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कहानी: काठ की हांडी

सारे षडयंत्र से अनभिज्ञ सुनीता, जिन्हें हमदर्द समझ रही थी, वही आस्तीन के सांप निकले. "सुनीता, तुम्हारी सहमति के बिना, मैं कुछ नहीं कर सकता. तुम एक प्रार्थना पत्र लिख कर दे दो, बाकी मैं सम्भाल लूंगा."
सुनीता को आज राकेश देवदूत से दिख रहे थे, जो निस्वार्थ भाव से उसकी मदद करना चाहते थे.

सुनीता आज फिर बेचैन थी… रह-रह कर बरसों पहले की कसैली यादें उसके ज़ेहन में नागफनी के कांटों सी चुभ रहीं थी. कितना कुछ था मन में जो घुट रहा था… ऐसा लग रहा था कि गहरे समंदर के भीतर फंस गई हो. हाथ-पैर मारने का कोई लाभ नहीं हो रहा था… अंतहीन पीड़ा, अनंत मानसिक वेदना!
उठ कर फ्रिज से निकाल ठंडे पानी को गटगट करके पी गई, मानो हृदय में उठ रही अग्नि को शांत कर देना चाहती हो… बिस्तर पर लेट सोने का उपक्रम करने लगी. लेकिन नींद! वो तो आंखों से कोसो दूर थी. क्रोध, दुख और क्षोभ के भावों की बारी-बारी से मस्तिष्क में पुनरावृत्ति हो रही थी.

वृत्तचित्र की भांति अट्ठारह साल पुरानी यादें, सामने आने लगी. सुनीता ना चाहते हुए भी उन यादों को दोहराने लगी.
महज़ इक्कीस साल की अल्हड़ उम्र में प्रमोद की दुल्हन बन कर ससुराल की दहलीज़ पर पहला पांव धरा था. चाचा-चाची के आंगन को छोड़, असीम सपनों का संसार कल्पना में सहेजे सुनीता, लजाती, सकुचाती पिया के घर में प्रविष्ट हुई.

प्रमोद सरकारी महकमें में अच्छे पद पर थे. भगवान की कृपा से किसी चीज़ की कमी नहीं थी. प्रमोद की मां का देहावसान हुए, तो अरसा बीत चुका था. ससुराल में बूढ़े ससुर निरंजन और एक ननद कुमुद थी. कुमुद की भी शादी हो चुकी थी और वो ससुराल में ख़ुश थी. प्रमोद का प्यार और सान्निध्य सुनीता को पूर्णता का एहसास कराता था. वक्त के साथ सुनीता दो प्यारे बच्चों की मां बन गई… लगता था कि अब जीवन में कोई कमी नहीं है.
कहते हैं, इंसान को अपने पूर्व कर्मों का फल भोगना ही होता है, शायद इसलिए एक दिन पता चला कि प्रमोद को कैंसर हो गया है. ज़्यादा समय नहीं है. सुनीता को विश्वास नहीं हो रहा था. बेटा चार साल का था और बेटी सिर्फ़ एक साल की… सब कुछ हाथ से रेत की मानिंद फिसलता लग रहा था.

समझ नहीं आ रहा था, बच्चों और पितातुल्य ससुर को कैसे सम्भालेगी. कभी पति को इलाज के लिए ले जाती, तो कभी ससुर को ढांढस बंधाती… इकलौते बेटे को अपने सामने धीरे-धीरे जाते देखने से ज़्यादा कष्टकारी कुछ नहीं हो सकता. निरंजनजी के भाग्य में पुत्र की मौत देखनी नहीं लिखी थी… रात को सोये, तो सुबह उठे ही नहीं.

