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कहानी: तुम्हें कुछ नहीं पता

सपना घर के सामनेवाले पार्क में एक बेंच पर जा बैठी. चेहरे से ही पता लग रहा था कि किसी बात से बहुत परेशान है. धीरे से आंखों की कोर से पानी पोंछा.
"क्या हुआ सपना?"
"कुछ नहीं!"
"मुझे भी नहीं बताओगी?"
"मेरे बेटे ने आज फिर मुझसे कहा, आपको कुछ नहीं पता मां!"
"हां, मेरे साथ भी अक्सर ऐसा होता है."
"दिल दुखाते हैं ये शब्द. इतने प्यार से पाल-पोस कर बड़ा किया है. पता नहीं कहां चूक रह गई मेरी परवरिश में जो मेरा बेटा मुझे ही कुछ नहीं समझता. अभी तो 15 साल का है तब ये हाल है, बड़ा होने पर तो…"
"तेरे बेटे की ज़्यादा गलती भी नहीं है सपना, अपने बाप से ही तो सीख रहा है, मेरा बेटा मयंक भी ऐसा ही था बचपन में. ऐसे ही अपना रौब दिखाता था मुझे. काश! मैंने तभी कोई ठोस कदम उठाया होता."
"शार्प माइंड है. अपनी उम्र के बच्चों से कहीं ज़्यादा जानकार है, लेकिन मेरे लिए तो मेरा बेटा ही है ना! उसके शब्द मेरी ममता और आत्मसम्मान दोनों को घायल कर देते हैं. मैं चाहती तो कहीं नौकरी कर अपने पति की तरह अच्छी पोस्ट पर होती, लेकिन मैंने आरव की परवरिश को ज़्यादा जरूरी समझा और आज वही आरव मुझे कुछ नहीं समझता."

सविता, सपना की बात सुन एक पल को ख़ामोश हो गई. फिर मज़बूती से सपना का हाथ पकड़ उठ खड़ी हुई.
"चल बहू, इन बाप-बेटे की अक्ल ठीक करने का समय आ गया है."
अगली सुबह संडे था. सारा परिवार एक साथ नाश्ता करने बैठा. मयंक अपने फोन में कुछ देख रहा था.
"मयंक पहले नाश्ता कर लें फिर मोबाइल में देख लेना."
"अर्जेंट काम है, नाश्ता रुक कर करुंगा."
"लेकिन बेटा…"
"ओफ़्हो! तुम्हें कुछ नहीं पता मां."
बिना सविता की ओर देखे मयंक ने जवाब दिया और अपने काम में लगा रहा. सविता ने सपना की ओर गहरी नज़रों से देखा. दोनों का दुख एक ही था कि उनके योग्य बच्चे अपनी मां के अस्तित्व को इग्नोर कर रहे थे.
नाश्ता कर जैसे ही सब उठने लगे, सविता ने कहा, "मयंक बेटा, मुझे कुछ दिन के लिए तेरी मौसी के घर जाना है."
"मौसी के यहां अचानक! मां सब ठीक तो है ना?"
"कल तेरी मौसी के पैर की हड्डी टूट गई. जानता ही है उसके बच्चे विदेश में सेटल हैं. यहां उसकी देखभाल करनेवाला कोई नहीं है, इसलिए उसने फोन करके मुझे बुलाया है."
"ओह! ऐसी बात है तो तुम जाओ मां, उन्हें तुम्हारी ज़रुरत है. मैं ड्राइवर को कह दूंगा तुम्हें छोड़ आए."
"चल सपना, बैग लगा ले!"
"सपना!.. सपना क्यों?
"हां दादी, मम्मा क्या करेंगी वहां?"

"मुझसे अकेले कहां सम्भलेगा सब, सपना होगी तो मदद हो जाएगी. वैसे भी तुम बाप-बेटे समझदार और काबिल हो, तुम्हें हमारी क्या ज़रूरत है."
आरव और मयंक दोनों एक-दूसरे को देख रहे थे.
"संभाल तो लोगे ना, तुम दोनो?"
"हां… हहह… दादी!"आरव हकलाते हुए बोला.
सास-बहू, मौसी के घर पहुंची, जो बिल्कुल ठीक थीं.  तीनों ख़ूब गप्पे मारती, ठहाके लगाती और रोज़ कुछ नया पकवान बना, छुट्टियों का आनंद ले रही थीं.
"जीजी देखना, इस बार आपका तीर निशाने पर लगेगा."
"हां मौसी लगता तो ऐसा ही है."
उधर बाप-बेटों का बुरा हाल था. घर में काम करने के लिए नौकर तो थे, लेकिन मां नहीं थी.
"सुनो मां! कब आओगी? मन नहीं लग रहा."
"क्या हुआ आरव, सब ठीक तो है ना?"
बेटे की आवाज से उसकी तकलीफ़ भांप सपना परेशान हो गई.
"हां मम्मा सब ठीक है, लेकिन…"
"लेकिन क्या?"
"मम्मा आपके बिना कुछ भी मैनेज नहीं हो पा रहा. घर में नौकर तो हैं, लेकिन उन्हे ये नहीं पता कि मुझे कब क्या चाहिए? आपको पता होता है कि कब मुझे उठना है,‌ कब पढ़ते हुए काफ़ी पीनी है. आप मेरे नोट्स कब बना कर रख देती थीं, पता ही नहीं चलता था. मैं क्लास टॉपर हूं, क्योंकि आप मुझे पढ़ाती हो, मेरा ख़्याल रखती हो. याद है जब पिछले साल मैथ में नंबर कम आए थे… आपने ही मुझे सिखाया था, हार को स्वीकार करना. मेरा कोई प्रोजेक्ट आपके बिना पूरा ही नहीं हुआ. एक बात और कहना चाहता हूं…"
"बोल बेटा!"
"मैं आपको कह देता हूं ना कि आपको कुछ नहीं पता… सॉरी मम्मा! आपको ही सब पता है, क्योंकि आप मेरी मां हो."

सपना आंसू पोंछती हुई कमरे से निकली.
"मेरे बेटे का फोन आया था."
"मेरे बेटे का भी!" - संयुक्ता त्यागी
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