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कहानी: धरती बनो

“धरती जैसे सबको अपने हृदय में प्रेम से समेटकर चलती है, वैसे ही तुम भी चलो. स्त्री धरती होती है और परिवार उसकी संतान. तो रश्मि भी तुम्हारी संतान है. धरती किसी संतान की उपेक्षा नहीं करती, उसे बेसहारा नहीं छोडती, तो तुम रश्मि की अवहेलना कैसे कर सकती हो. इसलिए कह रही हूं धरती बनो, धरती.” मांजी उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोली.

“भाभी कुछ करिए में आपके हाथ जोडती हूं. हर्षद की हालत बहुत ख़राब है. मैं बिल्कुल हांर चुकी हूं. बच्चे घर पर अकेले हैं और मैं अस्पताल में. समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं.. घर पर बच्चों को देखूं की अस्पताल में हर्षद को.“ फोन पर रश्मि का बिलखता हुआ स्वर सुनकर मनोनीता एकबारगी पिघल गई, लेकिन तुरंत ही उसने अपने आपको संभाला. पुरानी कडवी यादें, एक-एक करके नश्तर की तरह घावों को कुरेदने लग गईं. मनोनीता ने सब बातों को सिर से झटककर कहा, "तुम्हारे देवर-ननद कहां है रश्मि? अभी तो उन्हें तुम्हारा साथ देने के लिए तत्पर होना चाहिए.” कहने को तो कह गई वह, लेकिन उसके अपने ही स्वर की कडवाहट ख़ुद के कानों में कहीं चुभ गई.

“मैं जानती हूं कि आप मुझसे बहुत ज़्यादा नाराज़ हैं. आपका ग़ुस्सा वाजिब है भाभी. मैंने काम ही ऐसा किया है जिसकी माफ़ी नहीं मिल सकती. लेकिन फिर भी इंसानियत की खातिर मुझे एक बार माफ़ कर दीजिए और मुझे सहारा दे दीजिए भाभी.“ उधर से रश्मि विह्वल स्वर में गिड़गिड़ाई. “मैं ज़िंदगीभर आपकी एहसानमंद रहूंगी.“
“ठीक है शाम को रवि के आने पर हम लोग आते हैं.“ आगे किसी भी तरह की बातचीत की गुंजाइश पर पूर्णविराम लगाते हुए मनोनीता ने फोन डिस्कनेक्ट कर दिया.
सिर बहुत भारी हो गया था. वह किचन में जाकर चाय बना लाई और सोफे पर बैठ गई. बाहर अत्यधिक उमस थी. भर दोपहर में ही बदली छाई थी. हवा बिल्कुल बंद थी. पेड़ों के पत्ते चित्रों की भांति स्थिर थे. उसने उठकर पंखा चला दिया.
चाय के कप से उठती भाप के साथ अतीत के गर्भ से यादों के रेशे उठकर उसे चारों ओर से लपेटने लगे. सोलह साल हो गए मनोनीता को शादी होकर इस परिवार में आए. तब रश्मि, उसकी ननद, रवि की छोटी बहन कॉलेज के पहले वर्ष में ही पढ़ रही थी. मनोनीता ने सदा उसे रवि की नहीं, वरन अपनी छोटी बहन समझा और वैसा ही स्नेह, प्यार दिया. लेकिन स्नेह का प्रत्युत्तर हमेशा ही सिर्फ़ स्नेह नहीं होता, कभी-कभी विपरीत भी होता है. बहुत जल्दी ही मनोनीता को रश्मि के व्यवहार से यह बात समझ में आ गई थी. उसने चुपचाप अपने स्नेह के धागों को एक-एक कर समेट लिया और बस अपना कर्तव्य अपने घर-परिवार के प्रति पूरी निष्ठा से निभाती रही.

