कहानी: टेढ़ी चाल
सुमन किसी जरूरतमंद की मदद कर देता तो संगीता इसे उस की बेवकूफी या फुजूलखर्ची समझ कर पूरा घर सिर पर उठा लेती. पर सुमन के साथ घटी एक घटना ने उस की आंखों पर पड़ी स्वार्थ की पट्टी उतार फेंकी.
शौचालय से आ कर हाथ धोते हुए संगीता ने पूछा, ‘‘कौन आया था अभी? घंटी किस ने बजाई थी?’’ सुमन ने समाचारपत्र में आंखें गड़ाते हुए कहा, ‘‘कोई नहीं, रामप्रसाद आया था.’’ ‘‘रामप्रसाद?’’ संगीता के स्वर में कटुता थी, ‘‘तो इस में छिपाने की क्या बात है? जरूर रुपए मांगने आया होगा. उस के जैसा भिखमंगा कोई नहीं देखा. कितने रुपए दिए?’’
‘‘अरे, कहा न, न मांगे, न मैं ने दिए,’’ सुमन के स्वर में एक लापरवाही सी थी.
‘‘मैं मान ही नहीं सकती. अरे, मेरा क्या, तुम सब रुपए लुटा दो,’’ संगीता ने क्रोध से कहा, ‘‘पर अपनी गृहस्थी का भी तो खयाल करो. बताओ न, कितने रुपए दिए?’’
तिलमिला कर सुमन ने कहा, ‘‘तुम हमेशा उल्टा क्यों सोचती हो? वह सिर्फ यह कहने आया था कि उस के यहां आज सत्यनारायण की कथा है. निमंत्रण दिया था. मुझे तो इन ऊटपटांग बातों से चिढ़ है, इसलिए मैं ने टाल दिया.’’
‘‘मैं कहती थी न, रामप्रसाद यों ही नहीं आने का. तुम इन बातों को मानो या न मानो, पर उस ने तो कथा के नाम से पैसे जरूर मांगे होंगे,’’ संगीता बोली.
झींकते हुए सुमन ने कहा, ‘‘अगर मांगता भी तो क्या इन फालतू कामों के लिए दे देता?’’
‘‘तो देख लेना,’’ संगीता ने चेतावनी दी, ‘‘अगर अभी नहीं ले गया तो अब किसी न किसी बहाने आता ही होगा. आखिर प्रसाद भी तो बनाना होगा, पैसे कम पड़ गए होंगे,’’ संगीता ने नकल की.
सुमन ने क्रोध से कहा, ‘‘भलीमानस, अब आए तो तुम ही दरवाजा खोलना और तुम ही उस से निबट लेना. मेरा दिमाग मत खराब करो. अगर हो सके तो एक प्याली चाय बना दो. कब से बैठा इंतजार कर रहा हूं.’’
‘‘छि, एक प्याली चाय भी नहीं बना सकते? बड़े तीसमारखां बनते हैं कि दफ्तर में यह करता हूं, दफ्तर में वह करता हूं.’’
सुमन ने चिढ़ कर कहा, ‘‘दफ्तर में तुम्हारे जैसे 50 चपरासी हैं यह सब काम करने के लिए.’’
रसोई में से आवाज आई, ‘‘क्या कहा? सुनाई नहीं दिया.’’
सुमन ने दोहराना ठीक नहीं समझा. इतवार का दिन था. सारा दिन बरबाद करने से क्या लाभ? फिर कहा, ‘‘जल्दी ले आओ चाय, तलब लग रही है.’’
सुमन की आदत कुछ ऐसी है कि वह समयअसमय असुविधा होते हुए भी किसी के सहायता मांगने पर कभी न नहीं करता. रुपए के मामले में तो सदा नुकसान ही उठाना पड़ता है.
थोड़े से रुपए दे कर तो वह भूल ही जाता है. संगीता उस के इस स्वभाव से तंग है. सदा खीजती ही रहती है.
उस का एक ही प्रश्न होता है, ‘‘क्या फायदा आलतूफालतू लोगों का काम करने से? बदले में क्या कभी कुछ मिलता है?’’
