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कहानी: गहने

और अचानक आरती ने देखा कि मां अपने गहने निकाल कर चेक कर रही है. उसने मां को इस तरह अपने गहने देखते कभी नहीं देखा था. मां ने बड़े जतन से सारे गहने देखे जैसे मन ही मन उसका वज़न तौला हो और हाथ का एक कंगन उठा लिया. डेढ़ तोला तो होगा.
अचानक उसके कान में आवाज गूंजी, "बहुत शौक था साइंस पढ़ने का, देखते हैं अब क्या करती हैं बहनजी. हा… हा… यहां सौ-पचास बच्चों में टॉप क्या कर लिया ख़ुद को झांसी की रानी समझ बैठी."
तभी दूसरी आवाज़ गूंजी, "रवींदर अब दो ही ऑप्शन है इसके पास या तो यहां आर्ट्स लेकर पढ़ेगी या पंद्रह किलोमीटर रोज़ धक्के खा कर टाउन जाएगी साइंस पढ़ने. देखते हैं इसके बाप में कितना दम है. ख़ुद का गुज़ारा तो मुश्किल से चलता है, बेटी को क्या पढ़ाएगा."
इतना कहकर दोनों ज़ोर से हंसे और एक भद्दा सा जुमला उछाल दिया उन्होंने आरती को देखकर.
आरती कुछ नहीं बोली. यह कोई एक दिन की बात हो तो जवाब दे, रोज-रोज के इस पचड़े में कौन पड़े. उसे पढ़ने-लिखने से मतलब रहता. वह बेकार की बातों पर बचपन से ही ध्यान नहीं देती थी. कौन क्या कह रहा है, क्या सुन रहा है, इससे क्या फ़र्क पड़ता है. जब तक कोई उसे हाथ न लगाए, तब तक उसे किसी से भिड़ने की ज़रूरत नहीं महसूस होती थी. हां, एक बार अगर किसी ने उसे छू दिया, तो फिर वह शेरनी हो जाती थी । इसके बाद मजाल है कि कोई उसकी तरफ़ आंख उठा कर देख ले. उसे वह क़िस्सा याद है, जब एक बार किसी एमएलए के बेटे ने उसे ज़बर्दस्ती अपनी गाड़ी में उठाने की कोशिश की थी और उसने अपने बालों में लगी चिमटी उसकी आंख में घुसेड़ दी थी, जिसके बाद वह चीखता-चिल्लाता भागा था और स्कूल मे आ कर प्रिंसिपल को धमकाने लगा था.
बस यही कहा था उसने कि मैं देख लूंगा यह स्कूल कैसे चलता है. मेरे बाप के सामने क्या औकात है तुम्हारे इस डोनेशन पर चल रहे स्कूल की. सभी अनुदान बंद न कराए, तो मेरा नाम भी आशुतोष क्षेत्री नहीं."
इतना सुनते ही आरती ने कहा था, "जाकर अपने बाप से  कह देना की तू लड़की छेड़ रहा था और आज किसी ने तेरी आंख फोड़ दी है और हां अगर अपनी मां का दूध पिया है, तो सामने आ कर हाथ उठा के देख… तेरे हाथ तोड़ के इसी पेड़ पर न टांग दिए तो मेरा नाम भी आरती नहीं. एक बार बदनामी हो गई, तो तेरे ख़ानदान की तीन पीढ़ी चुनाव नहीं जीत पाएगी. हट सामने से कमीने." और इसके बाद किसी की हिम्मत नहीं हुई थी उस कॉलेज की किसी लड़की पर आंख उठाकर देखने की.
किसी छोटे से कस्बे में होनेवाली यह एक आम घटना है, जो रीजनल न्यूज़पेपर से आगे नहीं बढ़ती. लोग कहां तक देखें ऐसी ख़बरें. हां, घरवालों ने इस ख़बर के स्थानीय पेपर में छपने के बाद आरती को बहुत समझाया था, "देख बेटी ऐसे गुंडों के मुंह नहीं लग. इनके पास और कोई काम तो है नहीं, पर तुझे तो पढ़-लिख कर मां-पिता का नाम रोशन करना है.“

बात शायद आरती की समझ में आ गई थी. उस दिन के बाद उसने कमेंट्स आदि पर ध्यान देना छोड़ कर ऐसे लोगों को अपनी पढ़ाई के बल पर मात देने का फ़ैसला किया था.
