कहानी: एक साथी की तलाश
मधुप ने बिरूवा के साथ यह सोच कर जिंदगी गुजार दी कि अब पत्नी श्यामला नहीं आएगी. पर बिरूवा के समझाने पर वह श्यामला को मनाने जयपुर गए और बेरंग ही लौट आए.
शाम गहरा रही थी. सर्दी बढ़ रही थी. पर मधुप बाहर कुरसी पर बैठे शून्य में टकटकी लगाए न जाने क्या सोच रहे थे. सूरज डूबने को था. डूबते सूरज की रक्तिम रश्मियों की लालिमा में रंगे बादलों के छितरे हुए टुकड़े नीले आकाश में तैर रहे थे. उन की स्मृति में भी अच्छीबुरी यादों के टुकड़े कुछ इसी प्रकार तैर रहे थे.
2 दिन पहले ही वे रिटायर हुए थे. 35 सालों की आपाधापी व भागदौड़ के बाद का आराम या विराम… पता नहीं…
‘‘पर, अब… अब क्या…’’ विदाई समारोह के बाद घर आते हुए वे यही सोच रहे थे. जीवन की धारा अब रास्ता बदल कर जिस रास्ते पर बहने वाली थी, उस में वे अकेले कैसे तैरेंगे.
‘‘साब सर्दी बढ़ रही है… अंदर चलिए,’’ बिरूवा कह रहा था.
‘‘हूं…’’ अपनेआप में खोए मधुप चौंक गए.
‘‘हां… चलो,’’ कह कर वे उठ खड़े हुए.
‘‘इस वर्ष सर्दी बहुत हो रही है साब…’’ बिरूवा कुरसी उठा कर उन के साथ चलते हुए बोला, ‘‘ओस भी बहुत पड़ रही है. सुबह सब भीगाभीगा रहता है, जैसे रातभर बारिश हुई हो,’’ बिरूवा लगातार बोलता जा रहा था.
मधुप अंदर आ गए. बिरूवा उन के अकेलेपन का साथी था. अकेलेपन का श्राप उन्हें मिला था, पर भुगता बिरूवा ने भी था.
खाली घर में बिरूवा कई बार अकेला ही बातें करता रहता. उन की जरूरत से अधिक चुप रहने की आदत थी. उन की तरफ से कोई प्रतिक्रिया न पा कर बड़बड़ाया हुआ वह स्वयं ही खिसिया कर चुप हो जाता.
पर, श्यामला खिसिया कर चुप न होती थी, बल्कि झल्ला जाती थी, ‘‘मैं क्या दीवारों से बातें कर रही हूं. हूं, हां भी नहीं बोल पाते. चेहरे पर कोई भाव ही नहीं रहते, किस से बातें करूं,’’ कह कर कभीकभी उस की आंखों में आंसू आ जाते.
मधुप की आवश्यकता से अधिक चुप रहने की आदत श्यामला के लिए इस कदर परेशानी का सबब बन गई थी कि वह दुखी हो जाती थी. उन की संवेदनहीनता, स्पंदनहीनता की ठंडक, बर्फ की तरह उस के संपूर्ण व्यक्तित्व को झुुलसा रही थी. नाराजगी में तो मधुप और भी अभेद हो जाते थे. मधुप ने कमरे में आ कर टीवी चला दिया. तभी बिरूवा गरम सूप ले कर आ गया, ‘‘साब सूप पी लीजिए.’’
बिरूवा के हाथ से ले कर वे सूप पीने लगे. बिरूवा भी वहीं जमीन पर बैठ गया. कुछ बोलने के लिए वह हिम्मत जुटा रहा था, फिर किसी तरह बोला, ‘‘साब घर वाले बहुत बुला रहे हैं. कहते हैं, अब घर में आराम करो, बहुत कर लिया कामधाम, दोनों बेटे कमाने लगे हैं. अब जरूरत ना है काम करने की…’’
मधुप कुछ बोल न पाए, छन्न से दिल के अंदर कुछ टूट कर बिखर गया. बिरूवा का भी कोई है, जो उसे बुला रहा है. 2 बेटे हैं जो उसे आराम देना चाहते हैं. उस के बुढ़ापे की और असशक्त होती उम्र की फिक्र है उन्हें… लेकिन सबकुछ होते हुए भी यह सुख उन के नसीब में नहीं है.
बिरूवा के बिना रहने की वे कल्पना भी नहीं कर पाते. अकेले में इस घर व दीवारों से भी उन्हें डर लगता है, जैसे कोनों से बहुत सारे साए निकल कर उन्हें निगल जाएंगे. उन्हें अपनी यादों से भी डर लगता है और अकेले में यादें बहुत सताती हैं.
‘‘सारा दिन आप व्यस्त रहते हैं, रात को भी देर से आते हैं, मैं सारा दिन अकेले घर में बोर हो जाती हूं,’’ श्यामला कहती थी.
‘‘तो और औरतें क्या करती हैं? और क्या करती थीं? बोर होना तो एक बहाना भर होता है काम से भागने का. घर में सौ काम होते हैं करने को.’’