‘‘तो क्या हमेशा बदले में कुछ पाने की आशा से ही कुछ करना चाहिए?
निस्वार्थ सेवा में जो आनंद है वह स्वार्थ में कहां?’’
‘‘धरे रहो अपनी निस्वार्थ सेवा,’’ संगीता तुनक कर कहती, ‘‘मरे, काम निकलने के बाद कभी झांकते तक नहीं.’’
‘‘यह अपने मन की बात है,’’ सुमन बोला.
वैसे वह संगीता से इतने असहयोग की आशा नहीं करता था. आरंभ में वह काफी प्रसन्न दिखाई देती थी, पर अब तो वह जलन और कुढ़न का भी शिकार हो गई है. बातबात पर चिढ़ती रहती है.
कुछ ही महीने पहले की बात है कि किसी के यहां दावत पर दफ्तर के सहयोगी प्रेमचंद और उस की पत्नी करुणा से भेंट हुई थी. करुणा एक स्कूल में पढ़ाती थी. बातों ही बातों में पता लगा कि सुमन को कागज के कई प्रकार के फूल बनाने आते हैं. करुणा ने सोचा कि अगर वह यह कला सीख लेगी तो बच्चों को भी सिखा सकेगी. उस ने सुमन से पूछा कि क्या वह उस के घर यह कला सीखने आ सकती है. सुमन को क्या आपत्ति हो सकती थी?
संगीता को अच्छा नहीं लगा कि करुणा इस तरह खुलेआम बेखौफ हो कर उस के पति से बात करे. इस पर तुर्रा यह कि बिना उस से पूछे सुमन ने उसे घर आने का खुला निमंत्रण भी दे दिया. इस बात पर घर में आ कर उस ने खूब लड़ाई की.
जब करुणा आई तो वह बेमन से बैठी रही. प्रेमचंद ने हंस कर उस का मन बहलाने का प्रयत्न किया, पर उस के चेहरे की सख्ती छिपी न रही.
सुमन ने करुणा को थोड़ाबहुत फूल बनाना बताया और देर हो जाने के कारण फिर आने का निमंत्रण दे दिया. उसे कोई काम अधूरा करना अच्छा नहीं लगता था.
उन के जाने के बाद संगीता फूट पड़ी, ‘‘मैं पहले से कहे देती हूं कि अब ये लोग यहां नहीं आएंगे. सारे काम छोड़ कर मरी को बस कागज के फूल बनाने ही सूझे.’’
‘‘ओहो, तो हमारा कौन सा नुकसान हो गया? अरे, जो आता था सो बता दिया. उस का भला हो गया. बच्चों को स्कूल में सिखाएगी. इस से कला का और विस्तार होगा,’’ सुमन ने कहा.
‘‘किसी व्यावसायिक स्कूल में जा कर सीखती तो गांठ से पैसे जो खर्च करने पड़ते. यहां तो मुफ्त में ही काम निकल गया. चायनाश्ता भी मिल गया.’’
‘‘तुम तो बेकार में झगड़ती हो. इस में चायपानी भी जोड़ दिया.’’
‘‘अपनेआप बनानी पड़े तो जानो. वैसे मैं ने कह दिया है कि अब वह इस घर में नहीं आएगी.’’
‘‘अब कल तो आएगी ही. उस के बाद मना कर दूंगा.’’
‘‘कल भी नहीं. मैं दरवाजा ही नहीं खोलूंगी.’’
‘‘दरवाजा मैं खोल दूंगा. तुम कष्ट मत करना,’’ सुमन ने हंसते हुए कहा.
‘‘क्यों, क्या वह तुम्हारी कुछ लगती है?’’ सुमन की हंसी से आहत हो कर संगीता ने व्यंग्य किया.
‘‘तुम तो पागल हो,’’ सुमन क्रोध से बोला और मेज पर से पत्रिका उठा कर पन्ने पलटने लगा.
अंत में घर में शांति बनाए रखने के प्रयास में दूसरे दिन सुमन को प्रेमचंद से कहना पड़ा कि संगीता की तबीयत ठीक नहीं. वह स्वयं किसी दिन आ कर करुणा को बाकी के फूल बनाना सिखा देगा.
