कहानी: बदलते एहसास
समय रहते अगर रूपा उसे मिल गई होती तो जरूर शादी कर लेता लेकिन अब तो स्वच्छंद रहने की सी आदत हो गई है.
“उठो लाटसाहब, चाय पी लो. 7 बजने वाले हैं. मुझे बच्चों को स्कूल भी भेजना है.”
उनींदे से गोकुल के कानों पर यह कर्कश आवाज़ पहुंची थी.
तभी दूसरी आवाज आती है, “गोकुल, उठ जा. रोज सुबहसुबह घर में कलह कराना तुझे अच्छा लगता है क्या?”
गोकुल की नींद खुल गई थी. भाभी और मां के प्रवचन रोज़ की तरह आज भी उस के कानों में घुल रहे थे पर वह बेफ़िक्र सा पड़ा था.
मां की बात तो एकबारगी बरदाश्त भी कर लेता पर भाभी का इस तरह से उलाहना देना उसे कतई मंजूर न था. उस का जी करता कि कानों में कोई शीशा पिघला कर भर दे. जहां तक चाय की बात थी, उस ने कभी गरम चाय की डिमांड नहीं की थी. जैसी मिलती वैसी पी लेता. फिर उस के बिस्तर से उठ जाने से कौन से घर के काम फटाफट होने लगेंगे बल्कि और कलह हो जाएगा.
भाभी को वह फूटी आंखों नहीं सुहाता था. वह नहीं समझ पाती थी कि टूर एंड ट्रैवल्स और ट्रेकिंग का काम थका देने वाला होता है. बड़ा भाई कुछ कहना भी चाहता तो पत्नी के सामने उस का मुंह न खुलता था. एक तरह से वह पत्नी की बातों का मूक समर्थन करता था.
मां जानती थी कि मेरा बेटा बिलकुल नालायक तो नहीं लेकिन ऐसे बेटे को लायक भी तो नहीं कहा जा सकता जिस की शादी की चिंता ने ही उस को इतना परेशान कर दिया हो. कितनी कोशिश नहीं की थी मां ने. जगहजगह रिश्तेदारों से कहा था. चिन्ह भेजा था पर कोई लड़की मिली ही नहीं.
एक समय था जब लड़के वालों की तरफ से शादी का प्रस्ताव आना लड़की वाले अपना सौभाग्य समझते थे लेकिन आज गोकुल जैसे कई लड़के इस कसबे में हैं जिन्हें सुंदरता और बुद्धिमत्ता की कसौटी पर कसी जाने वाली तो क्या, साधारण रंगरूप वाली, घरगृहस्थी का ध्यान रखने वाली लड़कियां भी नहीं मिल रहीं. ऐसे में किस का दोष कहा जाएगा. लड़के का ही कहेगा न? क़ाबिल होता तो क्यों न मिलती लड़की?
बदलते सामाजिक तानेबाने को गहराई से मापने वाले कितने हैं? कभीकभी मां भी उसे दोष देती. भाभी तो हमेशा पीछे ही पड़ी रहती. कई बार कहती,”पढ़ाई के दिनों में थोड़ा मेहनत कर ली होती और कोई छोटीमोटी सरकारी नौकरी भी मिल जाती तो आज शादी के लिए लड़की भी मिल जाती पर नहीं, लाटसाहब को तो मौजमस्ती से फुरसत ही नहीं मिलती होगी. तुम्हारे बड़े भाई ने नहीं की पढ़ाई? तभी आज सरकारी नौकर हैं. पूरी गृहस्थी चलाने का दम भरते हैं.
गोकुल का बड़ा भाई सरकारी नौकरी में था और एक मध्य औसत वर्ग के परिवार का सा रहनसहन उस का था. शादी के लगभग 8 साल हो चुके थे. 2 बच्चे थे. मां का सपना था कि अब घर में छोटी बहू भी आ जाए. पर लड़की की तलाश एक मुश्किल काम जान कर गोकुल ने शादी का इरादा छोड़ दिया था.
मां अकसर कहती, “शादी के बगैर वंश आगे कैसे चलेगा?”
