तरह बच्चों को रखती. ज्योति का चेहरा भी इतना गंभीर और प्रभावशाली था कि देखने वाले को एक बार बरबस अपनी तरफ आकर्षित करता था. घर में वह सुखशांति थी जो किसी आदर्श परिवार में होनी चाहिए.
अमित की सुखी गृहस्थी देख कर उस के दफ्तर के सहयोगी न जाने क्यों एक अनजानी ईर्ष्या से जलने लगे. घरगृहस्थी उजड़ जाने के कारण अमित जहां पहले उन की कृपा और संवेदना का पात्र बन गया था, वहीं अब वह उन की ईर्ष्या का पात्र बन गया था. सहयोगी मित्रों की यह ईर्ष्या अमित को अप्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से देखनेसुनने को मिलती थी. अकसर उसे सुनाई पड़ता था कि जूठी पत्तल चाटने में भला क्या आनंद?
ज्योति को ले कर तो उसे अकसर अश्लील वाक्य सुनने पड़ते कि ज्यादा दिन नहीं रहेगी, तरहतरह का स्वाद चखने की आदत जो पड़ गई है या फिर भला एक बार मांग में सिंदूर पुंछ जाने पर दोबारा कहां सुहाता है?
अमित चुपचाप सब सुन लेता था. पलट कर कुछ कहना उस के स्वभाव में नहीं था. पर एक चिड़चिड़ाहट उस के स्वभाव में घुलती जा रही थी. घर मेें ज्योति के कुछ पूछने पर वह चिल्ला कर जवाब देता था. बच्चों में भी एक अजीब सी असुरक्षा घर करती जा रही थी. पढ़ाई में भी वे पिछड़ रहे थे.
कई बार ज्योति दबी जबान से उसे भोपाल से अपना तबादला कहीं और करवा लेने की बात कहती. वह सारी परिस्थितियों को देखते हुए अमित की मनोदशा जान गई थी. पर अमित भोपाल में जमीजमाई गृहस्थी नहीं उजाड़ना चाहता था.
दीपावली के त्योहार में अभी कई दिन बाकी थे. ज्योति के बड़े भैया अपने किसी काम से भोपाल आए थे. वह घर की असामान्य स्थिति को भांपते हुए अमित से बोले, ‘‘अगर आप को कोई असुविधा नहीं हो तो ज्योति और बच्चों को कुछ दिन के लिए आगरा ले जाऊं?’’
बहन को मायके ले जाने के पीछे भाई की कोई दुर्भावना नहीं थी. स्वयं ज्योति भी कई बार दबे शब्दों में घर जाने की इच्छा प्रकट कर चुकी थी. पर अमित का पारा न जाने क्यों चढ़ गया. वह रूखे स्वर में बोला, ‘‘बच्चे वहां जा कर क्या करेंगे? अभी स्कूल भी खुले हुए हैं, इसलिए आप केवल ज्योति को ले जाइए.’’
चलते समय ज्योति का मन बेहद उदास था. वह पूरे परिवार के साथ मायके जाना चाहती थी. अकेले जाना उसे कचोट रहा था. पर अमित सहज नहीं था. उस से कुछ भी कहना विस्फोटक स्थिति को बुलावा देना था.
अब अमित का घर के किसी काम में मन नहीं लगता था. बच्चे उस से डरे तथा सहमे रहते थे. वह रसोई में जैसेतैसे नाश्ता बना कर बच्चों को चिल्ला कर बुलाता तो वे दोनों एकदूसरे को देखते हुए, डरते हुए खाने की मेज पर बैठ जाते. खाना तो क्या, निगलना ही होता था.
दफ्तर में पहले की तरह असहयोग भरा वातावरण चल रहा था. घर में भी प्रेम के दो बोल बोलने वाला कोई नहीं था. ज्योति का कोई पत्र भी नहीं आया था.
उस दिन दफ्तर से निकलते ही उसे अपना पुराना मित्र अरविंद मिल गया. दीपावली नजदीक आ रही थी. वह अपनी पत्नी को अचानक भेंट देने के लिए ड्रैस खरीदने की जल्दी में था. उस ने हंस कर अमित से कहा, ‘‘क्यों यार, नई भाभी के लिए तो खूब ड्रैस खरीदता होगा. आज जरा एक ड्रैस रश्मि के लिए भी खरीदवा दे. तुझे तो खूब दुकानदारी आ गई होगी. ज्योति भाभी अपनेआप बहुत स्मार्ट है और समझदार भी. तुझ पर असर जरूर पड़ा होगा.’’
उस की बात सुन कर अमित को सहसा याद आया कि उस ने तो कभी ज्योति के लिए कुछ खरीदा ही नहीं है. अच्छा हुआ जो अरविंद उस दिन उस के साथ घर नहीं आया, वरना इस भुतहे घर को देख कर वह पता नहीं क्या सोचता?
