कहानी: पिताजी
रवि ऑफिस से आते ही सीधे कमरे की तरफ़ चला गया. बैठक में बैठे पिता, जिनकी आंखें उसके आने के समय बाहर टिक जाती थीं, उसके आते ही निश्चिंत हो कमरे में चले जाते. ये उनका रोज़ का नियम है. आज ही नहीं उसके बचपन से.
5…10…15 मिनट ऊपर होते ही उनकी बेचैनी शब्दों में निकलने लगती.
"बहू, रवि आया क्यों नहीं? आज तो रोज़ से भी ज़्यादा देर कर दी. अरे, इतनी देर तो वो कभी नहीं करता. सोनू… पापा को फोन कर क्या बात है?"
इन सब का जवाब एक ही होता…
"आ जाएंगे! कभी काम में देर हो जाती है, कभी ट्रैफिक…"
और जब उनकी आवाज़ ज़्यादा सुर पकड़ लेती, तो खीज निकलती… "रोज़-रोज़ की यही परेशानी. बच्चे थोड़ी ना हैं. परेशान करके रख देते हैं."
और पिताजी अपनी बातों को उनके बेफ़िज़ूल के जवाब के आगे दबता देख, बाहर की हर आवाज़ पर दरवाजे़ तक पहुंच जाते. उम्र अधिक है इसलिए चाल थोड़ी धीमी पड़़ गई है.
कैसे समझाएंं… रवि के लिए ये बेचैनी आज की थोड़ी है. बचपन से उसको लेकर उनका यही प्रेम है. उसके इंतज़ार की सीमा उनके बर्दाश्त के बाहर हो जाती है
आज भी रोज़ की तरह दरवाज़ा खोलते ही वही वाक्य दोहराया, "इतनी देर कर दी? सब ठीक..? फोन कर दिया करो…"
और हमेशा की तरह थका-हारा रवि, "पिताजी, चिंता मत किया करो. सब परेशान हो जाते हैं." और मुस्कुराकर अंदर चल देता.
यह परेशानी नहीं थी कि वो साथ नहीं बैठता… लेकिन उसके घर आने के बाद वो निश्चिंत हो जाते और बैठक छोड़़ अपने कमरे का रुख कर लेते.
आज जब ऑफिस से आकर वो कमरे में था, तो अचानक भूकंप के झटके महसूस हुए. वो फुर्ती से उठ बीवी-बच्चे को बाहर भागने की हिदायत देते हुए उन्हें खींचता हुआ तेजी से बाहर भागा. जानता था उन्हें सुरक्षित छोड़ वापस जल्दी आना संभव होगा.
पिता जो दूसरे कमरे में बैठे थे. चल कर जितना कमरे से बाहर आ सकते थे घबराए हुए, "रवि… रवि…" करते बाहर निकले.
जब उन्होंने देखा रवि अपनी बीवी-बच्चे को लेकर बाहर भागा है, तो वे स्तब्ध.. वहीं खड़े रह गए.
रवि उन्हें देखकर एक क्षण भी नहीं रुका साथ ही, "पिताजी आइए, पिताजी आते रहिए…" कहता बाहर को भागा.
भूकंप के झटके रुक-रुक कर आ रहे थे. बेशक नुक़सान कुछ दिखाई नहीं दिया, लेकिन लोगों की डर भरी चिल्लाने की आवाज़ भयावह थी.
रवि को अपने परिवार सहित बाहर भागते देख पिताजी के पांव जैसे जम से गए. उन पर अब डर, भूकंप किसी का असर न था. उन्हें लगा उनकी किसी को कोई ज़रूरत नहीं. वे बेवजह जी रहे हैं. एक बोझ की तरह.
वे जिस बेटे को अपने जीवन का आधार मानते थे उसे अपने पिता से कोई सरोकार नहीं. उसने एक बार भी उन्हें बाहर ले जाना ज़रूरी नहीं समझा… अंदर तक टूटे हुए पिताजी पर जैसे बिजली टूट पड़ी हो. उन्हें जीने का कोई मक़सद नज़र नहीं आ रहा था.
रवि के बचपन से आज तक के एक-एक पल आंखों के आगे आ गए. धर्मपत्नी का चले जाना और उस छोटे से बच्चे को माता-पिता दोनों का स्नेह देना. उन्होंने हमेशा यही तो ईश्वर से चाहा कि उन्हें उसके लिए बनाए रखे. लेकिन क्या ये प्रेम एकतरफ़ा ही था?.. शादी और बच्चे के बाद क्या उनका बेटे की ज़िंदगी में कोई अस्तित्व नहीं..?
उसी क्षण उनकी जीने की चाहत जाती रही. वो निढाल होकर गिर पड़े. कहते हैं, इंसान जब मन से परास्त हो जाए, तो वो पूरी तरह टूट जाता है. उन दो मिनटों में पिताजी की जैसे दुनिया ही उजड़ गई. उनकी आंंखों से आंसू गिरने लगे. आसपास का शोर हो या डर किसी का उन पर कोई असर न था.
इतने में किसी ने बांह पकड़ आवाज़ लगाई , "पिताजी हिम्मत मत हारिए. उठिए, जल्दी करिए. तीन झटके आ चुके हैं, बेशक सब ठीक है, लेकिन हमें सावधानी बरतनी होगी."
"तू अंदर क्यों आया रवि तू जा… मेरी चिंता छोड़, तू जा, चला जा…"
बहुत कहने के बाद जब पिताजी नहीं माने, तो रवि वहीं बैठ गया.
"क़िस्मत में लिखा होगा, तो हम दोनों सही सलामत रहेंगे, नहीं तो आपके आशीर्वाद के बिना मैं अकेला जी नहीं पाऊंगा…"
आत्मग्लानि से भरे पिताजी एक कदम भी नहीं चल पाए और कुछ ही पल में बेहोश हो गए. रवि भी उनके साथ वहीं बैठा रहा. बाहर से लोगों के चिल्लाने की आवाज़ें आ रही थीं. कुछ समय बाद सब शांत हो गया. थोड़ी-थोड़ी देरी में भूकंप के चार झटके महसूस हुए.
कोई जान-माल का नुक़सान नहीं हुआ.
घरों में दरारें ज़रूर आईं, लेकिन मन की दरारें पूरी तरह भर चुकी थीं.
पिताजी समझ गए बेटा उन्हें आज भी उतना ही प्यार करता है और वही प्यार वो अपने परिवार से भी करता है, बस समय की व्यस्तता और बढ़ती ज़िम्मेदारी ने उसे सब ओर से घेर लिया है. उसके फ़र्ज़, ज़रूरतें और ज़िम्मेदारियां बढ़ चुकी हैं.
ग़लत कोई नहीं होता, बस किसी भी बात पर हमारा नज़रिया दूसरे से भिन्न होता है.- मीता जोशी