सुनीता की आख़िरी आस भी टूट गई. पिता की ख़बर सुन कुमुद परिवार सहित विलाप करती आ गई. ना जाने क्यों कुमुद का व्यवहार सुनीता को कुछ अजीब लगा. शायद छठी इंद्री की सक्रियता के कारण.
अब प्रमोद की स्थिति दिन-ब-दिन गिरती जा रही थी. अस्पताल में भर्ती करवा दिया. कुमुद ज़्यादा से ज़्यादा समय ख़ुद प्रमोद के साथ रहती. सुनीता को अस्पताल नहीं जाने देती… पति के अंतिम समय में सुनीता उनके साथ रहना चाहती थी, लेकिन उसकी एक ना चलती.
उस दिन सुनीता घर में अकेली थी, तभी प्रमोद के सहकर्मी और परम मित्र राकेश आए और उन्होनें जो कुछ भी बताया, उसे सुन सुनीता के पैरों तले से ज़मीन निकल गई. बच्चों का भविष्य अंधकारमय दिखने लगा था.
कुमुद के पति विनोद ने प्रमोद के दफ़्तर जा फंड आदि के सब काग़ज़ तैयार करवा, उन पर धोखे से प्रमोद के हस्ताक्षर करवा लिए थे. प्रमोद के बाद अब सारा पैसा कुमुद को मिलने वाला था.
अब विनोद, प्रमोद के बाद आश्रित को मिलनेवाली नौकरी भी कुमुद को दिलवानेवाला था.

सारे षडयंत्र से अनभिज्ञ सुनीता, जिन्हें हमदर्द समझ रही थी, वही आस्तीन के सांप निकले.
"सुनीता, तुम्हारी सहमति के बिना, मैं कुछ नहीं कर सकता. तुम एक प्रार्थना पत्र लिख कर दे दो, बाकी मैं सम्भाल लूंगा."

सुनीता को आज राकेश देवदूत से दिख रहे थे, जो निस्वार्थ भाव से उसकी मदद करना चाहते थे.
राकेश ने प्रार्थना पत्र लगा, कार्यवाही रुकवा दी. कुमुद और विनोद ने घर आकर बहुत हंगामा किया. सुनीता चुपचाप उनके तानों को सुनती सोच रही थी कि क्या सच में पैसे और नौकरी के लिए कोई बहन अपने मासूम भतीजे-भतीजी के मुंह का निवाला छीन सकती है?
"कुमुद, अब इस घर में तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है. अपना सामान समेटो और निकल जाओ यहां से. प्रमोद के जाने के बाद भी कोई नया नाटक रचने यहां मत आना!" शील स्वभाव की सुनीता, नागिन सी फुंकार उठी.
रिश्तों के दो नए रुप एक ही दिन में सुनीता ने देख लिए थे. एक, जिनसे प्रमोद का रक्त संबंध था, दूसरा, जिससे सिर्फ़ मानवता का संबंध था.
प्रमोद की मृत्यु के बाद, जब अपनों ने साथ छोड़ दिया, तब राकेश ने उसके परिवार को सहारा दिया. जैसे श्रीकृष्ण भरी सभा में द्रौपदी की रक्षा को आए थे. ना सिर्फ़ फंड का पैसा दिलवाया, साथ ही सुनीता की सरकारी स्कूल में नौकरी भी लगवा दी.
"आपने मेरे लिए जो किया है, मैं सारी ज़िंदगी आपका एहसान नहीं उतार पाऊंगी."
"सुनीता, आज तक देखा है कि किसी भाई ने बहन पर एहसान किया हो, मेरे सामने तुम्हारा और बच्चों का अधिकार छीना जा रहा था, जो मुझे बर्दाश्त नहीं था. पति का स्थान पैसा नहीं ले सकता, लेकिन बिना धन तुम बच्चों को कैसे पालती."

राकेशजी आज तक भाई होने का कर्तव्य निभा रहे हैं.
उस नौकरी के सहारे सुनीता ने अपने बच्चों को काबिल बनाया. सुनीता ने इस सब के बारे में बच्चों से कभी कोई ज़िक्र नहीं किया था. लेकिन आज, बेटे का हॉस्टल से फोन आया था.
"मां, बुआजी का बेटा मेरा जूनियर है. आज मिली थीं बुआजी! मुझे देख गले लगा लिया."
बेटे के शब्द कानों में पिघले शीशे से उतर रहे थे. शून्य में ताकती सुनीता जड़ हो गई. बस कंपकंपाती आवाज़ में इतना ही कहा, "काठ की हांडी, दुबारा चुल्हे पर नहीं चढ़ती बेटा!"
"मैं कुछ समझा नहीं मां."
"सुबह आ रही हूं, इसका मतलब तुझे और तेरी बुआ दोनों को समझाने." - संयुक्ता
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