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कहानी- तुम कब आओगे

''सर, मैंने आपकी रचना पढ़ी थी. कितना अच्छा लिखते हैं आप!” लेकिन लेखक का गंभीर चेहरा कभी हल्की-सी मुस्कान भी नहीं दे पाता, तो पढ़ने-लिखने की शौक़ीन मैं नंदिता खिन्न हो जाती. आज मैं उन खिन्न लेखकों की वजह से काग़ज़ पर मानवीय भावनाएं उतारने में सक्षम हो पाई और मेरे अंदर का वजूद शब्द बनकर कब अख़बारों या पत्रिकाओं के पन्नों पर जादू बिखेरने लगा, मैं ख़ुद भी नहीं जानती. मुझे याद है मेरी पहली कहानी पर ढेरों पत्र मिले थे, तब कहानी के साथ लेखक का पता भी प्रकाशित होता था. मोहल्लेवालों ने भले ही न पढ़ी हो, लेकिन कहानी पर दूर-दराज़ से पत्रों का सिलसिला 8 दिन बाद ही शुरू हो गया था. पाठकों की यह प्रतिक्रिया मुझे मालूम नहीं कितना आनंदित कर पाई, पर बाऊजी के हाथ लगे एकमात्र अंतर्देशीय पत्र ने उनके माथे की भृकुटि को तान दिया था. मैंने बाकी ख़तों को चुपचाप अन्य काग़ज़ों में छिपा दिया था. मैं पड़ोस के राहुल दा की सिविल परीक्षा की तैयारी के बीच यदा-कदा उनकी बौद्धिक चर्चा में शामिल होती रही.

बौद्धिक पहेलियों के शौक़ीन राहुल दा उस दिन बोले, “पहेली सुलझाने में जितना आनंद है, उतना ही उसको भेजकर इनाम पाने में है.”

मैं राहुल दा की इस बात पर खिलखिलाकर हंस दी. “ ...और तुम्हारी भाभी के नाम से भेज दो तो माशा अल्लाह! ख़तों का अंबार लग जाता है. अरे, किसी महिला का पता क्या छप गया, सब प्रशंसा के पुल बांधने लगते हैं.” मेरी खिलखिलाहट वहीं थम गई. मैं अपनी पहली कहानी पर आए ख़तों को ज्यों का त्यों वापस ले गई. राहुल दा से पूछने ही तो आई थी कि कैसे जवाब दूं अपने पाठकों को. मेरे जवाब देने का सारा जोश ठंडा पड़ गया था. यह भी पढ़े: न भूलें रिश्तों की मर्यादा समय के साथ-साथ मेरी लेखनी की धार काग़ज़ और शब्दों के बीच घिस-घिसकर धारदार होती चली गई थी. पर पाठकों के साथ रिश्ते को लेकर मैं असमंजस की स्थिति में ही रही. ख़तों से फोन के ज़माने में आई, तो टेलीफोन डायरेक्टरी के खोजी पाठकों की मुझ तक पहुंचने की कई कोशिश नाकाम हो जाती या कर दी जाती, पर मेरी ज़िंदगी पर इसका कोई असर नहीं होता. मैं तो अपनी प्राइमरी स्कूल की छोटी-सी नौकरी, घर-गृहस्थी और लेखन के बीच खोई रहती. शीतांशु की पदोन्नति के कई चरण उन्हें पारिवारिक ज़िम्मेदारियों से दूर करते गए और मैं सहजता से परिवार की ज़िम्मेदारियों को ओढ़ती चली गई. बड़े बेटे सौरभ का करियर और छोटे बेटे की नींव भरती पढ़ाई में मैं उतनी ही रुचि लेती थी, जितनी अपने लेखन में. टेलीफोन से मोबाइल, ई-मेल और सोशल नेटवर्किंग साइट्स के ज़माने में अब संपादक लेखक के रंगीन फोटो, मोबाइल नंबर्स और ई-मेल पता भी छापने लगे थे. रात दस बजे के बाद भी किसी पाठक के फोन के जवाब में शीतांशु ने पूछ ही लिया, “इतनी देर रात कौन है ये सिरफिरा?”
 

“अरे! पढ़नेवाले रात में ही पत्रिकाएं हाथ में लेते हैं पढ़ने के लिए.” मेरी उस कहानी पर हर पाठक का लगभग यूं ही फोन आता, “नंदिताजी बोल रही हैं.”

