कहानी: सुखद भूल
इरफाना का कलेजा कांप गया. वह बाप के पास आ खड़ी हुई. ‘‘जी, अब्बाजी’’ ‘‘अपना सामान बांधो. हम यहां से अभी चलेंगे.
‘आजाद’ अनजाने में हुई भूल से इरफाना घबरा रही थी और जब खाला ने भी घर में तूफान खड़ा कर दिया तो वह रोंआसी हो उठी पर अपने अम्मीअब्बा का फैसला सुन कर तो वह खुशी से पागल हो उठी. उस ने किताबें उठाईं और कालेज जाने के लिए ज्यों ही घूमी, दरवाजे पर आ खड़ी नसीम ने उसे टोक दिया, ‘‘आपा, कालेज जाने से पहले मां से मिल लें, वे आप को अभी बुला रही हैं.’’ ‘‘अच्छा, मैं आ रही हूं.’’ इरफाना सहन में निकल आई. उसे बड़ा अजीब लगा, क्योंकि नसीम, गुलू और नफीसा उसे तिरछी दृष्टि से देख रही थीं. शायद शरारत से वे मुसकरा भी रही थीं.
वह तब खाला के कमरे में आ गई थी. नेकू ने, जो दूर के रिश्ते में उस की खाला लगती थी, उसे खा जाने वाली नजरों से देखा, सिर से पांव और पांव से सिर तक. नेकू खाला की इस दृष्टि में आश्चर्य के साथसाथ घोर अविश्वास भी झलक रहा था. वह छूटते ही बोली, ‘‘इरफाना, कैसी गुजर रही है? खैरियत तो है?’’ ‘‘जी,’’ अटपटे सवाल पर वह अचकचा गई. ‘‘हूं,’’ एक लंबा हुंकारा और फिर इरफाना की अवहेलना करते हुए खालाजान ने पानदान को खोल कर पान लगाया. सरौते से छालियां काटीं और मुंह में गिलौरी दबा कर डबिया बंद कर दी. तब रेशमी रूमाल से हाथ व होंठ पोंछ डाले. फिर तकिए के सहारे आड़ीतिरछी हो कर एक खत निकाल कर उसे दिखलाया, ‘‘यह क्या है? पहचानती हो यह खत?’’ उस खत को देखते ही इरफाना चौंकी. यह रंगीन खत उस का ही लिखा हुआ था.
जुबेर के नाम. वह प्रेमपत्र था. ‘‘यह तुम्हारा लिखा हुआ ही है न?’’ गलत लिफाफे में बंद हो गया, क्यों?’’ नेकू खाला ने पीक में रंगे अधरों पर एक कुटिल मुसकान ला कर जब घुड़का तो सहमी आवाज में उस ने जवाब दिया, ‘‘जी.’’ ‘‘बहुत खूब, क्या शानदार बीएड कर रही हो. क्या कमाल के कारनामे हैं तुम पढ़नेवालियों के. इरफाना, तुम से तो मेरी बेपढ़ी बेटियां लाख भलीं,’’ खाला ने दरवाजे से लगी खड़ी नसीम, गुलू और नफीसा की ओर इशारा कर दिया. फिर पलट कर चीखीं, ‘‘तुम लाख धूल झोंकने की कोशिश करो पर इश्क नहीं छिपता.’’ नेकू बहुत गुस्से में थी पर उस के चेहरे को इरफाना ने नहीं देखा. वह खामोश खड़ी फर्श ताकती रही, बस. ‘‘अपनी किताबें इधर लाओ.’’