‘‘पर, घर के काम में कितना मन लगाऊं. घर के काम तो मैं कर ही लेती हूं. आप कहो तो बच्चों के स्कूल में एप्लीकेशन दे दूं नौकरी के लिए, कुछ ही घंटों की तो बात होती है, दोपहर में बच्चों के साथ घर आ जाया करूंगी,’’ श्यामला ने अनुनय किया.
‘‘कोई जरूरत नहीं है. कोई कमी है तुम्हें?’’ अपना निर्णय सुना कर जो मधुप चुप हुए तो कुछ नहीं बोले. उन से कुछ बोलना या उन को मनाना टेढ़ी खीर था. हार कर श्यामला चुप हो गई. जबरदस्ती भी करे तो किस के साथ, और मनाए भी तो किस को…
‘‘नोवल्टी में अच्छी पिक्चर लगी है, चलिए न किसी दिन देख आएं. कहीं भी तो नहीं जाते हैं हम…’’
‘‘मुझे टाइम नहीं… और वैसे भी 3 घंटे हाल में मैं नहीं बैठ सकता.”
‘‘तो फिर आप कहें तो मैं किसी सहेली के साथ हो आऊं.’’
‘‘कोई जरूरत नहीं भीड़ में जाने की, सीडी ला कर घर पर देख लो.’’
‘‘सीडी में हाल जैसा मजा कहां आता है.’’
लेकिन अपना निर्णय सुना कर चुप्पी साधने की उन की आदत थी. श्यामला थोड़ी देर बोलती रही, फिर चुप हो गई. तब नहीं सोच पाते थे मधुप कि पौधे को भी पल्लवित होने के लिए धूप, छांव, पानी व हवा सभी चीजों की जरूरत होती है. किसी एक चीज के न होने पर भी पौधा मर जाता है. दफिर श्यामला तो इनसान थी. उसे भी खुश रहने के लिए हर तरह के मानवीय भावों की जरूरत थी, वह उन का एक ही रूप देखती थी. आखिर कैसे खुश रह पाती वह.
‘‘थोड़े दिन पूना हो आऊं मां के पास. भैयाभाभी भी आए हैं आजकल. उन से भी मुलाकात हो जाएगी.’’
‘‘कैसे जाओगी इस समय?’’ मधुप आश्चर्य से कहते और पूछते, ‘‘किस के साथ जाओगी?’’
‘‘अरे, अकेले जाने में क्या हुआ… 2 बच्चों के साथ सभी जाते हैं.’’
‘‘जो जाते हैं, उन्हें जाने दो. पर, मैं तुम लोगों को अकेले नहीं भेज सकता.’’
फिर श्यामला लाख तर्क करती, मिन्नतें करती, पर मधुप के मुंह पर जैसे टेप लग जाता.
ऐसी अनेकों बातों से शायद श्यामला का अंतर्मन विरोध करता रहा होगा. पहली बार विरोध की चिनगारी कब सुलगी और अब भड़की, याद नहीं पड़ता मधुप को.
‘‘साब खाना लगा दूं,’’ बिरूवा कह रहा था.
‘‘भूख नहीं है बिरूवा, अभी तो सूप लिया है.’’
‘‘थोड़ा सा खा लीजिए साब, आप रात का खाना अकसर छोड़ने लगे हैं.”
‘‘ठीक है, थोड़ा सा यहीं ला दे,’’ मधुप बाथरूम से हाथ धो कर बैठ गए.
इस एकरस दिनचर्या से वे 2 दिन में ही घबरा गए थे, तो श्यामला कैसे बिताती पूरी जिंदगी. वे बिलकुल भी शौकीन तबीयत के नहीं थे. न उन्हें संगीत का शौक था, न किताबें पढ़ने का, न पिक्चरों का, न घूमने का. न बातें करने का.
श्यामला की जीवंतता, मधुप की निर्जीवता से अकसर घबरा जाती. कई बार चिढ़ कर वह कहती, ‘‘ठूंठ के साथ आखिर कैसे जिंदगी बिताई जा सकती है.’’
‘‘काश, तभी संभाल लिया होता सबकुछ.’’
श्यामला के जीवन में स्पंदन था, संवेदनाएं थीं, भावनाएं थीं और वे…? श्यामला कहती, ‘‘आप को सिर्फ अपनेआप से प्यार है, मैं और बच्चे तो आप के लिए जीवनयापन करने के यंत्र भर हैं.’’
श्यामला उन में एक साथी को खोजती, जो उसे मिल ही नहीं पाता. उस के व्यक्तित्व की सारी संवेदनाएं जैसे मन मसोस कर रह जातीं. वह अकेलेपन की शिकार हो रही थी, अवसाद से घिर रही थी. और अपने अड़ियल स्वभाव की वजह से वे नहीं समझ पाए या उन्होंने समझना ही नहीं चाहा.
‘‘साब खाना,’’ बिरूवा प्लेट लिए खड़ा था. उस के हाथ से प्लेट ले कर वे चुपचाप खाने लगे. पहले वे चुप रहते थे, पर अब बोलना भी चाहें तो किस के साथ.
बिरूवा भी अपनी थाली ले कर वहीं जमीन पर बैठ गया, ‘‘आप ने कुछ बताया नहीं साब, मेरे घर वाले अब मुझे गांव बुला रहे हैं,’’ बिरूवा ने दोबारा बात छेेड़ी.