आज जब उसने स्कूल में टॉप किया, तो वही आशुतोष उसे धमकी देने आया था, क्योंकि आज उसका नाम पेपर में बड़ी इज्ज़त के साथ छपा था. 
शाम को जब वह घर लौटी, तो सुबह की बातों से उसका मन भारी था. वाकई वह आगे की पढ़ाई कैसे करेगी यह सोच कर परेशान थी.
उसने मां से कहा, “मां, मुझे साइंस कॉलेज में एडमिशन लेना है.“
मां चुप हो गई. उसे पता था, घर से पंद्रह किलोमीटर दूर भेजना आसान काम नहीं है. वह भी रोज़ का आना-जाना. कस्बे के हालत किसी से छुपे नहीं थे. आए दिन छेड़छाड़ की घटनाएं, बदनामी और फिर ज़रा सा कुछ हुआ नहीं कि बात का बतंगड़ बनाते देर नहीं लगती. इसके बाद  मोहल्ले में सिर उठाकर जीना मुहाल हो जाए.
एक बार झूठा दाग़ भी लग गया, तो शादी-ब्याह सब मुश्किल. फिर सारी ग़लती लड़की की, चाहे बेचारी ने कुछ न किया हो. मगर नहीं, असली समस्या तो यह बेचारी हो जाना है. खैर वह बोली, " ठीक है बेटी, तू एडमिशन के लिए फार्म भर दे. उसके बाद देखते हैं कैसे करना है. हां, मैं तेरे पापा को बोल दूंगी, वो कल ही फार्म ले आएंगे."
आरती ख़ुश हुई, चलो कम से कम आगे मनचाही पढ़ाई तो कर पाएगी. उसका सपना था ट्रिपल आई टी में एडमिशन ले कर कंप्यूटर इंजीनियर बनने का. जब से उसने एक प्रतिष्ठित अख़बार में वहां से पास होनेवाले स्टूडेंट्स का पैकेज देखा था, उसे अपनी ज़िंदगी बदलने की ज़िद सवार हो गई थी. उसकी आज की ज़िंदगी और सपनों की ज़िंदगी के बीच एक छोटी सी छलांग चाहिए. एक बार वह अपने ड्रीम कॉलेज में पहुंच गई, तो आगे का सफ़र बहुत आसान है. इतनी सी बात उसे समझ में आ गई थी.
मगर नहीं ज़िंदगी इतनी आसान नहीं होती, जितनी दिखाई देती है. जो आसानी से पूरे हो जाते हैं वे सपने भी सपने नहीं होते.
रात जब मां ने आरती के पापा से कहा, "सुनो कल आरती के लिए साइंस कॉलेज का फार्म लेते आना. उसके नंबर बहुत अच्छे आए हैं और उसे एडमिशन भी आसानी से मिल जाएगा."
इतना सुनना था कि पापा के तेवर बदल गए. अभी सुबह तक जो पापा बिटिया के गुण गा रहे थे और पेपर में नाम छपने पर इतरा रहे थे, अचानक कुछ और नज़र आने लगे.
पापा ने कहा, "सुनो आरती की मां, क्या करेगी वहां जा कर, यहीं कॉलेज में आगे पढ़ लेगी. तुम तो जानती हो उतनी दूर रोज़ जाना आसान नहीं है. फिर टेम्पो की धक्कामुक्की, बदमाश लड़कों की छेड़छाड़ रोज़-रोज़ कौन झेलेगा."
"मगर यहां इस कॉलेज में साइंस नहीं है और आरती साइंस पढ़ना चाहती है." उसकी मां ने कहा.
"अरे, पढ़ाई पढ़ाई होती है साइंस और आर्ट्स का क्या है?
और हमें उसे कौन सा डॉक्टर-इंजीनियर बनाना है. ट्वेल्थ करे और फिर ग्रेजुएशन में एडमिशन ले ले. अच्छा लड़का देख कर शादी कर देंगे." पापा बोले.
आरती सब सुन रही थी उसे लगा या तो वह घर छोड़कर भाग जाए या कहीं डूब मरे. आज उसे अपने पापा भी अजीब से लग रहे थे. वह सोचने लगी यह इंसान इतना कमज़ोर कैसे हो सकता है.
तभी मां बोली, "सुनो जी, वह साइंस पढ़ना चाहती है, तो हम उस पर अपनी मर्ज़ी कैसे थोप सकते हैं."
