कहानी- नज़रों के इस खेल में
वैसे तो विधि को शेयर्ड कैब में बैठना बिल्कुल पसंद नहीं था, कहा करती थी ‘मुझे नहीं पसंद किसी ऐरे-ग़ैरे के कंधे मुझे छुएं.’ मगर आज जल्दबाज़ी में पर्स में एक्स्ट्रा कैश रखना भूल गई, तो शेयर्ड कैब लेना उसकी मजबूरी हो चली थी. बड़े उखड़े मूड से कैब का दरवाज़ा खोला, लेकिन फिर जो हुआ, उसे तो ईश्वरीय योजना ही कहा जाएगा. वह जो पहले से कैब की पिछली सीट पर बैठा था, जिसके परफ्यूम से पूरी कैब महक रही थी, जिसने विधि को पहले कुछ पल ठहरी हुई नज़रों से देखा और फिर थोड़ा सरककर बैठ गया. पता नहीं क्यों उसकी बाजू छू जाने से विधि को थोड़ा भी बुरा नहीं लगा था.
वो पहली नज़र कुछ तो कमाल कर गई थी उसके भीतर. ऐसा होता है कभी-कभी दो अपरिचितों में, पहली ही नज़र में एक कनेक्शन-सा बन जाता है. दिल से दिल का तार जुड़ जाता है, कभी कुछ देर के लिए, तो कभी जन्म-जन्मांतर के लिए. विधि पूरे रास्ते बड़ा संभलकर बैठी रही, तन से भी और मन से भी. नज़रें
इधर-उधर डोलकर वापस उसी अपरिचित की टोह में लग जातीं, जिसके
ज़रा-सा छू जाने भर से वह अजीब-सी सिहरन से भर रही थी.
“भइया, ज़रा अगले मोड़ पर बैंक के सामने रोकना प्लीज़.” ‘आह! यह भारी और मीठी आवाज़’ विधि के कानों में कैसा अमृत-सा घोल गई. वह अपरिचित कैब से उतर गया. उतरकर दरवाज़ा बंद करते हुए फिर वही कयामत की नज़र, जो विधि की बड़ी-बड़ी आंखों के रास्ते उसके दिल को भेदकर चली गई.
कैब के चलते ही विधि ने गहरी सांस भरी. ये क्या हुआ है आज उसे? माना उसके पीजी कॉलेज का पहला दिन है, तो क्या उसकी वही तीन साल पुरानी कॉलेज लाइफ भी लौट आई है? किसी आकर्षक पुरुष को देखनेभर से अंदर कुछ हलचल हो जाना, कुछ सोया-सा जाग जाना… यह क्यों हुआ, उसे ख़ुद समझ नहीं आ रहा था.
ख़ैर, वह देहरादून के आरवी कॉलेज ऑफ फाइन आर्ट के मेनगेट पर उतरी और पूछते-पाछते अपने सेक्शन में जाकर बैठ गई. आधी से ज़्यादा क्लास खाली थी, स़िर्फ एक कोने में 6-7 लड़कियों का ग्रुप चुहलबाज़ियां कर रहा था, जिसके कुछ कतरे उड़कर उस तक पहुंच रहे थे. ‘क्या बात कर रही हो…’ ‘सच्ची…’ ‘किसने बताया…’ ‘पक्की खबर…’ ‘अरे एकदम पक्की,’ ‘नताशा दी ने बताया, अरे वही, सेकंड ईयर बी सेक्शन की सीनियर. वो बेचारी भी बेहद उदास लग रही थी. क्यों ना हो, उसने तो ख़ूब दाने डाले थे, मगर भुने नहीं… हा-हा-हा…,’ ‘सच्ची, आज तो ना जाने कितनों के दिल टूटकर बिखरे होंगे, इस दिल के टुकड़े हज़ार हुए, कोई यहां गिरा कोई वहां गिरा. हा-हा-हा…’ फिर खिलखिलाती हास्य ध्वनियां. “हाय! आपसे इस बेवफ़ाई की उम्मीद न थी, चुपके-चुपके एंगेजमेंट कर आए. हमने तो सुना था, आजीवन ब्रह्मचारी रहने का अटल इरादा किए बैठे हैं, तभी तो प्रपोज़ल नहीं भिजवाया था, वरना मम्मी-पापा तो आए दिन पूछते हैं, कोई हो तो बता दो, वरना हम देखना शुरू कर देते हैं.” एक लड़की अपने फोन को निहारते बोली. शायद उसी हीरो की फोटो खोल रखी थी, जिसकी ये सभी दीवानी बनी बैठी थीं.
