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कहानी: सास

रसोई से कांच का ग्लास टूटने की आवाज़ सुनकर दादी मां आस्था पर बुरी तरह बरस पड़ीं, "इतनी बड़ी हो गई है, लेकिन सलीका नहीं आया. एक ग्लास पानी लाने के लिए कहा, तो ग्लास ही तोड़ दिया. कल को पराये घर जाएगी, तो सब यही कहेंगे कि कुछ सिखाया नहीं. हमारी नाक कटाएगी क्या?"

"दादी मां, जान-बूझकर तो तोड़ा नहीं है, ग़लती से टूट गया है." आस्था ने सफ़ाई देते हुए कहा.

"अच्छा, एक तो ग्लास तोड़ दिया, ऊपर से ज़ुबान चला रही है. सब पता चल जाएगा जब सास चोटी पकड़ कर मारेगी."

यह सुनकर आस्था रो पड़ी. हमेशा ही दादी मां की यही चिक-चिक रहती है. छोटी-सी भी ग़लती हो जाए तो, 'पराए घर जाएगी तो हमारी नाक कटाएगी. सास चोटी पकड़ कर मारेगी.' कहकर डराया करतीं. ज़ोर से हंस दिया तो कहतीं- 'दूसरे घर जाना है, बत्तीसी मत दिखाया कर.'

सारा दिन बात-बात पर टोकती रहती है. मां भी दादी मां के सामने चुप रहती है. उसने कभी मां को ज़ोर से बोलते या हंसते हुए नहीं देखा. वह हर काम बड़ी सावधानी से करती है. भूलवश कुछ ग़लती भी हो जाती है, तो दादी मां पूरा घर सिर पर उठा लेती हैं. पिताजी की भी हिम्मत नहीं पड़ती कि उनसे कुछ कहें.

बचपन से ही दादी मां की इस टोकाटाकी से आस्था के कोमल मन में 'पराया घर' और 'सास' का भय समा गया. जब भी घर में उसकी शादी की चर्चा होती, तो वह घबरा जाती. मां का चेहरा सामने आ जाता कि शादी के बाद उसका भी यही हाल होगा. शादी के नाम से ही चिढ़ हो गई उसे.

एक दिन उसे लड़के वाले देखने आये और पसंद भी कर लिया. फिर शीघ्र ही विवाह भी हो गया. 'सास' और 'पराये घर' का भय अब उसे और सताने लगा. विदा होकर जब कार में बैठी, तो घबराहट की वजह से उसका बुरा हाल था. द्वार की रस्म के समय भी वह बुरी तरह कांप रही थी. उसको कांपते हुए देखकर बुआ सास ने कहा, "क्या बात है बहू, तुम इतना कांप क्यों रही हो? क्या तबियत ख़राब है तुम्हारी?"

"अरे बुआ, आप समझती नहीं हो हमारी भाभीजी को १०४ डिग्री प्यार का बुखार चढ़ गया है. इसी वजह से कंपकपा रही हैं." पीछे खड़े देवर अमन ने जब यह बात कही, तो सब हंस पड़े, लेकिन आस्था को हंसी नहीं आई.

सभी रस्में पूरी हो जाने के बाद उसे उसके कमरे में भेज दिया गया. थोड़ी देर बाद उसके पति अनुज भी कमरे में आ गए. लेकिन वह उनसे भी कुछ नहीं बोली, उसे गुमसुम देखकर अनुज ने उसे बांहों में भरकर कहा, "तुम इतनी चुप क्यों हो? कुछ बोलती क्यों नहीं?"

लेकिन वह तो बुरी तरह डर रही थी. उसकी आवाज़ या हंसी कमरे से बाहर चली गई तो क्या होगा..? सब लोग क्या कहेंगे? वह पूरी रात ठीक से सो भी नहीं पाई. उसे सुबह की चिंता थी कि कहीं देर से आंख खुली, तो उसकी दादी मां की तरह सास भी उसको डांटने न लग जाए. यही सब सोचते-सोचते पता नहीं कब उसकी आंख लग गई. सुबह जब वह हड़बड़ा कर उठी और सामने घड़ी पर नजर डाली तो सुबह के आठ बज रहे थे. अनुज उठ चुके थे. मारे डर के उसके आंसू निकल पड़े. तभी दरवाज़े पर दस्तक देते हुए उसकी ननद अनु की आवाज़ आई, "भाभीजी, अगर नींद पूरी हो गई हो, तो कृपया उठने का कष्ट करें. सब लोग आपके हाथ की चाय पीना चाहते हैं."


