कहानी- गृह प्रवेश
बाज़ार से घर लौटकर शांति ने सोच लिया था कि अब वह शांत नहीं बैठेगी. डटकर मुक़ाबला करेगी सोमेश की हर बात का. उसके घर में घुसने पर सोमेश भी जान गये कि आज शांति का मूड उखड़ा हुआ है. फिर भी उसकी परवाह न करते हुए वे बोले, “आज एक बहुत बड़ा काम तो निबट गया.”
“निबट गया कि बिगड़ गया?”
“औरत के दिमाग़ से चलोगे, तो हर सीधी चीज़ उल्टी ही दिखाई देगी.” सोमेश बोले.
“और मर्द की बातों पर यक़ीन करोगे तो अच्छे-बुरे के बीच फ़र्क़ करना भूल जाओगे.”
“क्या कमी नज़र आ गयी तुम्हें मेरे काम में?” सोमेश भड़के.
“यह तुम अच्छी तरह से जानते हो.” शांति ने पलटकर उत्तर दिया.
“कहे देता हूं, मेरे हर काम में टांग अड़ाना ठीक नहीं है. मुझे समझ है भले-बुरे की.”
“वह तो दिख रहा है. मुझ पर यक़ीन नहीं तो किसी और की राय ले लो. मार्केट का नया ट्रेंड क्या है, कुछ पता है तुम्हें? एक मजदूर ने कह दिया और तुम बिना मुझे बताए हज़ारों रुपयों की ख़रीदारी कर भी लाए. क्या दो घंटे तक रुक नहीं सकते थे? मैं आ तो रही थी घर.”
“मैं अब अपना फैसला बदलनेवाला नहीं. जो मैं ले आया, उसे तुम्हें स्वीकारना ही होगा.”
“कोई ज़िद है क्या? मैं किचन में सारा सामान अपनी रुचि के अनुसार लगाऊंगी? यह तुम पर है कि तुम सामान लौटाओ या नया सामान ले आओ.”
“यह नहीं हो सकता.” सोमेश ने फैसला सुना दिया.
“मैं भी देखती हूं.” कहकर शांति ने बैग एक किनारे पटका और किचन की ओर बढ़ गयी. स्कूल से बाज़ार और बाज़ार से घर, वह काफ़ी थक चुकी थी. उसने दो कप चाय बनाई. एक कप सोमेश के आगे रखकर ख़ुद बाहर आंगन में खड़े होकर तार पर टंगे कपड़े उतारने लगी.
वर्षों से शांति और सोमेश का एक सपना था कि उनका अपना एक सुंदर-सा घर हो. किराए के मकान में रहते हुए एक घुटन-सी होने लगी थी उन्हें. रोज़ दोनों अपने-अपने मुक़ाम से लौटकर फुर्सत के लम्हों में घर की कल्पना में डूबे रहते.
“वह दिन कब आएगा सोमश, जब हमारा भी अपना एक घर होगा.”
“थोड़ा-थोड़ा करके जोड़ तो रहे हैं अपनी मेहनत की कमाई. पहले बच्चों को पढ़ने के लिए हॉस्टल भेजा और अगला काम घर बनाना ही तो है.”
“ठीक कहते हो, ईश्वर ने चाहा तो वह दिन जल्दी ही नसीब होगा.” शांति बोली.
“मैंने बैंक से लोन की बात कर ली है. अब घर बनाना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है.”
“इस छोटे से फ्लैट में मेरा तो दम घुटता है, पूरी जवानी इन कमरों में कट गयी.”
“कुछ दिन और गुज़ार लो यहां, फिर तुम्हारा कमरा अलग होगा और मेरा अलग. खुलकर जीएंगे तब.”
“मुझे तो अकेले कमरे में डर लगता है. आदत ही नहीं है अलग सोने की.”
“धीरे-धीरे यह आदत भी पड़ जाएगी. मुझसे तंग आकर तुम्हारी कभी इच्छा नहीं हुई अलग होने की.”
“तंग आये तुम्हारे दुश्मन. मेरा तुम्हारा एक ही बेडरूम होगा, जिसे हम अपनी रुचि से सजाएंगे.”
सोमेश और शांति ने बहुत बड़े-बड़े सपने नहीं देखे, बस अपने लिए उन्होंने एक सुंदर घर का सपना ज़रूर देखा था. सपने कितने सुंदर होते हैं, हक़ीक़त से परे. इन्हें जैसा चाहो तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है. एक ही सपने में दोनों की कल्पनाएं अलग-अलग थीं. इनमें ज़रूरत की सारी चीज़ें थीं. जहां शांति ने उन्हें एक ख़ास फ्रेम में जड़ रखा था, वहां सोमेश के लिए उनकी उपस्थिति ही बहुत थी.
शांति और सोमेश की घर की कल्पना मकान में तब्दील होती जा रही थी. दोनों के कल्पना के घर में इनके मन की ईंटें चुनी हुई थीं. एक समय था जब वे घर की कल्पना में डूबे घंटों गुज़ार देते थे. आज मकान पूरा होने की स्थिति में था. उसमें ज़रूरत की हर चीज़ थी, पर प्यार का अभाव स्पष्ट दिख रहा था.
