कहानी: अंतिम निर्णय
ममता यदि यह सब सुन लेती तब क्या होता? नहीं-नहीं, उसे कुछ भी पता नहीं चलना चाहिए, वरना उसका बीमार दिल क्या यह झटका सह पाएगा. हम दोनों कितने प्यार और विश्वास से यहां आए थे. भविष्य की सुखद कल्पनाओं के साथ. ख़ैर, सपने तो सपने होते हैं, अब जल्द से जल्द लौटने का रिज़र्वेशन कराना होगा.
मुंबई से अभी सुबह ही लौटे हैं. गेट का ताला खोलते हुए एक सुखद एहसास हो रहा है. पड़ोस का डॉगी गेट पर ही लेटा हुआ मिला, हमारे चार माह के मुंबई प्रवास में मानो वह घर की पहरेदारी करता रहा हो. ‘माई स्वीट होम’ की अनुभूति अंदर तक भर गई है. मेरी पत्नी ममता तो सामान व्यवस्थित करने में व्यस्त है. मैं पीछे लॉन में आ गया हूं. हमारी कामवाली बाई ने बड़े जतन से हमारे बगीचे को संभाला है. एक भी पौधा मुरझाया नहीं है. दरवाज़ा खोलते ही गौरेया पूंछ हिलाते हुये मेरे पैरों के पास घूमने लगी है. अपनी चिरपरिचित प्याली में दाना-पानी खोज रही है.
“गौरेया जी! अभी तो आपको निराश ही होना पड़ेगा, क्योंकि तुम्हारी मालकिन को अभी समय ही कहां मिला है जो तुम्हारी प्यालियों को दाने-पानी से भर सके. प्लीज़, अभी लौट जाइए. कल तक सब कुछ पहले की तरह मिलेगा तुम्हें.” गौरेया तुरंत उड़ गई मानो उसे सब समझ आ गया है. मैं गहरी-गहरी सांसे ले रहा हूं मानो चार माह की ताज़गी अपने अंदर भर रहा हूं.
सामने के घर से प्रभा एक थर्मस में चाय बनाकर ले आई है. मेरी पसंद के बिस्किट भी साथ में है.
“आंटी-अंकल पहले आप चाय पी लीजिए, बाद में सब काम करिएगा.” चाय के साथ-साथ प्रभा पूरी कॉलोनी के हालचाल भी बताती जा रही है. चार माह की सारी ख़बरें गरम-गरम नाश्ते की तरह परोस रही है. चाय पीकर रास्ते की सारी थकान मिट गई.
“आंटी आज आप खाना मत बनाइएगा, मैं लेकर आऊंगी. हां, आशू को भेजकर आपकी महरी को बुलवा देती हूं. वह आपकी सहायता करेगी. आप तब तक फ्रेश हो जाइए मैं नाश्ता ले आती हूं.”
प्रभा के प्यार से अभी हम अभिभूत ही थे कि पड़ोस से मंजू नाश्ते एवं खाने का निमंत्रण लेकर आ गई. बड़े प्यार एवं सम्मान से उसने हमारा अभिवादन किया. पूरी लेन वालों ने हमें बहुत मिस किया यह बात तो बिना बताए ही हमें स्पष्ट समझ आ रही थी. हमारे पड़ोसी हमें अपनों से भी अधिक प्यार करते हैं. एक-एक करके सभी मिलने आये. लंच एवं डिनर के इतने निमंत्रण मिले कि ममता यदि चार दिन भी गैस न जलाये तो चलेगा. सबने आपस में तय कर लिया है कि किस दिन किसके घर जाना है.
