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कहानी- मन का रिश्ता

दोपहर का खाना खाकर सुलोचनाजी कुछ देर आराम करने के लिए लेटी ही थीं कि कॉलबेल की आवाज़ सुनकर उनको फिर उठना पड़ा. दरवाजा खोला तो देखा कि पोस्टेमेन डाक लिए खड़ा था. डाक लेकर, अंदर आकर एक बार तो वे सारी चिट्ठियां अपने पलंग के पास रखी टेबल पर डालकर पुन: सोने का प्रयास करने लगीं, पर एक बार नींद में खलल पड़ने के बाद वापस नींद आना इतना आसान नहीं था. अत: पांच-सात मिनट आंख बदकर सोने का प्रयास करके वे पुन: उठकर बैठ गईं.
पास रखी डाक उठाकर देखी, तो उसमें टेलीफोन बिल, बिजली का बिल तथा किसी मेडीकल कॉन्फ्रेंस का निमंत्रण पत्र और दो पत्र नज़र आए. एक लिफ़ाफ़े पर उनका पता टाइप किया हुआ था, कोने में प्रेषक के नाम पर सौरभ का नाम देखकर आश्‍चर्य हुआ. सौरभ के दिल्ली जाने के बाद, आज पहली बार उसका पत्र मिला था. इतने समय बाद बेटे को मां की याद कैसे आई. इसी उत्सुकता के कारण उन्होंने झटपट सौरभ का पत्र खोला.
सौरभ ने दो-चार औपचारिक शिष्टचार के वाक्यों को लिखने के बाद अपने पत्र लिखने के मूल उद्देश्य पर आते हुए लिखा था- मां, आपको यह जानकर ख़ुशी होगी कि मेरा बिज़नेस आजकल अच्छा चल रहा है और मुझे लगता है कि आगे भी इस क्षेत्र में बहुत स्कोप है, इसीलिए मैं अपने बिज़नेस को एक्सटैंड करना चाहता हूं. इस संदर्भ में मुझे एक बड़ी अच्छी ऑफिस ख़रीदनी होगी. मां, आप तो जानती हैं कि किसी भी मेट्रो सिटी में एक छोटी-सी दुकान ख़रीदना भी कितना मुश्किल होता है. हालांकि मेरी कमाई अच्छी है, पर मैं अपने बिज़नेस के मुनाफ़े को तो अपने व्यापार विस्तार में लगा देता हूं, अब मुझे ऑफिस ख़रीदने के लिए अतिरिक्त रूपयों की व्यवस्था करनी होगी.
इसके लिए एक योजना मेरे दिमाग़ में आई है कि क्यों न हम अपना कोटा का मकान बेचकर रकम की व्यवस्था करें. फ़िलहाल आप वहां रह रही हैं. घर पर आपके बाद तो हम दोनों भाइयों को वहां आकर बसने का कोई इरादा नहीं है. मैंने इस विषय में गौरव भैया से भी लंदन बात की थी. उन्होनें तो स्पष्ट कह दिया है कि उनकी भारत लौटने की कोई गुंजाइश नहीं है. वे लंदन में ही अच्छी तरह सैटल हो चुके हैंं. उनको आपकी किसी प्रॉपर्टी में भी कोई रूचि नहीं है. अत: उन्होनें अपना हिस्सा भी मेरे नाम क़ानूनी तौर पर कर दिया है. इस तरह गौरव भैया की ओर से तो हमें कोई प्रॉब्लम आनेवाली नहीं है. अब बस, सब कुछ आपको ही तय करना है. आप अकेली वहां रहकर क्या करेंगी? इससे बेहतर होगा कि आप हमारे पास ही शिफ्ट हो जाएं. वैसे भी आजकल आपकी तबियत ठीक नहीं रहती है. ऐसे हालात में आपका वहां अकेले रहना ठीक नहीं है. पिछली बार पापा के निधन के समय मैं वहां आया था, तो मेरी अपनी पड़ौसी शर्मा अंकल, से इस संबंध में बात हुई थी. वे अपने मकान को ख़रीदने में काफ़ी इंटरेस्टेड लगे. इसके लिए वे अच्छी क़ीमत देने को भी तैयार हैं. चूूंकि यह मकान आपके नाम है. अत: सारे डॉक्यूमेंट्स पर आपके हस्ताक्षर होने हैं. मैने दिल्ली में ही सारे डॉक्यूमेंट्स तैयार करवा लिए है, जिनको इस पत्र के साथ आपको भेज रहा हूं.
आप जहां-जहां निशान लगे हैं, वहां हस्ताक्षर कर मुझे शीघ्र सारे पेपर्स भेज दें. मुझे पूरा विश्‍वास है कि आप इस संबंध में कोई ठील नहीं करेंगी व मुझे अविलम्ब अपने हस्ताक्षर करके पेपर्स भेज देंगी. शेष कुशल.