दरवाजे पर घंटी बजी तो सुमन की तंद्रा टूटी. उठ कर देखा तो प्रेमदयाल खड़ा था. पड़ोसी था. हाथ में एक थैला था. देख कर मुसकराया.
‘‘आओ, आओ, प्रेमदयाल, कैसे आए?’’
अंदर आ कर बैठते हुए प्रेमदयाल ने कहा, ‘‘अपने बगीचे में इस बार अच्छे पपीते हुए हैं. एक पपीता ले कर आया हूं.’’
‘‘यह तो बहुत अच्छा किया. बहुत दिनों से मन भी कर रहा था पपीता खाने को,’’ सुमन ने हंस कर कहा.
पपीता हाथ में ले कर देखा, ‘‘सच ही बहुत अच्छा लग रहा है. काफी मेहनत करते हो.’’
‘‘अच्छा तो चलता हूं.’’
‘‘अरे, ऐसे कैसे? बैठो, एक प्याला चाय पी कर जाना. मैं भी सोच रहा था कि कोई आए तो चाय पीने का बहाना मिले.’’
अंदर आ कर मुसकरा कर पपीता संगीता को दिखा कर रखते हुए कहा, ‘‘जल्दी से चाय तो बना दो. प्रेमदयाल आया है.’’
‘‘वह तो देख रही हूं. महीने भर से सूरत नहीं दिखाई. आज पपीता लाया है तो जरूर कोई मतलब होगा.’’
‘‘क्यों, क्या बिना मतलब पपीता नहीं ला सकता?’’
‘‘सब हमारी तरह मूर्ख नहीं होते. देख लेना, अभी कोई काम बताएगा.’’
‘‘छोड़ो भी, कहां का खटराग ले बैठीं. झटपट चाय बना दो.’’
संगीता ने मुंह बनाते हुए चाय बनाने के लिए गैस पर पानी का पतीला रख दिया. चाय पीने के बाद प्रेमदयाल ने बाहर जाते हुए दरवाजे पर ठिठक कर कहा, ‘‘हां, एक बात कहना तो मैं भूल ही गया था. मुन्ना आएगा आप के पास. आप का कुछ समय लेगा.’’
‘‘अरे, तो इस में कहनेपूछने की क्या बात है? कभी भी आ जाए. उस का घर है. मैं नहीं होऊंगा तो संगीता होगी यहां.’’
‘‘नहीं, मेरा मतलब है उसे आप से कुछ पढ़ना है. परीक्षा सिर पर है. कल ढेर सारी समस्याएं सामने रख दीं उस ने. अब हम तो इतना पढ़ेलिखे हैं नहीं. जो कुछ पढ़ा था वह भी भूल गए. कुछ मदद कर देना उस की.’’
‘‘हांहां, क्यों नहीं. भेज देना,’’ सुमन ने कहा.
सुमन मन ही मन सोच रहा था कि संगीता को बताए या नहीं. पर पत्नी के कान तो बाहर ही लगे हुए थे.
‘‘कहा नहीं था मैं ने कि बिना मतलब के प्रेमदयाल कभी सूरत नहीं दिखाएगा, पिछले साल के 4 अमरूद क्या भूल गए?’’
‘‘ओहो, अब बच्चे को अगर कुछ समझा दूंगा तो मेरा क्या घिस जाएगा? इस तरह कभीकभी पढ़ता रहा तो कभी अपने बच्चों के काम आएगा,’’ सुमन ने हंस कर कहा.
संगीता ने क्रोध से कहा, ‘‘चलो हटो, मुझे यह ठिठोली अच्छी नहीं लगती. यहां आ कर घंटों सिर खपाता रहेगा. कहां मिलेगा मुफ्त का मास्टर? एक पपीता दे कर 500 रुपए बचा लिए.’’
‘‘लो, फिर हिसाबकिताब में उलझ गईं, अच्छा बताओ, क्या सब्जी लानी है?’’