“चलो, इतने दिन में तो ममता सब व्यवस्थित कर ही लेगी.” मैं सोचने लगा. वह भी तो अब बूढ़ी हो चली है. अब यही तो परिवार बन गया है हमारा. कल बाज़ार जाकर सब सामान लाना है. हर चीज़ नये सिरे से जोड़नी होगी. वहां से आते समय चिंता लगी थी, क्योंकि अब उम्र के साथ हिम्मत कम हो रही है, लेकिन यहां तो हमारी हिम्मत बनकर हमारे पड़ोसी खड़े मिले हैं. सबका प्यार देखकर बहुत अच्छा लग रहा है. मुंबई के कल्चर से अभी हमारा शहर अछूता है. यहां अभी भी भाईचारा बना हुआ है, बिल्कुल मोहल्ले वाला.
चार दिन पंख लगाकर उड़ गए. ममता और मैं सबके प्यार में डूबे रहे. अब धरातल पर आना चाहिए. पांचवें दिन ममता ने नाश्ता-खाना बनाया. दिनचर्या नियमित हो गई. गौरेया नित्य दाना-पानी लेने आने लगी. कुछ दिन से ममता के चेहरे पर थकान देखकर मेरा मन व्यथित होने लगा है. जब से उसके हार्ट में प्रॉब्लम हुई है बहुत जल्दी थक जाती है. अब उसे भी आराम की आवश्यकता है. मैं सब देख-समझ रहा हूं, परंतु उसकी सहायता कैसे करूं यह समझ नहीं आ रहा है? मैं भी तो बूढ़ा हो रहा हूं.
मुंबई कितनी आशा लेकर गये थे. आनंद का बार-बार बुलाना, “पापा, अब आप हमारे पास आकर रहिए. आप आयेंगे तो मैं बड़ा घर ले लूंगा.” इन्हीं आश्वासनों के भरोसे सोचा चलकर देखते हैं. वहां मन लग गया तो शेष जीवन आनंद के पास ही गुज़ार देंगे. अब कहीं न कहीं तो सैटल होना ही है. वहां रहेंगे तो उन्हें हमारी आदत पड़ जायेगी. हम भी अपना घर, अपना शहर भूलकर बच्चों में रम जाएंगे, पर कहां… वहां भी जल्द ही मोह भंग हो गया.
आनंद एवं प्रिया का दफ्तर चले जाना. बच्चों का स्कूल तो था ही. हम दोनों को वहां भी अकेला कर जाती. ममता का काम और भी बढ़ गया. बच्चों के जाने पर सब समेटना, नाश्ता-खाना बनाना. प्रिया के लौटने से पहले रात के खाने की तैयारी करना. इस तरह छह आदमियों का काम.
रात होते-होते ममता थककर चूर हो जाती. नौकरानी तो समय पर आती, चली जाती. वह अपने से कुछ न भी कहे, पर मैं उसका सूखा चेहरा देखकर व्याकुल हो जाता. हां! प्रिया ममता के कारण काफी रिलैक्स लगती. अब वह जब-तब अपने काम ममता को सौंपने लगी.
मैं सोचता इस तरह कितने दिन चलेगा. ममता तो कुछ कहेगी नहीं, अगर वह काम के बोझ के कारण अधिक बीमार हो गई तब. अभी इसी उधेड़बुन में था कि मुझे लगने लगा कि बच्चे हमसे कुछ खिंचे-खिंचे से रहने लगे हैं. पहले की सी प्रफुल्लता उनके चेहरे से गायब होने लगी है. मिनी एवं राहुल भी अब पहले की तरह स्कूल से आकर दादी-बाबा करके लिपटते-चिपटते नहीं हैं. क्या हो गया है इन्हें? कहीं हम बोझ तो नहीं बन रहे? यद्यपि प्रत्यक्ष तो कोई कुछ भी नहीं कहता, परंतु कुछ बातें कहने से ज़्यादा समझी जाती हैं. यही मैं अनुभव कर रहा था.