आपका
सौरभ

सौरभ का पत्र पढ़कर वे हैरान-सी हो गई थीं. कभी पत्र को, तो कभी उसके डॉक्यूमेंट्स को देख रही थीं? बिना उनके सलाह-मशविरा किए अपनी ओर से तो सौरभ ने सब कुछ तय कर डाला था. गनीमत थी कि मकान उनके नाम था, अन्यथा वह तो शायद मकान का सौदा भी अपने आप करके उनको सूचना भर दे देता. सौरभ को उनके अकेलेपन और उनके स्वास्थ्य की चिंता भी अभी-अभी ही होने लगी थी, अन्यथा पिछले वर्षों में वे कितनी बार उसको अपनी पत्नी और बच्ची के साथ कुछ समय अपने पास बिताने का आग्रह कर चुकी थीं. सौरभ का पत्र खोलने के पूर्व, उसका पत्र पाने का जो सुखद उत्साह उनमें था वह काफ़ूर हो गया. मन मे एक अजीब-सी रिक्तता का एहसास हो रहा था.
वे सोच रही थीं कि आजकल की पीढ़ी कितनी व्यक्तिपरक और आत्मकेन्द्रित हो गई थी. रागिनी भी उनकी संतान थी, पर सौरभ ने उनकी सम्पत्ति में उसकी हिस्सेदारी को शायद जान-बूझकर अनदेखा कर दिया था.
सौरभ का पत्र पढने के बाद उन्होंने जब दूसरा पत्र उठाया तो उस पर लिखी रागिनी की हस्तलिपी को पहचानने में वे कैसे भूल कर सकती थी. वैसे भी रागिनी से तो उनका पत्राचार चलता ही रहता था. रागिनी ने क्या लिखा होगा. इस उत्सुकता से उन्होनें उसका पत्र भी खोला. रागिनी ने लिखा था-
पूज्य मां, इस बार मेरे पत्र देने में कुछ विलम्ब हुआ क्षमा करें. आप तो जानती ही हैं कि नए-नए अस्पताल को ज़माने की व्यवस्था में समय कब निकल जाता है कि पता ही नहीं चलता.
मां, आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि रोहित और मैंने मिलकर एक योजना बनाई है कि अपने अस्पताल के साथ के ब्लॉक में ही एक नया शिशुगृह खोलें. जहां बेसहारा और अनाथ बच्चों का लालन-पालन किया जा सके. हमारे नए शिशुगृह 'पालना' का निर्माण कार्य काफी हद तक हो चुका है और निर्माण कार्य की यही रफ़्तार रही, तो अगले माह पन्द्रह अगस्त पर उसका विधिवत उद्घाटन करने का विचार है. इस अवसर पर उपस्थित होने के लिए यह पत्र विशेष रूप से मैंने आपको लिखा है, ताकि आप अभी से अपने आने की पूर्व तैयार कर लें. आपके कर कमलों से ही 'पालना' का शुभारंभ होगा, अत: नहीं आ पाने का आपका कोई बहाना हमें मंज़ूर नहीं होगा.
रागिनी ने आगे लिखा था- मां, पिछले सताइस वर्षों में आपने जो प्यार, स्नेह ओर सहारा दिया है, उसके लिए अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए मैं बहुत बार सोच चुकी हूं, पर हर बार एक संकोच की दीवारे आड़े आ जाती थी. आप बहुत दिनों तक सोचने के बाद अपने मन की बात आपसे करने का मैंने निर्णय कर ही लिया.
मां, आपने मुझ बेसहारा, अनचाही, बिन मां की संतान को अपनाकर मुझ पर जो उपकार किया है उसके लिए मेरे हृदय का रोम-रोम आपके प्रति ऋणी है. आपने मुझे केवल सहारा ही नहीं दिया, मुझे आपने अर्न्तमन से अपनाया. मेरी अच्छी से अच्छी परवरिश की. मुझे पढ़ाया-लिखाया और डॉक्टर बनाया. यह सब मैं क्या कभी भूल पाऊंगी. स्वयं की दो-दो संताने होते हुए भी आपने मुझे एक पल के लिए भी इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि मैं आपकी जन्मदायी पुत्री नहीं, बल्कि एक अपनाई हुई दत्तक पुत्री हूं. अपने बचपन की एक-एक स्मृति की मैंने बहुत सहेज कर रखा है. जब गौरव और सौरभ भैया मुझे छेड़ते, तंग करते, तब भी आप उनका पक्ष लेने की बजाय सदैव मेरी ही तरफ़दारी करतीं. मां, अपने बचपन में तो मैं यही समझती रही कि आप ही मेरी जननी हैं, पर जब कुछ समझ आई और हक़ीक़त का पता चला, तो आपके प्रति मेरी श्रद्धा द्विगुणित हो गई. उसी दिन से आप मेरी सब कुछ फ्रेंड, फिलॉसफर और गाइड बन गई थीं.