पापा थोड़ा सख़्त हुए, "तुम जानती हो इसके आगे का रास्ता क्या है. वह बारहवीं करेगी, फिर कोचिंग और तब मेडिकल या इंजीनियरिंग का एंट्रेंस टेस्ट देगी. उसके बाद इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन. कोचिंग से लेकर इंजीनियरिंग तक का ख़र्च कम से कम पंद्रह लाख बैठता है. कहां से करेंगे इतना ख़र्च. और फिर इतने पैसे में तो उसकी शादी की आधी तैयारी हो जाएगी. इतना ही है तो उसे आईएएस की तैयारी को कह दो. सिंपल ग्रेजुएशन करके सिविल सर्विसेज़ दे."

मां को काफ़ी ग़ुस्सा आ गया था यह सुनकर वह बोली, "ख़र्चे की चिंता तुम मत करो मैं अपने गहने गिरवी रख दूंगी तुम बस फार्म ले आना."
मगर पापा इतनी जल्दी कहां हार मनानेवाले थे. इतना सुनते ही बोले, "सुनो, तुम कुछ दिन मायके चली जाओ. तुम्हारी तबियत ठीक नहीं लग रही है और हां, आरती भी कुछ दिन घूम आएगी, तब तक सब ठीक हो जाएगा."
इतना सुनते ही आरती को रोना आ गया. उसे लगा अब बस सब कुछ ख़त्म हो गया है, क्योंकि यह पापा के तुरुप का इक्का था. इस धमकी के बाद मां चुप हो जाती थी.
नानी के घर जाने का मतलब होता मां की घोर बेइज़्ज़ती , फिर पापा मां को लेने नहीं आते और मामा से ले कर नानी तक यहां तक कि अड़ोस-पड़ोस तक मां को ताने मारते. फिर पांच-छह महीने में मान-मनौवल के बाद पापा बड़े शान से विजयी भाव से आते और मां को उनकी हर बात मानते हुए वापस लौटना पड़ता.
लेकिन इस बार मां कुछ बोली नहीं, बस इतना कहकर चुप हो गई, "मैं नहीं चाहती आरती की ज़िंदगी मेरी तरह बर्बाद हो. तुम रहने दो मैं देखती हूं क्या करना है. और हां, मैं मायके नहीं जा रही हूं. यही मेरा घर है मैं यही रहूंगी. अपनी बेटी के साथ."
पापा के अहंकार को चोट लगी, मगर बोले कुछ नहीं. स्त्री जब अपनी मज़बूती पर आ जाती है, तो पुरुष सहम जाता है. वह आगे का सीन सोच कर डर गए थे.
किसी तरह वह भारी रात गुज़री और सुबह हुई. पापा बिना कुछ बोले काम पर निकल गए थे और मां नहा-धो कर पूजा कर रही थी. अपने ख़्यालों और मम्मी-पापा की बातों में खोए हुए आरती को कब नींद आ गई उसे पता ही नहीं चला. जैसे ही वह उठी मां ने उसे प्यार से देखा और बोली, "चल जल्दी से तैयार हो जा तेरे नए कॉलेज चलना है."
इतना सुनना था कि आरती को जैसे पंख लग गए.
“मां क्या मैं साइंस पढ़ूंगी.” वह चहकते हुए बोली.
"मेरी बेटी वह सब कुछ करेगी, जो वह चाहती है. आख़िर बेटी किसकी है दुर्गा की बेटी भला अनपढ़ रहे यह नहीं होगा." दुर्गा उसकी मां का नाम था.
उसकी आंखों में आंसू आ गए और वह मां से लिपट गई. शेयर ऑटो का सफ़र बहुत झेलू होता है, लेकिन देर-सबेर इंसान को उसके गंतव्य तक पहुंचा ही देता है. मां-बेटी अपने छोटे से गांव से निकल कस्बे में आ गई थीं. भले ही सुबह आठ बजे के निकले साढ़े ग्यारह पहुंचे हों. ऑटो की धक्का-मुक्की और रेलमपेल से बाहर निकलते ही खुली हवा पा कर आरती का दिल झूमने लगा. वह सोचने लगी, 'तो अब वह यहां पढ़ेगी', वहां की रौनक़ देख उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा. खैर कॉलेज में पहुंचते ही उसे एडमिशन मिलने में दिक़्क़त नहीं हुई. उसके नंबर और पेपर में नाम देखकर कॉलेज के प्रिंसिपल बहुत ख़ुश हुए और उन्होंने दुर्गाजी को विश्वास दिलाया, "आप आरती की चिंता न करें जैसे इस बच्ची ने अपने स्कूल का नाम रोशन किया है, वैसे ही यह हमारे कॉलेज का नाम रोशन करेगी. हां, आप बस इतना ध्यान रखें कि इसकी अटेंडेंस कम न हो. यह क्लास में रेगुलर रहे. ज़्यादातर दूर से आनेवाले बच्चे एडमिशन तो ले लेते हैं, लेकिन रेगुलर नहीं रह पाते. मैं समझता हूं कि आने-जाने में कितनी दिक़्क़त है, लेकिन इस मामले में हम कुछ नहीं कर सकते."
