कहानी- बदलते आयाम
परिवार की दो शादियों में सम्मिलित हो दस दिन बाद आज सवेरे ही दिल्ली से मेरी वापसी हुई थी. कुछ देर परिवार के साथ बैठ चाय की चुस्कियों के बीच इधर-उधर की बातें और शादियों का विवरण देती रही. अचानक याद आते ही पूछ बैठी, “हां, अब तुम बताओ, कैसी हुई अनुपम की शादी और बहू कैसी है?” एकाएक सब गंभीर हो गये. मेरा बेटा बोला, “बड़ा अनर्थ हो गया मां! शादी के दूसरे ही दिन वीनू की मौत हो गई. दोस्तों के साथ वापस आ रहा था, रास्ते में जीप का एक्सीडेन्ट हो गया. इसी से अभी परिवार लौटा नहीं, गांव में ही रुका है. सुना है, तेरहवीं के बाद लौटेंगे.” मैं सुनकर स्तब्ध रह गई, “हे भगवान! यह कैसा वज्रपात कर दिया हंसते-खेलते परिवार पर!”
अनुपम के पिता तिवारी जी हमारे पड़ोसी थे. छः व्यक्तियों के परिवार में पति-पत्नी सहित एक बेटी, तीन बेटे थे. अनुपम सबसे बड़ा और वीनू सबसे छोटा. जो बच्चे अपनी आंखों के सामने पलकर बड़े होते हैं, उनके साथ हुई अनहोनी को मन स्वीकार नहीं कर पाता. इसलिए मेरा मन बहुत विचलित हो उठा था. कई दिनों तक आंखों के सामने अनुपम, वीनू और तिवारी दंपति के चेहरे घूमते रहे. फिर धीरे-धीरे सामान्य दिनचर्या शुरू हो गई. यह तो जीवन का सत्य है, कोई आये-जाये, समय अपनी गति से चलता रहता है, वह कहां रुकता है किसी के लिये?
बीस दिन बाद जब तिवारी परिवार गांव से वापस लौट आया, तो पड़ोसी होने के नाते मैं उनका दर्द बांटने उनके घर पहुंची. जैसा कि स्वाभाविक था, घर का प्रत्येक व्यक्ति दुख के अथाह सागर में डूबा था. बहुत देर बैठी उनका दुख बांटती, सांत्वना देती और समझाती रही. जब चलने लगी तो पूछा, “अनुपम की बहू क्या वापस चली गई?”
“नहीं, उधर कमरे में हैं.” अनुपम की बहन ने उत्तर दिया. वाणी और आंखों में उपेक्षा का भाव छिप नहीं सका, मानो इस सबके लिये बहू ही ज़िम्मेदार थी. मैं बात को टाल कमरे की ओर बढ़ गई. छरहरे शरीर की एक गोरी उदास लड़की मुझे देख उठ खड़ी हुई. आगे बढ़ उसका हाथ थाम मैंने धीरे से कहा, “संयम मत खोना बेटी, यह तुम्हारी परीक्षा की घड़ी है. धीरे-धीरे समय घावों को भर देगा. तब सब सामान्य हो जायेगा.” मेरे स्नेह तथा अपनत्व भरे स्पर्श का सहारा पा उसने सूनी उदास आंखें मेरी ओर उठाईं, तो मन द्रवित हो उठा. उन आंखों से झांकती मौन पीड़ा कह रही थी कि वह एक ऐसे सलीब पर टंगी है, जहां उसके अकेलेपन की व्यथा चरम सीमा पर पहुंच चुकी है. पहाड़ से दुख के समय में, इस नये माहौल में उसके प्रति यह उपेक्षा क्या वांछनीय है? क्या इस समय उसे प्रेम और भावनात्मक सुरक्षा की ज़रूरत नहीं? मेरी बात सुन ‘जी’ कह उसने पुनः निगाहें झुका लीं. शायद धैर्य की पराकाष्ठा पर पहुंचना चाहती थी. फिर प्रतिउत्तर का लाभ भी क्या था. उन आंखों की मौन भाषा ने मुझे भीतर तक झकझोर दिया. मैं फिर आने का वायदा कर लौट आई थी.