‘‘अभी कुछ दिन रुको. अभी तो मुझे रिटायर हुए 2 ही दिन हुए हैं, फिर बताऊंगा,’’ कह कर वे चुप हो गए.
बिरूवा भी जानता था, उन के कुछ दिन की कोई सीमा नहीं थी.
मधुप सोच रहे थे. बिरूवा दूर रह कर भी अपने परिवार के दिल के कितने करीब है, क्योंकि उन्हें पता है कि वह यदि दूर है तो उन्हें सुख व खुशियां देने के लिए. लेकिन अपने परिवार के साथ रहने पर भी, सारी भौतिक सुखसुविधाएं देने पर भी वे उन के दिल के करीब नहीं रह पाए और अपने परिवार से दूर हो गए.
श्यामला गुनगुनाना चाहती थी, जीवन को भरपूर जीना चाहती थी, हिरनी जैसे कुलांचे मारना चाहती थी. मतलब, जीवन के हर रूप को आत्मसात करना चाहती थी. पर श्यामला की जीवंतता को नियंत्रित कर उन्हें लगता, उन्होंने उस पर शासन कर लिया. पर, वे सिर्फ श्यामला के शरीर पर ही तो शासन कर पाए थे, हृदय पर नहीं. हृदय से तो वे धीरेधीरे उस से दूर होने लगे थे. इतनी दूर कि उस दूरी को फिर वे चाह कर भी नहीं पाट पाए.
उस के जाने के बाद जाना था कि वैवाहिक जीवन के विघटन के कारण कभी बहुत बड़े नहीं होते. दोनों में से जब किसी एक का व्यक्तित्व अंदर ही अंदर दम तोड़ने लगता है, तो वैवाहिक जीवन का विघटन शुरू हो जाता है. किसी एक का हर वक्त नकारा जाना उस अधिकार सूत्र को तोड़ देता है, जो दोनों को एकदूसरे से बांधता है.
मधुप ने प्लेट नीचे रख दी, ‘‘अब नहीं खाया जा रहा बिरूवा, पेट सूप से भर गया.
क्या बताएं बिरूवा को कि पेट तो यादों से ही भर जाता है. वहीं यादें जो अकेले में डराती हैं और साथ में रुलाती हैं.
अचानक आंखों के सामने बदली छा गई. उन्होंने आंखों को हाथ से पोंछ लिया. अनायास ही आंखें गीली हो गई थीं. भरापूरा परिवार, 2 जुड़वा बेटे और पत्नी के होते हुए भी वे आज वैरागी की सी जिंदगी जी रहे थे. टीवी बंद कर वे बिस्तर पर लेट गए. नीरव रात में कहीं दूर से कुत्तों के भूंकने का स्वर स्पष्ट सुनाई देता है.
बेटे 12वीं कर के इंजीनियरिंग में निकल कर बाहर पढ़ने चले गए. इतने दिनों तक बच्चों की जिम्मेदारियों ने ही श्यामला को बांधा हुआ था, लेकिन बच्चों के जाने के बाद वह अवसाद की शिकार हो गई.
मधुप सबकुछ जानतेबूझते भी उस का साथ देने के बजाय उपदेश देने लग जाते उसे. उपदेश देने में उन की जबान जरूर हिल जाती.
श्यामला का मन करता कोई साथी हो, जिस से अपने दिल की बातें बांट सके. बच्चों के साथ की व्यस्तता अब खत्म हो गई थी. जो थोड़ाबहुत वार्तालाप उन की वजह से होता था, अब समाप्त हो गया था.
‘‘क्या करूं सारा दिन…? कितना पढूं, कितना टीवी देखूं, अकेले मन नहीं लगता,’’ श्यामला एक दिन रोने लगी.
‘‘तुम्हारा मन लगाने के लिए मैं क्या करूं, नौकरी छोड़ कर घर बैठ जाऊं’’, उस के रोने से मधुप चिढ़ गए.
‘‘ये मैं ने कब कहा, आप कहें तो घर से बुटीक का काम शुरू कर दूं. व्यस्त भी रहूंगी और थोड़ेबहुत पैसे भी मिल जाएंगे.’’
‘‘बस अब यही करने को रह गया, घर को दुकान बना दो, कोई जरूरत नहीं,’’ मधुप फिर अभेद हो गए.
मधुप की चुप्पी से परेशान हो कर श्यामला की नाराजगी थोड़े दिन में अपनेआप ही दूर हो जाती थी. लेकिन इस बार ऐसा नहीं हो पाया. नाराज हो कर उस ने दूसरे कमरे में सोना शुरू कर दिया. उन्होंने कोई तवज्जुह नहीं दिया.
वैसे भी पत्नी को मनाना उन के लिए सब से निकृष्ट कार्य था. पत्नी को क्यों मनाया जाए, जैसे खुद रूठी है वैसे ही खुद मान भी जाएगी. उन्होंने तो कभी बच्चों को भी डांट कर प्यार नहीं किया. पता नहीं, कैसा अनोखा स्वभाव था उन का.