विधि को यह सब सुनकर बड़ा ग़ुस्सा आया, ‘क्या नॉनसेंस मचा रखी है क्लास में. यहां पढ़ने आती हैं या यही सब करने.’ विधि ख़ुद को उन लड़कियों से मैच्योर समझ रही थी. समझती भी क्यों ना, बीए के बाद तीन साल का ब्रेक ना लिया होता, तो आज इन सबकी सीनियर होती. सोचा था आज पहले दिन थोड़ा जल्दी पहुंच किसी क्लासमेट से बात कर छूटा पोर्शन समझ लेगी. महीनेभर लेट एडमिशन जो लिया था उसने, मगर ये सब तो न जाने किस कन्हैया की गोपियां बनी बैठी हैं. वैसे कौन है ऐसा, जिसने सभी लड़कियों पर सामूहिक रूप से जादू चलाया हुआ है? जानने की उत्कंठा तो विधि ने भी महसूस की.
कुछ मिनटों में क्लास भर गई. चुहलबाज़ियां अभी भी जारी थीं, ‘आएंगे कि नहीं, कहीं डेट पर तो नहीं निकल लिए अपनी वुड बी के साथ.’ ‘हाय ये ना कहो यानी आज आई टॉनिक से भी जाएंगे. कोई फ़ायदा नहीं हुआ आज आने का.’ ‘आ गए, आ गए, शऽऽ…’ एक ख़ामोश चुप्पी और फिर ‘गुड मॉर्निंग सऽऽर’ का मधुर गान प्रस्तुत हुआ.
“गुड मॉर्निंग, गुड मॉर्निंग!”
विधि के कान लड़कियों की बातों से हटकर ख़ुद-ब-ख़ुद उस गुड मॉर्निंग की तरफ़ खिंच चले. वही कैबवाली मीठी आवाज़. ओ माय गॉड! चेहरा भी वही यानी बंदा भी वही. फिर एक सिहरन से उसका पूरा शरीर झनझना गया. पहले वह चौंकी और फिर एक मीठी-सी हंसी भीतर-ही-भीतर फूट पड़ी. लगा जैसे वह भी उन्हीं लड़कियों के समूह में से एक हो चली थी. काश! टाइम से एडमिशन ले लिया होता, एक हसीं ख़्याल ने उसे गुदगुदा दिया और फिर दूसरा ख़्याल- ओह! इन्हीं महाशय की हाल ही में एंगेजमेंट हुई है, जिसका शोक सारी लड़कियां मना रही हैं यानी ये जादू स़िर्फ मुझ पर नहीं चला था, बंदे की पर्सनैलिटी ही ऐसी है, कितनों को घायल किए बैठा है.
ये थे फाइन आर्ट लेक्चरर नित्येंद्र शर्मा, जो दिखने में किसी फिल्मी हीरो से कम न थे, भले ही वह हीरो 70-80 के दशक का ही क्यों न हो. बड़ा मनमोहक सौम्य व्यक्तित्व, साफ़ रंग, लंबा कद, हल्के घुंघराले बाल और हर पल मुस्कुराती मासूम-सी आंखें. सोने पे सुहागा ये कि ये लेक्चरर बैचलर भी थे, तभी तो एमए फस्ट ईयर की लड़कियों के दिल इनको देखकर धड़क रहे थे.