जल्द ही बच्चों की उदासीनता का कारण पता चल गया. एक दिन आनंद को फोन पर बात करते सुना, “यार, तू ठीक कहता है. कितने दिन से हम सब इकट्ठे नहीं हुए. जब से मम्मी-पापा आए हैं तब से कहां मिल सके? मेरा और प्रिया का मन भी बहुत करता है कि पहले की तरह घूमे-फिरें, छुट्टी के दिन पीने-पिलाने का प्रोग्राम बने, परंतु इनके रहते नहीं लगता कि पहले वाले दिन लौटकर आएंगे. अब तो लगता है इनका यहीं रहने का पक्का प्रोग्राम बन गया है. चार महीने होने को आए, लेकिन अभी तक वो वापस जाने की बात भी नहीं करते. पर तू चिन्ता न कर यार, कुछ न कुछ जुगाड़ करता हूं. जल्द ही पुराने वाले दिन फिर लौट आएंगे. तुम्हारी भाभी का भी यही हाल है. बच्चे अलग सहमे रहते है. अजब लाचारी है.”
आनंद की बातें सुनकर मैं तो स्तब्ध रह गया. अब मुझे समझ आ गया कि बच्चे इतना रूखा व्यवहार क्यों कर रहे हैं. यह हमारी उपस्थिति से ऊब गए हैं. जल्द ही हमसे छुटकारा चाहते हैं.
आनंद को ही क्यों दोष दूं? पिछली बार हेमंत के यहां जब कनाडा गए, वहां से भी क्या मधुर स्मृतियां लेकर लौट सके? उसके बाद क्या वहां फिर जाने की हिम्मत जुटा पाए? नहीं.
ममता यदि यह सब सुन लेती तब क्या होता? नहीं-नहीं, उसे कुछ भी पता नहीं चलना चाहिए, वरना उसका बीमार दिल क्या यह झटका सह पाएगा. हम दोनों कितने प्यार और विश्वास से यहां आए थे. भविष्य की सुखद कल्पनाओं के साथ. ख़ैर, सपने तो सपने होते हैं, अब जल्द से जल्द लौटने का रिज़र्वेशन कराना होगा. अब यहां से मन उचट गया है.
इस तरह अनिश्चित भविष्य को लिए हम लखनऊ लौट आए, बिना बच्चों को यह अनुभव कराए कि हम तुमसे नाराज़ हैं.
दिन बीतते जा रहे थे. ममता तो घर गृहस्थी के कार्यों में व्यस्त रहने लगी. इधर मेरी चिंता बढ़ती जा रही थी. अब आगे क्या? पड़ोसी लाख अच्छे हैं. उनकी भी तो सीमाएं हैं. उम्र हमें अब जवान तो बना नहीं देगी. बुढ़ापे की तरफ नित्य ही क़दम बढ़ते जा रहे हैं. हम दोनों हमेशा तो साथ नहीं रह सकते. एक न एक को तो इस दुनिया से पहले जाना होगा. तब..? यही प्रश्न मुझे अंदर-अंदर तोड़ रहा था. अनेकों अनुत्तरित प्रश्न?
एक दिन बरसों बाद मेरे बचपन के साथी आलोक का फोन आया कि वह एक शादी में पत्नी सहित लखनऊ आ रहा है. वह हमारे पास ही रुकना चाहता है. ये सुनकर मेरा मन प्रसन्नता से भर गया. ममता भी बहुत प्रसन्न हुई. हम दोनों ही उनके स्वागत की तैयारियों में लग गए. आलोक मेरे बचपन का दोस्त, मेरा लंगोटिया यार. गलियों में गिल्ली-डंडा खेलना, पतंग उड़ाना, साथ-साथ पढ़ना, एक-दूसरे के घर में खाना खाना हमारा नित्य का काम था. अब तो बरसों हो गए उससे मिले. उसे रिटायर हुए भी कई वर्ष बीत गए हैं. उसे लेने हम दोनों स्टेशन गए. चार दिन का उसका लखनऊ प्रवास बहुत ही व्यस्त रहा. खूब बातें हुई. एक-दूसरे से निजी बातें भी शेयर की.