सुमन ने बाहर पैर रखा ही था कि निरंजन ने आ कर हाथ पकड़ लिया, ‘‘तो मिल ही गए. मैं तो डर रहा था कि कहीं चले न गए हो.’’
‘‘क्या बात है? घबरा क्यों रहे हो?’’
‘‘पप्पू को कुत्ते ने काट लिया है. वैसे तो कुत्ता पालतू है, पर उस के इंजेक्शन तो लगवाने ही पड़ेंगे. जरा स्कूटर निकालो तो उसे अस्पताल ले चलें.’’
‘‘ठीक है, तुम चलो, मैं अभी आता हूं.’’
‘‘बड़ी मेहरबानी होगी.’’
‘‘बस, मुझे तुम्हारी यही बात अच्छी नहीं लगती. ऐसा कह कर शर्मिंदा मत करो.’’
सुमन स्कूटर की चाबी लेने घर में आया.
‘‘क्यों, क्या हो गया? थैला तो हाथ में है और रुपए भी मैं ने दे दिए थे?’’ संगीता ने संदेह से पूछा.
‘‘अरे, यह निरंजन है न, बाहर मिल गया. उस के बच्चे को कुत्ते ने काट लिया है. उसे अस्पताल पहुंचाना है.’’
संगीता ने भड़क कर कहा, ‘‘तो क्या शहर में स्कूटर और टैक्सी वालों ने हड़ताल कर दी है? लेकिन जब मुफ्त में सवारी मिलती हो तो कौन भाड़ा देना पसंद करता है?’’
‘‘इनसान को जो सहारा मिल जाए उस का ही तो आसरा लेगा. अभी आता हूं. ज्यादा देर नहीं लगेगी.’’
‘‘सब्जी नहीं होगी तो खाना नहीं बनेगा. उसी निरंजन से कह देना, होटल से कुछ ले कर बंधवा देगा. स्कूटर के 5 रुपए भी खर्च नहीं कर सकता.’’
‘‘तुम तब तक दालचावल चढ़ाओ, मैं लौट कर आता हूं.’’
‘‘मैं क्या जानती नहीं उस कंजूस को? वहां 2 घंटे खड़ा रखेगा और फिर वापस भी तुम्हारे साथ आएगा. 4 महीने हुए तब मैं ने कहा था कि दौरे पर हर महीने हैदराबाद जाते हो, मेरे लिए मोतियों की माला ले आना. उस दिन से आज तक सूरत नहीं दिखाई.’’
‘‘अब क्या कहूं, संगीता, तुम्हारी तो उल्टा सोचने की आदत है. अब उसे क्या परेशानी है, हमें क्या मालूम? एक बार रुपए दे कर देखतीं कि लाता है या नहीं.’’
‘‘भली चलाई. माला के तो दर्शन दूर रुपए भी हाथ से जाते. मैं कहे देती हूं कि उसे अस्पताल छोड़ कर चले आना, नहीं तो मैं ताला लगा कर चली जाऊंगी.’’
‘‘अच्छा, बाबा, अभी आता हूं,’’ सुमन झट से चाबी ले कर चला गया.
सब्जी ला कर आराम से बैठ कर सुमन ने पत्नी के कंधे पर हलके से थपथपाते हुए कहा, ‘‘अब एक प्याला चाय हो जाए तो कहूं कि धरती पर अगर सर्वोत्तम स्थान है तो बस यहीं है, यहीं है, यहीं है.’’
संगीता ने कर्कश स्वर में कहा, ‘‘मुझे नहीं अच्छी लगती यह खुशामद. अपनेआप बना लो.’’
‘‘किसी ने ठीक ही कहा है कि क्रोध में औरत की खूबसूरती दोगुनी हो जाती है. अब तुम मुझे दोगुनी सुंदर ही अच्छी लगती हो. अगर कहीं चौगुनी या आठगुनी सुंदर हो गईं तो भला मैं कहां बरदाश्त कर पाऊंगा? अब बना दोगी चाय तो तुम्हारे गुण गाऊंगा, नहीं तो… ’’
‘‘नहीं तो क्या?’’ संगीता ने पूछा.
