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कहानी- मुट्ठी भर स्नेह

जब कभी वो आदित्य के पास बैठी डिक्टेशन लेती, आदित्य की आंखों को अपने चेहरे पर टिका महसूस करती. मेनका को महसूस होता कि आदित्य कुछ कहना चाहता है, पर कह नहीं पाता. आदित्य की इसी उलझन को दूर करने के ख़्याल से मेनका ने पहल की थी और आदित्य की मुश्किल आसान करने के ख़्याल से उसने आदित्य को एक प्रेमपत्र लिख दिया था.
गेट खुलने की आवाज़ से मेनका ने कंधे उचकाकर वहीं पास की खिड़की से बाहर झांका. वही था, जिसका पिछले दो घंटे से वो इंतज़ार कर रही थी, डाकिया. मेनका का हृदय ज़ोर से धड़क उठा. वो वैसे ही बैठे-बैठे सामने वाले दरवाज़े के नीचे फ़र्श को देखती रही. हाथ-पैर की कंपकंपी इतनी बढ़ गई कि वो चाहकर भी उठ नहीं पाई.
शॉल को ज़ोर से शरीर पर लपेट कर वह छुईमुई सी बैठी थी कि दरवाज़े के नीचे से काग़ज़ का एक टुकड़ा खिसककर अंदर आ गया. उस टुकड़े को देखते ही सारी कंपकंपी, सारी सिहरन जैसे रुक सी गई. मेनका को लगा जैसे एक क्षण के लिए हृदय की धड़कन थम सी गई और पुनः ज़ोरों से धड़कने लगी.
मेनका की आंखों से दो बूंद अश्क निकलकर गालों पर लुढ़क आए. आज मेनका के इंतज़ार का अंतिम दिन था. अब वो फिर से कभी उस पत्र का इंतज़ार नहीं करेगी, जिसका कि पिछले दस दिनों से इंतज़ार करते-करते वो थक चुकी थी. गालों पर फैले आंसू मेनका की विवशता को स्पष्ट कर रहे थे.
दरवाज़े की ओट से खिसककर अंदर आए टुकड़े पर एक नज़र डालकर मेनका ने मुंह फेर लिया था. यह किसी रजिस्टर्ड पत्र की पावती थी. परन्तु मेनका को तो एक अंतर्देशीय पत्र या लिफ़ाफ़े का इंतज़ार था, जिस पर मेनका को क्रिस्मत का फ़ैसला लिखा होना था.
मेनका को लग रहा था कि कुछ दिनों को और छु‌ट्टी ले ले. पर वो जानती थी कि ऐसा करना संभव नहीं. साल में दो बार मां से मिलने गांव भी जाना होता है और आधी छु‌ट्टियां तो ऐसे ही ख़त्म हो चुकी हैं. इस शहर में नौकरी की मजबूरी ने उसे बांध रखा है. मां-पिताजी गांव की पुश्तैनी ज़मीन छोड़कर यहां आना नहीं चाहते, इसलिए मेनका को ही साल में दो बार उनके पास जाना पड़ता है,
अपनी बेवकूफ़ी पर मेनका खीज उठी. न आदित्य को पत्र लिखती, न इस मुसीबत में फंसती. उसे क्या ज़रूरत थी पहल करने की? आदित्य पहल करता तो ठीक ही था, नहीं करता तो क्या मर जाती वो? अकेले भी तो जिदगी जी जा सकती थी. अपने आपको कोसते हुए मेनका फूट-फूट कर रो पड़ी.

आदित्य ने मेनका को जवाब न देकर सिद्ध कर दिया था कि मेनका उसके जीवन में कोई अहमियत नहीं रखती.
अपनी बात लिखने से पहले उसे अच्छी तरह सोचना चाहिए था. जाने पत्र पढ़कर आदित्य पर कैसी प्रतिक्रिया हुई होगी? कहीं दफ़्तर में इसका ढिंढोरा न पीट दे. सोचते-सोचते मेनका अस्त-व्यस्त सी हो जाती.
कल तो दफ्तर जाना ही होगा. आदित्य का सामना करने के ख़्याल मात्र से उसका दिल दहल जाता. मेनका को यह विश्वास हो चला था कि आदित्य की आंखों में जो कुछ भी उसने पढ़ा था, शायद ग़लत पढ़ा था. आदित्य को पहचानने में कहीं न कहीं कोई भूल हुई ही होगी. उसे प्रेम पत्र लिखकर मेनका ने अपने आपको उसकी नज़रों में गिरा दिया है.
लेकिन आदित्य का वो अपलक ताकना, मेनका के नजदीक आते ही आंखों में भावों का बदल जाना, क्या सब मेनका का वहम था? मेनका ने आदित्य के प्यार को महसूस किया था और उस पर विश्वास करके उसने अपनी पूरी बात आदित्य को लिख दी थी. पत्र के अंत में मेनका ने यह भी लिख दिया था कि वो तब तक दफ़्तर नहीं आएगी, जब तक आदित्य उसके घर के पते पर पत्र लिखकर अपने निर्णय की सूचना नहीं दे देगा. साथ ही मेनका ने अपने घर का पता भी लिख दिया था.