उसकी इकलौती जवान बेटी का निधन जब कार दुर्घटना में हो गया उस समय वे दोनों ही एकदम टूटकर बिखर गए थे. सुनते ही हम दोनों उनके पास जयपुर पहुंच गए. किसी प्रकार की सांत्वना भी उन्हें संभाल नहीं पा रही थी. उनके आंसू थमते ही नहीं थे. ईश्वर जब दुख देता है तब वही संभालता भी है. समय के साथ-साथ वह भी संभले. आलोक काम पर जाने लगा एवं भाभी ने घर के काम में एवं गरीब बच्चों को पढ़ाने में ख़ुद को व्यस्त कर लिया.
“आजकल कहां रह रहे हो?” पूछने पर उसने जो कुछ बताया वह मेरे भविष्य के निर्णय के लिये विचारणीय प्रश्न बन गया. उसने बताया कि मैंने जयपुर वाला घर बेचकर जामनगर के एक वृद्धाश्रम में घर ख़रीद लिया है. उसके एक साथी भी पहले से वहां रहते थे. उनकी मजबूरी यह थी कि चार-चार बेटों के रहते हुए बेटों के पास मां-बाप के लिए न समय था न प्यार. उन्होंने ही उसे आश्रम में रहने को प्रेरित किया.
उसने बताया, “यार, बड़ा विराट और भव्य आश्रम है जो कई एकड़ में फैला है. अनेकों वृद्ध दंपत्ति वहां शानदार तरी़के से अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं. ऐसा भी नहीं है कि सब अपने बच्चों से तिरस्कृत ही हों. कुछ लोग तो परिस्थितिवश बच्चों की सहमति से वहां रह रहे हैं. समय-समय पर उनके बच्चे भी वहां आ कर रहते हैं. वे भी बाहर आ-जा सकते हैं. किसी प्रकार की कोई बंदिश नहीं है. शिवा की मृत्यु के बाद हमें तो इसी आश्रम ने संभाला, वरना हम तो बिल्कुल अकेले पड़ गए थे. आश्रम क्या है एक वृहत परिवार है जहां सब अपनी-अपनी संस्कृति एवं आस्था के साथ रहते हैं. जाति-धर्म का कोई बंधन नहीं.” आलोक सब बताते हुए काफ़ी भावुक हो गया. मुझे भी भविष्य की राह दिखाई देने लगी. मैंने उससे सब विस्तार से जानना चाहा.
उसने बताया, “आश्रम में एक एवं दो कमरों की कॉटेज बनी हैं. आप अपने हिसाब से कॉटेज ख़रीद लो. खाना सामूहिक रसोई में बनता है. चाहो तो अपनी रसोई में बना लो या सामूहिक रसोई में खा लो. उसका दाम हर व्यक्ति के हिसाब से अलग देना होगा. यदि वहां की कॉटेज पसंद न हो तो ज़मीन आश्रम से ख़रीदकर अपनी पसंद का घर बनवा लो. मैंने तो जयपुर का घर बेचकर दो कमरे बनवा लिए हैं. बचा पैसा भविष्य के लिये बैंक में डाल दिया है. पेंशन तो है ही. हम तो वहां बहुत प्रसन्न और सुरक्षित हैं. हां, एक बात है, आप दोनों के बाद आपका घर आश्रम की संपत्ति होगा. आपका अधिकार केवल आपके जीवन काल में ही होगा. आश्रम के अपने कुछ नियम भी हैं, जैसे- शाकाहार का पालन करना, सुबह-शाम वहां की गतिविधियों में सम्मिलित होना, प्रार्थना में जाना, सत्संग में शामिल होना, योगा-प्राणायाम करना. बीमार पड़ने पर वहां पर छोटा सा अस्पताल भी है. ज़रूरत पड़ने पर बड़े अस्पताल ले जाने की व्यवस्था भी है. मुझे तो भई बहुत अच्छा लग रहा है. तुम जब वहां आओगे, तब सब अपनी आंखों से स्वयं देख लेना. तुम्हारा मन प्रसन्न न हो जाए तो कहना.”