मनोनीता अपनी दाम्पत्य राह पर शांति से चल रही थी. मगर रश्मि को वो भी मंज़ूर नहीं था. वह बेवजह आकर उसकी राह में कांटें बिछाती रहती. घर में रश्मि, सास, ससुर ने मिलकर मनोनीता के ख़िलाफ़ एक खेमा तैयार कर लिया था. जिसकी कर्ता-धर्ता रश्मि ही थी. वही जब-तब सास-ससुर को मनोनीता के ख़िलाफ़ भड़काती रहती.
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो ख़ुद तो अपनी सीधी राह चलते नहीं हैं और दूसरे को भी नहीं चलने देते. छह बरस बाद जब रश्मि की शादी हो गई, तब मनोनीता को थोड़ा चैन मिला, नहीं तो हर दिन नया नाटक होता रहता था घर में. इस बीच मोनोनीता दो बच्चों की मां बन चुकी थी, तो वह अपने कर्तव्य निभाकर, अपना ध्यान अपने बच्चों में लगाए रखती.
विवाह के बाद भी तो रश्मि ने उसे कभी पूरी तरह चैन नहीं लेने दिया. कभी भी आ धमकती और कलह के बीज बोकर चली जाती. मनोनीता का मन बहुत खट्टा हो गया था, लेकिन फिर भी चुपचाप घर की इज़्ज़त को ढंकने के लिए सब सहती रहती.
हद तो तब हो गई, जब रश्मि ने अपनी ननद और देवर के कहने में आकर घर, जेवर और बैंक में जमा ससुरजी का सारा रुपया हथिया लिया. मनोनीता को अपने पति-बच्चों और सास-ससुर के साथ किराए के मकान में जाना पड़ गया.
रश्मि के देवर और ननद के पति के लक्षण अच्छे नहीं थे. बुरी सोहबत में उठाना-बैठना था. अपने परिवार के हित को ध्यान में रखते हुए उसने सारा पैसा, जेवर, घर सब देना मंज़ूर कर लिया. वैसे भी उसे रवि की कमाई में ही संतोष था. सास-ससुर के पैसे और घर में उसकी रत्ती भर भी दिलचस्पी नहीं थी.
आठ बरस पहले जब उसके सास-ससुर का देहांत हो गया, तब उसने रश्मि से अपने सारे रिश्ते और संपर्क तोड़ लिए. अब वह अपने पति-बच्चों के साथ ख़ुश रहना चाहती थी बस. इतने साल सुख से निकल गए, मगर आज रश्मि के फोन ने पुराने घाव फिर हरे कर दिए.
बच्चे स्कूल से लौटे, तब उसका ध्यान रश्मि से हटा. बच्चों को खाना खिलाकर वह पास ही रहनेवाली शैलजाजी के यहां चली गई. शैलजाजी की मां बहुत ही परिपक्व व् परिष्कृत सोच रखनेवाली महिला थी. मनोनीता का मन जब भी भारी होता, वह उनसे मिलने चली जाती. उनके पास थोड़ी ही देर बैठकर बातें करने पर मन हल्का हो जाता. सारा तनाव छूमंतर हो जाता.