उन दोनों को अलगअलग सोते हुए एक हफ्ता गुजर गया. काश, तभी चेत जाते. श्यामला की नाराजगी कभी इतनी लंबी नहीं खिंची थी. एक दिन वे सुबह औफिस के लिए तैयार हो रहे थे कि श्यामला उन के सामने आ खड़ी हुई.
‘अब मुझ से यहां न रहा जाएगा, मैं जा रही हूं.’’
उन्होंने चौंक कर श्यामला की तरफ देखा, एक हफ्ते बाद सीधेसीधे श्यामला का चेहरा देखा था उन्होंने. एक हफ्ते में जैसे उस की उम्र सात साल बढ़ गर्ई थी. रोतेरोते आंखें लाल, और चारों तरफ काले स्याह घेेरे.
‘ये क्या कर रही हो तुम श्यामला, छोटी सी बात को तूल दे रही हो,’’ उस की ऐसी शक्ल देख कर वे थोड़े पसीज गए थे.
‘‘सब ठीक हो जाएगा,’’ वे धीेरे से उस के कंधों को पकड़ कर बोले.
‘‘क्या ठीक हो जाएगा?’’ उस ने हाथ झटक दिए थे, ‘‘मैं अब यहां नहीं रह सकती, घर में रखे सामान की तरह, आप की बंदिश किसी समय मेरी जान ले लेगी, मेरे तन के साथसाथ मेरे मनमस्तिष्क पर भी बंदिशें लगा दी हैं आप ने, मैं आप से अलग कहीं जाना तो दूर की बात है, आप से अलग सोच तक भी नहीं सकती, मुझ से नहीं हो पाएगा अब यह सब.’’
‘‘तो अब क्या करना चाहती हो,’’ वे व्यंग्य से बोले.
‘‘मैं यहां से जाना चाहती हूं आज ही. आप अपना घर संभालो. आप जब औफिस से आओगे, तो मैं नहीं मिलूंगी.’’
‘‘तुम्हें जो करना है करो. जब सोच ही लिया है तो मुझ से क्यों कह रही हो,’’ कह कर मधुप दनदनाते हुए औफिस चले गए.
वे हमेशा की तरह जानते थे कि श्यामला ऐसा कभी नहीं कर सकती. इतनी हिम्मत नहीं थी श्यामला के अंदर कि वह इतना बड़ा कदम उठा पाती.
लेकिन अपनी पत्नी को शायद वह पूरी तरह से नहीं जानते थे. उस दिन उन की सोच गलत साबित हुई. बिना स्पंदन व जीवतंता के रिश्ते आखिर कब तक टिकते. जब वे औफिस से लौटे तो श्यामला जा चुकी थी. घर में सिर्फ बिरूवा था.
‘‘श्यामला कहां है?’’ उन्होंने बिरूवा से पूछा.
‘‘मालकिन तो चली गईं साब, कह रही थीं, पूना जा रही हूं हमेशा के लिए.’’ यह सुन कर वे भौंचक्के से रह गए.
‘‘ऐसा क्या हुआ साब…? मालकिन क्यों चली गईं?’’
‘‘कुछ नहीं बिरूवा,’’ क्या समझाते उसे.
थोड़े दिन तक तो उस के लौट आने का इंतजार किया. फिर फोन करने की कोशिश की, श्यामला ने फोन नहीं उठाया. मिलने की कोशिश की, श्यामला ने मिलने से इनकार कर दिया. धीरेधीरे उन दोनों के बीच की दरार बढ़तेबढ़ते खाई बन गई. दोनों दो किनारों पर खड़े रहे गए. मनाने की उन की आदत थी नहीं, जो मना लाते.
नौकरी की व्यस्तता में एक के बाद एक दिन व्यतीत होता रहा. एक दिन सब ठीक हो जाएगा, श्यामला लौट आएगी, ये उम्मीद धीरेधीरे धुंधली पड़ती गई.
उस समय श्यामला की उम्र 41 साल थी और वे स्वयं 45 साल के थे. तब से एकाकी जीवन, नौकरी और बिरूवा के सहारे काट दिया उन्होंने. बच्चों के भविष्य की चिंता ने श्यामला को किसी तरह बांध रखा था उन से. उन के कैरियर के रास्ता पकड़ने के बाद वह रुक नहीं पाई. इतना मजबूत नहीं था शायद उन का और श्यामला का रिश्ता.
श्यामला को रोकने में उन का अहम आड़े आया था. लेकिन बिरूवा को उन्होंने घर से कभी जाने नहीं दिया. उस का गांव में परिवार था, पर वह मुश्किल से ही गांव जा पाता था. उन के साथ बिरूवा ने भी अपनी जिंदगी तनहा बिता दी थी. बच्चों ने अपनी उम्र के अनुसार मां को बहुतकुछ समझाने की कोशिश भी की, पर श्यामला पर बच्चों के कहने का भी कोई असर नहीं पड़ा. वे इतने बड़े भी नहीं थे कि कुछ ठोस कदम उठा पाते. थकहार कर वे चुप हो गए. कुछ छुट्टियां मां के पास बिताते और कुछ छुट्टियां पिता के पास बिता कर वापस चले जाते.