मां मैंने, भगवान को तो नहीं देखा है, पर आप में मुझे हमेशा भगवान ही नज़र आए हैं. आपने मेरे जैसी असहाय, लाचार और बेबस बच्ची को अपनाकर समाज में अपनी उदारता का जो आदर्श स्थापित किया है, वही पथ मेरे जीवन का मार्गदर्शन बन गया है. मेरी बहुत वर्षों से यह अभिलाषा रही थी कि मैं भी आपकी तरह जीवन में कम से कम एक अनाथ को सनाथ बना पाऊं. रोहित का हर तरह सहयोग ओर मार्गदर्शन तथा आपकी प्रेरणा ही मेरे जीवन का पाथेय बने. जिस दिन आपके कर कमलों से पालना का शुभारंभ होगा, वह दिन मेरे जीवन का स्वर्णिम दिन होगा. आपके पैंसठवें जन्म दिवस पर रोहित और मेरा आपके लिए यह एक छोटा-सा उपहार है. बस अब तो आपके आगमन की प्रतीक्षा है. कृपया, निराश नहीं करिएगा.
रागिनी के पत्र की आत्मीयता ने उन्हें भीतर तक सरोबार कर दिया. वह चुप-चुप सी शांत स्वभाववाली लड़की आज सहसा कितनी मुखर हो गई थी. आज अचानक ही जीवन के धूप-छांव का साथ-साथ अनुभव हो रहा था. उनके सामने एक ओर सौरभ का पत्र था, जिसमें केवल अपने हक़ और अधिकारों की बात लिखी गई थी. अपने दोनों पुत्रों की अच्छी से अच्छी परवरिश के लिए उन लोगों ने क्या कुछ नहीं किया. अच्छी से अच्छी स्कूल, होस्टल में उन्हें भेजा. उनको जीवन की हर सुविधाएं उपलब्ध करवाई, पर उनके बच्चों ने यह तो हर मां-बाप का बच्चों के प्रति कर्त्तव्य होता है समझ कर कभी उनकी भावनाओं को महत्व नहीं दिया. दूसरी ओर रागिनी का पत्र था, पत्र के हर शब्द में उनके प्रति, उसकी श्रृद्वा और आदर के भाव थे. रागिनी ने उनको इतना सम्मान दिया था कि उसके पत्र को पढ़कर एक बार तो सौरभ के पत्र से मिली व्यथा और पीड़ा को भी वे भूल गईं.
आज अपने अतीत के पन्ने पलटने का उनका बहुत मन हो रहा था. पिछले कुछ वर्षों में जीवन में कितना कुछ घट गया था. रागिनी का आगमन उनके जीवन में अप्रत्याशित रूप से हुआ था. उन दिनों वे सरकारी अस्पताल में महिला रोग चिकित्सक के रूप में कार्यरत थीं. उस समय वे अपनी यूनिट की प्रमुख थी. अपनी कार्यकुशलता के कारण उनकी मरीज़ों में अच्छी लोकप्रियता थी.
उन्हीं दिनों में सावित्री पुन: उनके सम्पर्क में आई. बचपन में सावित्री और वे एक ही मोहल्ले में रहने के कारण एक-दूसरे से परिचित थी. सावित्री के उनसे उम्र में सात-आठ वर्षों का अन्तर होने के कारण उससे उनकी मित्रता तो नहीं थी. फिर भी दोनों परिवारों के बीच मधुर संबंध थे. सुभाष से विवाह होने के बाद वे स्वयं तो कोटा आ गई थीं. बाद में सावित्री का विवाह कहां हुआ उन्हें पता नहीं चल पाया.
उस दिन कई वर्षो के पश्‍चात अचानक एक मरीज़ के रूप में सावित्री जब उनके पास आई, तो एकबारगी तो उसे पहचान भी नहीं पाई. वह सुन्दर नाज़ुक सी लड़की पिछले दस वर्षों में कितनी बदल गई. सावित्री ने भी शायद उम्मीद नहीं की थी कि उसकी जांच करने वाली डॉक्टर उसकी परिचित ही निकलेगी. कुछ क्षणों के लिए दोनों ही एक-दूसरे को पहचानने का प्रयास करते रहे बाद में सावित्री से उनका विस्तृत परिचय पाकर उन्हें सब कुछ स्मरण हो आया. उस समय सावित्री को चौथा महीना चल रहा था. वह बहुत कमज़ोर और एनिमिक लग रही थी.