घर तो आ गई, पर मन किसी काम में नहीं लग रहा था. बार-बार एक उदास मासूम चेहरा आंखों के सामने आता रहा. रात को बिस्तर पर लेटी, तो आंखें मूंदते ही अचानक उस उदास चेहरे के पीछे एक दूसरी वात्सल्यमयी सौम्य आकृति आ खड़ी हुई. तब मन स्मृति पटल के अनेकों पृष्ठ पलटने को मचल उठा. कुछ यादें जीवन से इतनी गहरी जुड़ी होती हैं कि समय का लंबा अंतराल भी उन्हें तोड़ या मिटा नहीं पाता. सो मैं तीस वर्ष लांघ अतीत में पहुंच गई.
विवाह के बाद जब मैं ससुराल पहुंची, तो पाया कि चाची सास के साथ हमारा संयुक्त परिवार था. चाचाजी की मृत्यु अपनी शादी के दस वर्ष बाद ही किसी दुर्घटना में हो गई थी. बड़े होने के नाते बाबूजी ने छोटे भाई के परिवार का भार सहर्ष स्वीकार लिया था. चाचीजी तभी से पुरानी खानदानी हवेली में रहती थीं. ससुरजी सर्विस में होने के कारण अपने परिवार के साथ कभी कहीं-कभी कहीं, विभिन्न शहरों में घूमते रहते.
बच्चों की शिक्षा-दीक्षा का भार मांजी पर था और अपने बेटे-बेटी के साथ चाचीजी के तीनों बेटों की ज़िम्मेदारी भी उन्होंने संभाल ली थी. हवेली में रह चाचीजी ही खानदानी ज़मीन-जायदाद की देखभाल करतीं. जो भी आमदनी होती, उसमें से अपना ख़र्च निकाल बाकी सब जेठजी के पास भेज देतीं. परिवार का कोई भी बड़ा कार्य, शादी-ब्याह आदि चाचीजी के पास ही जाकर होता. मांजी बतातीं, चाचाजी की मृत्यु के बाद अपने बच्चों को आंचल के साये में समेट चाची पति के ग़म को पी गई थीं चुपचाप. मेरी शादी के दो वर्ष बाद चाचीजी के बड़े बेटे के इन्जीनियर बनते ही बाबूजी ने उसकी शादी तय कर दी और हम सब दो महीने बाद गौरव की शादी के लिये चाचीजी के पास पहुंच गये. सब कुछ तो बाबूजी को ही करना था, वही तो घर के बड़े-बुज़ुर्ग थे. मांजी चाची के साथ मिलकर बड़े उत्साह से सब इंतज़ाम देख-सुन रही थीं. चाचीजी का उत्साह देखते ही बन रहा था. कभी-कभी हंस कर बातों-बातों में कहतीं, “देखो भई, रानी बहू, अब जिठानी बनी हो तो तुम्हें ही समझाने-सिखाने होंगे देवरानी को अपने घर के संस्कार आदि.”
मैं भी हंसकर उत्तर देती, “आप चिंता न करें, बड़ी बनी हूं, तो बड़प्पन निभाना ही होगा.” यूं ही हंसी-ख़ुशी के बीच बारात जाने का दिन भी आ गया. बारात बस द्वारा आगरा से देहरादून जानी थी, सो भोर में ही मंगल गीतों के बीच बारात ने प्रस्थान किया.
दिन मांगलिक रस्मों और रात हंसी-ठिठोली और नृत्य-संगीत में बीत गई. दूसरे दिन सबेरे ही मेरे पति का फ़ोन आया, “विवाह भली-भांति सम्पन्न हो गया. बारात शाम चार-पांच बजे तक घर वापस पहुंच जायेगी.” घर में ख़ुशी की लहर दौड़ गई, रात्रि जागरण की थकान और आलस्य भूल नई बहू के स्वागत की तैयारियां शुरू हो गईं. चाची जी के चेहरे से तो ख़ुशी छलक-छलक पड़ रही थी. बार-बार दृष्टि घड़ी की ओर उठ जाती मानो समय बीत ही नहीं रहा. किसी तरह शाम के चार बजे और अब ज़रा-सी आहट पर सभी की निगाहें द्वार की ओर पहुंचने लगीं. धीरे-धीरे पांच, छः, सात और फिर आठ भी बज गये. अब सबकी बेचैनी बढ़ने लगी थी. “आख़िर इतनी देर कैसे हो रही है? कहीं रास्ते में बस तो ख़राब नहीं हो गई? शायद रास्ते में चाय-नाश्ते को रुके हों और मस्ती में समय का ध्यान ही न रहा हो, पर इतनी देर तो नहीं करनी चाहिए थी?” जितने मुंह उतनी ही बातें, सब अपनी-अपनी बुद्धिनुसार कह रहे थे.