विवाद और बहस के कारण हर कमरे की सज्जा अलग थी. जहां शांति का प्रभुत्व किचन पर था, वहीं ड्राइंगरूम को सोमेश ने सजाया था. घर में दो बेडरूम थे, जिन्हें दोनों ने अलग-अलग तरी़के से सजाया था. कल्पना के बड़े-बड़े दावे हक़ीक़त के सामने बौने हो गये थे. गृह प्रवेश तक शांति और सोमेश के बीच बस औपचारिक बातें ही शेष रह गयी थीं. नये घर को देखकर कोई किचन की तारीफ़ करता तो कोई ड्राइंगरूम की. पर दोनों को इसमें ज़्यादा रुचि न थी. वे तो बस अपनी कल्पना को सर्वश्रेष्ठ देखना चाहते थे.
गृह प्रवेश में घर पर एक ह़फ़्ते तक काफ़ी चहल-पहल रही. उसके बाद सभी रिश्तेदार अपने-अपने घर लौट गये. ले-देकर शांति और सोमेश ही घर पर रह गये.
स्कूल से थककर शांति घर आती, तो पति के दो प्यार भरे बोल के लिए भी तरस जाती. सोमेश के घर आते ही शांति उसके सामने चाय-नाश्ता रख देती. उन्होंने अपने को कमरे तक सीमित कर लिया. दोनों ही एक-दूसरे से हार मानने के लिए तैयार न थे.
नये घर में काम की अधिकता के कारण यह मौन उन्हें शुरू में तो भला लगा, पर शीघ्र ही मन इससे उकताने लगा. लंबी संवादहीनता ने बात करने की इच्छा ही ख़त्म कर दी.
बच्चे छुट्टी में घर आते तो शांति और सोमेश उन्हें अपनी-अपनी पसंद दिखाते. बच्चे भी महसूस करते कि मम्मी-पापा की बातों में पारिवारिक भावनाओं की दिन-प्रतिदिन कमी हो रही थी. सब कुछ देखकर भी वे किसी एक की तारीफ़ करके दूसरे का दिल नहीं दुखाना चाहते थे.
परिवार के बीच में इतनी लंबी संवादहीनता भविष्य के लिए कोई शुभ संकेत न थी, यह दोनों ही महसूस कर रहे थे. कभी शांति सोचती, क्या पाया आख़िर में उसने परिवार की ख़ातिर इतना कष्ट उठाकर? एक दिन भी चैन से बैठकर न गुज़ारा. ह़फ़्ते भर स्कूल. इतवार को घर के ढेर सारे काम. छुट्टियों में मेहमांनवाज़ी. इतना कमा कर दिया सोमेश को जिसका एहसान उसने कभी नहीं माना. हमेशा उपहास ही किया.
“तुम्हें तनख़्वाह मिलती ही कितनी है, जो काम को लेकर इतना हाय तौबा मचाती रहती हो?” सोमेश ऐसे न थे कि कभी मुड़कर अपने जीवन पथ की ओर न देखते हों. उन्हें ये एहसास था कि गाड़ी की ऱफ़्तार सही रखने में शांति का योगदान था, पर इतना नहीं कि वह सोमेश की उपस्थिति को बिल्कुल ही नकार दे. घर के सारे बड़े काम उसी ने ही निबटाए हैं. शांति की तनख़्वाह से खाने-पीने की व्यवस्था भर ही तो हो पायी है. सारी औरतें घर पर रहकर तो अच्छे से घर चला ही रही हैं. जिनकी पत्नियां नौकरी नहीं करतीं, उनके घर हमसे पहले बन गये हैं. दो की नौकरी से नफ़ा कम नुक़सान ही ज़्यादा हुआ है. न ढंग का खाना, न चैन-आराम.”
मन के किसी कोने में दोनों को एक-दूसरे का अभाव खलता. किसी पारिवारिक समारोह में जाना होता, तो दोनों के बीच औपचारिक बात हो जाती. घर से बाहर वे सबके सामने एकदम सामान्य व्यवहार करते. घर में घुसते ही दोनों का अहंकार जाग उठता.
एक साल ऐसे ही गुज़र गया. आंखों की रिक्तता दोनों महसूस करते, पर उसका हल कुछ न था. एक दिन अचानक सुबह काम पर जाते हुए सोमेश का दिल ज़ोर से धड़का, वह पसीने से नहा गया. इस पर भी उसने शांति से कुछ न कहा और ऑफ़िस के बजाए सीधे नर्सिंग-होम चला गया और बोला, “डॉक्टर, लगता है मुझे दिल का दौरा पड़ा है.”
डॉ. गिल ने सोमेश की पूरी जांच की, पर वहां दिल की बीमारी का कोई संकेत न था. डॉ. गिल ने घुमा-फिराकर सोमेश से कई प्रश्न पूछे. सोमेश की बातें सुनकर वे बोले, “आपको दवा देने से पहले मुझे आपके परिवार से भी बात करनी होगी. अच्छा होगा आप अपनी पत्नी के साथ शाम को आ जाएं.”