नित्येंद्र शर्मा ने आते ही अटेंडेंस ली. एक नया नाम जो आज ही रजिस्टर में जुड़ा था, पुकारा गया श्रीमती विधि मिश्रा, तो उन्होंने नज़र उठाकर ‘प्ऱेजेंट सर’ कहनेवाली लड़की को देखा. उस पल जैसे व़क्त रुक चला था. थोड़ी देर की स्तब्धता के बाद हड़बड़ाहट में रजिस्टर बंद किया और पढ़ाने के लिए उठे ही थे कि ‘कॉन्ग्रैच्युलेशन सर’ की बारिशें शुरू हो गईं.
“अरे भई किसलिए?”
“हमें पता चला है सर कि आपकी एंगेजमेंट हो गई है. हम आपको बचकर नहीं जाने देंगे. हमें पार्टी चाहिए. कम-से-कम मिठाई तो बनती ही है.” क्लास की सबसे चंचल नवयौवना इठलाकर बोली. नित्येंद्र शर्मा वापस हड़बड़ा गए और सकुचाती-सी नज़रें श्रीमती विधि मिश्रा के भावविहीन चेहरे का मुआयना कर आईं. उतरा चेहरा बता रहा था कि वहां शायद हालात से समझौता हो चुका था.
ख़ैर, आज पोट्रेट मेकिंग क्लास भी नित्येंद्र शर्मा के ज़िम्मे थी. सब छात्राएं
अपने-अपने काम में व्यस्त थीं. यूं ही
घूमते-घामते विधि के पास पहुंच गए और सकुचाते से पूछ बैठे, “विधिजी आपका नाम ग़लती से श्रीमती विधि लिखा गया या…?”
“जी सर, वही नाम है.” जवाब देते हुए विधि की नज़रें नीची रहीं और उसके ब्रश थामे हाथ कैनवास पर खेलते रहे.
“ओह! बस यूं ही पूछा, क्योंकि आपको देखकर लगता तो नहीं…” जैसे ही विधि ने नित्येंद्र सर को नज़र उठाकर देखा, तो उन्हें लगा कि वे रंगे हाथों पकड़े गए. सच आकर्षण की अपनी तरंगें होती हैं, जिन्हें कितना भी कैद कर लो, दूसरे तक पहुंच ही जाती हैं. वे वहां से निकल लिए और किसी दूसरे स्टूडेंट का कैनवास देखकर कुछ समझाने लगे, मगर विधि साफ़-साफ़ महसूस कर रही थी कि सर की एक नज़र अभी भी उसी पर जमी है.
दो महीने नज़रों के इसी खेल में निकल गए. एक को ‘श्रीमती’ के लेबल ने आगे नहीं बढ़ने दिया, दूसरी ओर ‘जस्ट एंगेज्ड’ का ‘नो गो’ बोर्ड टंगा था. मगर नित्येंद्र सर की चाल-ढाल और रंगत बदल चुकी थी. विधि के सामने कुछ असहज हो जाते थे. व्यवहार में एक संकोच-सा फूट पड़ता था. उड़ती चिड़िया के पर गिनने का दावा करनेवाली कुछ तेज़तर्रार लड़कियों ने यह संकोच भांप लिया था, मगर ‘श्रीमती’ के टैग ने विधि को ‘बेनीफिट ऑफ डाउट’ दे रखा था.
इस नए शहर की नई पेइंग गेस्ट विधि के बाक़ी दिन तो कॉलेज के सहारे कट जाते थे, मगर वीकेंड उसे काट खाने को दौड़ता. हर व़क्त एक अजीब-सी बेचैनी से घिरी रहती थी, इसीलिए सोचा मसूरी में हो रही एक आर्ट वर्कशॉप ही कर ली जाए और वह शुक्रवार शाम को ही देहरादून से मसूरी के लिए निकल पड़ी. मसूरी का घंटेभर का ही रास्ता था. होटल में चेकइन कर एक सनसेट व्यू पर लगी बेंच पर जाकर बैठ गई.
