कहानी: दूसरी औरत
उनकी शादी क्या हुई, मानो पास-पड़ोस के लोगों को शग़ल का एक और विषय मिल गया. एक ने कहा, "देखा, भाभी की डेथ हुए चार महीने भी नहीं हुए होंगे कि श्रीमान ने ब्याह रचा लिया."
किसी ने रिमार्क किया, "शादी करने में इनकी जल्दी देखकर लगता है, जैसे जनाब इंतज़ार ही कर रहे थे कि पहले वाली कब लुढ़के और ये दूसरी ले आएं."
एक बुज़ुर्ग ने मानो अन्दर की बात खोलते हुए कहा, "अरे भइया, पहलेवाली तो इनसे वैसे भी तंग आ चुकी थी. रोज़ देर गए रात में घर लौटना. न घर-द्वार का ख़्याल, न कोई ज़िम्मेदारी. वह बेचारी तो घर की चक्की में ही पिसकर ख़त्म हो गई."
एक ने बात बढ़ाई, "बस इन्होंने तो बीवी को बच्चा पैदा करने की मशीन समझ रखा था. देखा नहीं, पांच बरस में उसे तीन बच्चों की अम्मा बना दिया. कहते हैं, जब मरी, उस समय भी वह पेट से थी."
जितने मुंह उतनी बातें. राधाकिशन बाबू और मालती के जोड़े पर हर एक का अपन टेढ़ा नज़रिया था. कनछेदी भाई कहने लगे, "अरे, जिसे राधाकिशन ब्याह कर लाए हैं, वह कौन सी सती साध्वी है? ससुरी हमारे ही गांव की तो है. उसके लच्छन भला कौन नहीं जानता. अच्छा हुआ, जो भाग्य से राधाकिशन की तरह दूसरी बार घोड़ी चढ़ने वाला दूल्हा इसे मिल गया."
रामसजीवन बोले, "भइया, अपन को तो ख़तरा ही लगता है. अब तुम्ही सोचो, पहली से राधाकिशन के तीन बच्चे हैं. अगर यही रफ़्तार इन्होंने जारी रखी, तो प्यारे भाई, बुढ़ापे के पहले ही इनकी कमर टेढ़ी हो जाएगी."
माखनलाल ने अपनी आशंका प्रकट की कहने लगे, "हमें तो डर लगता है कि इस सौतेली महतारी की इन मासूम बच्चों के साथ किस तरह पटरी बैठेगी."
लोगों की इन टेढ़ी-मेढ़ी बातों का राधाकिशन और मालती पर कितना असर होता था. यह आकना तो कठिन था, किन्तु यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि इन दिनों राधाकिशन में काफ़ी बदलाव आ गया था. अब वह दफ़्तर से सीधे घर आ जाया करता था. पहले की तरह उसने बात-बात पर बच्चों को झिडकना बन्द कर दिया था, बल्कि इसके उल्टे, दफ़्तर से लौटते वक़्त, शाम को वह उनके लिए कुछ न कुछ खाने-पीने की चीज़ें साथ ले आता.
बच्चों के लिए हर शाम, कुछ न कुछ लाने का कार्यक्रम जब लम्बी अवधि पकडने लगा, तो मालती से न रहा गया. एक दिन उसने कह ही दिया, "मैं तो कहूं, बाज़ार से यह सब रोज़ लाने की बजाय, तुम मुझसे बता दिया करो कि क्या खाना है… मैं ख़ुद बना दिया करूंगी. अब तुम ही कहो, आज जो तुम लाए हो, वह पाव भर बर्फी दस रुपए की तो होगी ही और मैं कहूं, इसी दस रुपए में घर में कोई ऐसा पकवान बन सकता था, जिसे पूरा घर भरपेट खाता."
राधाकिशन सोचते थे, मालती गांव की लड़की है. उसे शहर की बर्फी-मलाई की चाह होगी. आज उन्होंने उसका जवाब सुना, तो तबीयत झक रह गई. राधाकिशन ने मुस्कुराकर कहा, "तुम ठीक कहती हो. कल रविवार है, सुबह के नाश्ते में हलुआ हो जाए. बहुत दिनों से बच्चों ने भी नहीं खाया है… सो हम सब कल डटकर चखेंगे."
हलुए की बात सुनकर बच्चों की जीभ में पानी आ गया. टिन्कू बोला, "नई मम्मी से हमारी मम्मी जैसा हलुआ भला कैसे बनेगा."
मालती ने नटखट टिन्कू को अपने पास खींचते हुए कहा, "बेटे, नई मम्मी, पुरानी मम्मी सभी एक जैसा हलुआ बनाती है. घी, शक्कर और सूजी मिलाओ… बस, टिंकू का हलुआ तैयार… है ना!"
मालती ने आकर इस घर को कुछ इस तरह संभाला था कि बच्चों को उसने यह महसूस ही नहीं होने दिया कि उनके ऊपर से कभी मातृत्व का साया उठा था. मालती, मां की पूरी ममता उन पर उड़ेल देती. बच्चों की देखभाल, घर का सारा कामकाज और उसके राधाकिशन की ज़रूरतों का ध्यान रखते हुए वह सीमित आमदनी में गृहस्थी चला रही थी. उसने घर को कुछ इस तरह संभाला था कि ऐसा लगता ही न था कि इस घर में सालभर पहले कोई तूफ़ान गुज़रा था.