श्यामला के मातापिता ने भी शुरू में काफी समझाया उस को. लेकिन श्यामला तो जैसे पत्थर सी हो चुकी थी. कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी वह. हार कर उन्होंने घर का एक कमरा और किचन उसे रहने के लिए दे दिया. कुछ पैसा उस के नाम बैंक में जमा कर दिया. बच्चों का खर्चा तो पिता उठा ही रहे थे.
बेटों की इंजीनियरिंग पूरी हुई तो वे नौकरियों पर आ गए. आजकल एक बेटा मुंबई में तो दूसरा बेटा जयपुर में कार्यरत था.
बेटों की नौकरी लगने पर वे जबरदस्ती मां को अपने साथ ले गए. वे कई बार सोचते, श्यामला उन के साथ अकेलापन महसूस करती थी तो क्या अब नहीं करती होगी. ऐसा तो नहीं था कि उन्हें श्यामला या बच्चों से प्यार नहीं था, पर चुप रहना या शौकविहीन होना उन का स्वभाव था. अपना प्यार वे शब्दों से या हावभाव से ज्यादा व्यक्त नहीं कर पाते थे. लेकिन वे संवेदनहीन तो नहीं थे. प्यार तो अपने परिवार से वे भी करते थे. उन के दुख से चोट तो उन को भी लगती थी. श्यामला के अलग चले जाने पर भी उस के सुखदुख की चिंता तो उन्हें तब भी सताती थी.
दोनों बेटों ने प्रेम विवाह किए. दोनों के विवाह एक ही दिन श्यामला के मायके में ही संपन्न हुए.
हालांकि बच्चों ने उन के पास आ कर उन्हें सबकुछ बता कर उन की राय मांग कर उन्हें पूरी इज्जत बख्शी, पर उन के पास हां बोलने के सिवा चारा भी क्या था. बिना मां के वे अपने पास से बच्चों का विवाह करते भी कैसे. उन्होंने सहर्ष हामी भर दी. जो भी उन से मदद बन पड़ी, उन्होंने बच्चों की शादी में की. और दो दिन के लिए जा कर शादी में परायों की तरह शरीक हो गए.
जब से श्यामला बच्चों के साथ रहने लगी थी, वे उस की तरफ से कुछ बेफिक्र हो गए थे. बेटों ने उन्हें भी कई बार अपने पास बुलाया, पर पता नहीं उन के कदम कभी क्यों नहीं बढ़ पाए. उन्हें हमेशा लगा कि यदि उन्होंने बच्चों के पास जाना शुरू कर दिया तो कहीं श्यामला वहां से भी चली न जाए. वे उसे फिर से इस उम्र में घर से बेघर नहीं करना चाहते थे.
बच्चे शुरूशुरू में कभीकभार उन के पास आ जाते थे. फिर धीरेधीरे वे भी अपने परिवार में व्यस्त हो गए. वैसे भी मां ही तो सेतु होती है बच्चों को बांधने के लिए. वह तो उन्हीं के पास थी. मधुर सोचते उन के स्वभाव में यदि निर्जीवता थी तो श्यामला तो जैसे पत्थर हो गई थी. क्या कभी श्यामला को इतने सालों का साथ, उन का संसर्ग, स्पर्श नहीं याद आया होगा. ऐसी ही अनेकों बातें सोचतेसोचते न जाने कब उन्हें नींद ने आ घेरा.
अतीत में भटकते मधुप को बहुत देर से नींद आई थी. सुबह उठे तो सिर बहुत भारी था. नित्य कर्म से निबट कर मधुप बाहर बैठ गए. बिरूवा भी वहीं नाश्ता दे गया.
‘‘साब,’’ बिरूवा झिझकता हुआ बोला, “एक बार मालकिन को मना लाने की कोशिश कीजिए, हम भी कब तक रहेंगे. अपने बालबच्चों, परिवार के पास जाना चाहते हैं हम भी अब, आप कैसे अकेले रहेंगे साब. न हो तो आप ही मालकिन के पास चले जाइए.’’
उन्होंने चौंक कर बिरूवा का चेहरा देखा. इस बार बिरूवा रुकने वाला नहीं है. वह जाने के लिए कटिबद्ध है. देरसवेर बिरूवा अब अवश्य चला जाएगा. कैसे और किस के सहारे काटेंगे वे अब बाकी की जिंदगी. एक विराट प्रश्नचिन्ह उन के सामने जैसे सलीब पर टंगा था. सामने मरुस्थल की सी शून्यता थी, जिस में दूरदूर तक छांव का नामोनिशान नहीं था. आखिर ऐसी मरुस्थल सी जिंदगी में वे प्यासे कब तक और कहां तक भटकेंगे अकेले, दो दिन इसी सोच में डूबे रहे. दिल कहता कि श्यामला को मना लाएं, पर कदम थे कि उठने से पहले ही थम जाते थे. क्या करें और क्या न करें, इसी उहापोह में अगले कई दिन गुजर गए. सोचते रहते कि क्या उन्हें श्यामला को मनाने जाना चाहिए? क्या एक बार फिर प्रयत्न करना चाहिए? अपने अहम को दरकिनार रख कर इतने वर्षों के बाद जाते भी हैं और अगर श्यामला न मानी तो क्या मुंह ले कर वापस आएंगे?