कमरे से आस्था के रोने की आवाज़ सुनकर अनु घबरा गई. अंदर जाकर आस्था के आंसू पोंछते हुए बोली, “सॉरी भाभी, मुझे नहीं मालूम था कि तुम इतनी इमोशनल हो. मुझे तो मज़ाक करने की आदत है." फिर बाई आंख मारते हुए बोली, “मैं भी पूरी पागल हूं, तुम पूरी रात जागी हो और मैंने तुम्हें डिस्टर्ब कर दिया, ”

बड़ी मुश्किल से अपने आंसुओं को पोंछते हुए आस्था बोली, "दीदी, मैं आपकी बात की वजह से नहीं रो रही हूं, मुझे डर लग रहा है. उठने में इतनी देर हो गई है, कहीं मांजी नाराज़ तो नहीं होंगी?"

हंसते हुए अनु बोली, "भाभी, तुमने तो मुझे डरा ही दिया था. वैसे तो यहां सभी लोग जल्दी उठते हैं, लेकिन कभी-कभार देर हो जाए, तो कोई बात नहीं. लेकिन रविवार और छुट्टी वाले दिन सुबह ख़ूब आराम से उठते हैं."

आस्था नहा-धोकर रसोई में चली गई और सबके लिए चाय बनाने लगी. वह बहुत ही सावधानी से काम कर रही थी कहीं कुछ ग़लती न हो जाए. चाय की ट्रे लेकर जैसे ही वह रसोई से बाहर निकली, अमन ने उसे डराने के लिए कहा, "भाभी, आपके सिर पर छिपकली है." यह सुनते ही उसके हाथ से चाय की ट्रे गिर पड़ी और वह बुरी तरह घबरा गई कि अब तो सास चोटी पकड़ कर मारेगी.

वह सिसकते हुए बोली, "मांजी, अमन भैया ने…" रुलाई के कारण वह आगे कुछ नहीं बोल पाई, तब सास ने उसे समझाते हुए कहा, "बेटे, कोई भी ग़लत काम जान-बूझकर थोड़े किया जाता है. वह तो कभी-कभी असावधानियों की वजह से ग़लतियां हो जाती हैं, इसमें रोने या घबराने की क्या बात है? वो तो अच्छा हुआ कि तुम जली नहीं. ये चाय के कप तुमसे ज़्यादा महंगे थोड़े ही हैं. "

"हां मां, तुम बिल्कुल ठीक कहती हो और फिर इन कपों का का भी अंत समय आ गया था. होनी को कौन टाल सकता है." कहते ज़ोर से हंस पड़ा अमन.

एक दिन शाम को सब लोग बैठे बातें कर रहे थे. अनुज ने सभी को एक चुटकुला सुनाया, तो सभी लोग खिलखिला कर ज़ोर से हंस पड़े. आस्था भी ज़ोर से हंस पड़ी. उसको हंसता देखकर सास बोली, "कितनी अच्छी लगती हो हंसते हुए. खुलकर हंसना ज़रूरी होता है. गुमसुम रहने से बीमारियां घेर लेती हैं."

“अब तुम उसे हंसा-हंसा कर उसका स्वास्थ्य ठीक रखना…" कहते हुए ससुर भी हंस पड़े.

अचानक अनुज बोला, “मां, हमारे साथ धोखा हुआ है. तुम्हारी बहू तो गूंगी है."

"तू ख़ुद ही इतना बोलता है कि उसे बोलने का मौक़ा ही नहीं मिलता.” फिर आस्था के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए सास बोली, “गूंगे होंगे तेरे दुश्मन, मेरी बहू तो लाखों में एक है.”

धीरे-धीरे उसने महसूस किया कि उसकी ग़लती पर सास डांटती नहीं, बल्कि कितनी कुशलता और प्यार से समझा देती हैं. उसके अच्छे कामों की कितने खुले दिल से प्रशंसा करती हैं. भूलवश कुछ ग़लत हो भी जाए तो 'कभी-कभी ऐसा भी होता है' कहकर हंसा देती हैं और फिर बाद में प्यार से समझा भी देती हैं. धीरे-धीरे आस्था के दिल से 'पराया घर' और 'सास' नाम का भय पूरी तरह ख़त्म हो गया.

थोड़े दिनों बाद आस्था अपने पिताजी के साथ मायके आ गई. दादी मां ने पिताजी से बहुत उत्सुकता से पूछा, "क्या ससुराल वाले इसकी कुछ शिकायत कर रहे थे?"

पिताजी ने हंसते हुए बताया, “नहीं तो, वह सब तो इसकी प्रशंसा कर रहे थे. सास तो कह रही थी कि इतनी अच्छी बहू तो नसीब वालों को ही मिलती है. वह तो इसे आने नहीं दे रही थीं. कह रही थीं कि इसके जाने से घर सूना हो जाएगा. सारे दिन हंसती- खिलखिलाती रहती है."

यह सुनकर दादी मां आश्चर्य से आस्था को देखने लगीं. आस्था दादी मां के गले से लिपट कर रोने का नाटक करते हुए बोली, “और हां, मेरी सास रोज़ चोटी पकड़ कर मुझे मारती भी थी." यह सुनकर दादी मां सहित मां और पिताजी भी ज़ोर से हंस पड़े.

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