कहानी- इस रिश्ते का क्या नाम
आज बरसों बाद मैंने अपने छोटे से क़स्बे में कदम रखा. वैसे अब यह क़स्बा, कस्बा न रहकर शहर का रूप लेता जा रहा था. लेकिन मेरे दिलो-दिमाग़ में क़स्बे की अभी तक वही बाइस साल पुरानी तस्वीर बनी हुई थी. क़स्बे से मेरा अतीत, मेरा बचपन और उसकी सुखद यादें जुड़ी हुई थीं. अतीत की स्मृतियों को मन में संजोये मैं बस अड्डे से पैदल ही घर की ओर चल पड़ा.
धीरे-धीरे चलते हुए मैं बड़े बाज़ार आ गया. बाज़ार के स्वरूप में बहुत परिवर्तन हो गया था. चारों ओर आधुनिक ढंग से सजी चुकानें, दुमंजिला इमारतें, बड़े-बड़े कॉम्प्लैक्स, सब कुछ वहां बदला-बदला था. वह बरगद का पेड़ तो अभी भी वहीं था, जिसकी जटाओं को पकड़कर मैं झूला झूला करता था. मैंने बरगद के पीछे उस ओर नज़र दौड़ाई, जहां एक खंडहर था, वह खंडहर अभी भी था, पर पहले से ज़्यादा जर्जर अवस्था में. किसी समय यह राजा शिकारगाह था, लेकिन वक़्त के थपेड़े सह कर बुढ़ाता चला गया था, बिल्कुल मेरी तरह, मेरा साथी, मेरा हमराज़ जो था.
मैंने अपना सुख-दुख हमेशा इससे बांटा था. मैं अपने सुख-दुख के साझीदार खंडहर में पहुंचा और खंडहर की ही हर दीवारों पर जमी धूल-मिट्टी को झाड़, खुरचकर अतीत के स्मृति चिह्न तलाश करने लगा. कुछ देर की मेहनत के बाद दीवार पर रहे खुरचे शब्द झलकने लगे. मैंने अपने मोटे स्वस्थ शीशों वाले चश्मे के सहारे पढ़ा, 'सुन्नी' मेरी उंगलियां उस नाम पर फिरने लगीं और उस नाम से जुड़ी घटनाओं को याद करता मैं अतीत में प्रवेश करता चला गया.
उस वक़्त मेरी उम्र ग्यारह-बारह साल थी. तब मैं सुनीता को सुन्नी कहकर ही पुकारा करता था. मेरे द्वारा सुन्नी नाम से पुकारे जाने पर वह मुझसे लड़ती-झगड़ती और दिखावा करती कि उसे यह नाम अच्छा नहीं लगता. लेकिन ऐसा नहीं था. मन-ही-मन उसे यह नाम बहुत पसंद था. इसका पता मुझे तब लगा, जब मैं बुखार के कारण तीन-चार दिन घर पर ही रहा. उस वक़्त सुन्नी मेरे घर आई. हालांकि हमारे घर आमने-सामने थे, लेकिन उसका घर आना पहली बार हुआ था. उस दिन सुन्नी बहुत देर तक मेरे पास बैठी रही. मैं अपनी पीड़ा भूल उससे ढेर सारी बातें करता रहा. वापस जाते समय वो मुझे अपने हाथ से बनाया हुआ कार्ड दे गई. मैंने देखा, उस पर लिखा था "जल्दी से अच्छे हो जाओ- सुन्नी". मैं इस नाम को पढ़कर बहुत ख़ुश हुआ. मेरे शरीर के सामान्य होते ताप को देखकर मां-बाबूजी आश्चर्यचकित थे और मैं यह सोच कर ख़ुश हो रहा था कि आख़िर उसे मेरा दिया नाम पसंद आ गया.
वो अंकल की इकलौती बेटी थी. शर्मा अंकल बहुत बड़े अधिकारी थे, जबकि मैं एक मामूली क्लर्क का सबसे बड़ा लड़का. हम दोनों की आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियां भिन्न होते हुए भी हममें दोस्ती हो गई. यह भी अजीब बात थी, हमारी दोस्ती की दास्तान भी बहुत दिलचस्प है. शुरूआत में तो मैं सुन्नी को दूर से ही निहारा करता था. मुझसे दो-तीन साल छोटी सुन्नी मुझे नानी-दादी की सुनाई हुई कहानियों की परियों जैसी लगती. मेरी इच्छा होती में उससे बातें करूं, उसके साथ खेलूं, पर मैं चाहकर भी ऐसा नहीं कर पाता था. केवल उसे दूर से देखता रहता.
