कहानी: सीनियर
लिफ्ट का गेट बंद हो ही रहा था कि राजू ने बटन दबाकर उसे फिर से खोल दिया. मैंने देखा एक सज्जन जल्दी से अंदर घुस आए और ग्राउंड का बटन दबा दिया. मैं उन्हें पहली बार देख रहा था. तभी राजू ने उनसे बातचीत भी शुरू कर दी.
“आप आलोक के पापा हैं?” उन सज्जन ने हैरानी से हां में गर्दन हिलाई, तो राजू ने खुलासा किया.
“मैं उसका दोस्त राजीव! आलोक ने ज़िक्र किया था कि उसके पापा आनेवाले हैं.”
“तुम आलोक के साथ काम करते हो?”
“कंपनी तो अलग-अलग है, पर ऑफिस एक ही प्रीमाइसेस में है. तो अक्सर हम गाड़ी या कैब शेयर कर लेते हैं.”
“यह तुम लोगों ने अच्छा रास्ता निकाला है. पैसे भी बचते हैं और पॉल्यूशन भी कम होता है.” उन सज्जन ने नई पीढ़ी की तारीफ़ की.
“हम तो ऑफिस पैदल ही जाते थे. बाद में साइकिल से जाने लगे. इससे ज़्यादा इकोनॉमिकल और पोल्यूशन फ्री रास्ता और क्या होगा?” मुझसे रहा नहीं गया, तो मैं बोल पड़ा.
“लेकिन अब ऐसा संभव नहीं है भाईसाहब. एक तो महानगरों में इतनी दूरियां होती हैं, दूसरे आज की पीढ़ी के पास पैसे पर्याप्त, पर समय की कमी है.”
मुझे उनका नई पीढ़ी की तरफ़दारी करना पसंद नहीं आया. मेरी नापसंदगी मेरे चेहरे से झलक रही थी, जिसे छुपाने की मैंने आवश्यकता भी नहीं समझी. लिफ्ट रुक गई थी. राजू का हाथ थामे मैं पार्क में अपनी नियत बेंच पर जाकर बैठ गया.
“एक-डेढ़ घंटे में आता हूं.” कहकर राजू लौट गया.
“आप लोगों को कहीं जाना है?” उन सज्जन ने सवाल किया.
“नहीं, वापस घर ले जाने के लिए कह रहा था. लिफ्ट में अकेले मेरा जी घबराता है. पसीना आता है, हाथ-पांव फूल जाते हैं.”
“कोई बीमारी? बीपी या और कुछ?”
“नहीं, कोई बीमारी नहीं. बुढ़ापा
अपने आप में ही एक बीमारी है.” मैंने तल्खी से कहा.
“जब आप मेरी उम्र के होंगे तब समझ आ जाएगा.”
“क्या उम्र होगी आपकी? 75-76.”
“70…”
“अरे वाह, आप तो मेरे हमउम्र निकले!”
“क्या आप 70 के हैं?” मैं बुरी तरह चौंक गया. मैं तो 60 के आसपास समझ रहा था.
“अब जब हम हमउम्र हैं, तो आपकी औपचारिकता ख़त्म. एक-दूसरे को हम नाम से बुलाएंगे. मैं विजय अग्रवाल.”
“मैं किशन अरोड़ा.”
“टहलते हुए बात करें. साथ-साथ सैर भी हो जाएगी.”
“मैं तो यहां बैठने ही आता हूं. इतने में ही सांस भर जाती है. चलो, आपके संग आज थोड़ा टहल लेता हूं.” उनका सहारा लेकर मैं उठ खड़ा हुआ.
हम बतियाते हुए टहलने लगे. एक चक्कर पूरा होते-होते हमने एक-दूसरे के घर-परिवार, नौकरी, दिवंगत जीवनसंगिनी आदि के बारे में पर्याप्त जानकारी जुटा ली. पर बोलते हुए चलने से मेरी सांस भरने लगी थी, इसलिए अपनी नियत बेंच आते ही मैं वहां बैठ गया.
“अब बस. घास भी गीली है. कहीं फिसल गया, तो व्यर्थ हड्डियां टूट जाएंगी. बुढ़ापे में जुड़ेगी भी नहीं. बेकार घरवालों पर बोझ बन जाऊंगा. वह तो खैर अभी भी हूं.”