सावित्री से ही पता चला कि पिछले चार वर्षो में दो कन्याओं को जन्म देने के अलावा उसका एक बार पांव फिसल कर गिर जाने से एर्बोशन हो चुका था. इतने कम अंतराल पर वह एक बार फिर से गर्भवती हो गई थी. सावित्री के चेहरे की घबराहट देखकर उन्होंने जब उसकी परेशानी का कारण पूछा, तो उसने बतलाया कि दो बेटियों को जन्म देने के कारण उसके पति और सास उस पर बहुत ज़ुल्म ढा रहे थे. एक बार तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया था कि अगर उसने फिर से बेटी को जन्म दिया, तो वे लोग उसको घर से ही निकाल देगें.
सावित्री की दर्दभरी दास्तान को सुनकर वे विचारमग्न हो गई थी. सावित्री बार-बार उनसे प्रार्थना कर रही थी कि वे उसका गर्भपात कर दें, ताकि यदि उसके गर्भ में इस बार भी कन्या भ्रूण हुई, तो उसकी सास और पति उसे कतई माफ़ नहीं करेंगे. सावित्री की बात सुनकर वे गंभीर हो गईं, पर उसकी जांच करने के पूर्व वे कुछ भी नहीं कह सकती थीं. उन्होनें सावित्री का अच्छी तरह मुआयना करने के पश्‍चात उसे स्पष्ट कह दिया था कि उसका अठारह सप्ताहों का गर्भ होने के कारण उसका इस हालत में गर्भपात करना उसके लिए जानलेवा हो सकता था.
उन दिनों सोनोग्राफी का भी विशेष प्रचलन नहीं था, जिससे उसकी अंदरूनी स्थिति की स्पष्ट जांच हो पाती. उन्होंनेक्षउसको समझाना चाहा कि यदि उसके पति और सास उस पर पुत्र पैदा करने के लिए मानसिक रूप से इतना दबाव डाल रहे हैं, तो वह अन्तिम बार एक चांस और ले लें. हो सकता है, इस बार उसके गर्भ में पुत्र हो. पहले तो सावित्री पर उनकी बातों का विशेष असर नहीं हुआ. वह बार-बार एक ही रट लगाए जा रही थी कि वे उसका एर्बोशन कर दें, पर जब उन्होंने उसकी बात को मानने से स्पष्ट इंकार कर दिया और उसे देर तक समझाया, तो वह कुछ सहज हुई. उन्होंने उससे यह भी कहा था कि कोई तकलीफ़ हो, वह नि:संकोच उनके पास आए. उन्होंने अपने पास से सावित्री को आवश्यक दवाएं ओर टॉनिक भी दिए तथा उसे स्पष्ट ताकिद की थी कि वह अपने खानपान पर विशेष ध्यान रखें. इस प्रकार सावित्री से उनका पुन: सम्पर्क हुआ.

उसके बाद सावित्री समय-समय पर उनके पास जांच के लिए आती रही. सावित्री से धीरे-धीरे उसकी पारिवारिक परिस्थितियों की जानकारी मिलती रही. सावित्री ने बतलाया कि उसके पति घर में अकेले कमानेवाले थे, उन पर अपनी मां तथा दो कुवांरी बहनों की पहले से ही ज़िम्मेदारी थी. जब उसके भी दो लड़कियां हो गई, तो उसकी सास और पति बहुत बौखला गए थे. अपनी सारी कुंठा और नाराज़गी वे उस पर निकालते रहते थे. यही वजह थी कि जैसे-जैसे प्रसव का समय नज़दीक आ रहा था सावित्री के मन में डर और शंकाओं के बादल गहराते जा रहे थे.
सावित्री की शारीरिक अवस्था को देखते उसका ऑपरेशन होना था. सावित्री की घबराहट बहुत बढ़ गई थी. ऑपरेशन टेबल पर भी सावित्री उनको हाथ पकड़ कर बार- बार याचना कर रही थी, “दीदी, यदि ऑपरेशन के दौरान मेरी मौत हो जाए और इस बार यदि मेरी बेटी ही पैदा हो, तो आप कृपया मेरे घरवालों को मेरी बच्ची को नहीं सौंपे. मैं नहीं चाहती कि मेरी पहली दो बेटियों की तरह इसको भी जन्म लेते ही अपमान और उपेक्षा झेलनी पड़े. आपके पास तो ऐसे बहुत से नि:सतान दम्पति आते होेंगे, जिनके अपने बच्चे न होने के कारण वे दूसरों के बच्चों को गोद लेना चाहते हैं. आप कृपया ऐसे ही ज़रूरतमंद दम्पति को मेरी बच्ची सौंप दे. जहां उसके आगमन का सदैव स्वागत किया जाएगा." कहते-कहते सावित्री रो पड़ी थी. सावित्री की बातों को सुनकर उनकी भी आंखें भर आईं. उन्होंने उसे आश्‍वस्त किया, "सावित्री, तुम किसी प्रकार का तनाव इस समय मत रखो. वैसे तो मुझे विश्‍वास है कि तुम्हें कुछ नहीं होगा. फिर भी मैं तुम्हें वादा करती हूं कि यदि तुम्हारी बेटी होगी, तो उसकी हर तरह से मैं हिफ़ाज़त करूंगी और जब तक कोई सुयोग्य परिवार उसे अपनाने के लिए नहीं मिलेगा, तब तक तुम्हारी बेटी को स्वयं मैं अपने पास रखूंगी."