मेरे घर की छत से सुन्नी की कोठी का बाहरी भाग, जिसे वहां लॉन कहते थे, स्पष्ट दिखाई देता था. छत से देखने पर सुन्नी लॉन में तितलियों के पीछे भागती, कभी झूला झूलती, कभी मखमली घास पर बैठी होमवर्क करती दिखाई देती. उसका स्कूल मेरे स्कूल से कुछ ही दूरी पर था. शर्मा अंकल प्रतिदिन उसे अपनी गाड़ी से लेने और छोड़ने आते थे. गाड़ी में बैठी सुन्नी की गर्दन हमेशा नीचे की ओर झुकी रहती. उसकी नज़र शायद ही मुझ पर पड़ती हो, लेकिन मैं उसकी एक झलक पाकर ही ख़ुश हो जाता था.
एक दिन बहुत इंतज़ार के बाद भी सुन्नी की गाड़ी आती दिखाई नहीं दी, तो मैं परेशान हो गया. मन में हज़ारों तरह के विचार आ-जा रहे थे. कुछ देर तक मैं वहीं खड़ा इंतज़ार करता रहा. फिर उसके स्कूल की ओर बढ़ चला. सुन्नी स्कूल के दरवाज़े पर अकेली खड़ी नज़र आई. वह बेहद उदास और परेशान थी. मैं कुछ दूरी पर खड़ा उसे निहारता रहा. हिम्मत करके उसके समीप पहुंचा और समस्या पूछी. वो बोली, "पता नहीं पापा क्यों नहीं आए. अब मैं घर कैसे जाऊंगी? मुझे तो ठीक तरह से रास्ता भी नहीं मालूम है."
"मैं तुम्हे घर तक छोड़ सकता हूं, मेरा घर भी वहीं है." मैंने कहा. वह मेरे साथ चलने लगी. कितनी अजीब बात थी! मैं उसे अच्छी तरह जानता था, पर उसे मेरे बारे में कुछ भी मालूम नहीं था. रास्ते में मैंने उसे अपने बैग में रखी कैरियां खाने को दीं. उसने भी मुझे कहानियों की एक किताब दी. इस तरह हुई हमारी पहली मुलाक़ात और दोस्ती की शुरूआत.
संयोग से तीन-चार दिन और शर्मा अंकल उसे लेने स्कूल नहीं आ सके. तब हम साथ ही घर आए थे. इन दिनों हमारी दोस्ती और ज़्यादा पक्की हो गई. अब मैं अक्सर उसके घर जाने लगा था. शर्मा अंकल को मेरा सुन्नी के साथ खेलना-कूदना पसंद नहीं था, लेकिन आंटी को कोई आपत्ति नहीं थी. उनका स्नेह मुझे मिलता रहा था.
सुन्नी पढ़ाकू थी. उसे कविताएं और ग़ज़लें लिखने का शौक़ था, जबकि मैं पढ़ाई में औसत था. मेरे लिए कविताएं और ग़ज़लें लिखना तो दूर की बात, उन्हें समझना भी बहुत दुष्कर था. फिर भी हम दोनों में अपने शौक़ या पढ़ाई को लेकर कभी बहस या लड़ाई नहीं हुई. हमेशा हम एक-दूसरे की सहायता करने की ही कोशिश करते थे. वो मुझे गणित के सवाल किस तरह हल किए जाते हैं, ये समझाती. कभी-कभार अपनी कविताएं भी सुनाती.
मेरी कविताओं में रुचि नहीं थी, लेकिन कविताएं सुनते वक़्त मेरे हाव-भाव इस प्रकार होते कि मेरी अरुचि कभी उस पर प्रकट न हो पाती. इस तरह हम साथ-साथ खेलते-पढ़ते पता नहीं कब उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच गए जिसे जवानी कहते हैं.
अब हम कभी-कभार ही मिल पाते थे. सुन्नी का अधिकांश समय हिन्दी साहित्य के किसी विषय पर किए जा रहे शोध कार्य में बीतता था. बाबू सेवानिवृत्त हो गए थे और मैं बेरोज़गार था. आर्थिक तंगी के माहौल में मेरा आत्मविश्वास खोने लगा. स्वभाव चिड़चिड़ा हो गया था. दिनभर नौकरी की तलाश में भटकता, उसके बाद जो समय बचता वह शिकारगाह के खंडहर से बातें करते और सिर पीटते बीतता था.