किस से कहें अपने दिल की बात और किस से मांगें सलाह. ‘‘बिरूवा’’ उन के दिल में कौंधा, और किसी से तो उन का अधिक संपर्क रहा नहीं. वैसे भी और किसी से कहेंगे तो वह उन की बात पर हंसेगा कि कब याद आई. आखिर बिरूवा से पूछ ही बैठे एक दिन,
‘‘बिरूवा, क्या तुम्हें वाकई लगता है कि मुझे एक बार उन्हें मना लाने की कोशिश करनी चाहिए?’’
उन के स्वर में काफी बेचारगी थी अपने स्वाभिमान के सिंहासन से नीचे उतरने की. बिरूवा चौंक गया उन का इस कदर लाचार स्वर सुन कर, उन की कुरसी के पास बैठता हुआ बोला, ‘‘दोबारा मत सोचिए साब, कुछ बातों में दिमाग की नहीं दिल की सुननी पड़ती है. मालकिन आ जाएंगी तो ये घर फिर से खुशियों से भर जाएगा. माना कि कोशिश करने में आप ने बहुत देर कर दी, पर आप के दिमाग पर ये बोझ तो नहीं रहेगा कि आप ने कोशिश नहीं की थी. बाकी सब नियति पर छोड़ दीजिए.”
बिरूवा की बातों में दम था. वे सोचने लगे. आखिर एक बार कोशिश करने में क्या हर्ज है, ‘‘जो भी होगा…’’ उन्होंने खुद को समझाया. खुद को तैयार किया. अपना छोटा सा बैग उठाया और जयपुर चल दिए.
आजकल श्यामला जयपुर में थी. बिरूवा बहुत खुश था. एक तो वह उन का भला चाहता था. दूसरा, वह अपने परिवार के पास लौट जाना चाहता था. दिल्ली से जयपुर तक का सफर जैसे सात समंदर पार का सफर महसूस हो रहा था उन्हें.
जयपुर पहुंच कर अपना छोटा सा बैग उठा कर वे सीधे घर पर पहुंच गए. अपने आने की खबर भी उन्होंने इस डर से नहीं दी कि कहीं श्यामला घर से कहीं चली न जाए.
दिल में अजीब सी दुविधा थी, पैरों की शक्ति जैसे निचुड़ रही थी. वर्षों बाद अपने ही बेटे के घर में अपनी पत्नी से साक्षात्कार होते हुए उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे वे अपनी जिंदगी की कितनी कठिन घड़ियों से गुजर रहे हों. धड़कते दिल से उन्होंने घंटी बजा दी. उन्हें पता था कि इस समय बेटा औफिस में होगा और बच्चे स्कूल.
थोड़ी देर बाद दरवाजा खुल गया. बहू ने उन को बहुत समय बाद देखा था, इसलिए एकाएक पहचान का चिह्न न उभरा उस के चेहरे पर. फिर पहचान कर चौंक गई, ‘‘पापा, आप…? ऐसे अचानक…’’ वह पैर छूते हुए बोली, ‘‘आइए…’’ उस ने दरवाजा पूरा खोल दिया.
वे अंदर आ कर बैठ गए. बहू ने हैरान होते हुए पूछा, ‘‘अचानक कैसे आ गए पापा… आने की कोई खबर भी नहीं दी आप ने…’’ उन्हें एकाएक कोई जवाब नहीं सूझा, ‘‘जरा पानी पिला दो, और एक कप चाय…’’
‘‘जी पापा, अभी लाती हूं…’’ कह कर बहू चली गई. उन्हें लगा कि अंदर का परदा कुछ हिला. शायद श्यामला रही होगी. पर श्यामला बाहर नहीं आई. वे निरर्थक उम्मीद में उस दिशा में ताकते रहे. तब तक बहू चाय ले कर आ गई.
‘‘श्यामला कहां है…’’ चाय का घूंट भरते हुए वे धीरे से झिझकते हुए बोले.
‘‘अंदर हैं…’’ बहू भी उतने ही धीरे से बोल कर अंदर चली गई.
थोड़ी देर बाद बहू बाहर आई और बोली, “पापा, मैं जरा काम से जा रही हूं. फिर बंटी को स्कूल से लेती हुई आऊंगी.’’ फिर अंदर की तरफ नजर डालती हुई वह बोली, ‘‘आप तब तक आराम कीजिए. लंच पर लक्ष्य भी घर आते हैं,’’ कह कर वह चली गई.
वे जानते थे. बहू जानबूझ कर इस समय चली गई घर से. लेकिन अब वे क्या करें. श्यामला तो बाहर भी नहीं आ रही. बात भी करें तो कैसे. इतने वर्षों बाद अकेले घर में उन का दिल श्यामला की उपस्थिति में अजीब से कुतूहल से धड़क रहा था. थोड़ी देर वे वैसे ही बैठे रहे. अपनी घबराहट पर काबू पाने का प्रयत्न करते रहे. फिर उठे और अंदर चले गए. अंदर एक कमरे में श्यामला चुपचाप खिड़की के सामने बैठी बाहर की ओर देख रही थी.