‘‘नहीं तो क्या, नीचे हिदायतुल्ला के ढाबे में जा कर पी लूंगा.’’
‘‘क्यों, ढाबे में क्यों जाओगे?’’ संगीता ने बिगड़ कर कहा, ‘‘निरंजन के जाओ, प्रेमदयाल के जाओ, उस के… उस के… करुणा के यहां जाओ. बढि़या खुशबूदार चाय मिलेगी.’’
गहरी आह भरते हुए सुमन ने कहा, ‘‘बस, मजा ही किरकिरा कर दिया. क्या तीर मारा है.’’
दूसरे ही दिन संगीता को पत्र मिला कि उस के छोटे भाईबहन कालिज की छुट्टियों में उस के पास कुछ दिनों के लिए आने वाले हैं. संगीता बहुत प्रसन्न थी. उस ने बाजार से सामान लाने के लिए एक बड़ी सूची बना ली. सुमन के दफ्तर से आने की प्रतीक्षा कर रही थी.
सुमन ने जल्दी आने का वादा किया था. उस का मन खराब न हो, इसलिए गैस पर पानी चढ़ा दिया था ताकि सुमन के आते ही उसे एक प्याला चाय प्रस्तुत की जा सके.
‘‘लगता है तुम्हारी शादी हुए एक महीना भी नहीं हुआ. क्या जंच रही हो. लगता है, आज बाजार जाना नहीं होगा,’’ सुमन ने शरारत से कहा.
‘‘क्या मतलब?’’ संगीता ने शरमाते हुए कहा.
‘‘अरे, मैं ठहरा मामूली इनसान. एक ही काम कर सकता हूं. या तो तुम्हारे साथ सामान खरीदने चलूं या तुम्हें लोगों की नजरों से बचाता फिरूं.’’
‘‘यह लो चाबी और उठो. ज्यादा बातें मत बनाओ,’’ संगीता पर्स उठा कर बाहर आ गई.
पता नहीं कैसे भूल हो गई कि जैसे ही सुमन ने किक मार कर स्कूटर चलाया तो गीयर न्यूट्रल में न होने से झटके से आगे भाग पड़ा. हैंडल हाथ से छूट गया और सुमन व स्कूटर दोनों गिर पड़े. नीचे नुकीले पत्थर पड़े थे. सुमन का सिर टकरा गया और वह अचेत हो गया. उस के शरीर से रक्त बहने लगा.
संगीता अवाक् रह गई. यह क्या हो गया? जब उसे होश आया तो चिल्लाने और रोने लगी. भीड़ इकट्ठी हो गई. सब अपनीअपनी राय दे रहे थे, पर कोई कुछ कर नहीं रहा था. तभी भीड़ को चीरता हुआ रामप्रसाद आया, ‘‘क्या हुआ, भाभी? अरे, सुमन बाबू को चोट आ गई? आप चिंता मत कीजिए. आप घर जाइए, मैं संभालता हूं.’’
रामप्रसाद ने लोगों की मदद से एक टैक्सी रोक कर सुमन को उस में लिटाया और जानपहचान के एक लड़के से स्कूटर घर में रखने को कह कर सुमन को अस्पताल ले गया. संगीता के आंसू नहीं रुक रहे थे. पासपड़ोस की कुछ स्त्रियां आ कर उसे सांत्वना दे रही थीं.
लगभग 1 घंटे के बाद प्रेमदयाल ने आ कर कहा, ‘‘चिंता की कोई बात नहीं है. अधिक चोट नहीं आई है. हैलमेट होने से बच गए, नहीं तो पता नहीं क्या हो जाता.’’
‘‘कब आएंगे?’’ संगीता ने आतुरता से पूछा.
‘‘अब कुछ दिन तो अस्पताल में रहना पड़ेगा. मरहमपट्टी हो गई है. इंजेक्शन भी लगा दिए गए हैं. अभी तो सो रहे हैं. यह देखने के लिए कि अंदरूनी चोट तो नहीं है एक्सरे करने पड़ेंगे. वैसे डाक्टर ने कहा है कि जैसी हालत है उस से लगता है कि घबराने की कोई बात नहीं है.’’