खाला ने उसी अंदाज में किताबें जब्त कर लीं और कड़े शब्दों में हिदायत दी, ‘‘आज से कालेज नहीं जाओगी, समझीं?’’ इरफाना रोंआसी हो कर जब अपने कमरे में लौटी तो उस के पीछे नसीम भी थी. नसीम ने देखा, आपा की बड़ीबड़ी आंखों में आंसू भर आए थे. वह उस के पास पलंग पर बैठ कर हमदर्दी जताते हुए बोली, ‘‘आप ने यह क्या किया. आप तो पढ़ाई में बड़ी होशियार थीं. संगीत, खेलकूद और नेकनामी में आप का डंका बजता है. फिर यह भूल कैसे हो गई? कौन है जुबेर?’’ इरफाना ने कोई जवाब नहीं दिया. उसे बड़ी ग्लानि हुई, क्योंकि हमेशा नसीहत सुनने वाली नसीम आज उसे नसीहत कर रही थी. उसे अपनी लापरवाही पर रोना आ रहा था. उस ने इस गली के डाकिए से अनुनयविनय की थी कि एक रंगीन खत है जो खाला को न दे कर उसे दे दिया जाए और अकरम साहब के तो हरगिज हाथ न लगे. लेकिन दाढ़ी वाला यह डाकिया बड़ा कांइयां है.
वह खत आखिर खाला को दे ही गया, दुश्मन कहीं का. वैसे पिछले दिन से ही इस खत को ले कर वह काफी परेशान थी, जब डाक्टर जुबेर का उसे कालेज में फोन मिला था. जुबेर ने बताया था, ‘‘मेरे लिफाफे में तुम ने अपने अब्बा को लिखा खत शायद भूल से बंद कर दिया. उसे पा कर मुझे हंसी छूट रही है क्योंकि अब्बा के पते वाला लिफाफा भी इस में निकला है.’’ लेकिन इस खबर के साथ ही इरफाना के तो पसीने छूटने लगे थे. उस ने 3 लिफाफों पर पते लिखे. एक पर जुबेर का, दूसरे पर अपने अब्बा का और तीसरा अब्बा वाले लिफाफे में डालने के लिए जवाबी, जिस पर अपने खालू अकरम मियां का पता लिखा था. फिर उस ने खत लिखे और लिफाफों में बंद कर तुरंत लैटरबौक्स में छोड़ आई. जुबेर वाले लिफाफे में अब्बाजान को लिखा पत्र और वहां के ठिकाने वाला लिफाफा बंद हो गया और जवाबी लिफाफे में अपने प्रेमी जुबेर को लिखा खत बंद हो गया, जो खाला के हाथ में पड़ गया. इरफाना के अम्मीअब्बू नागौर में सरकारी नौकरी में थे और वह उन की एकलौती लाड़ली बेटी थी.
नागौर के मुसलमान बड़े रुढ़ीवादी हैं मगर इरफाना के अब्बा और अम्मी उदार दिल रहे हैं. उन्होंने बेटी को बावजूद मुल्लेमौलवियों के विरोध के बीए तक पढ़ाया और वही बेटी अब जोधपुर में बीएड कर रही थी. इरफाना को होस्टल में न रख कर उन्होंने उसे एक दूर के रिश्ते की खाला के घर में रखा और बराबर खर्च भेजते रहे. इस नेकू खाला का घर बंबा महल्ले में स्टेडियम के करीब ही था. खाला के पति अकरम मियां की साइकिल की दुकान थी और वह उसी में मस्तव्यस्त रहता था. उस ने तीनों बेटियों को न तो कभी मुंह लगाया और न ही प्राथमिक से आगे पढ़ाया पर तीनों बेटियां बावजूद कड़े परदे के काफी तेजतर्रार व फैशनपरस्त थीं. अकरम मियां के घर से कोई जवान लड़की किसी गैर को प्रेमपत्र लिखे, यह डूब मरने की बात थी. अकरम ने उस दिन अपनी साइकिल की दुकान ही न खोली. उस ने तीनों बेटियों के बयान लिए और फिर उन का किसी तरह का दखल न पा कर पड़ोस वाले हाजीजी की बेटी से पूछताछ की गई थी. हाजी की पुत्री आबेदा पर इरफाना का राज जाहिर था. फिर जुबेर और इरफाना ने कभी कोई गलत कदम भी न उठाया था. सो, उस ने सबकुछ इतमीनान से बता दिया.