उनका आश्‍वासन मिलने के बाद सावित्री बहुत निश्‍चित सी हो गई थी. उसकी आंखों में आए कृतज्ञता के भाव वे आज भी नहीं भूल पाई हैं. वह बोली, “दीदी, मैं जीवनभर तनावमुक्त और निश्चिंत होकर जी तो नहीं पाई, पर आज आपकी बात सुनकर शांति से मर ज़रूर सकूंगी.” उसके बाद एनेस्थिसिया के प्रभाव के कारण उसकी आंखें बंद हो गई. ऑपरेशन के दौरान अचानक उसका ब्लड प्रेशर बहुत बढ़ जाने के कारण उसकी स्थिति गंभीर हो गई थी. हर संभव प्रयास करने पर भी वे उसको तो बचा नहीं पाई, हां उसकी बेटी ज़रूर सही सलामत पैदा हो गई थी. ऑपरेशन थियेटर से वे बहुत दुखी मन से जब बाहर निकली, तो सावित्री की सास ने बजाए सावित्री के स्वास्थ्य के विषय में पूछने के पहला प्रश्‍न यही किया, “क्यों डॉक्टर साहब, इस बार तो मेरे पोता ही हुआ है ना." उन्होंने इंकार करते हुए जब उसे सावित्री की मृत्यु और उसके पुत्री होने की सूचना दी, तो वह अपना सिर पीटते हुए बोल पड़ी, "हे भगवान, हमारे तो कर्म ही फूट गए. हाय, मेरे बेटे का क्या होगा. इस महंगाई के ज़माने में वह कैसे अपनी दो बहनों और तीन-तीन बेटियों का बोझ उठा पाएगा."
फिर सावित्री को कोसते हुए बोली, “वह अभागी स्वयं तो चली गई, पर जाते-जाते यह नई मुसीबत हमारे गले मंढ गई. अच्छा होता भगवान उसके साथ-साथ इसे भी उठा लेता.” सावित्री का पति चुपचाप खड़ा अपनी मां की बातें सुनता रहा. उसमें तो इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह अपनी मां के अर्नगल प्रलाप को रोकता, बल्कि उसके चेहरे के भावों से तो यही लग रहा था कि वह अपनी मां से सहमत ही था. उसको देखकर लग रहा था कि उसको अपनी पत्नी की मौत का भी कोई ख़ास दुख नहीं हुआ था. उन लोगों के रूख को देखकर उन्हें विश्‍वास हो गया कि सावित्री ने ठीक ही कहा था कि उसकी सास और पति कितने निर्मम थे.
वास्तव में उसकी बेटी को उन क्रूर हाथों में सौंपना उचित नहीं था, पर इसके लिए उसके पति की स्वीकृति लेनी ज़रूरी थी. उन्होनें जब उसकी अन्तिम इच्छा के विषय में उन्हें बताया, तो जैसे उनको मुंह मांगी मुराद ही मिल गई. उसका पति दो-चार मिनट अपनी मां से सलाह-मशविरा करने के बाद तुरन्त बोला, "डॉक्टर साहब, यदि सावित्री की भी अन्तिम इच्छा यही थी कि इस बच्ची को किसी सुपात्र को गोद दे दिया जाए, तो मुझे कोई ऐतराज़ नहीं है. मैं उसकी अन्तिम इच्छा का अनादर नहीं करूंगा, बस यही समझ कर संतोष कर लूंगा कि सावित्री के साथ बच्ची भी जन्म लेते ही हमसे बिछुड़ गई. मैं तो पहले से अपनी दो बहनों और दो बेटियों की ज़िम्मेदारियां उठाते-उठाते परेशान हो गया हूं. अब फिर एक बेटी का अतिरिक्त बोझ मैं नहीं उठा पाऊंगा. इससे तो बेहतर होगा कि इसे किसी सुयोग्य हाथों में सौंप दें, ताकि उसका भविष्य तो संवर सके.” सावित्री के पति की बात सुनकर वे गंभीर हो गई थी. हालांकि जान-बूझकर अपनी संतान को त्यागने का निर्णय अनुचित ज़रूर था, पर उसके घर की परिस्थितियों को जानने के बाद वे उसके पति के प्रति कुछ नरम ज़रूर हो गई.
सावित्री के पति से, अपनी बच्ची से सारे सम्पर्क तोड़ने की क़ानूनी औपचारिकता को पूरा करने के बाद उन्होनें उन लोगों को हॉस्पीटल से जाने की स्वीकृति दे दी. सावित्री की बच्ची देखने में बहुत ही प्यारी और सुन्दर थी, पर पर्याप्त पोषण नहीं मिलने के कारण कमज़ोर थी, अत: कुछ समय उसे नर्सरी में रखने का तय किया गया, ताकि उसकी उचित सार-संभाल हो पाए.