“ऐसा क्यों समझते हो दोस्त? बेटा इतना तो ध्यान रख रहा है आपका… तुम्हारा…”
“अरे वह तो मैं ज़बर्दस्ती रखवाता हूं अपना ध्यान इन लोगों से. तब रखते हैं. हर तीसरे-चौथे दिन याद दिलाना पड़ता है कि कितनी मुश्किलों से मैंने इसे पाला-पोसा है. इसकी मां तो बहुत पहले ही गुज़र गई थी. तब यह हॉस्टल में पढ़ाई कर रहा था. मैं चाहता तो दूसरी शादी कर सकता था, पर नहीं. इसे बड़ा करने में मैंने अपनी ज़िंदगी होम कर दी. बदले में मेरा ध्यान रखना, मेरा सम्मान करना इनका फर्ज़ है. पति-पत्नी दोनों मेरे चरण धोकर पीएं, तो भी कम है.” बहुत समय बाद मुझे किसी हमउम्र के सम्मुख अपनी कड़वाहट उगलने का मौक़ा मिला था. तभी राजू को आता देख मैं चुप हो गया. राजू मेरा हाथ पकड़कर लौटने को उद्यत हुआ, तो उसने औपचारिकतावश विजय से पूछ लिया, “चलें अंकल?”
“हं? नहीं. मैं थोड़ा दो-तीन चक्कर और लगाकर आता हूं.”
अब मैंने गौर किया मेरी बातें सुनकर वह हकबका गया था.
हुह, मेरी बला से! मैं उसकी तरह चिकनी-चुपड़ी बातें नहीं कर सकता. जो सच है, सो है.
“फिर से जवान होने का खुमार चढ़ रहा है तुम्हारे अंकल पर. पता है, मेरी ही उम्र का है वह! कहीं हड्डी-वड्डी तुड़ा बैठा, तो सारा जोश निकल जाएगा.” मैंने लिफ्ट में चढ़ते हुए हिकारत से गर्दन झटकी. बेटा हमेशा की तरह प्रत्युतर में शांत ही बना रहा, तो मैं मन ही मन खीज गया.
सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं. अन्य लोगों और घरवालों की तरह विजय भी अब मुझसे कतराने लगेगा. पर वह रोज़ ही मुझसे हंसते-मुस्कुराते मिलता, बतियाता. उसके संयम व विनम्रता के आगे मुझे अपना अहंकार दम तोड़ता प्रतीत होने लगा. अपनी अक्खड़ता ख़ुद मुझे ही चुभने लगी. मैं उस पर और चिढ़ने लगा.
“तुम्हें हर बात में नई पीढ़ी की हां में हां क्यों मिलानी होती है? अपना कोई स्टैंड नहीं है तुम्हारा?”
“ऐसा क्यों लगा तुम्हें?” विजय ने आश्चर्य जताया.
“हर व़क्त उनकी तरफ़दारी करते रहते हो. उस दिन नहीं कह रहे थे समय बचाना ज़्यादा समझदारी है बजाय पैसा बचाने के? क्या सिखाना चाहते हो उन्हें, फिज़ूलख़र्ची?”
“अरे वो मैं कम्यूटिंग के संदर्भ में बोल रहा था, वरना तो मैंने बेटा-बहू दोनों को सेविंग करना सिखा दिया है. पहले तो दोनों बाहर खाने, घूमने और शॉपिंग में सारी सैलरी उड़ा देते थे. कहते पापा देखा नहीं कोविड जैसी आपदा ने कितनों को समय से पूर्व ऊपर पहुंचा दिया? आजकल ज़िंदगी का कोई भरोसा नहीं है, इसलिए जो कमाओ, उससे अभी ही ऐश कर लो, ताकि बाद में कोई पछतावा नहीं रहे.
इस पर मैंने उन्हें समझाया कि कोविड में मरनेवालों से ज़्यादा ऐसे लोग थे, जो बच गए, पर अपनी आजीविका का साधन खो बैठे. ऐसे लोगों ने यदि बचत नहीं कर रखी होती, तो सड़क पर आ जाते. बात उनके समझ आ गई. अब काफ़ी सेविंग स्कीम्स, प्रॉपर्टी आदि में मैंने उनका पैसा लगवाया है. बाहर खाना, शॉपिंग भी कम करवाया है.”
“तुम लकी हो, जो तुम्हारे बच्चे तुम्हारी बात मानते हैं.” मेरे अंदर ईर्ष्या का सांप फुंफकारने लगा.
“सही है तो क्यों नहीं मानेंगे? मैं भी तो उनकी सही बात मानता हूं. जब मैं आया था तो आलोक ने मुझे ऑनलाइन शॉपिंग, बिल पेमेंट्स आदि करना सिखाना चाहा. मैंने कहा मुझे कहां ज़रूरत है? तुम्हें मैंने बताया था न कि रिटायरमेंट के बाद मैं अपने शहर में ही टाइमपास हेतु प्राइवेट कॉलेज में क्लासेस लेता हूं. वहां पास ही मार्केट है. जब जी चाहे सब्ज़ी, फल, दवा ख़रीद लाता हूं. इसी बहाने टहलना और लोगों से मिलना-बतियाना हो जाता है.”