अब तो अकरम और कथित खाला के तनबदन में आग लग गई. पर लड़की युवा, पढ़ीलिखी और पराई थी, सो तनिक पूछताछ कर के उस के मांबाप को बुलवा लेना ही उचित समझा गया. उन्हें डर था कि कहीं इरफाना का असर उन की बेटियां न ग्रहण कर लें. दोपहर में नेकू खाला इरफाना के कमरे में आईं, ‘‘तुम ने आज खाना नहीं खाया?’’ ‘‘जी, मेरे सिर में दर्द है.’’ ‘‘दर्द है,’’ नेकू की पेशानी में बल पड़ गए और त्योरियां चढ़ गईं, ‘‘देखो, मैं तुम्हें बाहर तो हरगिज न निकलने दूंगी,’’ फिर वह तूतड़ाक पर उतर आई, ‘‘चाहे तू खाना खा या न खा. तेरा क्या भरोसा, ऐसे में तू उस कम्बख्त के साथ कहीं भाग जाए तो हमारी तो नाक ही कट जाएगी. पता है, हमारे घर में तू किसी की अमानत है?’’ इरफाना ने कोई जवाब नहीं दिया. वह नतमस्तक किताब के पन्ने उलटती रही. ‘‘अच्छा, बता, यह जुबेर कौन है?’’ ‘‘डाक्टर है, खालाजान.’’ ‘‘भाड़ में जाए डाक्टर. मैं पूछती हूं किस बिरादरी से है?’’ ‘‘शिया मुसलमान है.’’ ‘‘शिया,’’ खाला को एकाएक पसीने छूट गए, ‘‘तोबा, ऐसे काफिर से इश्क लड़ाती है. बेगैरत, शरम नहीं आती तुझे? तू सुन्नी, तेरा बाप सुन्नी और हम सब सुन्नी मुसलमान. खैर, खाना खा.’’ ‘‘कहा न, मुझे भूख नहीं है.’’ ‘‘ठीक है, तेरे अम्मीअब्बा आ जाएं तो खा लेना,’’
और नेकू खाला पांव पटकती हुई वहां से चली गई. उन्होंने अपनी बेटियों को पुकार कर हिदायत दी, ‘‘खबरदार, जो किसी ने इरफाना से कोई बात की.’’ ‘तो इस ने अम्मीअब्बा को भी नागौर से बुला लिया है,’ इरफाना यह सोच कर कांप उठी. अब खैर नहीं. बाप का स्वभाव उस से छिपा नहीं था. ‘अब… मारी जाऊंगी मैं?’ वह बुदबुदाई. जुबेर मंडोर में डाक्टर था. वह हफ्तेदोहफ्ते में इरफाना से मिलता था. इस बीच वे पत्रों द्वारा ही एकदूसरे से संपर्क बनाए रखते थे. वे अकसर अपने भविष्य को सुनियोजित करने की सोचते, उन का प्रेम सात्विक और गंभीर था. जुबेर इरफाना को बीएड कालेज के पते पर पत्र डालता और कभीकभी फोन भी कर देता. अगस्त में सांस्कृतिक सप्ताह के आयोजन के दौरान संगीत में रुचि होने के कारण जुबेर इरफाना के करीब आया, परिचय हुआ, घनिष्ठता बढ़ी और फिर 2 युवा मनों में प्रेम की कोकिला कूकने लगी, जिस की रागिनी उन्हें भा गई. इरफाना के अम्मीअब्बा जोधपुर पहुंच गए. नेकू खाला अम्मी को एक तरफ अपने कमरे में ले गई और बहन को अचानक बुलावे का सबब सुबूत सहित बयान करने लगी. खालू उस वक्त अपनी साइकिल की दुकान पर थे. नसीम सिलाई की मशीन छोड़ कर दीवार से लग चुकी थी. गुलू रसोई में थी और नफीसा कपड़े धो कर सुखा रही थी. उन सबों की निगाहें चाहे जिधर रही हों, कान उस कमरे की ओर ही लगे थे जहां इरफाना के मामले की सुनवाई हो रही थी. अब्बा बाहर बैठक में तनहा बैठे सिगरेट पी रहे थे. इरफाना ने चाहा कि बाप से मिल ले, अभी मौका है. मगर उस के पांव न उठे. अपराधभावना ने उसे दबोच रखा था. अब वह खिड़की का पल्ला कुछ भिड़ा कर अपनी अम्मी का चेहरा देखती रही केवल इस वास्ते कि इस खत की अम्मी पर देखें क्या प्रतिक्रिया होती है. किंतु अम्मी तो खामोश बैठी खाला की नफरतकारी सुन रही थीं.