‘‘श्यामला…’’ उसे ऐसे बैठे देख कर उन्होंने धीरे से पुकारा. सुन कर श्यामला ने पलट कर देखा. इतने वर्षों बाद मधुुप को अपने सामने देख श्यामला जैसे जड़ हो गई. समय जैसे पलभर के लिए स्थिर हो गया. आंखों में प्रश्न सलीब की तरह टंगा हुआ था, ‘क्या करने आए हो अब…?’
‘‘आप…’’ वह प्रत्यक्ष बोली.
.‘‘हां श्यामला, मैं…’’ इतने वर्षों बाद उसे देख कर वे एकाएक कातर हो गए थे.
‘‘तुम्हें लेने आया हूं,’’ वे बिना किसी भूमिका के बोले, ‘‘वापस चलो. मुझ से जो गलती हुई है, उस के लिए मुझे क्षमा कर दो. मैं समझ नहीं पाया तुम्हें, तुम्हारी परेशानियों को, तुम्हारे अंतर्द्वंद्व को…’’
श्यामला अपलक उन्हें निहारती रह गई. शब्द मानो चुक गए थे. बहुतकुछ कहना चाहती थी वह, पर समझ नहीं पा रही थी कि कहां से शुरू करे. किसी तरह खुद को संयत किया.
थोड़ी देर बाद वह बोली, ‘‘इतने वर्षों के बाद गलती महसूस हुई आप को. जब खुद को जरूरत हुई पत्नी की, लेकिन जब तक पत्नी को जरूरत थी? आखिर मैं सही थी न, कि आप ने हमेशा खुद से प्यार किया. लेकिन मेरे अंदर अब आप के लिए कुछ नहीं बचा. अब मेरे दिल को किसी साथी की तलाश नहीं है. जिन भावनाओं को, जिन संवेदनाओं को जीने की इतनी जद्दोजहद थी मेरे अंदर, वह सब तो कब की मर चुकी है. फिर अब क्यों आऊं, आप के बाकी के जीवन जीने का साधन बन कर? मुझे अब आप की जरूरत नहीं है. मैं अब नहीं आऊंगी.’’
‘‘नहीं श्यामला,’’ मधुप ने आगे बढ़ कर श्यामला की दोनों हथेलियां अपने हाथों में थाम ली, ‘‘ऐसा मत कहो, साथी की तलाश कभी खत्म नहीं होती. हर उम्र, हर मोड़ पर साथी के लिए तनमन तरसता है, पशुपक्षी भी अपने लिए साथी ढूंढ़ते हैं, यही प्रकृति का नियम है, मुझ से गलती हुई है, इस के लिए मैं तुम से तहेदिल से क्षमा मांग रहा हूं.
“इस बार तुम नहीं, मैं आऊंगा तुम्हारे पास. इस बार तुम मेरे सांचे में नहीं, बल्कि मैं तुम्हारे सांचे में ढलूंगा. संवेदनाएं और भावनाएं कभी मरती नहीं हैं श्यामला, बल्कि हमारी गलतियों व उपेक्षाओं से सुप्तावस्था में चली जाती हैं, उन्हें तो बस जगाने की जरूरत है. अपने हृदय से पूछो, क्या तुम सचमुच मेरा साथ नहीं चाहती, सचमुच चाहती हो कि मैं चला जाऊं.’’
श्यामला चुपचाप डबडबाई आंखों से उन्हें देखती रह गई. कितने बदल गए थे मधुप. समय ने, अकेलेपन ने उन्हें उन की गलतियों का एहसास करा दिया था. पतिपत्नी में से अगर एक अपनी मरजी से जीता है तो दूसरा दूसरे की मरजी से मरता है.
‘‘बोलो श्यामला,’’ मधुप ने श्यामला को कंधों से पकड़ कर धीरे से हिलाया, ‘‘मैं अब तुम्हारे पास आ गया हूं और अब लौट कर नहीं जाऊंगा,’’ मधुरे पूरे विश्वास व अधिकार से बोले. लेकिन श्यामला ने धीरे से उन के हाथ कंधों से अलग कर दिए.
‘‘अब मुझ से न आया जाएगा मधुप. मेरे जीवन की धारा अब एक अलग मोड़ मुड़ चुकी है. कितनी बार जीवन में टूटूं, बिखरूं और फिर जुडूं, मुझ में अब ताकत नहीं बची. मैं ने अपने जीवन को एक अलग ही सांचे में ढाल लिया है, जिस में अब आप के लिए कोई जगह नहीं. मैं अब नहीं आ पाऊंगी, मुझे माफ कर दो,’’ कह कर श्यामला दूसरे कमरे में चली गई.
स्पष्ट संकेत था उन के लिए कि वे अब जा सकते हैं. मधुप भौंचक्के खड़े, पलभर में हुए अपनी उम्मीदों के टुकड़ों को बिखरते महसूस करते रहे. फिर अपना बैग उठा कर वे बाहर निकल गए वापस जाने के लिए. बेटे के आने का भी इंतजार नहीं किया उन्होंने.
जयपुर से वापसी का सफर बेहद बोझिल भरा था, सबकुछ तो उन्होंने पहले ही खो दिया था. अब एक उम्मीद बची थी. आज वे उसे भी खो कर आ गए थे.