पासपड़ोस में दीपावली की तैयारियां पूरे जोर पर थीं. मुन्नू और सुलेखा अपने घर बालकनी पर ही खड़े रहते थे. उन के साथ भी खेलने वाले बच्चे कभी अपनी मां और पिताजी के साथ कपड़े खरीदने जा रहे होते तो कभी खिलौने और मिठाइयां लेने. रोज शाम होते ही बच्चे अपने पिता के साथ फुलझाडि़यां व पटाखे छुड़ाने में व्यस्त हो जाते. मुन्नू और सुलेखा के साथ खेलने के लिए उन के पास फालतू समय ही नहीं था.
एक रोज एकाकीपन से ऊब कर मुन्नू ने उस से पूछा, ‘‘पिताजी, हमारी मां कब आएंगी?’’
अमित यह प्रश्न सुन कर चुप बना रहा. उसे कोई जवाब नहीं सूझ रहा था. सुलेखा डबडबाई आंखों से भाई की तरफ देख रही थी. अमित घर की सफाई करने में लगा था. दोनों बच्चे भी उस के साथ यथासंभव हाथ बंटा रहे थे.
अचानक सुलेखा को कुछ याद आया. वह अमित की उंगली पकड़ कर दिखाते हुए बोली, ‘‘पिताजी, हमारी मां इस में हमारे लिए सुंदर कपड़े रख कर गई हैं.’’
मुन्नू नए कपड़ों का नाम सुन कर आंखों में चमक भर कर बोला, ‘‘अच्छा.’’ अमित ने बच्चों की जिज्ञासा दूर करने के लिए सब ट्रंक उतार कर नीचे रखे और वह ट्रंक खोला. वह यह देख कर हैरान रह गया कि सब के लिए अलगअलग डब्बे में नए कपड़े करीने से रखे हैं. मुन्नू की कमीज, सुलेखा का शराराकुरता तथा अमित के लिए पैंटकमीज रखी थी. और यह नीचे वाली डिबिया में क्या है? कुतूहलवश उस ने डिबिया उठा कर खोली. यह देख कर हैरान रह गया कि अरे, सुलेखा के लिए नन्ही सोने की बालियां और उस के लिए पुखराज की अंगूठी. अमित ने नीचे तक ट्रंक देख डाला, पर स्वयं ज्योति के लिए कुछ नहीं था.
अमित हतप्रभ रह गया. कैसी है यह ज्योति? सब के लिए इतना कुछ खरीदने के लिए उस ने इतनी बचत कैसे की होगी?
उसी रात मुन्नू और सुलेखा के साथ अमित ज्योति को लिवाने के लिए भोपाल से आगरा के लिए रवाना हो गया.
ज्योति के बड़े भैया बाहर ही मिल गए. वे अमित से खुशी से गले मिले. बाबूजी ने भी कुशलक्षेम पूछ कर आदर से दामाद को बैठाया.
ज्योति को कल ही लिवा ले जान की बात सुन कर वे बोले, ‘‘दीपावली में अब 3-4 दिन ही तो रह गए हैं. त्योहार मना कर ही जाना.’’
नाना की बात सुन कर बच्चे बोले, ‘‘पर हमारे सब दोस्त तो वहां पटाखे छुड़ाएंगे. हम भी वहीं दीपावली मनाएंगे.’’
बच्चों की बात का समर्थन करते हुए अमित बोला, ‘‘आप इजाजत दें तो यह पहली दीपावली हम भोपाल में ही मनाना चाहेंगे.’’
अगले दिन वे भोपाल जाने के लिए रेलगाड़ी में बैठ गए. आगरा पीछे छूट रहा था. ज्योति सिर झुकाए मोबाइल में आंखें गढ़ाए बैठी थी. अमित के पहले व्यवहार के बारे में सोच कर वह उस की तरफ देख भी नहीं पा रही थी. बच्चे ऊंघने लगे थे. मुन्नू उस की गोद में सिर रख कर सो गया था. अमित को आज ज्योति के माथे की बिंदिया ममता में डूबी हुई जान पड़ रही थी.
दीपावली की रात को दोनों बच्चे ज्योति के साथ दीए जलाने की तैयारी कर रहे थे. बच्चों ने नए कपड़े पहने थे. सुलेखा नन्ही बालियां हिलाती हुई बेहद सुंदर लग पड़ रही थी. अमित अभी बाजार से नहीं लौटा था. ज्योति थाल में दीए सजा कर तेल भर रही थी.
ज्योति की तरफ साड़ी का डब्बा बढ़ाते हुए अमित ने कहा, ‘‘अब जरा जल्दी से साड़ी पहन कर हमें भी एक प्रेम का उपहार दे दो,’’ शरारत से उस ने अपने होंठों पर उंगली रखी.
ज्योति लजा कर साड़ी का डब्बा लिए अंदर जाने लगी. उस का रास्ता रोक कर अमित ने कहा, ‘‘देखो, मना मत कर देना, आज दीपावली है.’’