गोकुल बेपरवाह सा कह देता, “तुझे वंश चलाने की परवा है तो भाभी के बच्चे चलाएंगे न तेरा वंश. मेरी परवा न कर. मेरा परिवार बहुत बड़ा है.”
मां न समझ पाती थी इस बात को. यकीनन परिवार तो हम पति, पत्नी और उन के बच्चों से बनी इकाई को कहते हैं. ज्यादा से ज्यादा इस में मातापिता को भी जोड़ लिया लेकिन समाज को परिवार समझने की भूल हम ने कभी की ही नहीं .अगर ऐसा होता तो क्या समाज में प्रेम ही प्रेम नहीं होता. मगर गोकुल की विचारधारा कुछ ऐसी ही थी. बचपन से ही वह प्रकृतिप्रेमी रहा था. पहाड़ में जन्म हुआ. आंखें खोलते ही सामने हरेभरे खेत, बर्फ से ढके पहाड़ देखे तो उन्हीं से मोहब्बत कर बैठा और इस के बाद कभी किसी लड़की की मोहब्बत में गिरफ़्तार होने का मौका ही नहीं आया.
वह सोचसोच कर परेशान था कि भाभी उसे निठल्ला क्यों कहती है. न वह भाईभाभी पर बोझ था, न मातापिता पर. जो कुछ भी कमाता था, उस का एक नियत हिस्सा घरखर्च चलाने के लिए मां के हाथ पर रखता.
इस बार जब उस ने मां के हाथ में 5 हजार रुपए रखे तो मां ने कहा था, “मुझे नहीं. अपनी भाभी को दिया कर ये पैसे. घर तो वही चलाती है.”
पर गोकुल की कोशिश भाभी से दूर रहने की ही होती. वह कहता, “तू ही दे देना भाभी को.”
पहाड़ों से टक्कर लेने वाले गोकुल का दिल भाभी से डरता था क्योंकि पहाड़ उसे मुकाबला करने का हौसला देते जबकि भाभी अपने व्यंग्यबाणों से हमेशा उसे नीचा दिखाती और उस के हौसलों को पस्त करती थी. कल की ही तो बात है. जैसे ही वह ग्रुप को ट्रेकिंग करा कर 2 दिनों बाद थकाहारा घर लौटा था तो भाभी ने ठंडा दालभात प्लेट में डाल कर डाइनिंग टेबल पर रख कर ज़ोर से कहा था, “आ गए लाटसाहब हिमालय की यात्रा से. पेटपूजा कर लो.”
यह अपमान बहुत भारी था. मां को भी बुरा लगा था पर बहू ने उसे अपने मोहपाश के जाल में ऐसा उलझाया था कि वह छोटे बेटे की सुध लेना ही भूल गई. दरअसल, मां अपने बेटे की शादी को ले कर बहुत परेशान थी. हर मां की तरह उस का भी अरमान था कि बेटे की शादी हो जाए और मां की जिम्मेदारी पूरी हो जाए पर बहुत हाथपैर मारने पर भी छोटी बहू नहीं मिली.
छोटी बहू की तलाश अब गोकुल के आत्मसम्मान को चोट पहुंचा रही थी. यों तो वह हमेशा ही कम बोलता था लेकिन इधर कुछ दिनों से वह ज्यादा चुप था. उस की यह चुप्पी आने वाले तूफान की चेतावनी सी लगने लगी थी. यह सच है कि विरोधी पर हथियार का प्रयोग अगर सही समय पर न करो तो वह ख़ुद पर ही वार करने लगता है. कितना अपमान सहा था गोकुल की चुप्पी ने? चुप तो वह आज भी रहेगा पर अपने ही तरीके से वार करेगा.
आखिर चार दिनों के बाद उस ने हाथ जोड़ कर मां से अपना मंतव्य बता दिया, “मैं ने शहर में पर्यटन कार्यालय के पास एक छोटे से कमरे में अपने रहने का इंतजाम कर लिया है. मेरी वजह से आप सब को जो तकलीफ होती रही, वह अब नहीं होगी.”