ऐसे में एक दोपहर सुन्नी से मुलाक़ात हुई. पहले तो वह मुझे पहचान ही नहीं पाई. बेकारी और घुटन से मेरा शरीर आधा हो गया था. चेहरा कुम्हला सा, बाल रूखे-सूखे बेतरतीब से थे. मेरी यह हालत देखकर वह बहुत दुखी हुई. उसकी जिद के कारण मजबूर होकर अपनी वर्तमान हालत के बारे में सब बता देना पड़ा. वह कुछ देर तक चुप रही, फिर बोली, "टाइपिंग करना जानते हो?"
"हां, गति भी अच्छी है."
"फिर ठीक है. समझो तुम्हारी समस्या ख़त्म हो गई."
उसने अपने परिचित प्रोफेसर के यहां मुझे टाइपिस्ट की नौकरी दिलवा दी. मेरी आर्थिक परेशानी पूर्णतया समाप्त नहीं हुई, पर कुछ हद तक कम अवश्य गई थी.
कुछ महीनों बाद शहर की एक प्राइवेट कम्पनी में अच्छे पद पर मेरी नियुक्ति गई. मैंने जब सुन्नी को शहर जाकर रहने की बात बताई, तो उसकी आंखें देखकर एक पल के लिए मुझे लगा कि उसकी आंखें मना कर रही हैं- 'मत जाओ, जान ही है तो मुझे भी ले चलो', लेकिन यह भ्रम था. प्रत्यक्षतः ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. उसने हंसकर मुझे भविष्य के लिए शुभकामनाएं दीं.
मैं मां-बहनों और बाबू के साथ शहर चला आया. क़स्बे से मेरा नाता अब लगभग टूट चुका था. लेकिन सुन्नी और मेरे बीच पत्रों का पुल बना हुआ था, जिससे वहां की खैर-ख़बर और उसकी शोध प्रगति के बारे में पता चलता रहता था.
सुन्नी के पत्र लगातार आते पर मैं व्यस्तता के कारण जवाब कम ही दे पाता. धीरे-धीरे यह पुल भी टूट गया. मां को शहर की आबो-हवा रास नहीं आई. वह यहां आने के बाद से बीमार रहने लगी थीं. मां चाहती थी कि मैं जल्दी से जल्दी घर बसा लूं, पर मैं पहले बहनों की शादी के बहाने उसे टालता रहा. एक-दो सालों में बहनों की शादी हो गई.
मां का स्वास्थ्य अब पहले से ज़्यादा ख़राब रहने लगा. अब पहले से मुझ पर शादी का दबाव रहने लगा था. बाबू भी अब दबाव डालने लगे. मेरे मन में अजीब सी उथल-पुथल शुरू हो गई. मेरे सामने बचपन से लेकर अब तक सुन्नी के साथ बिताए दृश्य सजीव होने लगे. उस रात मैं एक पल के लिए भी सो नहीं पाया था. हांलाकि मेरे और सुन्नी के बीच न तो पत्रों में न ही प्रत्यक्ष में ऐसी कोई बात हुई थी, जिसे हम शादी के बंधन में बंधने का आधार बना सकें. फिर भी पता नहीं क्यों मैं अपने आपको सुन्नी का अपराधी महसूस कर रहा था.
बाबू ने शहर में ही अपने मित्र की लड़की से मेरा रिश्ता तय कर दिया. कुछ दिनों बाद सगाई की रस्म होनी थी. अपने अपराधबोध को हल्का करने के उद्देश्य से सुन्नी को इसकी जानकारी पत्र लिखकर दे दी. सगाई से एक दिन पहले सुन्नी शहर आई. पूरे दिन वो मां-बहनों के साथ घर के कामों में व्यस्त रही, लेकिन मुझे उसकी व्यस्तता ओढ़ी हुई महसूस हुई. सगाई के हफ़्ते भर बाद ही लक्ष्मी से मेरी शादी हो गई. सुन्नी तब तक वहीं थी. लक्ष्मी साधारण पढ़ी-लिखी लड़की थी. अपने व्यवहार से उसने घर भर का दिल जीत लिया. सुन्नी की तो वह ख़ास सहेली बन गई.
कुछ दिन रुककर सुन्नी वापस क़स्बे चली गई. मां ने घर की ज़िम्मेदारियां लक्ष्मी को सौंप दीं. बेटे का घर बस जाने की ख़ुशी से उसके स्वास्थ्य में सुधार आने लगा था. धीरे-धीरे वक़्त गुज़रता रहा. इस बीच सुन्नी शोध पूरा कर क़स्बे के कॉलेज में व्याख्याता हो गई थी. कुछ समय बाद कॉलेज के ही साथी व्याख्याता के साथ सुन्नी की शादी की सूचना मुझ तक पहुंची. लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद व्यस्तता के कारण शादी में शामिल नहीं हो पाया.