अपने मन की बातें आलोक के साथ साझा करने में मुझे ज़रा भी संकोच नहीं हुआ. मेरे मुंबई प्रवास की बातें जानकर उसने मुझे यही सलाह दी कि हम दोनों को भी वहीं आकर रहना चाहिए. “इसमें बच्चों का भी कोई दोष नहीं है. आजकल की दिनचर्या ही ऐसी बन गई है कि माता-पिता के लिए उनकी गृहस्थी में कम ही स्थान निकल पाता है. फिर वहां रहकर तुम बच्चों से अलग कहां हो रहे हो? जैसे वह लखनऊ आते हैं अब जामनगर आएंगे. तुम भी उनके पास जब चाहो जाकर रहो. आश्रम के द्वार सदा तुम्हारे लिए खुले हैं. फिर हम दोनों तो हैं ही.” उसकी बातों से मैं काफ़ी आश्वस्त हो गया. अब बस, ममता से बात करके भविष्य की राह निश्चित करनी थी. मेरे मन में दृढ़ निश्चय आकार लेने लगा.
आलोक के जाने के बाद मैंने सब बातें ममता को बताई. इसी संदर्भ में मुझे मुंबई में घटी घटना से भी उसे अवगत कराना पड़ा. सुनकर वह स्तब्ध रह गई, लेकिन उसने धैर्य दिखाते हुए सोचने का समय मांगा. दो दिन बाद उसने मेरे निर्णय से सहमति जताई. मुझे लगता है कि वह ख़ुद भी बच्चों के व्यवहार से दुखी थी. मुझसे उसने कभी परेशानियां शेयर नहीं की.
“अगर एक बार बच्चों से पूछ लेते.” उसने दबी आवाज़ में प्रस्ताव रखा, जिसे मैंने दृढ़ता से ठुकरा दिया. हम सब व्यवस्था करके दोनों बच्चों को सूचित भर करेंगे. मेरा निश्चय अटल है.
मकान बेचने के लिए मैंने एक प्रॉपर्टी डीलर से बात कर ली. उसने जल्दी ही कोई ग्राहक बताने को कहा. इस बीच हम जामनगर जाकर आश्रम की सारी व्यवस्था स्वयं देख आए. वहां सब बहुत ही व्यवस्थित था, बल्कि उसके बताये हुए से भी कहीं अधिक. दो कमरों की एक कॉटेज ममता को पसंद आई. उसे संवारने का जिम्मा आलोक ने ले लिया.
आश्रम से लौटकर हेमंत एवं आनंद को फोन पर सब बातें विस्तार से बता दीं. प्रतिक्रिया तो होनी ही थी, वह हुई भी. दोनों ही परेशान लगे. उन्होंने अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया, लेकिन मैं बार-बार अतीत के कटु अनुभवों को दोहराने को तैयार नहीं था. ममता भी एक बार तो बच्चों के आग्रह से विचलित लगी. इस बात की क्या गारंटी थी कि भविष्य में फिर से वह सब नहीं दोहराया जाएगा? भविष्य में तो हम दोनों और अधिक अशक्त ही होंगे. अब इतना आगे बढ़कर निर्णय बदलना असंभव था. अतः विनम्रता से बच्चों का प्रस्ताव हमने ठुकरा दिया. लखनऊ को अंतिम विदा करने की हम भरे मन से तैयारी करने लगे. पड़ोसियों एवं मित्रों ने भी क्या कम प्रयत्न किए हमें अपना निर्णय बदलने के लिए? मैं अपने निर्णय पर अडिग था. अतः भरे मन से वह सब हमें विदाई देने की तैयारियों में लग गए.