वहां मौसम कुछ ख़ास खुला हुआ नहीं था. ढलते सूरज की बादलों से लुकाछिपी चल रही थी. कुछ देर पहले हुई हल्की बारिश के बाद बादल फिर बरसने को तैयार बैठे थे. ठीक उसके मन की तरह. सोचा था इन ख़ूबसूरत फ़िज़ाओं में आकर उसे अच्छा लगेगा, मगर हुआ ठीक उल्टा. ना जाने क्यों दिल घनघोर उदासी से भर गया. भीतर सवाल उठ रहे थे. ‘क्यों बैठी है यहां, क्या ज़रूरत थी यहां आने की? किससे भाग रही है, ख़ुद से या नित्येंद्र सर से? और क्या भागना संभव है, क्योंकि जिसकी यह ख़ुराफ़ात है, वह तो हर पल उसके साथ चल रहा है. उसका अपना मन जो आजकल कुछ ऐसा चाहने लगा है, जो हो ही नहीं सकता.
सामने बिखरा यह अनुपम सौंदर्य उसके अकेलेपन के एहसास को और कुरेद रहा था. नित्येंद्र सर की याद, जो शहर के शोरगुल में कुछ दब-सी जाती थी, यहां इस एकांत में इतनी प्रबल, इतनी मुखर हो उठी थी, जैसे कोई ठीक सिर के ऊपर हथौड़ा मार रहा हो. वह उन्हें इतनी बुरी तरह मिस कर सकती है, यह रहस्य अभी-अभी उसके सामने खुला, जब यूं ही बैठे-बैठे आंखों से कुछ आंसू लुढ़ककर गालों को भिगो गए. वह उन्हें बेरहमी से पोंछकर आंख बंदकर बेंच की बैक पर सिर टिकाकर बैठ गई. बाहर के दृश्य से बंद आंखों के भीतर चल रहे दृश्य उसे ज़्यादा सुकून देने लगे. हंसते-मुस्कुराते नित्येंद्र सर, धीमे से विधिजी कहते नित्येंद्र सर, उसके पोट्रेट को करेक्ट करने के बहाने बेहद पास आते नित्येंद्र सर, सबकी नज़रें बचाकर उसे कनखियों से देखते नित्येंद्र सर… विधि जैसे किसी अंतहीन चलचित्र को देख रही थी.
कभी-कभी वाक़ई कोई दर्द दुआ की तरह कुबूल हो जाता है, सच्चे आंसू असर कर जाते हैं, तभी तो वह हो गया, जो विधि की कल्पनाओं से भी परे था. अगली सुबह वर्कशॉप में नित्येंद्र सर मौजूद थे, क्योंकि वर्कशॉप उन्हीं की थी. उन्हें देखकर विधि का मन किया कि भागकर लिपट जाए उनसे और लड़ पड़े, बता नहीं सकते थे, आपकी ही वर्कशॉप है, कितना दर्द झेल रही थी कल शाम से, मगर आपको क्या?
आज सर फॉर्मल की जगह हल्के आसमानी टी-शर्ट और डेनिम जींस में ग़ज़ब ढा रहे थे. एक इंस्ट्रक्टर की तरह नहीं, बल्कि टीममेट की तरह सबसे
घुलमिल रहे थे. विधि ने एक नज़र ख़ुद पर डाली, ‘ओह! कितनी लापरवाही से चली आई यहां, पुराना सूट, पुरानी चप्पल, बाल भी बेतरतीब से लिपटे हुए, चेहरे पर भी बारह बजे हैं.’ विधि ख़ुद ही भीड़ में छिपने लगी, मगर कितना छिप सकती थी भला? सर ख़ुद उसके पास आ गए और कहने लगे, “आपको यहां देखकर ख़ुशी हुई विधिजी, काफ़ी पैशनेट हैं आप कला के लिए.” विधि कुछ न कह सकी. मैंने कल ही प्रतिभागियों के नाम की लिस्ट देखी थी. उसमें आपका नाम देखकर सोचा कि पूछ लूं, अगर साथ चलना चाहें तो, मगर मेरे पास आपका नंबर नहीं था.”