“सही है, हमें कहां ज़रूरत है यह सब सीखने की?”
“पर वह समझाने लगा. मान लो किसी दिन तबीयत ठीक नहीं है आपकी. बाहर मौसम ख़राब है और अचानक किसी चीज़ के लिए हाथ अटक जाए, तो ऑनलाइन ऑर्डर कर सकते हैं आप. कोई गांव में तो रहते नहीं हैं आप भी. अब जिस माहौल में रह रहे हैं, वहां के अनुकूल यदि ख़ुद को ढाल लेंगे, तो आपको ही सुविधा रहेगी. कोविड के व़क्त में आपके पास था, तो वहां सारा सामान, दवा आदि ऑनलाइन मंगवाता था. पर अब मेरी शादी के बाद आप अकेले रहते हैं, तो मुझे हर व़क्त आपकी चिंता रहती है. बात मुझे समझ आ गई. अब मैं दोनों से मोबाइल, लैपटॉप पर कुछ ना कुछ सीखता रहता हूं. मज़ा आता है बहुत. नई पीढ़ी से हमारा मतभेद हो सकता है, मन भेद नहीं. अजीब लगता है जब लोग बात को पकड़कर इंसान को छोड़ देते हैं.”
मैं न चाहते हुए भी सहमति में सिर हिलाने पर मजबूर हो गया था. पर बुढ़ापे का अहं था कि पीछे हटने को अभी भी तैयार नहीं था.
“पर इन लोगों को भी सोचना चाहिए ना कि हम जो भी कह या कर रहे हैं वह उनके भले के लिए ही हैं. आख़िर हमारा इनके अलावा और है ही कौन? हम तो पके हुए पत्ते हैं. पता नहीं कब झड़ जाएं? कल को इनके बच्चे हो जाएंगे, तो ये हमारा इतना ख़्याल भी नहीं रखेंगे. उसी के आगे-पीछे घूमते रहेंगे.”
“यह भी तो हो सकता है कि ख़ुद माता-पिता बनने के बाद वे हमारी भावनाओं को बेहतर समझ सकें. आख़िर सोच को सकारात्मक रखने में बुराई ही क्या है? इंसान उन चीज़ों से कम बीमार होता है, जो वह खाता है. ज़्यादा बीमार वह उन चीज़ों से होता है, जो उसे अंदर ही अंदर खाती हैं, इसलिए हम कम सोचें, पर सही सोचें.
वैसे भी मेरा मानना है कि प्रेम, आदर जबरन कमाने में मज़ा नहीं है. सामनेवाला यदि सहर्ष आगे होकर लुटाए, तो उसे बटोरने का आनंद ही कुछ और है… अरे, आलोक की गाड़ी?”
“हं… कहां?”
“उधर पार्किंग की तरफ़ गई है. ऑफिस से आ गया लगता है. राजीव भी तो
होगा साथ?”
“नहीं, वह आज घर से ही कर रहा है. आजकल बहू की तबीयत ठीक नहीं रहती. सवेरे भी डॉक्टर को दिखाकर आए हैं. आजकल चोंचले कुछ ज़्यादा ही हो गए हैं. अरे, बच्चे तो हमारे ज़माने में भी पैदा होते थे, पर इतना…” मेरी बात अधूरी ही रह गई.
“अरे वाह, तुम दादा बननेवाले हो… घर में जूनियर अरोड़ा आनेवाला या वाली है! तुम्हारा प्रमोशन हो रहा है! बहुत-बहुत बधाई हो मेरे दोस्त.” विजय ने भरपूर आत्मीयता से मुझे कसकर अपने सीने से लगा लिया. सुधा के जाने के बाद ज़िंदगी में पहली बार मुझे अपने अंदर कुछ पिघलता सा महसूस हुआ.
वाकई इतनी बड़ी उपलब्धि मेरे खाते में दर्ज़ होने जा रही है और मैं हूं कि बेकार की बातों को लेकर बिसूर रहा हूं. सुधा ज़िंदा होती, तो दादी बनने की ख़ुशी में बावरी हो जाती. उसकी आदत थी रिश्तों में दूध और शक्कर की तरह घुल-मिल जाने की. मैं उसके ज़माने का होते हुए भी आज की तरह शुगर फ्री क्यूं हूं?