रात नौ बज़े फ़ोन आया, “बस के साथ चल रही कार का एक्सीडेन्ट हो गया है, देर से घर पहुंचेगी.” सबके चेहरे फक पड़ गये. चाचीजी का रंग पीला पड़ गया, मानो शरीर से एक-एक बूंद ख़ून निचुड़ गया हो. वह पलटीं और पूजा गृह का द्वार बन्द कर लिया. पर हाय रे विधाता! तू न पिघला एक मां की कातर पुकार पर भी.”
रात दो बजे गौरव का निर्जीव शरीर ले बारात वापस लौट आई. सबके पीछे उतरी थर-थर कांपती भीत हिरनी-सी नई बहू. आंखें फाड़े विस्फारित नेत्रों से पति के निर्जीव चेहरे पर दृष्टि गड़ाये, लाल जोड़े में, वह नवविवाहिता चुपचाप आ खड़ी हुई. पर आरती का स्वागत थाल संजोनेवाली सास पूजा-गृह का द्वार बन्द किए बैठी रहीं.
आह! कैसा हृदय विदारक दृश्य था. बहुत पुकारने पर भी चाचीजी बेटे के अन्तिम दर्शन को भी बाहर नहीं आईं. चार दिन पूजा गृह यूं ही बन्द रहा, तब पांचवें दिन ससुर जी ने द्वार पर जाकर पुकारा, “छोटी बहू, दरवाज़ा खोलो.” कुछ क्षण बाद द्वार खुला. भावहीन मुख और सूनी आंखों के करुण क्रन्दन को सहने का ताव किसमें था भला. बूढ़े जेठ छोटी बहू के सिर पर हाथ रख रो पड़े, सांत्वना के शब्द तो मानो चुक गए थे. द्वार तो खुल गया था पूजा गृह का, किन्तु चाची बाहर नहीं आई थीं. वहीं चटाई पर आंखें मूंदे पड़ी रहतीं, न खाना-न पीना. मांजी जब बहुत ज़ोर डालतीं तो कभी चाय, कभी नींबू पानी ले लेतीं बस. उधर नई बहू उमा का हृदय रिश्तेदारों और आने-जाने वालों के दबी ज़बान में कहे व्यंग्य-बाणों से छलनी होता रहता, पर वह पत्थर बनी सजल नेत्रों से पृथ्वी को निहारती चुपचाप बैठी रहती. आठ दिन यूं ही बीत गये. उस दिन उमा के पिताजी ने उसे वापस ले जाने का प्रस्ताव रखा, तो मुझे चाचीजी से पूछने भेजा गया. बड़ी हिम्मत जुटा मैंने चाची से पूछा तो एक वाक्य में उत्तर मिला, “अभी नहीं, तेरहवीं के बाद.” तेरह दिन कैसे कटे, बताना बहुत कठिन है.
तेरहवीं के दूसरे दिन सबेरे जब मैं चाचीजी के लिए चाय लेकर पहुंची, तो वे बैठी थीं. किन्तु सूजी लाल आंखें बता रही थीं कि वे रात भर सो नहीं पाई हैं. प्याला हाथ में थाम वे थके स्वर में बोलीं, “बहू रानी, अब मुझमें तो शक्ति नहीं है. जेठजी, दादी, समधीजी और नई बहू को यहीं लिवा लाओ.” मांजी सबको ले चाची के पास पहुंचीं और सब नीचे बिछे फ़र्श पर ही बैठ गये. दस मिनट बाद मौन तोड़ चाचीजी का संयत स्वर उभरा, “समधीजी! बेटों के बड़े होते ही मां-बाप अपने बुढ़ापे को ख़ुशियों से सराबोर समझने लगते हैं. पर क्या सभी के सपने और कल्पनाएं साकार रूप ले पाते हैं? कुछ ऐसे अभागे भी हैं संसार में, जिनके सपने रेत के महल की भांति बिखर जाते हैं. किन्तु मैं उन्हें बिखरने नहीं दूंगी. जो खो चुकी हूं, उससे अधिक खोने की हिम्मत अब मुझमें नहीं बची है. उमा अब इस घर की बहू है, आप ले तो जा रहे हैं, पर जब हम बुलायें, भेज दीजियेगा.” कक्ष में बैठे प्रत्येक व्यक्ति की आंखें गंगा-जमुना बनी थीं, पर चाचीजी की सूनी आंखों में ना जाने कैसा दृढ़तापूर्ण आत्मविश्वास भरा था. हिचकियों के बीच उमा के पिता बोले “उमा, बेटी पैर पकड़ ले अपनी देवी जैसी सासू मां के.”