विधि एक सांस में झट से अपना फोन नंबर बोल गई और फिर ख़ुद ही झेंप गई. उसे ऐसे देख सर मुस्कुरा उठे. आज नित्येंद्र सर कुछ अलग ही अंदाज़ में थे. बहुत खुले हुए से लग रहे थे. उनकी कही हर एक बात विधि ऐसे मनोयोग से सुन रही थी जैसे कोई रामभक्त रामायण का पाठ सुनता है. फिर मॉडल पोट्रेटिंग की शुरुआत हुई. सर ने एक बड़ी ख़ूबसूरत लड़की को मॉडल बनने के लिए बुलाया, तो वह बड़ी चहकते हुए आ गई. इधर सर उसके चेहरे और बालों को सही पोज़ दे रहे थे, उधर विधि की ईर्ष्या बाहर फूटने को तैयार बैठी थी. तभी उसकी नज़र नित्येंद्र सर की एंगेजमेंट रिंग पर गई. ये क्या बेवकूफ़ी कर रही है वह, सब कुछ जानते हुए भी. सर एंगेज्ड हैं और वह श्रीमती. फिर क्यों उन पर इतना अधिकार-सा महसूस होता है. किसने दिया ये अधिकार? किसी ने नहीं, तो फिर ये जलन, ये पज़ेसिवनेस. एक बार टूटकर मन नहीं भरा, जो दोबारा टूटकर बिखरने को तैयार बैठी है, मगर क्या करे, दिल है किमानता नहीं.
लंच ब्रेक पर नित्येंद्र सर ख़ुद ही विधि के पास आकर बैठ गए, “तो विधिजी कैसा लग रहा है यहां आकर?”
‘बहुत ही बढ़िया, इससे बेहतर तो कुछ हो ही नहीं सकता था. आप, मैं और ये ख़ुशगवार मौसम…’ दिल में तो बहुत कुछ उबल रहा था, मगर मुंह से इतना ही निकला, “गुड सर, बहुत-सी नई चीज़ें सीखने को मिल रही हैं, जो सिलेबस में कवर नहीं होतीं.”
“हां वो तो है. तुम्हें बुरा न लगे, तो एक बात पूछूं?” सर प्लेट में चम्मच घुमाते हुए बोले, “आप देहरादून में अकेले रहकर पढ़ रही हैं, आपके पति कहीं बाहर जॉब पर हैं क्या? ये कोर्स तो हर शहर में होता है?”
आज उसकी दुखती रग छू दी गई थी, वो भी उसके द्वारा, जिससे वह उम्मीद नहीं कर रही थी. उसकी गंभीर चुप्पी देखकर सर ने बात पलटी, “बताना कोई ज़रूरी नहीं, यूं ही पूछ लिया था, आप खाइए आराम से.” मगर अब विधि के गले से कौर नीचे नहीं उतर रहा था. एक ख़्याली महल जैसे भरभरा गया था, “हां वो बाहर रहते हैं इसीलिए…” कुछ हकलाते से धीमे शब्द निकले, “वैसे आपकी शादी कब है सर, कोई डेट फिक्स हुई?”
“शादी… डेट… कुछ फिक्स नहीं हुई अभी.” पलटवार सुन नित्येंद्र सर भी हड़बड़ा गए.
“लड़की तो फिक्स है ना, जिससे शादी होनी है?” विधि ने सवालिया नज़रों से देखा, तो वे, “मुझे देर हो रही है.” कहकर फ़टाफ़ट उठकर भाग खड़े हुए.
