कहानी: तुम बिन अधूरा हूं मैं
धूप का एक टुकड़ा पर्दों पर अठखेलियां करता हुआ आंगन में उतर आया था. खिड़की के शीशे से पार होती धूप सतरंगी आभा बिखेर रही थीं. उस आभा से मेज़ पर रखे काग़ज़ात रंगीले हो चमकने लगे थे. बड़े ही सुरुचिपूर्ण ढ़ंग से सजी टेबल थी. आलोक पिछले दस मिनट से मेज़ को निहार रहा था. फिर वह दराज़ों को एक-एक कर खोलने लगा. हार कर कुछ देर बैठ गया. फिर बमुश्किल अपने शब्दों को संभालते हुए बोला, "संजना, कल यहां कुछ काग़ज़ात रखे थे. केस के लिए कितने अहम थे. कहां गए?"
दूसरी तरफ़ से कोई आवाज़ नहीं आई. एक लंबी चुप्पी.
"संजना… संजना…"
फिर कोई आवाज़ नहीं. वह हार कर पास लगे दीवान पर बैठ गया.
"अरे, आप यहां बैठे हैं. मैं पूरे घर में देख आई. यह लीजिए प्रसाद."
संजना का यह लापरवाह लहजा और अति उत्साह ही था, जिस पर आलोक कभी फ़िदा था पर अब… अब सब कुछ बदल चुका था. वह आलोक की पत्नी बन चुकी थी, तो गृहस्थ जीवन में लापरवाही के लिए जगह नहीं होती. और उत्साह तो फीके रंगों सा साल-दो साल में ही उड़ चुका होता है.
"संजना, मेरे कुछ ज़रूरी काग़ज़ात रखे थे मेज़ पर. कहां हैं? कब से ढ़ूंढ़ रहा हूं. कितनी बार कहा है मेरे टेबल के चीज़ों को ना छुआ करो."
"यहीं तो रखे हैं." दराज़ खोलते हुए संजना ने कहा और डायरी के नीचे से काग़ज़ों का पुलिंदा निकाल कर आलोक के सामने रख दिया.
मज़ाकिया लहज़े में संजना आलोक को निहार रही थी, तभी आलोक लगभग चिल्लाते हुए बोला, "बस करो संजना. जब एक बार कह दिया इस मेज़ को नहीं छुना है, तो मतलब नहीं छुना है."
गरज़ती हुई आवाज़ से घबरा सी गई संजना. मुंह पर तो जैसे ताला लग गया. पर अपमान के आवेग से वह तिलमिला गई और ग़ुस्से में पैर पटकती हुई वहां से चली गई.
आलोक और संजना की शादी को पांच साल हो चुके थे. दोनों के परिवारवालों ने ही रिश्ता तय किया था, पर सगाई से शादी के बीच के एक साल के समय में दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह समझने भी लगे थे और चाहने भी. शादी के बाद ज़िंदगी अपनी लय में चल रही थी. खट्टी-मीठी तकरार, मनुहार में समय अच्छा गुज़र रहा था. बच्चे अभी नहीं थे, क्योंकि दोनों ही शादी के कुछ सालों तक बच्चा नहीं चाहते थे. लेकिन पांच साल गुज़रते दोनों मन बना चुके थे कि घर में एक नन्हे मेहमान का आगमन होना चाहिए.
सुबह की घटना से संजना सहम सी गई थी. यूं तो रोज़ ही कुछ न कुछ खटपट लगी रहती थी, पर संजना उसे नज़रअंदाज़ कर देती थी. पर कुछ दिनों से दोनों के बीच की नोंक-झोंक कलह का रूप लेने लगी थी. कभी आलोक आवेग में रहता, तो कभी संजना. अब से उसने आलोक की स्टडी में जाना ही बंद कर दिया.
दिन-ब-दिन दोनों के रिश्तों में खिंचाव बढ़ने लगा था. कभी संजना खीज उठती, तो कभी आलोक. इस कदर बढ़ते झगड़ों ने उनके माता-पिता बनने की उम्मीद पर भी पानी फेर दिया.
बात ज़्यादा बड़ी नहीं थी, पर दोनों का अहम झुकना नहीं चाह रहा था. रिश्तों में जब प्यार और समर्पण की जगह अहम ले लेता है, तो दरार आने की संभावना बढ़ जाती है. और अगर टकराव दोनों ही ओर से पूरे वेग से हो, तो स्थिति के भयावह होने में समय नहीं लगता.