घर पहुंचे तो उन्हें अकेले व हताश देख बिरूवा सबकुछ समझ गया. कुछ न पूछा. चुपचाप हाथ से बैग ले कर वह अंदर रख आया और किचन में चाय बनाने चला गया.
उधर श्यामला खिड़की के परदे के पीछे से थके कदमों से जाते मधुप को करुण निगाहों से देखती रही, जब तक वे आंखों से ओझल नहीं हो गए. दिल कर रहा था कि दौड़ कर वह मधुप को रोक ले, लेकिन कदम न बढ़ पा रहे थे. जो गुजर गया वह सबकुछ याद आ रहा था.
मधुप चले गए, लेकिन श्यामला के दिल का नासूर फिर से बहने लगा. रात देर तक बिस्तर पर करवट बदलते हुए वह सोचती रही कि जिंदगी मधुप के साथ अगर बोझिल भरी थी तो उन के बिना भी क्या थी. क्या एक दिन भी ऐसा गुजरा, जब उस ने मधुप को याद न किया हो. उस के मधुप से अलग होने के निर्णय का दर्द बच्चों ने भी भुगता था. बच्चों ने भी तब कितना चाहा था कि वे दोनों साथ रहें. अपने विवाह के बाद ही बच्चे चुप हुए थे. पर पता नहीं कैसी जिद भर गई थी उस के खुद के अंदर, और मधुप ने भी कभी आगे बढ़ कर अपनी गलती मानने की कोशिश नहीं की और वउन दोनों का सारा जीवन यों वीरान सा गुजर गया. जो मधुप आज महसूस कर रहे हैं. काश, यही बात तब समझ पाते, तो उन की जिंदगी की कहानी कुछ और ही होती.
लेकिन, अब जो तार टूट चुके हैं, क्या फिर से वे जुड़ सकते हैं और जुड़ कर क्या उतने मजबूत हो सकते हैं?
एक कोशिश मधुप ने की, एक कदम उन्होंने बढ़ाया, तो क्या एक कोशिश उसे भी करनी चाहिए. एक कदम उसे भी बढ़ाना चाहिए. कहीं आज निर्णय लेने में उस से कोई गलती तो नहीं हो गई. इसी उहापोह में करवटें बदलते सुबह हो गई. पूरी रात वह सोचती रही थी, फिर अनायास ही अपना बैग तैयार करने लगी. उस को तैयारी करते देख बेटेबहू आश्चर्यचकित थे, पर उन्होंने कुछ न पूछना ही उचित समझा. मन ही मन सब समझ रहे थे. खुशी का अनुभव कर रहे थे. श्यामला जब जाने को हुई तो बेटे ने साथ में जाने की पेशकश की, पर श्यामला ने मना कर दिया.
उधर उस दिन दोपहर को सोए हुए मधुप की जब शाम को नींद खुली, तो वह शाम और दूसरी शाम की तरह ही थी. पर, पता नहीं मधुप आज अपने अंदर हलकी सी तरंग क्यों महसूस कर रहे थे. तभी बिरूवा चाय बना कर ले आया. उन्होंने चाय का पहला घूंट भरा ही था कि डोरबेल बज उठी.
‘‘देखना बिरूवा कौन आया है?’’ मधुप ने आवाज दी.
‘‘अखबर वाला होगा. पैसे लेने आया होगा, शाम को वही आता है,’’ कह कर बिरूवा बाहर चला गया. लेकिन पलभर में ही खुशी से उमगता हाथ में बैग उठाए अंदर आ गया. मधुप आश्चर्य से उसे देखने लगे.
‘‘कौन है बिरूवा? कौन आया है और यह बैग किस का है?’’
‘‘बाहर जा कर देखिए साब. समझ लीजिए, पूरे संसार की खुशियां चल कर आ गई हैं आज दरवाजे पर,’’ कह कर बिरूवा घर में कहीं गुम हो गया. वे जल्दी से बाहर गए. देखा, दरवाजे पर श्यामला खड़ी थी. वे आश्चर्यचकित, किंकर्तव्यविमूढ़ से उसे देखते रह गए.
‘‘श्यामला तुम,’’ उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था.
‘‘हां मैं…’’ वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘अंदर आने के लिए नहीं कहोगे.’’
‘‘श्यामला…’’ खुशी के अतिरेक में उन्होंने आगे बढ़ कर श्यामला को गले लगा लिया, ‘‘मुझे माफ कर दो.’’
‘‘बस, अब कुछ मत कहो… आप भी मुझे माफ कर दो. जो कुछ हुआ वह सब भूल कर आई हूं.’’
दोनों थोड़ी देर ऐसे ही खड़े रहे. तभी पीछे कुछ आवाज सुन कर दोनों अलग हुए. मुड़ कर देखा तो बिरूवा आरती का थाल लिए खड़ा था. मधुर और श्यामला दोनों हंस पड़े.
‘‘आज तो बहुत ही खुशी का दिन है साब.’’
‘‘हां बिरूवा क्यों नहीं. आज मैं तुम्हें किसी बात के लिए नहीं रोकूंगा,’’ कह कर मधुप श्यामला की बगल में खड़े हो गए और बिरूवा उन दोनों की आरती उतारने लगा.