अच्छे नंबर आने के कारण उसे कुछ प्रतिशत फीस माफ़ी भी मिल गई थी.
इसके बाद मां-बेटी ख़ुशी-ख़ुशी घर लौटे, मगर आगे के सवाल मुंह बाए खड़े थे. रोज़ अगर इस तरह शेयर ऑटो से जाना पड़ा, तो हो चुकी पढ़ाई.
और अचानक आरती ने देखा कि मां अपने गहने निकाल कर चेक कर रही है. उसने मां को इस तरह अपने गहने देखते कभी नहीं देखा था. मां ने बड़े जतन से सारे गहने देखे जैसे मन ही मन उसका वज़न तौला हो और हाथ का एक कंगन उठा लिया. डेढ़ तोला तो होगा.
अगले दिन पापा के जाने के बाद दुर्गा आरती को लेकर फिर कस्बे जा पहुंची और उसने स्कूटी वाली शॉप पर दस्तक दी. यह सब देख आरती को कुछ समझ नहीं आया. बाद में पता चला वह कंगन किसी सुनार के पास पहुंच गया था और स्कूटी आरती के पास. पढ़ते समय बच्चों को अपना लक्ष्य दिखाई देता है. हां, आरती मन ही मन मां के प्रति कृतज्ञता से भरती जा रही थी. ऐसे ही एक रात उसने मां से पूछा, “मां, तुमने मेरी स्कूटी के लिए कंगन बेच दिए?“
और मां आंख पोंछते हुए बोली, "विद्या से बढ़कर कोई धन नहीं है. अभी मेरे पास बारह तोले गहने पड़े हैं. उससे तेरी इंजीनियरिंग हो जाएगी और जैसे ही तेरी सर्विस लगी, ये गहने फिर से बन जाएंगे. मैं नहीं चाहती मेरी बेटी मेरी तरह संघर्ष करे."
उस दिन मां ने बताया था कि किस तरह दसवीं के बाद नानाजी ने उसकी पढ़ाई यह कहकर छुड़ा दी थी, "दुर्गा अब आगे नहीं पढ़ेगी, क्योंकि यहां कोई स्कूल नहीं है और दूर जाने में ख़तरा है. कहीं कुछ ऊंच-नीच हो गया, तो इसकी छोटी बहनों का क्या होगा. इसके बाद बस सत्रह साढ़े सत्रह साल में शादी हो गई थी." इतना कहते कहते उनकी आंखों में आसूं आ गए थे.
"यह स्कूटी तेरी हमसफ़र है. अब तू समय से कॉलेज जा सकेगी और अपनी ज़िंदगी की उड़ान भर सेकेगी."
आरती ने भी मां के दर्द को समझा था और पूरे लगन से पढ़ाई में जुट गई. वह स्कूटी तो जैसे उसकी लाइफ लाइन बन गई थी और हां, अब यह बहनजी वाली आरती नहीं थी. उसने सलवार छोड़ टाइट पैंटनुमा लोवर और फिट कुर्ता पहनना शुरू कर दिया था, जिससे आराम से स्कूटी चला सके. इतना ही नहीं अब वह किसी न किसी लड़की को लिफ्ट देकर साथ ले जाती और लाती थी जिससे अकेलापन न महसूस हो.

वह स्कूल बहुत अच्छा था. वहां पीटी सर ने गर्ल्स के लिए कराटे क्लास चला रखी थी, जिसमें वे लड़कियों को आत्मरक्षा की ट्रेनिंग देते थे.
साथ ही क्लास में टॉप करने के कारण उसे नामी कोचिंग में फ्री सीट मिल गई थी. वह शनिवार और रविवार को आईआईटी एंटरेंस की कोचिग करने लगी थी. शाम तीन बजे के बाद उसने दो तीन बच्चों को ट्यूशन देना शुरू कर दिया था, जिससे पेट्रोल का ख़र्चा निकल आता.  