मां तो मां थी. यह सुनते ही हताश हो गई. कई बातें उस के दिमाग में घूमने लगीं, गोकुल के खानेपीने का इंतजाम वगैरह.
पर आज गोकुल किसी की सुनने वाला नहीं था. उस का व्यवहार अपेक्षाकृत संयत था. मां के दोनों कंधों पर हाथ रखते हुए कहता है, “मैं पास ही शहर में हूं. यहां से मात्र दोतीन किलोमीटर दूर. जब मेरी याद आए, मुझे फोन कर लेना. मैं मिलने चला आऊंगा या बुला लूंगा.”
भाभी मन ही मन गोकुल के इस फैसले से खुश थी. बस, मन में थोड़ा सा कुचकुचाट थी कि महीने के बंधे हुए 5 हज़ार रुपए अब नहीं मिलेंगे और इस के अलावा भी समयसमय पर गोकुल खानेपीने व घर का ज़रूरी सामान ले कर आ जाता था. वह सब भी बंद हो जाएगा. गोकुल महीने के 15-20 दिन तो पर्यटकों के साथ टूर पर रहता था. घर में उस के खानेपीने का खर्चा ही क्या रहा? कई बार उस के आने की खबर नहीं होती थी, तो भाभी खाना बचा कर भी नहीं रखती थी.
पिंडारी ग्लेशियर, कफनी ग्लेशियर, सुंदरढूंगा, मिलम ग्लेशियर, पंच केदार, मध्य महेश्वर, खलिया टौप, औली और भी न जाने कहांकहां जाता था वह टीम को ले कर और टैंट लगा कर कई दिनों तक वहीं ठिकाना बना लेता. जब भी वह एडवैंचर की दुनिया की तरफ बढ़ता, दिनरात भूल जाता लेकिन संयुक्त परिवार में यह संभव नहीं था. एक 27-28 साल का युवा भाभी की डांट खाए, जरूर उस के मन को आघात पहुंचता था.
अगस्त का महीना था. वह अपने नए ठिकाने पर पड़ा हुआ था. अब जल्दी जागने की ज़रूरत नहीं थी. पिछले दोतीन दिनों से वह महसूस कर रहा था कि आज़ादी का सुख कितना बड़ा होता है. तभी दो तीन विदेशी लोगों का ग्रुप उसे ढूंढते हुए वहां तक पहुंचा और बोला कि उन्हें पिंडारी ग्लेशियर जाना है. पहाड़ों में बहुत बरसात हो रही थी. गोकुल ने उन्हें समझाया कि बरसात का समय है और यों भी पहाड़ी क्षेत्रों में मौसम का कोई पता नहीं रहता. वे अपने इस एडवैंचर टूर को एक महीने के लिए स्थगित कर दें या कहीं और चलने को तैयार रहें लेकिन विदेशी ग्रुप पिंडारी जाने की ज़िद पर अड़ा रहा. एक बोला, “हम इतनी दूर से आए हैं. एक महीने का इंतजार कैसे कर लें? हमारे वीज़े की भी एक समयसीमा है.”
ऐसे में गोकुल को उन के साथ जाने का इंतज़ाम करना ही था. यही असली एडवैंचर था, आपदा विभाग ज्यादा सक्रिय नहीं था, मोबाइल सिग्नल पहाड़ों में नहीं मिलते थे. लोकल लोगों की मदद से पुल बना कर पर्यटक पिंडर नदी पार कर लेते थे
हिमालय के लोगों और उन की संस्कृति को जानना इन विदेशी घुमक्कड़ की चाहत होती थी. साथ ही, गोकुल भी बहुतकुछ सीखता था. पीठ पर सामान बांध कर सुबहसुबह ट्रेकिंग वाले स्थान पर पहुंच गए. पांच किलोमीटर ट्रेकिंग की और चाय पी. थोड़ी देर रुक कर प्राकृतिक दृश्यों का आनंद लिया. फोटोग्राफी के शौकीन लोगों ने कुछ तसवीरें लीं. तसवीरें शोध में भी अहम भूमिका निभाती हैं. और फिर आगे चल कर बेस कैंप में खाना खाया.