पूरा दिन यूं ही गुज़रकर शाम में और शाम सुबह में तब्दील हो गई. आज विधि एक्साइटमेंट में समय से पहले ही पहुंच गई, मगर सर अपने समय पर ही आए. आज उन्होंने पहले सभी को पेंसिल स्केच की टास्क दी, टॉपिक था- परित्यक्ता. डिस्क्रिप्शन बताए गए थे एक नवयौवना जिसकी उदास आंखें ईश्वर से जैसे पूछ रही हैं, मेरे साथ ही क्यों…? उस का रूठा शृंगार, टूटा मन, अकेलापन… स्केच में नज़र आना चाहिए. इस टास्क के लिए ज़्यादातर को बस सीता मैया ही परफेक्ट मॉडल नज़र आईर्ं और उसी छवि को स्केच में उतार दिया गया… जंगल में बैठी विरहणी स्त्री का अश्रुरंजित चेहरा, वेदना से झुका सिर. “अरे बाप रे! कितनी कॉमन सोच है आप सबकी… कोई नवीनता नहीं… सबके सब जैसे कॉपी पेस्ट लग रहे हैं…” तभी एक स्केच देखकर सर ठिठक गए. “ये किसने बनाया है, नख-शिख शृंगार धारण किए नाचती-उछलती, उत्साह से भरी खिलखिलाती लड़की, लगता है टास्क ठीक से नहीं सुना था.”
“सुना था सर.” विधि ने गंभीरता से जवाब दिया.
“तो फिर… परित्यक्ता का मतलब जानती हो, जिसका साथी उसे छोड़ दे, क्या वह ऐसी होती है?”
“क्यों नहीं हो सकती है सर, यह उसकी अपनी चॉइस है, चाहे तो वो बाक़ी स्केच की तरह अपनी क़िस्मत को कोसते हुए आंसू बहाए या मेरे स्केच की तरह एक ज़बर्दस्ती का बंधन टूटने का सेलीब्रेशन मनाए, नाचे-गाए और अपने जीवन की एक नई शुरूआत करे.”
विधि की आंखों की भावभंगिमा देख नित्येंद्र सर को लगा जैसे उनके सामने कोई वीर रस में पगी कविता खड़ी हो… ‘ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो, श्रीमती विधि मिश्रा थी…’ बाक़ी सभी वर्कशॉप से निकल रहे थे, मगर विधि को नित्येंद्र सर ने रोक लिया. उस एक स्केच ने शायद कहीं एक उम्मीद का दीया टिमटिमा दिया था, “विधिजी, ये हिंदुस्तान है. यहां परित्यक्ता की वही परिभाषा है, जो बा़क़ी लोगों ने बनाई है. उसी इमेज पर नंबर मिलेंगे आपके क्रांतिकारी विचार एग्ज़ाम में नहीं चलेंगे. वहां मत बनाइएगा, ज़ीरो मिलेगा.”
“मिलेगा तो मिले सर, कुछ मार्क्स के लिए मैं अपनी सोच नहीं बदलूंगी.”
“अच्छा तो बताइए, क्या आपने समाज में ऐसी कोई लड़की देखी है, जो छोड़ेे जाने के बाद दुखी होने की बजाय आपके स्केच की तरह झूम उठे.”
“जी हां जानती हूं और आप भी जानते हैं, क्योंकि वह मैं ही हूं.”
“क्या मतलब?”
“मतलब ये कि मेरे पति ने फैमिली प्रेशर में मुझसे शादी तो कर ली, लेकिन ज़्यादा देर तक ये प्रेशर झेल नहीं पाए और महीनेभर के अंदर ही मुझे छोड़ अपनी प्रेमिका के साथ भाग गए. मैंने बजाय रोने-धोने के, अपनी क़िस्मत और घरवालों को दोष देने के जीवन की नई शुरुआत की और यहां इस नए शहर, नए कॉलेज में पढ़ाई पूरी करने चली आई. कुछ समय में हमारा क़ानूनी रूप से अलगाव हो जाएगा, फिर मेरे नाम के आगे लगा ये श्रीमती का पुछल्ला भी हमेशा के लिए हट जाएगा. स्केच में वो कोई और नहीं मैं ही हूं सर.” कहते हुए ना जाने क्यों विधि की आंखें भर आईर्ं. एक बोझ जो दिल पर लेकर घूम रही थी, यकायक उतर गया.