“हां! बोल रही हूं.”

“आपकी कहानी पढ़ी ‘दो औरतें’. ‘क्या लिखा है आपने... मन को छू गया.”

“शुक्रिया!”

“पर वो अंत समझ नहीं आया.”

“एक बार कहानी और पढ़ लें... आ जाएगा समझ.” मैंने झल्लाकर मोबाइल काट दिया. मैं बिस्तर पर सोने का उपक्रम करती, पर मेरी बंद आंखों के बीच चलती पुतलियां मेरे ना सोने का राज़ खोल देती थीं.
पाठकों के फोन का आना जारी था, पर उनकी संख्या कुछ कम हो गई थी. अब मैं उन्हें धन्यवाद कहती और उनके बारे में एक-दो बातें ज़रूर पूछती. फिर एक दिन एक पाठक का दोबारा फोन आया था. “नंदिताजी! मैंने वो कहानी फिर पढ़ी.” संभवतया उसी पाठक का फोन था, जिसे कहानी का अंत समझ न आने पर मैंने दोबारा पढ़ने की सलाह दी थी.

मैं उत्साह से बोली थी इस बार, “अरे! तुम! समझ में आया न!” उस पाठक के प्रति मेरे मन में दया भाव उमड़ आया था.

“हां! हां! समझ आया... पर कुछ आप खुलासा करें न!”

“क्या नाम है तुम्हारा?”

“रोहित!”

“देखो रोहित! जब दर्द एक हो जाते हैं, तो सारे शिकवे ख़त्म हो जाते हैं और यही कहानी का अंत है.” मैंने उस पाठक का नाम लेकर प्रोफेशनल अंदाज़ में कहा था.

“....” रोहित जैसे कुछ और सुनना चाह रहा था.

“कहां रहते हो?”

“मुंबई में.”

“क्या करते हो?”

“कंप्यूटर हार्डवेयर का व्यापारी हूं.”

“ओह! फिर भी साहित्य में रुचि...”

“क्या मैं फिर बात कर सकता हूं?”

“हां! क्यों नहीं.”

 फोन रखते ही मेरा बचपनवाला मन लौट आया था. वो मन जो उन साहित्यकारों से मिलना चाहता था, जिन्होंने ऊंचाइयों को छुआ था. आज मैं उन पाठकों के बारे में जानना चाहती थी, जो मेरे लेखन का गहरा भेद जानना चाहते हैं.
 

एक दिन फिर रोहित का फोन आया था कि वो मेरी क़िताबें पढ़ना चाहता है. मैंने कहा- “क़िताबें बहुत सारी हैं, मिलूंगी तब दूंगी...” मैंने दरअसल रोहित को सफ़ाई से टालना ही चाहा था. फोन रखकर मैं मन ही मन अल्हड़-सी बुदबुदाई थी, “मैं भला कब मिलूंगी उसे? मैं भला कब मुंबई जाऊंगी? ना मिलना होगा, ना देना... हुंह!” इसी बीच बंगलुरू में मौसी के छोटे बेटे के विवाह का निमंत्रण था. वही मौसी जिसने बचपन में मुझे बहुत प्यार दिया और आज भी पग-पग पर साथ है. विवाह में जाना ज़रूरी था, पर शीतांशु की छुट्टी मंज़ूर नहीं हुई. शीतांशु ने मेरा और वैभव का टिकट बुक करवा दिया था. लंबी दूरी की गाड़ी में यूं जल्दी टिकट मिलना आसान नहीं था, फिर भी शीतांशु ने नेट की गहरी खोजबीन के बाद मुंबई के रास्ते टिकट बुक करवाने की सहमति मांगी. “मुझे तो मौसी के बेटे के विवाह में जाना है. अब यह तुम पर छोड़ा कि तुम मुझे किस रास्ते से भेजते हो...” मैंने बिंदास होकर नेट पर बैठे शीतांशु के गले में बांहें डाल दी थीं. यात्रा करना वैसे भी मुझे अच्छा लगता है, क्योंकि लंबी यात्राएं मुझे मनपसंद क़िताबें पढ़ने का मौक़ा देती हैं.

“मुंबई में सात घंटे का इंतज़ार है अगली गाड़ी के लिए.”