थके और भूखे होने पर यह साधारण सा खाना भी इतना स्वादिष्ठ लगता था, जैसा किसी बड़ेबड़े होटल का खाना भी नहीं. विशेष तौर पर बनाया गया पहाड़ी खाना पर्यटकों के लिए आकर्षक होता था. यात्राओं से तन और मन अकसर दोनों प्रफुल्लित होते हैं और सेहत तो बढ़िया रहती ही है. पुनर्जागरण काल के बाद दुनिया में अनेक तरह की क्रांतियां आईं. यह एक नई क्रांति का दौर था, जहां रोज़गार जैसी समस्याओं से जूझने वाले युवा शादी के बंधन से दूर रहना चाहते थे.
वहीं लड़कियों में भी पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी होने की होड़ मची थी. बड़ा न सही, छोटामोटा कोई भी काम और रोजगार ज़रूर करना चाहती थीं ताकि आत्मनिर्भर रहें और उन की इस ज़िद ने उन के सपनों को भी विस्तृत आकाश दिया. ऐसे में जब आकांक्षाएं बड़ी हो जाएं तो जीवनसाथी का चुनाव काफी कठिन हो जाता है. दोनों ही तरफ से विवाह जैसी संस्था को चुनौती मिलनी शुरू हो गई थी. गोकुल के ट्रेकिंग ग्रुप में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ने लगी थी जिन्होंने ताउम्र अकेले रहने का फैसला कर लिया था और ये सब एकदूसरे के अच्छे दोस्त थे. इन की रुचि एक थी. इन की मंज़िल भी एक थी.
पारिवारिक जिम्मेदारियों में फंसा आदमी ज्यादा दिनों तक घर से बाहर रहने की कहां सोच सकता है. लेकिन इन लोगों की जिंदगी कई मानों में शानदार थी. सब से ज्यादा समझने वाली बात यह कि ये केवल जिंदगी का आनंद ही नहीं ले रहे थे बल्कि प्रकृति को संरक्षण भी दे रहे थे. पर्यटक अपने एक या दो बच्चों के साथ पहाड़ घूमने आते और बच्चे कार के अंदर से चिप्स के रैपर, कोल्डड्रिंक की खाली बोतल सड़क से नीचे जंगल में फेंक देते.
बहुत कुपित होता था गोकुल यह देख कर कि ये लोग एक बच्चे तक को नहीं संभाल पाते, उसे शिष्टाचार नहीं सिखा पाते. उस की टीम जंगलों से कूड़ाकरकट उठा कर उसे ठिकाने लगाती. जहांजहां ये लोग जाते, बाज, बुरांश अशोक, अतीस, आडू, खूबानी, काफल जैसे फलों के पेड़ लगाते. अपने साथ मिट्टी में लपेटे हुए बीज और गुठलियां ले जाते और इन्हें दूरदूर बिखेर देते. अगली यात्रा के दौरान जब नन्हेनन्हे पौधे मुसकराते हुए दिखाई देते तो गोकुल और इन सब की खुशी की सीमा न रहती. खुशियों का विस्तृत आकाश मिल जाता सब को इन जानदार नन्हेनन्हे पादपों को देख कर.
उस के साथियों में से एक था सागर. उम्र में गोकुल से काफी छोटा पर अपने नाम के अनुरूप ही विशाल दिलवाला और घूमने का अथाह शौकीन. उस ने बद्रीनाथ जाने की ज़िद पकड़ी थी पर गोकुल और कुछ लोगों का कहना था कि अभी यात्रा सीजन के आरंभ में भीड़ को देखते हुए जाने का विचार सही नहीं है. बरसात के बाद जाएंगे.
सागर मान गया और बरसात भी बीत गई. नवरात्र से पहले के दिनों की बात थी. चारधाम में भीड़भाड़ अब कम होने लगी थी क्योंकि अधिकतर श्रद्धालु कपाट खुलने के चंद महीनों के दौरान ही तीर्थयात्रा के लिए उमड़ पड़े थे. गोकुल ने अपनी छोटी सी टीम, जिस में सागर भी शामिल था, के साथ बद्रीनाथ जाने का प्रोग्राम बनाया.