एक हफ़्ते बाद ही करवा चौथ था, पर संजना का मन खिन्न था. कुछ तैयारी का मन ही नहीं करता था. ऊपर से तबियत भी नासाज लग रही थी उसे. लेकिन आज बाज़ार से सामान लाने जाना ज़रूरी था. आलोक से वह मदद नहीं लेना चाहती थी, इसलिए स्कूटी पर जाने का निर्णय लिया, पर स्कूटी में पेट्रोल ख़त्म था. वह थक कर वही बैठ गई. आलोक ने उसे परेशान देखा, तो वह बाहर आया और परेशानी का कारण पूछा.
स्कूटी को देखते हुए आलोक बोला, "कहीं जाना है, चलो मैं ले चलता हूं. मुझे भी बाहर काम है."
संजना ने कुछ जवाब नहीं दिया.
"तुम बैठो मैं तैयार होकर आता हूं."
संजना आलोक की स्टडी में बैठ गई. कुछ देर तो वह चुपचाप बैठी रही लेकिन चारों ओर फैले काग़ज़ और किताबों को देखकर उसके हाथ मचलने लगे. और आख़िरकार पूरी टेबल व्यवस्थित करने पर ही रुके. आलोक के कदमों की आहट सुन वह बाहर आ गई. आलोक ने संजना के लिए कार का दरवाज़ा खोला, तो संजना का मन जाने कैसा पानी-पानी सा हो आया. आज बहुत दिनों बाद दोनों एक साथ बैठे थे, बाहर जाने के बहाने ही सही. दोनों चुप थे.
दिल दी यां ग्ला करांगे नाल बैठ के… गाने के बोल सुन दोनों की नज़रें टकराई. मन में कुछ पिघला, पर अहम, उसका क्या.. दोनों ही ढीठ, नज़रें फेर ली. बाज़ार की सैर कर दोनों लौट आए.
शाम हो चली थी, तो संजना किचन में खाना बनाने लगी और आलोक बालकनी में टहलने लगा. मन न जाने क्यूं उचाट सा था. संजना से बात करनी चाही, तो देखा वह व्यस्त है. थक कर वह स्टडी में चला आया. वह मेज़ पर रखी किताब को खोल कर बैठा ही था कि एक सूखा हुआ गुलाब किताब की परतों से सरक कर नीचे आ गिरा. गुलाब को देखकर उसके दिल में एक हूक सी उठी. यह गुलाब संजना ने पहली बार अपने प्यार का इज़हार करते वक़्त आलोक को दिया था. गुलाब को उठाते हुए वह बिखर गया. आलोक का कलेजा धक से रह गया. न जाने कितने बुरे ख़्याल दिमाग़ में आने-जाने लगे. वह दौड़ कर संजना के पास गया. कुछ था जो वो अभी इसी पल कह देना चाहता था.
वहां पहुंच कर उसने देखा संजना हाथ में वह साड़ी पकड़े खड़ी है, जो आलोक चुपचाप उसके बेड पर रख आया था.
"सुनो संजना, तुम्हारी चुप्पी बर्दाश्त नहीं होती. ग़ुस्सा हो तो लड़-झगड़ लो यार. तुम्हें पूरा हक़ है. तुम चाहो तो मेरा सारा घर अस्त-व्यस्त कर दो, मैं कुछ नहीं कहूंगा, पर कुछ कहो…"
"आलोक, ग़ुस्सा नहीं हूं, नाराज़ हूं. मनाओ तो सही. थोड़ा और नखरे कर लेने दो. ऐसी दस-बारह साड़ियां और मिल जाए सरप्राइज़ में फिर मान जाऊंगी." शरारती लहजे में कही हुई बात अपने अंत तक आते-आते रूआंसी हो गई थी. आ़सुओं की दो बूंदे ढुलक कर उसके सुर्ख़ गालों पर जम गई थीं.
"चुप हूं, पर यूं चुप रहकर भी ख़ुद को ही तो सज़ा दे रही हूं. पता तो है तुम्हें भी कि चुप कहां रह पाती हूं मैं."
संजना के भोलेपन पर आलोक को हंसी आ गई. उसने संजना को अपनी बांहों में भर लिया, "तुम बिन अधूरा हूं मैं… तुम बात नहीं करती, झगड़े नहीं करती, तो अधूरापन सा लगता है." आलोक हंसने लगा. संजना ने ग़ुस्से से भरी एक धौल आलोक के कमर पर दे मारी. दोनों खिलखिलाकर हंस पड़े.
बहुत दिनों से शांत पड़े घर में जैसे प्रेम की बौछारें बरस पड़ी थीं. माहौल ख़ुशनुमा, मन ख़ुशनुमा, जीवन में संपूर्णता… और क्या चाहिए जीने के लिए.- अनामिका