कहानी: महाभारत
मम्मी-डैडी के बीच आए दिन होने वाले महाभारत को समाप्त करने का कजरी और विवेक ने अच्छा उपाय ढूंढ़ निकाला था, लेकिन उन्हें क्या पता था कि उन का फार्मूला मम्मीडैडी उन्हीं पर आजमा देेंगे.
दरवाजा बंद था लेकिन ऊंचे स्वर में होते वाक्युद्ध से लगता था किसी भी क्षण हाथापाई शुरू हो जाएगी. जब अधिक बर्दाश्त नहीं हुआ तो कजरी दरवाजे पर दस्तक देने के लिए उठी पर विवेक ने उसे पीछे खींच लिया, फिर समझाते हुए कहा, ‘‘एक तो यह रोज की बात है, दूसरे, यह पतिपत्नी का आपसी मामला है. तुम्हारे हस्तक्षेप करने से बात बिगड़ सकती है.’’
‘‘लेकिन विवेक, यह कब तक चलेगा?’’ कजरी ने हताश हो कर कहा.
‘‘पता नहीं,’’ विवेक ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘थोड़े दिन और देखते हैं, अगर नहीं समझे तो उन्हें वापस कानपुर भेज देंगे. बड़े भैया अपनेआप झेलेंगे.’’
‘‘कितनी आशा से हम ने मम्मीडैडी को अपने पास रहने के लिए बुलाया था,’’ कजरी ने गहरी सांस ली, ‘‘सोचा था उन का भी थोड़ा घूमनाफिरना हो जाएगा और हमें भी अच्छा लगेगा.’’
‘‘मम्मीडैडी में झगड़ा तो अकसर होता था,’’ विवेक ने कटुता से कहा, ‘‘लेकिन आपसी संबंध इतने बिगड़ जाएंगे यह नहीं सोचा था.’’
मम्मीडैडी में किसी न किसी बात पर रोज घमासान होता था. मम्मी की जलीकटी बातों का उत्तर डैडी गाली दे कर देते थे.
विवेक ने कजरी से कहा, ‘‘गरमागरम कौफी बना लाओ. पी कर कम से कम मेरा मूड तो ठीक होगा.’’
कजरी कौफी लाई तो विवेक ने दरवाजे पर दस्तक दी.
लगभग एक मिनट के बाद डैडी ने दरवाजा खोला और घूर कर देखा.
‘‘लीजिए डैडी, गरमागरम कौफी. आप शांति से पीजिए,’’ विवेक ने मम्मी से कहा, ‘‘आगे का प्रोग्राम ब्रेक के बाद.’’
विवेक अकसर मम्मीडैडी को बतौर मनोरंजन कुछ न कुछ कह कर हंसाता रहता था, लेकिन आज दोनों बहुत गंभीर थे. तनी भृकुटी पर कोई असर नहीं हुआ.
एक दिन मामला बहुत गरम हो गया. मम्मीडैडी का स्वर बाहर तक सुनाई पड़ रहा था.
‘‘मैं एक मिनट इस घर में नहीं रह सकती,’’ मम्मी ने ऊंचे स्वर में कहा, ‘‘मैं हमेशा के लिए छोड़ कर चली जाऊंगी.’’
‘‘मैं तुम्हारे हाथ जोड़ता हूं,’’ डैडी ने क्रोध से कहा, ‘‘मेरा पीछा छोड़ दो.’’
‘‘मुझे कौन साथ रहने का शौक है,’’ मम्मी ने भी क्रोध से कहा. लड़ाई चरम सीमा पर पहुंच गई थी. कजरी और विवेक माथा पकड़ कर बैठ गए.
‘‘मैं भैया को फोन करता हूं,’’ विवेक ने दृढ़ता से कहा, ‘‘आएं और तुरंत ले जाएं.’’
‘‘नहीं, विवेक, उन्हें क्यों परेशान करते हो.’’
‘‘तुम ठीक कहती हो,’’ विवेक ने सोच कर कहा, ‘‘एक कोशिश और करते हैं. मम्मीडैडी के लिए मनोरंजन का कोई और रास्ता ढूंढ़ना होगा. शायद बात बन जाए.’’
कजरी ने सहमति में सिर हिलाया और हंस पड़ी.
‘‘मम्मी,’’ विवेक ने कहा, ‘‘आप तो कभी बहुत पिक्चर देखती थीं. अब क्या हो गया?’’
मम्मी ने गहरी सांस छोड़ते हुए कहा, ‘‘कोई साथ हो तब न.’’
‘‘मैं 2 टिकट ले आया हूं. तैयार हो जाओ. डैडी को भी बोल कर आता हूं.’’
मम्मी को पिक्चर देखने का बहुत शौक था. पिक्चरहाल ज्यादा दूर नहीं था फिर भी विवेक ने रिकशा कर के दोनों को उस पर बैठा दिया.
थोड़ी देर में मम्मीडैडी सिनेमा देखने जा चुके थे.
उन के जाने के बाद विवेक ने पूछा, ‘‘हम कौन सी पार्टी में जा रहे हैं?’’
‘‘कोई पार्टी नहीं है तो क्या हुआ,’’ कजरी ने हंसते हुए कहा, ‘‘अब चले चलते हैं. तुम ने कहा था न एक बार कि कैलीफोर्निया में चाइनीज खाना बहुत अच्छा मिलता है.’’