“कोई बात नहीं. मुझे तो चलती भीड़ को देखना वैसे भी अच्छा लगता है.” मुंबई की ट्रेन में बैठते ही मैंने सोचा क्या कोई नहीं है मुंबई में मेरा? कोई तो होगा? अरे रोहित... वही मेरी क़िताबें मांगनेवाला... पर ऐसे किसी से कैसे मिलूं? पर एक कोशिश ज़रूर करनी चाहिए. मैंने अपने मोबाइल की फोन बुक में रोहित का संजोया हुआ नंबर ढूंढ़ा और कॉल का बटन दबा दिया.

“हैलो रोहित! मैं नंदिता बोल रही हूं. तुम कल मुंबई में हो ना...” “हां! हां क्या आप मुंबई आ रही हैं?” जैसे वो उछल पड़ा हो. मैंने मोबाइल पर उसकी ख़ुशी महसूस की.

“शायद... पक्का नहीं.” मैंने पूरी बाज़ी अपने हाथ में रख ली थी और फोन रख दिया. मैं कल की योजना तैयार करती रही कि मैं बंगलुरू की अगली गाड़ी में बैठने से पहले स़िर्फ 15 मिनट का समय रोहित को दूंगी. मैं बस देखना चाहती थी अपने पाठक को. मिलना चाहती थी अपने उस पाठक से, जिसने मेरी कहानी को पढ़ा था. अगले दिन मुंबई के विश्राम घर में तैयार होने के बाद मैंने घड़ी देखी तो, अगली ट्रेन के लिए पांच घंटे बाकी थे. महानगर में रहनेवाले व्यक्ति को इतना समय तो मिलना चाहिए कि वो ट्रैफिक के संघर्ष के बाद सही तरी़के से पहुंच सके. मैंने रोहित को फोन करके बताया कि मैं उसके शहर में हूं, अगर समय हो, तो मिल ले. मैंने मिलने का स्थान कर्नाटक एक्सप्रेस में बी कोच बताया और समय रात्रि 8 बजकर 15 मिनट का दिया यानी ट्रेन चलने से केवल 15 मिनट पहले. मेरे मन के किसी कोने में कहीं न कहीं किसी अनजान से मिलने का भय भी व्याप्त था, जिस पर पूरा गणित भी लगाया था मैंने.

पर रोहित का पौने आठ बजे ही फोन आ गया. पूछ रहा था, “कहां हो?”

मैंने कहा, “8 नंबर प्लेटफॉर्म पर बी कोच के पास...”

पर मैंने रोहित को नहीं देखा था और न ही रोहित ने मुझे. कैसे पहचानेगा वो कोच के बाहर खड़ी भीड़ में? अपनी ड्रेस बता दूं. बेटा साथ है ये निशानी बता दूं. लाल रंग का सूटकेस है यह बता दूं. मैं ऊहापोह में थी कि रोहित का फोन आ गया, “बी कोच में कहां...?” पर जवाब देने से पहले ही फोन कट गया और देवदूत की तरह वो मेरे सामने खड़ा था. दरअसल उसने मुझे मोबाइल उठाते ही पहचान लिया था. वो कहीं नज़दीक ही खड़ा था.

महानगरीय सभ्यता की तरह उसने हाथ आगे बढ़ाया था. मैं कस्बाई संस्कृति में पली-बढ़ी सोच में पड़ गई कि हाथ आगे बढ़ाऊं या नहीं, पर न जाने कैसा क्षण था कि हाथ स्वतः ही आगे बढ़ गया. “रोहित..?”

“नंदिताजी..?” हम दोनों एक साथ बोल पड़े. मैं अपने पाठक से मिलकर ख़ुशी के अतिरेक से झूल रही थी. उस क्षण को घूंट-घूंट पीना चाहती थी... तो ऐसा होता है पाठक.

निर्मल-मासूम बच्चों की तरह चहकता, सांवला चेहरा, बोलती आंखें, मध्यम क़द का 25-26 साल का युवक सामने खड़ा था. मेरी एक बार किसी वरिष्ठ लेखिका से इस संबंध में बात हुई थी. तब उन्होंने कहा था कि पाठक बहुत अच्छे होते हैं. शायद उसके ज़ेहन में बैठी इस बात ने ही मुझे पाठक से मिलने में मदद की हो. -संगीता
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