“नहीं समधीजी, मां को स़िर्फ मां ही रहने दीजिए, मां तो केवल मां है, उसे देवी और सास जैसे विश्लेषणों में मत बांटिए.” चलते समय भविष्य के प्रति आश्वस्त उमा अपनी अभयदायनी सासू मां के पैर आंसुओं से भिगोती रही और वे अपने आंसुओं को आंखों में ही पी, उसके सिर पर वात्सल्यपूर्ण हाथ फेरती रहीं. आहत मातृत्व में भीगे उस दर्द के रिश्ते की इस विदाई को देख सबकी आंखें नम थीं. कदाचित उनका भगवान भी अवश्य रो पड़ा होगा अपने क्रूर कृत्य पर. उमा पिता के साथ वापस चली गई थी.
चाची का दूसरा बेटा सौरभ प्रतियोगी परीक्षा पास कर ट्रेनिंग पर जा रहा था. सौरभ नये विचारों का सुलझा हुआ युवक था. उसके विचार से, उमा निर्दोष थी. इस अनहोनी के लिए दोषी था गौरव का भाग्य, जो ईश्वर के यहां से वह इतनी कम आयु लेकर आया था. मां की आज्ञा मान वह विवाह को राजी हो गया. साल भर बाद सौरभ की ट्रेनिंग पूरी होते ही एक साधारण समारोह में सौरभ-उमा परिणय सूत्र में बंध गये और उमा बहू बन फिर से घर में आ गई थी. प्रत्येक व्यक्ति आश्चर्य चकित था. इस आयु में, रूढ़ियों और अन्धविश्वास के विरुद्ध इतना सशक्त साहसिक क़दम उठाने की प्रेरणा चाचीजी के मन में आई कहां से. वे धीरे-धीरे अन्तर्मुखी होती गईं, पर बहू उमा को यह एहसास कभी नहीं होने दिया कि वह घर में अवांछित हैं. हर क़दम पर वे बेटे-बहू की ढाल बन खड़ी रहीं.
इस शादी के बाद कभी किसी ने गौरव का नाम उनके मुंह से नहीं सुना. कभी ज़िक्र आ भी जाता तो वह बहाने से टाल जातीं. कभी-कभी एकान्त क्षणों में शायद गौरव उनकी ममता को झकझोर जाता, तब उनकी आंखें अनायास ही भीग उठतीं. ऐसे समय यदि कोई पूछ लेता, “क्या हुआ मांजी?” तो वे सहजता से कह देतीं, “शायद आंख में कुछ गिर गया है, दो वर्ष बाद जब उमा की गोद में बेटा आ गया था तो उनकी आंखों में शान्ति तिर आई थी.
बेटे के ग़म को वे पी तो गई थीं दुनिया के सामने, पर सत्य यह था कि उस आग में वह तिल- तिल मर रही थीं. स्वास्थ्य गिरता जा रहा था और तीन वर्ष बाद अपने ग़म को हृदय में संजोये वे बेटे की खोज में अनन्त यात्रा पर चली गईं. मौत की ख़बर पा मांजी रो पड़ी थीं.
“चलो अच्छा हुआ, अपनी लाश ढोने से मुक्ति तो मिली छोटी को.”
उमा-सौरभ आज सुखी दाम्पत्य जीवन बिता रहे हैं. एक बेटे-बेटी के साथ छोटा-सा सुखी परिवार है उनका, पर सासू मां का ज़िक्र आते ही उमा की आंखें भीग जाती हैं. पराई बेटी के लिए इतना दर्द कि अपना दर्द और ग़म समेट हृदय के किसी गहरे अंधेरे कोटर में दफ़न कर दिया. ऐसी महान ममतामई नारी की स्मृतियां संजोते-संजोते स्वजनों का ही नहीं, परायों का मस्तक भी नत हो जाता है. काश, इतनी शक्ति और हिम्मत सभी में होती, तो आज अनुपम की बहू जैसी अनेक युवतियों को न तो दोषी माना जाता समाज में, न ही वह किसी अपराधबोध से ग्रसित होतीं.- रानी सिंह