घर आने पर भी उनका मन किसी काम में नहीं लग पाया. बार-बार सावित्री और नवजात बच्ची की छवि उनकी आंखों के समक्ष घूम जाती थी. जब तक बच्ची को किन्हीं सुयोग्य हाथों में नहीं सौंप देती वे स्वयं भी निश्‍चित नहीं हो सकती थी. उनके पति ने उन्हें विचारमग्न देखकर एक-दो बार टोका भी पर उन्होंने हॉस्पिटल की कोई प्रॉब्लम कहकर बात टाल दी थी.
दूसरे दिन हॉस्पिटल गई, तो स्वत: ही उनके कदम उस नन्हीं बच्ची को देखने नर्सरी की ओर उठ गए. उनको बच्ची के पास देखकर नर्सरी की कई नर्सें बच्ची के पालने के ईर्दगिर्द इकट्ठी हो गई थीं. सभी एक स्वर में कह रही थी, “मैडम, कितनी प्यारी और सुन्दर बच्ची है, उसको तो कोई भी अपना लेगा.” उसी समय बच्ची रोने लगी उसको रोते देखकर सहसा उनका हृदय उमड़ पड़ा, उन्होंने झट से उसको गोद में लेकर अपने सीने से लगा लिया. उस नन्हीं जान को भी शायद उनके हृदय से लगकर मां के स्पर्श की उष्मा का एहसास हुआ था, तभी वह उनकी गोद में जाते ही एकदम चुप हो गई थी. बस उसी क्षण उन्होंने मन में एक निर्णय ले लिया कि वे उस बच्ची को किसी गैर को न सौंपकर स्वयं अपनाएंगी. अब से वे दो पुत्रों के साथ-साथ एक पुत्री की भी मां बन गई है. यह एहसास उन्हें अंदर तक सुकून पहुंचा गया.
अपने प्रथम पुत्र के पश्‍चात उन्होनें ईश्‍वर से बहुत मन्नत मांगी थी कि अगली बार उन्हें एक पुत्री ज़रूर मिले. उस समय तो उनकी कामना पूर्ण नहीं हुई, पर आज अनायास ही ईश्‍वर ने उनकी चिरसंचित कामना को अवश्य पूरा कर दिया था. इस प्रकार रागिनी का उनके जीवन में आगमन हुआ.
रागिनी को अपनाने के उनके फ़ैसले से शुरू-शुरू में तो उनके पति भी विशेष सहमत नहीं थे. उन्होंने उनको समझाना भी चाहा, “सुलोचना, अब सौरभ और गौरव भी बड़े हो गए हैं. मुझे नहीं लगता कि तुम्हारे इस फ़ैसले को बच्चे सहज स्वीकार कर लेंगे. इतने वर्षों के बाद, हमारे प्यार और दुलार की वे किसी तीसरे बच्चे के साथ आसानी से शेयर नहीं कर पाएंगे. फिर मुझे भी यह व्यावहारिक नहीं लगता कि तुम इतनी व्यस्तता और इस उम्र में फिर से एक नवजात शिशु का पालन-पोषण ठीक से कर पाओगी. वैसे ही हॉस्पिटल और घर-गृहस्थी की ज़िम्मेदारी से तो तुम्हें समय नहीं मिलता, ऐसे में इस बच्ची को अपनाने का निर्णय मुझे तो बुद्विमतापूर्ण नहीं लगता. उन्होंने अपने पति से जब रागिनी की परिस्थितियां तथा अपनी इच्छा के विषय में देर तक बातचीत की, तो अंतत उन्हें भी झुकना पड़ा. अपने पति को तो उन्होंने किसी तरह मना लिया था, पर गौरव और सौरभ की इस विषय में क्या प्रतिक्रिया होगी… इस दुविधा में वे कई दिनों तक रही. दोनों बच्चे उस समय उन लोगों से दूर होस्टल में पढ़ रहे थे.
रागिनी के आने से उन्हें जीवन में एक नया मक़सद मिल गया था. हालांकि उसकी परवरिश में शुरू-शुरू में कुछ कठिनाइयां आईं. सबह हॉस्पिटल जाने के बाद उनकी अनुपस्थिति में बच्ची की देखरेख के लिए एक भरोसेमंद और कुशल परिचारिका की व्यवस्था करने से लेकर उसके खाने-पीने, पहनने की सामग्री जुटाने में शुरू-शुरू में उन्हें कुछ मेहनत करनी पड़ी. गौरव और सौरभ को बड़ा करने के बाद छोटे बच्चों की परवरिश की आदत ही छूट गई थी. फिर से सू-सू पोटी से लेकर रातों को जागने का सिलसिला एक बार पुन: शुरू हो गया था, पर थोड़े दिनों में अपनी नई ज़िम्मेदारियों की उन्हें आदत भी पड़ गई और जीवन में सद्कार्य करने का एहसास उन्हें आल्हादित भी करने लगा.