वे कठिन समस्याओं के भी इतने सहज हल सुझातीं कि परेशानियां चुटकियों में हल हो जाती. आज भी उसका मन विचलित था. वर्तमान की रश्मि का विव्हल स्वर सुनकर उसके संस्कार और मन उसे रश्मि की मदद करने को कह रहे थे, तो वहीं अतीत की रश्मि को याद करके उसका दिमाग़ उसे रश्मि से कोई सरोकार न रखने की चेतावनी दे रहा था. दिलो-दिमाग़ की इसी जंग से परेशान होकर वह मांजी से मिलने चली गई. अब मांजी ही उसे भावनाओं के भंवर से बाहर निकाल सकती हैं.
मांजी उसे देखते ही बहुत ख़ुश हो गईं. बड़े प्यार से उन्होंने उसे बिठाया. उनका स्नेह पाते ही उसकी आंखें भीग गईं. उसने सारी बातें मांजी को कह सुनाई और अपने दिलोदिमाग़ की लड़ाई भी. मांजी धेर्य से सारी बातें सुनती रहीं. जब मनोनीता की बात पूरी हो गई, तो बड़े परिपक्व ढंग से उन्होंने उसे समझाना शुरू किया.
"धरती अपने सीने पर सबका बोझ सहती है. हर अत्याचार सहती है, लेकिन फिर भी किसी को दुत्कारती नहीं है. चींटी से लेकर हाथी तक सब जीवों को आश्रय देती है, पोषण देती है. आज तक पापी से घोर पापी मनुष्य तक को धरती ने कभी ये नहीं कहा कि मुझसे दूर हो जाओ, मैं तुम्हारा बोझ नहीं सह सकती.
इतनी विशाल हृदया है धरती. इतनी महत्तम है. उसका महत्व ऐसा है कि कोई भी जीव धरती के बिना अपने अस्तित्व की कल्पना ही नहीं कर सकता. धरती बनो धरती.”
“मगर कैसे रश्मि ने मुझे इतना अधिक परेशान किया है. इतना मानसिक संत्रास दिया है कि मेरा मन  तैयार ही नहीं हो रहा है अस्पताल जाकर उसे सहारा देने का.” मनोनीता उहापोह भरे स्वर में बोली.
“धरती जैसे सबको अपने हृदय में प्रेम से समेटकर चलती है, वैसे ही तुम भी चलो. स्त्री धरती होती है और परिवार उसकी संतान. तो रश्मि भी तुम्हारी संतान है. धरती किसी संतान की उपेक्षा नहीं करती, उसे बेसहारा नहीं छोडती, तो तुम रश्मि की अवहेलना कैसे कर सकती हो. इसलिए कह रही हूं धरती बनो, धरती.” मांजी उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोली.
मनोनीता उन्हें प्रणाम करके घर आ गई. बदली छट चुकी थी. धीमी-धीमी हवा चल रही थी. घर आकर उसने रवि को फोन लगाया और सारी बातों की जानकारी देकर जल्दी घर आने को कहा.

रवि घर आ गए, तो मनोनीता ने दोनों बच्चों को सब कुछ समझाया और रवि के साथ अस्पताल चली गई. रश्मि उन्हें देखते ही फूट-फूटकर रोने लगी और बार-बार अपने किए कि माफ़ी मांगती रही. मनोनीता ने उसे तसल्ली दी. हर्षद का एक्सीडेंट हुआ था. सिर और पीठ में गंभीर चोटें आई थी. रवि तुरंत जाकर डॉक्टरों से बात करके ऑपरेशन की सारी औपचारिकताएं पूरी करके पैसा जमा कर आया. हर्षद का व्यवस्थित इलाज शुरू हो गया.

रश्मि ने बताया कि उसके ननद-देवर ने पैसे की खातिर उसे भड़काया और वो उनकी बातों में आकर अंधी हो गई थी. अपना भला-बुरा कुछ सोच नहीं पाई. लेकिन ननद-देवर ने तभी कई साल पहले ही रश्मि की सारी जमापूंजी हड़प ली और उससे नाता तोड़ लिया. इस संसार में अब उनका कोई नहीं है. उसने मनोनीता के साथ जो भी बुरा किया भगवान ने उसकी सज़ा उसे दे दी. रश्मि की आंखों से पश्चाताप के आंसू बह रहे थे. स्वर में सच्चाई झलक रही थी.
मनोनीता ने उसे आश्वासन दिया कि वह चिंता न करे अब वह आ गई है, सब संभल लेगी. बच्चों को अपने घर ले जाएगी. रश्मि ने झुककर उसके पैर छू लिए और अपने बड़े भाई से माफ़ी मांगी. रवि ने स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरा. मनोनीता प्यार से मुस्कुरा दी.
धरती बनकर कितना सुकून, कितना हल्कापन लगता है. मन से सारे राग, द्वेष, बुराई, संताप, दुख दूर हो गए. ये सारे बोझ अगर कंधे पर लदे रहते, तो जीवन कितना मुश्किल हो जाता. धरती होने में कितना बड़प्पन और सुख है. मन, जीवन, और परिवार धरती सा हरियाला और ख़ुशहाल हो गया.-विनीता
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