सोमेश परेशान था. शांति से क्या कहे? पता नहीं डॉक्टर को उससे क्या पूछना है? बीमार तो मैं हूं, फिर शांति का वहां क्या काम?
सोमेश की दिल की घबराहट शाम को फिर बढ़ गयी. चाय देते व़क़्त शांति ने महसूस किया कि सोमेश का चेहरा पीला पड़ गया है. उसने जब चाय नहीं पी, तो शांति ने पूछा, “तबियत ठीक नहीं है?”
“हां, सुबह से कुछ थकान हो रही है.”
“डॉक्टर को दिखा देते.”
“दिखाया तो था, पर….”
“क्या कहा उसने?”
“पत्नी को साथ लेकर आने को कहा था.”
“चलिए, मैं चलती हूं आपके साथ.”
कोई और व़क़्त होता तो सोमेश थोड़ा-बहुत विरोध दर्शाता, पर इस व़क़्त तो चुप रहने में ही भलाई समझी. कुछ ही देर में वे डॉक्टर के पास पहुंच गए. पहले डॉक्टर ने शांति से सवाल पूछा, “इन्हें ये तकलीफ़ कब से हुई?”
“आज पहली बार महसूस हुआ.”
“देखिए, पुरुष बाहर से जितना कठोर दिखता है, वास्तव में अंदर से उतना नाज़ुक होता है. कहीं इनके मन में असुरक्षा का भाव समा गया है, जिसकी वजह से इनका मानसिक संतुलन गड़बड़ाने लगा है. इन्हें भावनात्मक सुरक्षा की बेहद ज़रूरत है. एक पत्नी से अधिक पति को कौन समझा सकता है.”
“जी.” शांति बोली.
“इसके अलावा आपने इनके व्यवहार में कोई असामान्य बात देखी हो, तो निःसंकोच बताइए.”
“जी ख़ास बात नहीं, बस थोड़ा ज़िद्दी हो गए हैं.”
“ठीक कहा आपने. ध्यान रखिए. इनका दिल दुखी न हो, वरना आपको कई परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है. औरत अपना दुख रोकर, सहेली से कहकर हल्का कर लेती है, पर पुरुष अंदर-ही-अंदर दुख को सोखने का प्रयास करता है. बदले में कई मानसिक परेशानियों में पड़ जाता है. इससे नुक़सान उसका तो होता ही है, परिवार भी इससे अछूता नहीं रहता.”
“आप ठीक कह रहे हैं डॉक्टर, मेरी हठधर्मिता के कारण इनको काफ़ी दुख पहुंचा है.” इतना कहकर शांति ने पूरी बात डॉक्टर के सामने रख दी. सुनकर डॉ. हंस पड़े और बोले, “आप नाहक अपने को दोषी समझ रही हैं. दरअसल रोग की पहली सीढ़ी में ऐसा ही होता है. वे पुरुष हैं, इसलिए कई बात छुपा गये. आप स्त्री हैं, इसलिए जल्दी पिघल गयीं. सच्चाई जानने के लिए ही मैंने आपको बुलाया था.”
काफ़ी देर तक शांति और सोमेश से बात कर फिर डॉक्टर ने कुछ दवाई लिख दी.
जाते वक़्त शांति बहुत सहज हो गयी थी. घर पहुंचकर उसने पति को दवा दी और देर तक उसके कमरे में बैठी रही. सोमेश को नींद आने लगी, तो वह उठकर अपने कमरे में आ गयी. अगले दिन सोमेश ऑफ़िस से घर लौटा, तो चौंक पड़ा. घर की हर चीज़ उसी की पसंद की लगी थी. उसने पूछा, “शांति, आज तुम कॉलेज नहीं गई?”
“नहीं, घर पर काम था.” कहकर वह चाय बनाने चली गयी. किचन में सोमेश की लाई चिमनी जो कल तक पैकेट में थी, आज किचन में लगी थी. यह सब देख सोमेश की आंखें भर आयीं, “मुझे माफ़ कर दो शांति, मैंने तुम्हारा दिल दुखाया. मेरी छोटी-सी तकलीफ़ तुमसे सहन न हुई और तुमने….”
“आगे कुछ न कहो. ग़लती हम दोनों की ही थी. घर दिलों से बनते हैं और मकान ईंट, पत्थर, लकड़ी से. दिल के ऊपर दिमाग़ हावी हो जाने से हम ये अंतर महसूस न कर सके.” शांति बोली.
“सच में तुम बहुत अच्छी हो, मैं ही ग़लत था, जो तुम्हारी भावनाओं की कदर न कर सका.”
“ऐसा नहीं सोचते, दरअसल तुम्हारी उपस्थिति से ही इस घर की शोभा है. भगवान न करे तुम्हें कुछ हो जाता तो….”
“ऐसा नहीं सोचते, मुझे तुम्हारे रहते कुछ नहीं होगा.” सोमेश बोले.
उस रात शांति ने सोमेश की पसंद का खाना बनाया. दोनों ख़ुश थे. ऐसा लग रहा था कि सही मायने में आज ही इस घर में उनका गृह प्रवेश हुआ है.