कहते हैं, जहां चाह वहां राह. आशुतोष और उसके साथियों ने एक-दो बार उसे तंग करने की कोशिश की, तो उसने चुपचाप उनकी कंप्लेंट कर दी थी, जिससे बिना उसका नाम उजागर किए बदमाशों पर कारवाई हो गई थी.
वह दिन भी आया, जब जेई मेंस का रिजल्ट आया. कोचिंग की गाइडेंस और क्लास में मेहनत रंग लाई थी, उसकी रैंक तीन हज़ार के नीचे थी जिससे उसे आसानी से आईआईटी, हैदराबाद मिल गया था. यह उसके  किसी सपने के पूरा होने से कम नहीं था.
इस बात को गुज़रे एक अर्सा हो गया था और आज आरती की कैंपस प्लेसमेंट हुई थी. उसकी आंखों मे आंसू थे. एक छोटे से गांव से निकलकर कस्बे से होता उसकी ज़िंदगी का सफ़र जो हैदराबाद में हाल्ट पर था. आज बैंगलुरू की किसी बड़ी आईटी फर्म में प्लेसमेंट के साथ ही अपने मुक़म्मल मुक़ाम तक जा पहुंचा थी वो.
अब न दुर्गा को उसकी चिंता करनी पड़ती थी और न पिता राजेश्वर को बेटी के साथ कुछ ऊंच-नीच होने का डर था. उसने मां को फोन लगाया, “मां, मेरी प्लेसमेंट हो गई है.“
और मां के तो जैसे बोल ही न फूटे. वह बस घर में मंदिर की तरफ़ दौड़ी, "बेटी सब भगवान का आशीर्वाद है."
आरती ने कहा, “मां, पैकेज नहीं पूछोगी?“
और दुर्गा ने कहा, “हट पगली, बेटी के पैसे कौन देखता है.“
वह बोली, "अच्छा चलो मैं बता देती हूं, पचास लाख पर एनम और यह यहां इस कैंपस की सेकंड हाइएस्ट प्लेसमेंट है."
वाकई अगले दिन पेपर में आरती के प्लेसमेंट की ख़बर आ चुकी थी और पूरा आस-पड़ोस मिठाई की मांग करता दुर्गा के घर खड़ा था.
लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई थी. प्लेसमेंट के छह महीने बाद बिना किसी को बताए आज आरती अपने घर आई थी. उसी छोटे से गांव में. मां-पिताजी तो उसे देख कर पहचान ही नहीं पाए थे. जींस-टी शर्ट में आरती को देख कोई नहीं कह सकता था कि यह वही आरती है, जिसने इस छोटे से गांव से अपनी ज़िंदगी के संघर्ष का सफ़र शुरू किया था.
अगले दिन सुबह जब दुर्गा सो कर उठी, तो देखा आरती अपनी स्कूटी साफ़ कर रही थी. पिताजी जा चुके थे. वह बोली, "मां, जल्दी से तैयार हो जाओ, कॉलेज चलना है. सर को मिठाई खिलानी है."
दुर्गा फटाफट तैयार होकर स्कूटी पर बैठ बड़ी ठसक के साथ चल पड़ी.
लेकिन यह क्या आरती ने स्कूटी एक सुनार की दुकान पर रोक दी थी.
इसे देखते ही दुर्गा को काटो तो खून नहीं.
"बेटी यहां क्यों रुकी हो, हमें तो तुम्हारे कॉलेज चलना है सर को मिठाई खिलाने."
"हां मां, वहां भी चलेंगे." आरती ने कहा और सुनार से बोली, "सुनो भैया, मां के गहने छुड़ाने हैं."
आरती को देख सुनार तक सहम गया. उसकी कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हुई और देखते-देखते आरती ने उसे अट्ठारह लाख की पेमेंट कर सारे गहने मां के हाथ में रख दिए.
"मां यह मेरी तरफ़ से तुम्हें पहला उपहार है. मेरे पहले क्वार्टर की कमाई."
इसके बाद उसने स्कूटी की डिक्की खोली और गहने की पोटली उसमें डाल मां को बैठा वापस चल पड़ी.
दुर्गा निःशब्द थी… आज शायद उसके गहने सोने से बदल कर हीरे से भी ज़्यादा क़ीमती हो उठे थे.
और आरती बिंदास अपनी लाइफ लाइन स्कूटी पर उडी चली जा रही थी. अगर सही वक़्त पर यह स्कूटी उसे न मिलती, तो वह अपनी ज़िंदगी का यह सफ़र शायद कभी तय न कर पाती.
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