अम्मी ने खाला के हाथ से खत ले कर पढ़ा था. फिर भी वे शांत दिखीं. लगा, कहीं गहरे खो गई हैं. खाला के नाचते हाथ, चढ़ती नाक, सिकुड़ती आंखें, परेशान पेशानी और विवर्ण होता चेहरा यह साबित कर रहा था कि इरफाना ने अक्षम्य अपराध कर दिया है. अम्मी ने तभी पुकारा, ‘‘इरफाना, यहां आओ तो.’’ पुकार सुनते ही इरफाना की घिग्घी बंध गई. भयभीत हिरणी सी वह अपनी मां के सामने आ कर खड़ी हो गई. कुछ देर के लिए उस कमरे में खेलने वाली खामोशी पसर गई. नीची गरदन किए इरफाना ने महसूस किया, अम्मी अपनी एकलौती औलाद को ऊपर से नीचे तक देख रही हैं, फिर वे धीरे से बोलीं, ‘‘इरफाना, यह खत तुम्हारा ही लिखा हुआ है न?’’ ‘‘हां,’’ उस ने स्वीकृति में गरदन हिलाई. वह खाला और अम्मी के मध्य खड़ी पसीनापसीना हो रही थी कि एकाएक अम्मी कुरसी से उठीं. इरफाना सहम गई. सोचा, अब पिटाई होगी. किंतु ऐसा कुछ न हुआ.
अम्मी ने उस की खाला से कहा, ‘‘हम हाजीजी की बेटी आबेदा से बात करने बीएड कालेज जा रहे हैं,’’ और जब वे बाहर निकलीं तो नसीम ने कहा, ‘‘लेकिन खाना खा कर जाएं. देखिए न, सब तैयार ही है.’’ ‘‘नहीं, खाना ऐसे में कैसे खा लें? लौट कर सोचेंगे,’’ और मम्मी बैठक से अब्बाजी को साथ ले कर स्टेडियम वाली सड़क पर निकल गईं. वे कालेज नहीं, पब्लिक पार्क में पहुंच कर एक लौन में बैठ गए. कुछ देर की चुप्पी के बाद अब्बा ने पूछा, ‘‘इन लोगों ने अचानक हमें क्यों बुलवाया है?’’ खयालों में खोई अम्मी चौंकी, ‘‘अ…वो अपनी इरफाना को इन लोगों ने कालेज नहीं जाने दिया, पिछले 3 दिनों से.’’ ‘‘भला क्यों?’’ अब्बा चकित हो रहे थे. ‘‘उस का एक लड़के से प्रेम हो गया है. देखो, यह खत इन्होंने सुबूत में मुझे दिखाया है.’’ अम्मी ने बेटी का लिखा प्रेमपत्र उन्हें थमा दिया और पूरी कहानी कह सुनाई. अब्बा ने हैरान हो कर वह खत कई बार पढ़ा और फिर वे स्वयं भी कहीं गहरे खो से गए.
फिर सूनी हवेली में अपने जोड़े के साथ बैठे अनुभवी कपोत की तरह धीरगंभीर स्वर में बोले, ‘‘यह किस्सा इरफाना और जुबेर का है या हमारातुम्हारा?’’ अब्बा ने अम्मी की आंखों में आंखें डाल दीं. ‘‘इसी उलझन में मैं हूं,’’ अम्मी भी उसी भावना में बह रही थीं. उन की आंखों में अपना 22 साल पहले का जमाना घूम गया. वे दोनों एकसाथ कालेज में पढ़ते थे और उन के प्रेमपत्र भी तब पकड़े गए थे. अम्मी लखनऊ की शिया मुसलमान थीं, जबकि अब्बा सुन्नी और राजस्थान के रहने वाले. उन दोनों ने हिम्मत और सूझ से काम लिया और परस्पर शादी कर डाली. वे भले ही शियासुन्नी का झमेला पसंद न करते हों पर घरवाले तो दकियानूसी ही थे. सो, अम्मी ने सब को छोड़ा और राजस्थान आ गईं.