पर आदित्य ने जवाब नहीं दिया था. कभी-कभी मेनका यह सोचकर डर सी जाती कि कहीं आदित्य उसे चरित्रहीन न समझ बैठे.
मेनका के दिल का बोझ बढ़ता ही चला जा रहा था कि अनायास ही उसे आदित्य का मुस्कुराता हुआ चेहरा याद आ गया और एक झटके में मेनका की सारी पीड़ाएं मानो ख़त्म हो गई. मेनका का विश्वास आदित्य की मुस्कुराहट को याद करते ही पक्का हो गया कि आदित्य भी उसे चाहता है. आदित्य ने ज़रूर लिखा होगा पर डब्बे में डालना भूल गया होगा. भुलक्कड़ तो वो है ही. आदित्य के भूल जानेवाली आदत के याद आते ही मेनका के होंठों पर प्यार भरी मुस्कुराहट फैल गई.

मेनका को यह अच्छी तरह याद था कि एक बार कंपनी का एक ऑर्डर अपने ही दराज में रखकर आदित्य ने मेनका को किस कदर डांटा था और जब ग़लती न करने के बाद भी मेनका ने माफ़ी मांगी, तो कड़क कर कहा था- "दस मिनट के अंदर ऑर्डर ढूंढ़ लाओ, वरना तुम ऑफिस छोड़ सकती हो. ऐसे गैरज़िम्मेदार कर्मचारी की यहां कोई ज़रूरत नहीं…"
तब, अपनी टेबल पर मुंह छुपाकर कितना रोई थी मेनका. ऑर्डर तो उसे दिया ही नहीं गया था. कुछ देर बाद ऑर्डर अपने ही दराज में पाकर भी आदित्य ने मेनका को ही डांटा था.
"बेवकूफ़ कहीं की. जब ग़लती की ही नहीं थी, तो माफ़ी क्यों मांग रही थी? अब तुम रोना बंद करो, वरना मैं अपने आपको कभी माफ नहीं कर सकूगा." और मेनका चुप हो गई थी.
आदित्य का हर अंदाज़ दिल हरने वाला होता था, इसीलिए तो मेनका भी दीवानी हो गई थी. आदित्य सांवले चेहरे, सरल व्यक्तित्व और साधारण सी कद-काठी का पुरुष था. उसके होठों पर हमेशा एक चिर-परिचित मुस्कान रहती थी. कई बार जब मेनका सब कुछ भूलकर उसे ताकती, तो वो झेंप सा जाता था. पर, होंठों की चिर-परिचित मुस्कान गहरा जाया करती थी.
पहले मेनका आदित्य को प्यार नहीं करती थी. बस, देखती थी और बंध सी जाती थी. तब उसे आदित्य अच्छा लगता था, सिर्फ़ अच्छा. आदित्य मेनका के दफ़्तर में मैनेजर था, इसलिए मेनका को कई बार उसके पास जाना होता था, कभी डिक्टेशन लेने तो कभी अपने टाइप किए हुए काग़ज़ों पर हस्ताक्षर कराने. जब भी वो आदित्य के पास जाती, तो उसका दिल ज़ोर-जोर से धड़कने लगता और मेनका महसूस करती कि आदित्य उसे सिर्फ़ अच्छा ही नहीं लगता, बल्कि उसी बीच, आदित्य दूसरे शहर चला गया. तभी मेनका ने महसूस किया कि वो आदित्य को सचमुच प्यार करने लगी है. आदित्य के बिना सारा दफ़्तर सूना लगने लगा. ऐसा लगने लगा कि आदित्य को देखना मेनका के जीवन की एक ज़रूरत बन गई है.
और जब आदित्य लौटा, तो मेनका पूछ बैठी थी, "कहां चले गए थे?"
"अपने बेटे से मिलने." आदित्य का सहजतापूर्वक दिया गया जवाब मेनका को अंदर तक हिला गया था. वो चौंक सी गई थी, तो क्या आदित्य विवाहित था? आदित्य के बारे में जो कुछ भी वो सोचती रही थी उसका ख़्याल आते ही उसे लगा वो आदित्य की अपराधिनी है. एक शादीशुदा पुरुष के बारे में जाने क्या-क्या सोचने लगी थी वो. आंखों के कोर में फंसे आंसू बहकर गालों में लुढ़क आए थे. आदित्य की नज़र बचाकर उसने आंखें पोंछ लीं.
"आपका परिवार कहां है सर?" हिम्मत करके पूछ लिया उसने.
"मेरी पत्नी नहीं है." टेबल पर फैले काग़ज़ों को समेटते हुए आदित्य बोले, "बेटे को जन्म देते हुए वो स्वर्गवासी हो गई. तब से बेटा अपनी नानी के पास है."