इन सबके बावजूद भी पास-पड़ोस के लोगों की नज़र में वह मां नहीं थी. वह सौतेली मां थी. दबी ज़ुबान से स्त्रियां कहा करतीं, "यह सब तो चार दिन के चोंचले हैं. अभी सौत के बच्चों को बेटा-बेटा करती है, ख़ुद का एकाध पैदा हो जाने दो, फिर देखना. यह माया-ममता दूर हो जाएगी तुम देखना इन्हें पूछेगी भी नहीं."
मालती इन बातों को सुनकर टाल देती. आख़िर किस-किस का मुंह बंद करती. और फिर समय इसी तरह कटता रहा. दिन से हफ़्ते, हफ़्तों से महीने और महीने बढ़ते-बढ़ते साल पर उतर गए. मालती की दिनचर्या बिना किसी बदलाव के वैसी ही चलती रही थी.
बस एक ही बात, जो अब लोगों को खटकती थी, वह यह थी कि इन दस बरसों के बाद भी उसकी गोद हरी नहीं हो पाई थी.
जब वह आई थी, तब भी लोगों के ताने-बाने थे… जब वह राधाकिशन और बच्चों के साथ गृहस्थी में घुल-मिल गई, तो सुनने को मिला कि इसका व्यवहार एक दिखावा है. जब इसके बच्चे होंगे, तब यह इन बच्चों की दुर्दशा कर देगी और अब जब उसके बच्चे नहीं हुए तो भी लोगों ने उसे नहीं बख्शा.
उस दिन चमेली मौसी कहने लगीं कि राधाकिशन के भाग्य में यह जनमजली बांझ ही लिखी थी. बात तो उन्होंने बड़ी दबी ज़ुबान में कही थी, पर वह मालती के कान तक पहुंच गई. उसने सुना तो न जाने कैसे, आंखों के कोर से दो बड़ी बूंदे टपक गई.
किसी औरत की गीली आंखों में छलक आई इबारत को पढ़ना कोई सहज बात नहीं है. जिस विकसित मातृत्व की छांव में तीन-तीन बच्चे पल रहे हों, उसी को बांझ कहना कितना उचित होगा? क्या बांझ की परिभाषा, किसी स्त्री द्वारा प्रसव वेदना सहकर संतान उत्पति करने भर से जुड़ी है? मालती, जिसने अपने मातृत्व को इन बच्चों के साथ पूरे तौर पर जोड़ लिया है, उसे बांझ कहना कहीं मातृत्व का अपमान तो नहीं हो जाएगा? पर कतरनी सी ज़ुबान चलानेवाली चमेली मौसी जैसी स्त्रियों के पास इतना सब सोचने का समय कहां है.
फिर एक बात और भी तो है बांझ तो उसे कहा जाता है, जिसमें प्रजनन क्षमता ही न हो. जहां तक मालती का प्रश्न है. उसने तो सोच-समझकर बांझपन ओढ़ रखा था, उसे लगा था कि इन बच्चों की परवरिश में कोई कमी न रहे. वे बच्चे, जिनकी मां बनने का दायित्व इस घर की दहलीज़ में कदम रखते ही उसे मिला था. कोई यह न कह सके कि ख़ुद के बच्चे हो जाने के बाद मालती ने सौत के उन बच्चों को तिरस्कृत करना शुरू कर दिया, जिन पर कभी वह जान छिड़का करती थी.
इसी उहापोह में एक दिन उसने मन ही मन निश्चिय कर लिया कि अपनी कोई संतान नहीं होने देगी.
पिछली बार जब वह अपनी मां को देखने मायके गई, तो वहां कुछ ज़्यादा ही रुक गई. उस बार लौटने पर राधाकिशन मालती पर बहुत बिगड़े थे. कहने लगे, तुम्हें मायके पहुंचकर यहां का ख़्याल ही नहीं रहता. तुम इन बच्चों को भी भूल जाती हो."
और अपनी नम हो आ रही आंखों को छिपाते हुए मालती ने सकुचाते हुए बताया, "इस बार बच्चों की ख़ातिर ही देर हो गई. तुम भरोसा रखो जी. अब मैं सारा जीवन बच्चों की ज़िम्मेदारी अच्छी तरह निभा सकूंगी." भावावेश में वह कह गई, "अब मैं चमेली मौसी की बांझ नहीं हूं, बल्कि अपने पूरे तीन बच्चों की मां हूं."
राधाकिशन मालती को एकटक देखे जा रहे थे. उन्हे लगा, जैसे मालती उनकी दूसरी औरत नहीं है, बल्कि वह पहली पत्नी शोभा का ही प्रतिरूप है. वे केवल इतना ही कह पाए, "भला ऐसी क्या जल्दी थी… कम से कम ऑपरेशन करवाने के पहले एक बार मुझसे तो पूछ लेती."- विजयकृष्ण