‘‘खैर, यह बताओ, यह लड़का कौन है?’’ ‘‘जो मैं हूं,’’ अम्मी थोड़ा मुसकराईं, ‘‘यानी शिया.’’ ‘‘अच्छा है. हमें यही उम्मीद थी कि हमारी बेटी शियासुन्नी का फर्क मिटाने की कोशिश करेगी.’’ और दोनों को लगा, उन का भोगा हुआ अतीत परदा हटा कर सामने आ खड़ा हुआ है. अब तो वे परस्पर नजरें चुराने लगे. इस के बाद कुछ इधरउधर की बातें करने के बाद एक निश्चय के साथ वे कालेज की तरफ चले गए और काफी देर बाद घर लौटे. घर में घुसते ही दोनों की दृष्टि कमरे में बैठी इरफाना पर टिकी. वह उदास, निराश, भविष्य के प्रति आशंकित अन्यमनस्क सी निढाल हुई कुरसी पर बैठी थी. दोपहर में साइकिल की दुकान बंद कर अकरम मियां भी घर आ गए. उन्होंने भी इरफाना के अब्बा को भारी उलाहना दिया. खाना खाते वक्त हर निवाले पर इरफाना की बुराई करते जा रहे थे, जिसे सुन कर अब्बा बेचैन से हो गए. उन्होंने बहुत कम खाया, लगा, गले में कुछ फंसता जा रहा है. आखिर उन्होंने हाथ धो लिए और बाहर बैठक में आ कर सिगरेट सुलगा ली. उन्होंने आबेदा से हुई बात, इरफाना के शिक्षकों से हुई बात और जुबेर से संबंधित पूछताछ सब पर बारीबारी से विचार किया और आश्वस्त हो कर बेटी को आवाज दे दी, ‘‘इरफाना, जरा बाहर बैठक में आओ, बेटी.’’
‘अब आई शामत,’ इरफाना का कलेजा कांप गया. वह बाप के पास आ खड़ी हुई. ‘‘जी, अब्बाजी’’ ‘‘अपना सामान बांधो. हम यहां से अभी चलेंगे.’’ ‘‘मगर अब्बाजी…’’ वह कुछ कहना चाह रही थी कि बाप ने बात काट दी, ‘‘मगर क्या? हमें इन दकियानूसों के बीच नहीं रहना. मैं ने पहले ही कहा था, होस्टल में रह लो. अब भी तो रहना पड़ेगा. यह रसीद देखो, मैं तुम्हारी होस्टल की फीस जमा करा आया हूं.’’ इरफाना अवाक रह गई. उस की रुलाई फूट पड़ी, ‘‘अब्बा, आप मुझे पीटेंगे तो नहीं? मैं ने बड़ी गलती कर दी,’’ बेटी बाप के कदमों में बैठ गई. ‘‘हमारी समझदार बेटी कभी गलती नहीं करेगी. जुबेर को मैं ‘तय’ करता या तुम्हारी अम्मी. फिर जब तुम ने खुद ही उसे तय कर लिया तो सोने में सुहागा. तुम्हारे खालाखालू रुढ़ीवादी हैं. इन के सुलूक का बुरा न मानना. ऐसों को नजरअंदाज कर देना ही समझदारी है. आओ, हम इन्हें छोड़ दें.’’ अब्बा तनिक रुक कर फिर बोले, ‘‘उठो, अपनी अम्मी और सामान को ले कर बाहर आ जाओ, खाना बाहर ही खाएंगे. तुम भूखी हो न? खैर, मैं टैक्सी ला रहा हूं.’’ और इरफाना जब उठ खड़ी हुई तो लगा, समझदार बाप ने सयानी बेटी के प्यार को सम्मान दे कर आसमान तक ऊंचा उठा दिया था.