शादी के कुछ महीनों बाद ही सुन्नी को अपने पति के साथ शहर आया देखकर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ. उलाहनो और शिकवे-शिकायतों के बीच उसने अपने पति का परिचय दिया. उसके पति खुले विचारों के ज़िंदादिल व्यक्ति थे. उनसे बातें करते हुए एक पल को भी ऐसा नहीं लगा कि कभी हम अजनबी थे. अब सुन्नी समय-समय पर अकेली या अपने पतिदेव के साथ यहां आती रहती थी. हम घंटों बैठे बचपन की मधुर स्मृतियां समेटते-सहेजते, सम सामयिक या साहित्यिक विषय पर चर्चा करते. लक्ष्मी हमारी महफ़िल में बहुत कम शिरकत कर पाती, उसे अपने गृहस्थी के कामों से ही फ़ुर्सत नहीं मिलती थी. समय यूं ही बीतता रहा. सुन्नी अक्सर शहर आती-जाती रहती. ऐसे ही एक दिन सुन्नी मेरी छुट्टी वाले दिन शहर आई. मैं उसे शहर के प्रमुख स्थल दिखाने ले गया. हम देर रात को घर लौटे, दिनभर घूमने के कारण थकान हो गई थी. सुन्नी सोने के लिए दूसरे कमरे में चली गई. मैं अपने कमरे में आया तो लक्ष्मी जाग रही थी. उसका चेहरा किसी परेशानी में डूबा, उखड़ा उखड़ा सा लगा. मैंने पूछा "सोई नहीं?"
"नहीं, नींद नहीं आ रही थी."
"क्यों क्या बात हैं?" मैं चिंतित हो गया.
"कुछ नहीं." फिर कुछ रुककर बोली, "एक बात कहूं?"
"हूं…" मैंने हुंकार भरी.
"देखो बुरा मत मानना."
"अब कहो भी."
"बात यह है कि सुन्नी दी का बार-बार यहां आना. अकेले यहां रहना और घूमना-फिरना…" फंसे-फंसे स्वर में उसने बात पूरी की, "मैं अपनी नहीं कहती. लेकिन दुनियावाले क्या कहते होंगे? फिर उनके पति कितने ही खुले विचारों के हों वे भी कुछ न कुछ तो सोचते ही होंगे."
वह चाहे नारी सुलभ ईर्ष्या रही हो अन्य कोई बात, लेकिन सुन्नी दूसरे दिन खोई-खोई सी रही. मुझे लगा शायद रात को लक्ष्मी की बात सुन ली थी. मेरा अंदाज़ा सही भी निकला, क्योंकि इस घटना के बाद सुन्नी अकेली या अपने पतिदेव के सार कभी शहर नहीं आई. न ही कभी पत्राचार की कोशिश की. मैंने भी इस बारे में ना सोचकर बेरुखी धारण कर ली.
वक़्त गुज़रते कुछ पता नहीं चला. बीस साल बीत गए. इन सालों में कल पहली बार सुन्नी का पत्र आया था. उसकी लड़की की सगाई थी. मुझसे और लक्ष्मी से अवश्य आने का आग्रह किया गया था. लक्ष्मी तो गृहस्थी का बहाना बना कर रह गई, लेकिन मैं उसके आग्रह को ठुकरा नहीं पाया और क़स्बे चला आया.
अचानक चली तेज हवा से हुई पत्तों की खड़खड़ाहट ने मेरा ध्यान भंग कर दिया. मैं अतीत का दामन छोड़ वर्तमान में आ गया. खंडहर से निकलकर मेरे कदम सुन्नी के घर की ओर बढ़ चले. बढ़ते हुए कदमों में कम होते फ़ासलों के साथ मैं सोच रहा था, "ज़्यादा नहीं रुकूंगा, आज ही वापस चला जाऊंगा, वरना दुनिया क्या कहेगी? उसके पतिदेव क्या सोचेंगे? वैसे भी मेरा और सुन्नी का कोई रिश्ता तो है नहीं. रिश्ता क्यो नहीं है, हम दोनों में दोस्ती का रिश्ता जो है." मैं अपने आपसे ही बातें कर रहा था. दिल से आवाज़ आई, "नहीं, आदमी और औरत के बीच दोस्ती का रिश्ता नही होता." मैंने तर्क दिया, "तो फिर हमारा रिश्ता बेनाम है." दिल ने पुरजोर विरोध किया, "नहीं रिश्ते बेनाम नहीं होते. रिश्ते का नाम होता है. तुम भी अपने रिश्ते का नाम ढूंढ़ो." और मैं अपने सामने खड़ी बूढ़ी होती परी को देखते हुए सोच रहा था इसे किस रिश्ते का नाम दू?"- गिरीश पुरोहित