सावन महीने में झूले-कजरी को भूले लोग, नई पीढ़ी को इसमें रुचि नहीं
ग़ाज़ीपुर न्यूज़ टीम, गाजीपुर. की हरे रामा रिमझिम बरसे पनिया झूले राधा रानिया है हरी.....जैसे प्रसिद्ध कजरी गीत सावन में झूला झूलने की परंपरा को याद दिलाते हैं। सावन की शुरुआत हो चुकी है, लेकिन अब पेड़ों पर ना तो सावन के झूले पड़ते हैं और ना ही बाग-बगीचों में सखियों की रौनक होती है, जबकि एक जमाने में सावन लगते ही बाग-बगीचों में झूलों का आनंद लिया जाता था। विवाहित बेटियाें को ससुराल से बुलाया जाता था।
वे मेहंदी लगाकर सावन के इस मौसम में सखियों के संग झूला झूलने का आनंद लिया करती थी और वहीं, बरसती बूंदें मौसम का मजा और दोगुना कर देती थी, लेकिन अब ये परंपरा खत्म होती जा रही है। अब न तो झूले पड़ते हैं और न ही गीत सुनाई देते हैं।
80 वर्षीय सुषमा देवी ने बताया कि पहले सावन आते ही गांव के पेड़ों पर झूले डाले जाते थे। यह परंपरा थी कि पहला सावन मायके में ही मनाना होता था। बहन-बेटियां ससुराल से मायके बुला ली जाती थीं और पेड़ों पर झूला डाल कर झूलती थीं। महिलाएं कजरी गीत गाया करती थीं। अब नई पीढ़ी में इस परंपरा की कोई रुचि नहीं रही।
अन्नपूर्णा देवी जो अपने गांव के पेड़ पर झूला डालकर झूलने की यादें साझा करती हैं, कहती हैं, "हम अपने गांव के पेड़ों पर मोटी रस्सी से झूला डालकर झूलते थे। अब ऐसे पेड़ और जगहें नहीं रहीं। नई पीढ़ी के पास इतनी फुर्सत भी नहीं कि इन परंपराओं को निभा सके।"
पिछले दो दशकों में सावन की खुशियाँ अब धुंधली हो गई हैं। बागों में आम के पेड़ों में झूलना और बारिश में कागज की नाव चलाना अब अतीत की बात हो गई है। बहुमंजिला इमारतों के निर्माण ने पेड़ों और आंगन की जगह को समाप्त कर दिया है। एकल परिवारों और गांवों में फैल रही वैमनस्यता ने भी इस परंपरा को खत्म कर दिया है।
आज की युवा पीढ़ी को सावन की परंपराओं को निभाने का समय ही नहीं है। वे मोबाइल की रील लाइफ में खोए हुए हैं और असली जिंदगी से दूर होते जा रहे हैं। अगर यही स्थिति रही, तो सावन की परंपराएं केवल किताबों के पन्नों पर ही मिलेंगी। सावन की परंपराएं अब सिर्फ पुरानी यादों में सिमट कर रह गई हैं। झूलों की वह चहक, कजरी गीतों की वह मिठास, और बाग-बगिचों की वह रौनक अब सिर्फ अतीत की बात बन गई हैं।