“चलो मैं तुम्हारे साथ ही चलता हूं. व्यर्थ राजू को क्यों बार-बार परेशान करना.” मैं उठने को उद्यत हुआ.
“थोड़ा ठहरकर चलेंगे.”
“क्यों?”
“बेटा दिनभर से थका-मांदा आया है. थोड़ा फ्रेश हो ले. बहू से बतिया ले. उन्हें भी तो प्राइवेसी की चाह होती होगी. अरे, यह तो इधर ही आ रहा है!”
“प्रणाम काका! प्रणाम पापा! आपकी पसंद के गरमागरम प्याज़ के भजिए लाया हूं. साथ में पुदीने की खट्टी-मीठी चटनी भी है. चलिए ठंडे हो जाएंगे. काका, आप भी चलिए.” आलोक हम दोनों का हाथ पकड़कर चलने को तत्पर था. उसकी आत्मीयता ने मुझे छू लिया.
“अरे पर राजू मुझे लेने आएगा.” विजय ने मुझे घूरकर देखा. अभी मिनट भर पहले ही तो मैंने उसके संग चलने का इसरार किया था. मैं चुपचाप साथ चल पड़ा. बहू ने प्लेट लाकर पकड़ाई, तो विजय ने उसे भी साथ बैठकर खाने को कहा.
“मैं चाय लाती हूं पापा.”
“चाय बाद में बन जाएगी. पहले सबके साथ बैठकर खाओ. भजिया ठंडी हो जाएगी.” मैंने गौर किया विजय के आदेशात्मक वाक्य में भी प्यार और अपनापन छलका पड़ रहा था.
“अच्छा पापा! गैस स्लो करके आती हूं.” हंसती हुई बहू भी साथ आकर भजिए का लुत्फ़ उठाने लगी.
तभी आलोक का मोबाइल बज उठा.
“यार इतनी नॉलेज मुझे नहीं है. सीनियर अग्रवालजी ही गाइड करेंगे तुझे.” आलोक ने मोबाइल विजय को पकड़ा दिया.
“सीनियर अग्रवालजी, आपका एक और क्लाइंट!”
विजय साइड में चहलकदमी करते हुए बतियाने लगा, तो आलोक मुझसे मुखातिब हुआ, “जब से पापा ने मुझे सेविंग स्कीम आदि जॉइन करवाई है, रोज़ एक न एक दोस्त सलाह लेने के लिए फोन करता रहता है. मैं तो फोन पापा को पकड़ा देता हूं. भई, मेरे बस का नहीं है यह सब. पापा ही हैंडल कर सकते हैं.” उसने सगर्व अपने पापा को निहारा, तो मैं भी एकटक विजय को देखने लगा. सीधी कमर, तनी हुई ग्रीवा, ओजस्वी भाल, सधी हुई वाणी… सीनियर अग्रवालजी! कमाल है, उसका यह रूप मुझे पहले कभी क्यूं नहीं दिखा? नज़रिया बदलने से क्या सब कुछ बदल जाता है? हां, यह कभी मेरी तरह बूढ़ा नहीं होगा. हमेशा वरिष्ठ यानी सीनियर ही रहेगा.
डोरबेल बजी तो मेरी तंद्रा भंग हुई. राजू था. “आवाज़ से मुझे लग गया था आप यहीं हैं.”
यह राजू आज मुझे आलोक की तुलना में उम्रदराज़ या बूढ़ा क्यों दिखने लगा है? मैं आंखें मसलते सोचने लगा. विजय अब तक फोन बंद करके आ चुका था.
“अरे आलोक, तुमने अपने दोस्त को बधाई दी? वह पापा बननेवाला है!”
“अरे सच, बधाई हो यार! मिठाई कब खिला रहे हो?” चहकते हुए आलोक ने राजू को सीने से लगा लिया. जैसे कुछ समय पूर्व विजय ने मुझे लगाया था. मैंने राजू को अपनी उपस्थिति में झेंपते देखा, तो तुरंत मोर्चा संभाल लिया.
“मिठाई क्या, हम सीनियर अरोड़ा आपको ग्रैंड पार्टी देंगे. क्यों राजू?” राजू के साथ जाने के लिए मैं यकायक बिना किसी सहारे के उठ खड़ा हुआ. नौकरी के दिनों में प्रमोशन मिलने पर जो गर्व और खुशी चेहरे पर खिल जाती थी, कुछ वैसी ही अनुभूति मुझे अभी हो रही थी. प्रसन्नता मिश्रित कौतुक से मुझे ताकते चेहरों का रसास्वादन करते मैं अपनी उम्र क्षण-प्रतिक्षण कम होती महसूस कर रहा था. -संगीता माथुर