मन से वह आध्यात्मिक प्रवृत्ति का था पर उस का धर्म विचित्र था. मंदिरों में जा कर घंटों पूजापाठ करना या भीड़ लगाना उस का ध्येय नहीं था. उस के अपने कुछ आदर्श थे जिन का पालन कर वह अंतर्मन की शांति पाता.
समूह के कई लोग बद्री धाम के दर्शन करना चाहते थे इसलिए एक सुबह ये लोग ट्रैवलर टेंपो से निकल गए. कुल मिला कर 15 लोग थे. इन में रूपा भी थी. रूपा पिछले दोतीन सालों से गोकुल की टीम से जुड़ी थी. वह गोकुल की जिंदगी से भी जुड़ना चाहती थी. एकदो बार गोकुल को इस बात का एहसास दिलाने की कोशिश भी की थी उस ने. गोकुल ने अपने बंजारेपन का हवाला देते हुए हर बार उस के अरमानों पर पानी फेर दिया.
बद्रीनाथ दर्शन के बाद वे लोग माणा की तरफ बढ़े जो यहां से लगभग 2 किलोमीटर आगे था. चीनतिब्बत सीमा से लगा यह भारत का आखिरी गांव है जो अब पहला गांव कहलाने लगा है. माणा से वसुधारा और स्वर्ग रोहिणी तक ट्रेकिंग की जाती है. कैंप के 15 लोगों में से 11 तो स्वर्ग रोहिणी तक जाने का जिगर रखते थे लेकिन 4 लोग बेस कैंप वसुधारा तक ही जाने की हिम्मत कर पाए
शारीरिक परेशानी की वजह से रूपा भी वसुधारा तक ही जाना चाहती थी पर गोकुल के साथ की चाहत उस के पैरों को आगे धकेल रही थी. रास्ते में वह थक कर जानबूझ कर रुक जाती है ताकि गोकुल की नज़रें इनायत हों.
उसे बैठे हुए देख कर गोकुल पूछता है, “रूपा, तबीयत ठीक नहीं क्या? अगर कोई परेशानी है तो बेस कैंप में ही रुक जाओ.”
“नहीं, मैं आप के साथ चलूंगी. मेरे मन की बात तो आप समझ नहीं पाए लेकिन साथ चलने की इजाजत तो दे सकते हैं.”
“समझा करो, रूपा. मैं ने तुम्हें पहले भी समझाया है कि जो मोहब्बत और चाहत हम दोनों के बीच में अभी है, उस की शादी के बाद उम्मीद मत करना. शादी के बाद जीवन बिलकुल बदल जाता है. किसी भी शादीशुदा जोड़े को ले कर सोच लो. क्या तुम रोज ट्रेकिंग में इस तरह मेरे साथ आ पाओगी. मेरा रोजरोज घर से बाहर रहना ही तुम्हें खलने लगेगा और फिर शुरू होगी चिकचिकबाजी. इसलिए, शादी जैसी बात को मन से निकाल दो.”
वह अपनी कहानी रूपा को सुनाता है कि उस की मां ने कितनी कोशिश की थी शादी की लेकिन लड़कियों के अजब नखरे थे. समय रहते अगर रूपा उसे मिल गई होती तो जरूर शादी कर लेता लेकिन अब तो स्वच्छंद रहने की सी आदत हो गई है. अपने भाईभाभी के झगड़ों के बारे में रूपा को बताता है. बताता है कि कैसे घर में सिर्फ भाभी का ही राज़ चलता है, न मां का, न बड़े भाई का.
अचानक रूपा का हाथ पकड़ कर वह कहता है, “ज़रूरतें तुम्हारी भी हैं, मेरी भी. बिना किसी बंधन में बंधे हम उन्हें पूरा करेंगे. ये जो पेड़पौधे हैं, ये पशुपक्षी हैं, ये सब हमारे बच्चे हैं. हम इन को पालेंगे. इन की देखभाल करेंगे. इस से बड़ा सुख और कहीं नहीं.