ज्ब गर्मियों की छुट्टियों में गौरव और सौरभ घर आए, तो रागिनी को देखकर शुरू-शुरू में तो वे बहुत ख़ुश हुए. वे उसके साथ खेलते, कभी उसको दूध पिलाने की कोशिश करते, तो कभी उसकी नेपी बदलने में भी उन्हें बहुत मज़ा आता, पर कुछ दिनों बाद ही उन्हें जब लगने लगा कि उनकी मम्मी सारा समय रागिनी की देखभाल में ही व्यतीत कर देती हैं, तो उन्हें रागिनी की उपस्थिति खटकने लगी. एक बार तो नाराज़ होकर उन्होंने कह भी दिया, “मम्मी, आप सारे समय या तो अपने हॉस्पिटल में व्यस्त रहती हैं या घर पर रागिनी की देखभाल में लगी रहती हैं. हम इतने दिनों बाद हॉस्टल से आए हैं, तो भी आपके पास हमारे लिए समय नहीं रहता. आप इसको क्यों लेकर आ गई. इसे वापस क्यों नहीं अपने घर भेज देतीं…" बच्चों की झुंझलाहट नाराज़गी को दूर करने का वे हर संभव प्रयास करतीं, पर एक बात उन्होंने बच्चों के समक्ष स्पष्ट कर दी कि रागिनी उनकी बेटी थीं और उनका घर ही उसका घर था. उसे वापस भेजने का तो प्रश्‍न ही नहीं उठता था. बस, तब से ही दोनों भाइयों के मन में रागिनी के प्रति एक अजीब-सी कुंठा घर कर गई थी. बड़े होने के साथ-साथ रागिनी के प्रति उनकी उपेक्षा और नफ़रत बढ़ती ही गई.
इसी बीच रागिनी भी बड़ी हो रही थी. रागिनी को उन्होंने अच्छे स्कूल में डाल दिया.बचपन से ही रागिनी पढ़ने में बहुत अच्छी रही. अपने कक्षा में सदेव अव्वल आती रही. उनकी बहुत बड़ी इच्छा थी कि उनके दोनों बेटों में से कोई एक तो उनके व्यवसाय को अपनाए, पर सौरभ ने एमबीए में दाख़िला लिया और गौरव ने इंजीनियरिंग करने का निश्‍चय किया. दोनों बच्चे शुरू से ही हॉस्टल में रहने के कारण परिवार से कट से गए थे. अपने अभिभावको के साथ भी उनका ख़ास लगाव नहीं रहा.
कभी कभी वो बच्चों को बचपन में ही हॉस्टल के अपने निर्णय पर पछतावा भी बहुत होता, पर अब क्या हो सकता था. सुभाष भी अपने बिज़नेस में निरन्तर उलझे रहे. बच्चों के लालन-पालन में किसी भी प्रकार की कमी न रहने पाए उनका यही प्रयत्न रहता. बच्चों की रागिनी के प्रति व्यवहार की शुष्कता गाहे-बगाहे प्रकट होती रहती. वे समय-समय पर उनको भी ताना देते रहे, “आपकी तो सब कुछ रागिनी ही है. इसके पीछे आपने हमारी कब परवाह की."
बच्चों की ऐसी बातों को बालमन की ईर्ष्या समझ तूल नहीं दिया. वे सोचती बड़े होने पर वे स्वयं समझदार हो जाएंगे, पर ऐसा नहीं हुआ. एम.बी.ए. करने के बाद गौरव को किसी मल्टीनेशनल कम्पनी में बहुत अच्छी नौकरी मिल गई थी. कुछ समय मुम्बई में रहने के बाद वह लंदन चला गया. एक बार विदेश जाने के बाद वह वही का होकर रह गया. वही उसने अपनी पसंद की किसी मराठी लड़की से विवाह भी कर लिया. विवाह करने के पश्‍चात उन लोगों को अपनी शादी की फोटो भेजकर अपने फ़ैसले की सूचना भर दी थी.
सौरभ ने भी इंजीनियरिंग करने के बाद दिल्ली में ही कुछ समय किसी बड़ी कम्पनी में प्रशिक्षण लिया. फिर अपनी फैक्ट्री लगा ली थी. उसने भी दिल्ली में ही अपनी पसंद की लड़की से शादी करके वहीं बसने का फ़ैसला कर लिया था. रागिनी ने मेडिकल में प्रवेश लेकर उनकी इच्छा को फलीभूत करने का फ़ैसला लिया था. एम.बी.बी.एस. करने के बाद वह गायनोक्लोजी में एम.एस. कर रही थी.