कैलीफोर्निया अभीअभी एक नया रेस्तरां खुला था और अपने स्वादिष्ठ खाने की वजह से जल्द ही बहुत मशहूर हो गया था.
जब मम्मीडैडी घर आए तो बहुत प्रसन्न थे. आदत के अनुसार मम्मी फिल्म की कहानी सुनाने लगीं और डैडी अपनी टिप्पणी दे रहे थे. विवेक और कजरी ने राहत की सांस ली.
अब तो विवेक हर 10-15 दिन में किसी नई फिल्म के 2 टिकट ले आता था. मम्मीडैडी जितना खुश हो कर जाते थे उस से अधिक प्रसन्न हो कर लौटते थे.
एक दिन विवेक के एक दोस्त ने नेशनल स्कूल आफ ड्रामा के एक बहुचर्चित नाटक के 2 टिकट ला कर दिए. वे टिकट विवेक ने मम्मीडैडी को दे दिए.
दोनों बहुत प्रसन्न थे. कोई नाटक देखे उन्हें वर्षों बीत गए थे.
मम्मीडैडी के आने की प्रतीक्षा में कजरी और विवेक बैठ कर सासबहू वाला धारावाहिक देख रहे थे. आज कहानी ने एक दिलचस्प मोड़ लिया था. अचानक फोन की घंटी ने ध्यान भंग कर दिया, ‘‘देखो, किस का फोन है,’’ विवेक नेकहा.
‘‘तुम देखो,’’ कजरी बोली. विवेक अनिच्छा से उठा.
‘‘हैलो,’’ विवेक ने सूखे कंठ से कहा.
‘‘जानेमन, कैसे हो?’’ उधर से आवाज आई.
‘‘कस्तूरी, तुम?’’ विवेक ने आश्चर्य से चौंक कर पूछा, ‘‘कैसे याद किया?’’
‘‘परसों तुम दोनों मेरे यहां खाने पर आओ,’’ कस्तूरी ने कहा.
‘‘किस खुशी में?’’
‘‘मेरा जन्मदिन है,’’ कस्तूरी खिलखिला पड़ी, ‘‘साल में कितने जन्मदिन मनाती हो?’’ विवेक ने हंस कर पूछा.
‘‘अपनी डायरी में देखो, कहीं लिखा होगा,’’ कस्तूरी ने कहा, ‘‘सच ही मेरा जन्मदिन है और तुम दोनों को जरूर आना है.’’ इस से पहले कि विवेक कुछ कहता कस्तूरी ने फोन रख दिया था. विवेक उलझन में पड़ा फोन हाथ में लिए खड़ा था. क्या करे इस कस्तूरी का. जब भी फोन करती है घर में कलह हो ही जाती है.
कजरी ने तीखे स्वर में पूछा, ‘‘क्या कह रही थी, कस्तूरी?’’
‘‘खाने पर बुला रही है. जन्मदिन की पार्टी कर रही है,’’ विवेक ने खुलासाकिया.
‘‘माना, किसी जमाने में कस्तूरी तुम्हारी गर्लफ्रैंड थी, लेकिन इस का मतलब यह तो नहीं कि उसे खुलेआम तुम्हारे से फ्लर्ट करने का लाइसेंस मिल गया,’’ कजरी ने क्रोध से कहा, ‘‘जब भी मिलती है ऐसे चिपक कर बैठती है जैसे पत्नी वह है और मैं ‘वो’ हूं.’’
‘‘तुम जानती तो हो कि मैं उसे ऐसा करने की दावत नहीं देता,’’ विवेक ने हाथ हिलाते हुए कहा, ‘‘वह है ही ऐसी.’’
‘‘ताली एक हाथ से नहीं बजती,’’ कजरी ने चिढ़ कर कहा, ‘‘तुम मौका देते हो तभी तो उस की ऐसा करने की हिम्मत होती है.’’
‘‘मैं मौका देता हूं?’’ विवेक ने ऊंचे स्वर में कहा, फिर पूछा, ‘‘तुम्हें उस की पार्टी में चलना है या नहीं?’’
दोनों एक-दूसरे को इस तरह घूर रहे थे मानो खा ही जाएंगे.
पार्टी में तो कोई नहीं गया लेकिन दोनों के बीच शीतयुद्ध जारी रहा. सारा काम इशारों से चल रहा था या मम्मीडैडी से कह कर.
आज छुट्टी का दिन था लेकिन माहौल मनहूसियत से भरा हुआ था. नाश्ते के बाद डैडी बाहर चले गए.
‘‘विवेक,’’ थोड़ी देर बाद डैडी ने अंदर आते हुए आवाज लगाई, ‘‘बहू, तुम भी आओ. देखो, क्या लाया हूं मैं.’’
दोनों आ कर आश्चर्य से देखने लगे.
‘‘ये लो,’’ डैडी ने एक लिफाफा पकड़ाया.
‘‘इस में क्या है?’’ दोनों ने एकसाथ पूछा.
‘‘बेटा, हनीमून हाल के टिकट हैं. मैं तुम दोनों के लिए फिल्म ‘देवदास’ के टिकट ले आया हूं. इतने दिनों से तुम्हें ‘देवदास’ बना देख रहा हूं. सोचा क्यों न फिल्म ही दिखा दूं.’’
मम्मीडैडी दोनों हंस रहे थे. कुछ क्षणों तक कजरी और विवेक ने आश्चर्य से देखा और फिर हंसी न रोक सके. डैडी ने उन का फार्मूला उन्हीं पर आजमा दिया था.