खैर, देरसवेर रूपा भी इस सचाई को समझ गई और अब वह बगैर शादी के ही खुश थी. लगभग 8 दिनों बाद वे लोग वापस घर लौटे. ज्यादा दौड़भाग की वजह से एक दिन गोकुल बीमार पड़ गया. किसी ने बड़े भाई को फोन कर बताया. वह औफिस में था. घर पहुंच कर मां को साथ ले कर गोकुल के कमरे में पहुंचा. वहां जा कर देखा तो दंग रह गया. जिस गोकुल को घर में इतनी घुड़कियां मिलती थीं, बातबात पर अपनी भाभी की दस बातें सुननी पड़ती थीं, उस से मोहब्बत करने वाले सैकड़ों लोग वहां पर खड़े थे. यह देख कर मां की आंखें भीग गईं. उसे गोकुल के शब्द याद आ रहे थे, ‘मां, मेरा परिवार तो बहुत बड़ा है. देखेगी न, तो आंखें फटी की फटी रह जाएंगी.’
सामने दीवार पर ‘ट्रेक विद गोकुल’ का शानदार चमचमाता बोर्ड लगा था जो शाम घिरने के साथ रोशनी की जगमगाहट में और ज्यादा चमकदार प्रतीत हो रहा था.
स्ट्रैस और गरमी से होने वाली परेशानी थी जो कुछ ही दिनों में ठीक हो गई. गोकुल का काम अब बढ़िया चल गया था. कर्णप्रयाग से आगे चोपता में उस की टीम के साथी विशन की जमीन थी, उसी का आइडिया था कि वे लोग वहां पर पर्यटकों के लिए टैंट और होमस्टे की व्यवस्था करें तो रोजगार भी बढ़िया चलेगा और लोगों को सुविधा भी होगी.
गोकुल को भी आइडिया पसंद आया तो उस ने इस शहर को छोड़ कर उसे अपना ठिकाना बदलने की सोची. इतना बड़ा फैसला लेने से पहले एक बार वहां जा कर व्यवस्था देख लेने के इरादे से वह कुछ लोगों को ले कर चल दिया. विशन पहले ही वहां पहुंच चुका था. पांचछह कमरों का छोटा सा घर फिलहाल ले चुके थे. विशन ने खाना बनाने के लिए गैस, कुछ बरतन और राशन का इंतजाम भी कर दिया था. टीम जब चोपता पहुंची तो सब की खुशी का ठिकाना न रहा.
रूपा उछल कर बोली, “अब यही होगा अपना परमानैंट ठिकाना.”
तभी टीम का एक मैंबर उस से पूछने लगा, “क्या तुम्हारे पेरैंट्स तुम्हें अलाउ कर देंगे?
“हां क्यों नहीं, जो लड़कियां जौब करती हैं, क्या वे घर से अलग नहीं रहतीं? मैं ने घर में बता दिया है कि मुझे माउंटेनियरिंग पर प्रशिक्षण लेना है और मैं आगे चोपता में ही रहूंगी.”
फिर सवाल आया खाना बनाने का. इतने सारे लोगों के लिए खाना बनाने की व्यवस्था. क्या किसी को किराए पर रखना होगा? गोकुल इस सवाल से जूझ ही रहा था कि टीम के उत्साही युवकयुवतियों ने फटाफट आलू छीलने शुरू कर दिए. दबंग सी दिखने वाली मोना ‘बहुत भूख लगी है यार’ कहते हुए आटे का पैकेट फाड़ कर परात में आटा डाल कर उसे गूंदने लगती है. गोकुल ने सोचा भी नहीं था कि मोना इस तरह घर का काम भी करती होगी. एक घंटे के अंदर खाना तैयार था. समीर एक कोने पर बैठा हुआ सलाद के लिए प्याज, टमाटर और खीरा काट रहा था.
हंसतेहंसते सभी ने खाना खाया. कुछ लोगों को प्लेट मिलीं, कुछ लोगों को पत्तल लेकिन इस से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था. गोकुल हंसते हुए बोलता है, “जो पत्तल में खा रहे हैं, वे इसे गाय के बरतन में डाल देंगे और प्लेट में खाने वाले अपनी प्लेट खुद धोएंगे. हंसी का एक ठहाका गूंजा और चोपता की शांत वादी में देर तक विचरण करता रहा. इस से सुंदर परिवार का एहसास और क्या हो सकता है. शायद, इन सभी लोगों के मन में यह विचार एकसाथ उठ रहा था.