उन्हीं दिनों अचानक सुभाष को हृदय का दौरा पड़ा. उन्हें तुरन्त हॉस्पिटलस में भर्ती करना पड़ा. सुभाष की एनिज्योग्राफी के बाद एंजियोप्लासटी भी हुई, फिर भी उन्हें बचाया नहीं जा सका. दोनों लड़कों को क्रमश: लंदन और दिल्ली सूचना दी गई. गौरव ने तो किसी ज़रूरी कार्य में व्यस्तता के कारण आने में असमर्थता प्रकट की. हां, सौरभ ऑपरेशन के समय ज़रूर उपस्थित हो गया था. वह भी दो-तीन दिन रहने के बाद आवश्यक काम आ जाने से वापस दिल्ली चला गया. ऑपरेशन के पश्‍चात पांच-सात दिन तक तो सुभाष की तबियत ठीक रही, फिर अचानक ही उनकी स्थिति गंभीर हो गई.
उन दिनों रागिनी ने जी जान एक कर दिया था डॉक्टरों को बुलाने, दवाइयों की व्यवस्था करने के साथ उन्हें भी हिम्मत बंधाने की कोशिश में ही निरन्तर लगी रहती. रागिनी की सेवा ने उनके पति का मन भी जीत लिया था. उन्होंने अपने अंतिम समय में उनका हाथ थामते हुए यही कहा, “सुलोचना, रागिनी ने मेरी जो सेवा सुश्रुषा की है, वह मेरे बेटे भी नहीं कर पाए. गौरव के लिए तो अपने मरते हुए बाप से भी ज़्यादा महत्व उसके काम का है. सौरभ औपचारिकता निभाने आया भी तो काम का बहाना बनाकर दो-तीन दिनों में वापस चला गया. कभी-कभी मुझे यह सोचकर ही बहुत घबराहट हो जाती है कि यदि रागिनी हमारे पास नहीं होती, तो हमारी क्या दशा होती. अब जाते-जाते मैं इस बात से तो निश्‍चित हूं कि भले ही हमारे बेटों के पास हमारे लिए समय नहीं है, पर हमारी बेटी तो सुख-दुख में सदैव हमारे साथ रही है. वास्तव में रागिनी को अपनाने का तुम्हारा निर्णय बहुत सही रहा.” सुभाष की बातें सुनकर पास खड़ी रागिनी की आंखें भी भर आईं, पर उसे इस बात का बहुत बड़ा संतोष था कि अपने अन्तिम दिनों में पापा ने भी उसे अपना लिया था.
सुभाष के जाने के बाद उनके जीवन में बहुत बड़ी रिक्तता आ गई थी. शरीरिक दुर्बलता और मन के दुख तथा अवसाद ने उन्हें अन्दर तक तोड़ दिया था. इसीलिए उन्होंने हॉस्पिटल से भी अवकाश ले लिया था.
अपने जीवन का अन्तिम समय उन्होंने कल्याणकारी कार्यों में समर्पित करने का फ़ैसला ले लिया था. रागिनी उनका बराकर ध्यान रखती थी. दो साल बाद गायनिक में एम.एस. करने के बाद उनकी सहमति से अपने सहपाठी विवेक से विवाह करके वह भी दिल्ली चली गई थी. रागिनी के विवाह पर उन्होंने दोनों बेटों को बुलावा दिया, पर दोनों ने मन से उसे कभी अपनी बहन ही नहीं माना, अत: उनका विवाह में शामिल न होना, उन्हें कोई आश्‍चर्य की बात नहीं लगी. रागिनी दिल्ली जाने पर भी जब भी मौक़ा मिलता महीने-दो महीने में उनको संभालने एक चक्कर ज़रूर लगा लेती थी. बस जीवन इसी गति से चल रहा था.
आज अचानक मिले सौरभ और रागिनी के पत्रों ने उनके शांत जीवन में पुन: एक हलचल-सी ला दी थी. दोनों ही पत्र दिल्ली से आए थे, पर दोनों को लिखने के पीछे उद्देश्य भिन्न थे. वे सोच रही थीं कि रिश्तो के भी कितने आयाम है. गौरव और सौरभ को तो उन्होनें जन्म दिया था, उनसे तो उनका खून का रिश्ता था. फिर दोनों बच्चों ने इस रिश्ते को कभी भी विशेष महत्व नहीं दिया, जबकि रागिनी से तो उनका कोई रक्त संबंध नहीं था, फिर भी वह उनके हृदय के कितनी नज़दीक थी. रागिनी के व्यवहार में, आचार में, उनके प्रति श्रद्वा और सम्मान था, इस बात कुछ-कुछ अंदाज़ उन्हें दिल तक छू गया था. वे सोच रही थीं कि लोग कहते हैं खून का रिश्ता ही सब कुछ होता है, पर उन्हें तो लगता है कि मन के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता.
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