‘‘मैं चलूंगी उन के पास.’’
‘‘क्यों नहीं. अरे, आप को ही तो लेने आया हूं. एक बार आंख खुली थी तो आप को पूछ रहे थे. मुझ से कहा कि आप को साथ ले जा कर सामान ले आऊं.’’
संगीता बोली, ‘‘कोई बात नहीं. सामान फिर आ जाएगा. आप मुझे ले चलिए.’’
टैक्सी में बिठा कर प्रेमदयाल संगीता को अस्पताल ले आया. जैसे ही पैसे देने को संगीता ने पर्स खोला, प्रेमदयाल ने रोक दिया, ‘‘कभी तो हमें भी सेवा करने का मौका दीजिए.’’
संगीता चुप हो गई और आतुरता से प्रेमदयाल के साथ सुमन के कमरे में पहुंची. सुमन सो रहा था. नींद के इंजेक्शन लगे थे. एक ही स्टूल था. प्रेमदयाल ने संगीता के लिए आगे कर दिया.
पास ही निरंजन और रामप्रसाद भी खड़े थे. कुछ और लोग भी थे जिन्हें संगीता नहीं जानती थी.
निरंजन ने कहा, ‘‘चिंता की कोई बात नहीं. हम सब लोग हैं. आप बिलकुल आराम से बैठिए. डाक्टर थोड़ी देर में आएंगे.’’
संगीता ने अवरुद्ध कंठ से कहा, ‘‘खाने का क्या होगा? कुछ बताया डाक्टर ने? मैं घर से बना कर ले आऊंगी.’’
‘‘अब आप कहां जा सकती हैं?’’ प्रेमदयाल ने मुसकरा कर कहा, ‘‘आप तो बस, इन की देखभाल कीजिए. खाने के लिए मैं ने घर खबर पहुंचा दी है. आप का खाना भी आ जाएगा.’’
‘‘पर इतना कष्ट करने की क्या आवश्यकता थी?’’ संगीता ने औपचारिक रूप से पूछा.
‘‘भाभीजी, कष्ट में जो आनंद है वह आनंद में कहां? कभी किसी के काम आएं इसी में प्रसन्नता है. पर वैसे ऐसा अवसर कभी न आए, बस, यही इच्छा है.’’
संगीता चुप हो गई. रात को वह वहीं सो गई.
प्रेमदयाल, निरंजन और रामप्रसाद काफी देर तक रहे. फिर सुबह आने को कह कर चले गए.
सुबह 8 बजे करुणा और प्रेमचंद भी आए. दोनों के हाथों में फलों के थैले थे. ‘‘हमें तो रात में देरी से पता चला. बहुत देर हो गई थी, इसलिए नहीं आ सके. अब कैसी तबीयत है?’’ करुणा ने कहा.
‘‘अब उठने पर पता चलेगा. वैसे डाक्टर ने कहा है कि घबराने की
कोई बात नहीं है. एक्सरे वगैरह ले लिए हैं.’’
तभी सुमन ने आंखें खोलीं. चारों ओर देखा और फिर संगीता को देख कर मुसकराया, ‘‘आज शाम तक मैं चलने लायक हो जाऊंगा. आज सामान लाने चलेंगे, पर कपड़े जरा हलके पहनना.’’
‘‘छि,’’ संगीता ने शरमा कर कहा.
‘‘क्या हुआ?’’ करुणा ने पूछा, ‘‘जरा हम भी तो सुनें?’’
‘‘कुछ नहीं, यों ही बड़बड़ा रहे हैं.’’
उन के जाने के बाद सुमन ने पूछा, ‘‘यहां कौन लाया था?’’
‘‘रामप्रसाद.’’
‘‘उसे टैक्सी के पैसे देने होंगे. लोगों का खाने का भी उधार हो गया. समझ में नहीं आता कि यह सब एहसान कैसे चुकाऊंगा,’’ सुमन ने कहा.
सुमन के होंठों पर हाथ रखते हुए संगीता ने कहा, ‘‘बसबस, अब कुछ कहने की जरूरत नहीं है. मुझे सबक मिल गया है.’’