क्या हुआ जो उसे नित्येंद्र सर पसंद आने लगे हैं, क्या हुआ जो उनको देखना, उनको सुनना, उनके निकट रहना उसे अच्छा लगता है. ये कोई पाप तो नहीं. वैसे भी ऐसा करके वह अपने पूर्व पति की तरह किसी के साथ धोखा तो नहीं कर रही है. यह बस एक खेल है, जिसे खेलना उसे अच्छा लग रहा है और न खेलना उसके बस में भी नहीं. मगर नित्येंद्र सर ऐसा क्यों कर रहे हैं, उनकी सगाई हो चुकी है. वे तो किसी के लिए प्रतिबद्ध हैं, क्या उनका इस खेल में शामिल होना धोखा नहीं? पाप नहीं?
पलभर के लिए विधि को जैसे सामने बैठे उस आकर्षक चेहरे से वितृष्णा हो उठी. देखा तो सर बैठे हुए अपने हाथों से रिंग उतार रहे थे. उंगली की वो जगह लाल हुई पड़ी थी, “ओह! बड़ी अनकंफर्टेबल है ये. मैं इसे और नहीं पहन सकता.”
“ये तो आपकी एंगेजमेंट रिंग है ना सर?”
“एंगेजमेंट रिंग… किसने कहा कि मेरी एंगेजमेंट हुई है?”
“सभी लड़कियां कह रही थीं.”
“क्या कह रही थीं?”
“कह रही थीं कि…” जो कुछ कह रही थीं, वह बताना विधि के लिए संभव नहीं था, तो वह मुस्कुराकर रह गई.
“आप तो कॉलेज में नई हैं और समझदार भी, इसलिए आपको बता रहा हूं, पर प्लीज़ किसी से कहना मत.”
“क्या सर?” समझदारवाले कॉम्प्लीमेंट पर विधि थोड़ा इतरा गई.
“मेरी कोई एंगेजमेंट नहीं हुई. पता नहीं किसने अफ़वाह फैला दी. हां, इतना ज़रूर है कि मैंने इस अफ़वाह का खंडन नहीं किया.”
“क्यों सर?”
“ताकि इस कॉलेज में शांति से पढ़ा सकूं, वरना मुझे रोज़ मेरी बाइक में छिपाकर रखे गए लव लेटर प्राप्त होते थे. चार महीने पहले न जाने किसने मेरा फोन नंबर सार्वजनिक कर दिया था, तो शादी के प्रपोज़ल आने लगे थे. तो जैसे लड़कियां शादी के बाद मांग भरकर और मंगलसूत्र पहनकर सबको बता देती हैं ना कि आई एम बुक्ड, अब मेरी तरफ़ देखना भी नहीं, इसी तरह मैंने सोचा क्यों न मैं भी एक फेक रिंग पहनकर कॉलेज की छात्राओं की ऐसी मेहरबानियों से बच जाऊं.”
“तो कुछ फ़ायदा हुआ सर?” विधि शरारत से बोली.
“फ़ायदे का तो पता नहीं, मगर नुक़सान होता दिख रहा था, इसलिए आज उतार दी.” कहते हुए जिस नज़र से नित्येंद्र सर ने विधि को देखा, उसका रोम-रोम झनझना उठा.
“पहन लीजिए सर, कुछ अफ़वाहें बनी रहें, इसी में बेहतरी होती है.” कहते हुए विधि ने नित्येंद्र सर के हाथों से रिंग लेकर उन्हें दोबारा पहना दी. नज़रों का खेल, जो उस कैब में शुरू हुआ था, अभी पूरा तो नहीं हुआ था, मगर उसके विजेता दोनों ही खिलाड़ी थे. -दीप्ति