तीनचार दिन यहां रहते हुए हो गए थे. गोकुल टीम के कुछ लोगों के साथ आसपास की जगह भी एक्सप्लोर कर आया था. अब उसे इस बात का एहसास हो गया था कि यहां रहने में किसी भी प्रकार की कोई अड़चन नहीं आने वाली. रजिस्ट्रेशन और दूसरी औपचारिकताएं विशन पूरी कर रहा था. खाना खाने के बाद बरतन धोने का काम भी ये युवा बहुत ही खुशी से कर लेते. जलवायु परिवर्तन का असर पहाड़ी क्षेत्रों में भी साफ दिखाई दे रहा था. अक्टूबर का मौसम अपेक्षाकृत गरम था और नवंबर का सुहावना लग रहा था.
चारधाम यात्रा समाप्ति को आ गई थी. पर्यटकों की भीड़भाड़ अपेक्षाकृत कम हो गई थी. अब आने वाले महीने में ओली में बर्फ पड़ने पर स्कीइंग की प्रबल संभावना बनी हुई थी. गोकुल का ध्यान इस ओर भी था. अपनी टीम को काम समझा कर तीनचार लोगों को साथ ले कर वह वापस शहर लौट आया. अब कुछ दिनों में इन लोगों को सभी का सामान ले कर चोपता जाना था. गोकुल के पास ज़रूरतभर का थोड़ा सा सामान था जो लगभग पैक हो चुका था. उस से जुड़े कई लोग उदास दिखाई दे रहे थे क्योंकि उन सभी का चोपता जाना संभव नहीं था. उन्हें वहीं रह कर बिजनैस में सहयोग करना था और पर्यटकों को ले कर जाना था.
गोकुल ने महसूस किया कि जाने से पहले एक बार मां और भाई से मिलना तो जरूरी था. यही सोच कर उस के कदम पाइन हाउस की तरफ बढ़ गए. उस के सभी साथी उस के पीछे हो लिए. वहां पहुंच कर गोकुल ने घंटी बजाई तो भाभी ने दरवाजा खोला. लगभग 7 वर्षों बाद गोकुल को सामने खड़ा देख कर वे चौंक गईं और कुछ पलों के लिए जड़ हो गईं.
गोकुल का कमजोर दिखने वाला चेहरा आज ह्रृष्टपुष्ट था, उस में लालिमा थी. होश संभालने पर भाभी ने प्रश्नवाचक दृष्टि उस की ओर गड़ाई और औपचारिकतावश उसे गेट के अंदर आने को कहा. गोकुल ने पीछे मुड़ कर देखा तो एक हुजूम वहां पर आ खड़ा हुआ, जिस में उस के हमउम्र युवायुवतियां और कई छोटेबड़े बच्चे भी शामिल थे.
“प्रणाम भाभी, मां कहां हैं?”
“पड़ोस में गई हैं समय काटने.”
“ठीक है. मैं मां के आने तक यहीं पर इंतजार करता हूं.”
“चाहो तो अंदर बैठ सकते हो.”
“मेरा इतना बड़ा परिवार समा जाएगा क्या आप के घर में?”
गोकुल ने अपने साथियों को बाहर ही खड़े रहने का इशारा किया और मां के कमरे की तरफ बढ़ा.
“बच्चे कहां हैं, दिख नहीं रहे?”
“दोनों की शादी हो गई. नितिन यहीं दो घर छोड़ कर रहता है और जतिन दानपुर महल्ले में,” यह कहते हुए भाभी थोड़ा शर्मिंदा थीं. उन के अपने बच्चे ही उन से दूर थे. उन्हें गोकुल का क़द एक वटवृक्ष सा महसूस हो रहा था जो दूरदूर तक फैले अपने लंबेचौड़े परिवार के साथ खड़ा था.