"ओह." मेनका का दिल भर आया था. कभी-कभार आदित्य के चेहरे पर जो सूनापन वो देखी थी, उसका कारण अब उसकी समझ में आ रहा था.
अब मेनका का आदित्य के प्रति प्यार भी गहरा हो गया. मेनका को लगता कि वो आदित्य की सारी पीड़ा को अपने स्नेह से ढक दे. आदित्य को सामने पाते ही मेनका अपनी आंखों से सारा स्नेह आदित्य की आंखों में उंडेल देती और आदित्य मुस्कुरा देता.
मेनका बहुत आकर्षक तो नहीं थी, पर अपने सौम्य स्वभाव के कारण वो सबको प्रिय थी. जब कभी वो आदित्य के पास बैठी डिक्टेशन लेती, आदित्य की आंखों को अपने चेहरे पर टिका महसूस करती. मेनका को महसूस होता कि आदित्य कुछ कहना चाहता है, पर कह नहीं पाता. आदित्य की इसी उलझन को दूर करने के ख़्याल से मेनका ने पहल की थी और आदित्य की मुश्किल आसान करने के ख़्याल से उसने आदित्य को एक प्रेमपत्र लिख दिया था.
पर आदित्य ने जवाब न देकर मेनका के दिल को ठेस पहुंचाई थी. मेनका ने मन ही मन निर्णय ले लिया कि दफ़्तर जाते ही वो किसी और विभाग में स्थानांतरण के लिए आवेदन दे देगी, ताकि आदित्य से सामना न के बराबर हो. मेनका का तो जी चाह रहा था कि चुल्लू भर पानी में डूब मरे. अपनी जिन भावनाओं को संयत न रख पाने के कारण वो इस शर्मनाक स्थिति में आ पहुंची थी, उन भावनाओं को वो अब कोसने लगी थी.
दूसरे दिन बड़े भारी मन से मेनका दफ़्तर पहुंची. पर वहां कोई असामान्यता नहीं लगी. शायद आदित्य ने किसी को कुछ बताया नहीं होगा. पर बुलाकर कुछ कहेगे ज़रूर, शायद डांट ही दे. मेनका ने सोच लिया था कि वो आदित्य की पूरी नाराज़गी को चुपचाप सह लेगी और आदित्य से यह प्रार्थना करते हुए कि वो यह बात किसी से न कहे, स्थानांतरण का आवेदन पत्र उसे सौंप देगी.
तभी चपरासी ने आकर सूचना दी, "आदित्य साहब बुला रहे हैं."
मेनका पसीने से तरबतर हो उठी. जाने क्या कहे? मेनका की आंखें बह आईं. सारा शरीर मारे भय के कांप रहा था. अपने उपहासित होने के ख़्याल मात्र से मेनका का चेहरा सफ़ेद पड़ गया था
आदित्य के कमरे में प्रवेश करते हुए उसने देखा आदित्य हमेशा की तरह फाइलों में चेहरा छुपाए बैठा है. मेनका के पास आने का एहसास होते ही उसने फाइल बंद कर दी, पर चेहरा तब भी टेबल पर झुका हुआ था.
"बैठ जाओ " वैसे ही सिर झुकाकर आदित्य ने आदेश दिया. सहमी सी मेनका पास की कुर्सी पर बैठ गई.
"छुट्टी क्यों ली थी?" आदित्य ने रौबीली आवाज़ में पूछा.
"बीमार थी." मेनका ने ऐसे जवाब दिया मानो पूछ रही हो क्या तुम नहीं जानते? मुस्कुराकर आदित्य ने सिर उठाया था. निगाहों के मिलते ही मेनका अंदर तक थरथरा गई.
"मेनका…" धीरे से आदित्य ने कहना शुरू किया, "मैं यहां नहीं था. बेटे की तबियत ठीक नहीं थी, इसलिए उससे मिलने चला गया था." मेनका ने सिर उठाकर देखा आदित्य के चेहरे पर कोई कठोरता नहीं थी, वो आश्वस्त हो गई.
"आज ही लौटा, तो तुम्हारा पत्र टेबल पर पड़ा मिला. मैं ख़ुशक़िस्मत हूं कि तुमने मुझे अपने प्यार के काबिल समझा, लेकिन मेनका मैं वो मुसाफ़िर हूं जो जीवन की राहों में अपना सब कुछ लुटा चुका है. भला मुझसे विवाह करके तुम्हें क्या मिलेगा. मैं तुम्हें दे ही क्या सकता हूं?" आदित्य का गला रुंध आया. आंखें भर आई थीं
"मुट्ठी भर स्नेह…" मेनका ने कहा और अपना हाथ आदित्य के हाथ पर रख दिया.
मेनका ने देखा आदित्य के होंठों की चिर-परिचित मुस्कान का स्थान अब एक उन्मुक्त हंसी ने ले लिया था. दोनों की पलकें गीली थीं.- निर्मला
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