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कहानी: उतरन

मां क्या कह रही हैं, मैं समझ गया. मैं पहले ही इंटरव्यू में पास हो गया. मां खुश हुईं और बोलीं, ‘‘देखो, भैया के कपड़े की वजह से पहले ही इंटरव्यू में नौकरी मिल गई.

भैया अमेरिका जाने वाले हैं, यह जान कर मैं फूला न समाया. भैया से भी ज्यादा खुशी मुझे हुई थी. जानते हो क्यों? अब मुझे उन के पुराने कपड़े, जूते नहीं पहनने पड़ेंगे. बस, यह सोच कर ही मैं बेहद खुश था. आज तक मैं हमेशा उन के पुराने कपड़े, जूते, यहां तक कि किताबें भी इस्तेमाल करता आया था. बस, एक दीवाली ही थी जब मुझे नए कपड़े मिलते थे. पुरानी चीजों का इस्तेमाल करकर के मैं ऊब गया था.


मां से मैं हमेशा शिकायत करता था, ‘मां, मैं क्या जिंदगीभर पुरानी चीजें इस्तेमाल करूं?’


‘बेटे, वह तुम से 2 साल ही तो बड़ा है. तुम बेटे भी न जल्दीजल्दी बड़े हो जाते हो. अभी उसे तो एक साल में कपड़े छोटे होते हैं. उसे नए सिलवा देती हूं. लेकिन ये कपड़े मैं अच्छे से धो कर रखती हूं, देखो न, बिलकुल नए जैसे दिखते हैं. तो क्या हर्ज है? जूतों का भी ऐसे ही है. अब किताबों का पूछोगे तो हर साल कहां सिलेबस बदलता है. उस की किताबें भी तुम्हारे काम आ जाती हैं. देखो बेटे, बाइंडिंग कर के अच्छा कवर लगा कर देती हूं तुम्हें. क्यों फुजूल खर्च करना. मेरा अच्छा बेटा. तेरे लिए भी नई चीजें लाएंगे,’ मां शहद में घुली मीठी जबान से समझती थीं और मैं चुप हो जाता था.


मुझे कभी भी नई चीजें नहीं मिलती थीं. स्कूल के पहले दिन दोस्तों की नईर् किताबें, यूनिफौर्म, उन की एक अलग गंध, इन सब से मैं प्रभावित होता था. साथ ही बहुत दुख होता था. क्या इस खुशी से मैं हमेशा के लिए वंचित रहूंगा? ऐसा सवाल मन में आता था. पुरानी किताबें इस्तेमाल कर के मैं इतना ऊब गया था कि 10वीं कक्षा पास होने के बाद मैं ने साइंस में ऐडमिशन लिया. भैया तब 12वीं कौमर्स में थे. 11वीं कक्षा में मुझे पहली बार नई किताबें मिलीं. कैमिस्ट्री प्रैक्टिकल में मुझे चक्कर आने लगे. बदन पर धब्बे आने लगे. कुछ घर के उपाय करने के बाद पिताजी डाक्टर के पास ले गए.


‘अरे, इसे तो कैमिकल की एलर्जी है. कैमिस्ट्री नहीं होगी इस से.’


‘इस का मतलब यह साइंस नहीं पढ़ पाएगा?’


‘बिलकुल नहीं.’


डाक्टर के साथ इस बातचीत के बाद पिताजी सोच में पड़ गए. आर्ट्स का तो स्कोप नहीं. फिर क्या, मेरा भी ऐडमिशन कौमर्स में कराया गया, और फिर से उसी स्थिति में आ गया. भैया की वही पुरानी किताबें, गाइड्स. घर में सब से छोटा करने के लिए मैं मन ही मन मम्मीपापा को कोसता रहा. भैया ने बीकौम के बाद एमबीए किया और मैं सीए पूरा करने में जुट गया. सोचा, चलो पुरानी किताबों का झमेला तो खत्म हुआ. एमबीए पूरा होने के बाद भैया कैंपस इंटरव्यू में एक विख्यात मल्टीनैशल कंपनी में चुने गए. यही कंपनी उन्हें अमेरिका भेज रही थी. भैया भी जोरशोर से तैयारी में जुटे थे और मैं भी मदद कर रहा था. वे अमेरिका चले गए. समय के साथ मेरा भी सीए पूरा हुआ. इंटरव्यू कौल्स आने लगे.


‘‘मां, इंटरव्यू कौल्स आ रहे हैं, सोचता हूं कुछ नए कपड़े सिलवाऊं.’’


मां ने भैया की अलमारी खोल कर दिखाई, ‘‘देखो, भैया कितने सारे कपड़े छोड़ गया है. शायद तुम्हारे लिए ही हैं. नए ही दिख रहे हैं. सूट भी हैं. ऐसे लग रहे हैं जैसे अभीअभी खरीदे हैं. फिर भी तुम्हें लगता हो, तो लौंड्री में दे देना.’’


मां क्या कह रही हैं, मैं समझ गया. मैं पहले ही इंटरव्यू में पास हो गया. मां खुश हुईं और बोलीं, ‘‘देखो, भैया के कपड़े की वजह से पहले ही इंटरव्यू में नौकरी मिल गई. वह बड़ा खुश होगा.’’ एक तो पुराने कपड़े पहन कर मैं ऊब गया था और मां जले पर नमक छिड़क रही थीं. क्या मेरी गुणवत्ता का कोई मोल नहीं? मां का भैया की ओर झकाव मुझे दिल ही दिल में खाए जा रहा था. पहली सैलरी में कुछ अच्छे कपड़े खरीद कर मैं ने इस चक्रव्यूह को तोड़ा था. भैया के कपड़े मैं ने अलमारी में लौक कर डाले. मैं अपने लिए नईनई चीजें खरीदने लगा.


हम शौपिंग करने गए. उन्होंने मेरे लिए भी अपने जैसा सूट खरीदा. यह मेरे लिए सरप्राइज था. शादी के दिन पहनने की शेरवानी भी दोनों की एकजैसी थी.


भैया अमेरिका में सैटल हो गए. अब उन्हें शादी के लिए उच्चशिक्षित, संपन्न रिश्ते आ रहे थे. भैया के कहेअनुसार हम लड़की देखने जा रहे थे. आखिरकार हम ने भैया के लिए 4 लड़कियां चुनीं. एक महीने बाद भैया इंडिया लौटे. सब लड़कियों से मिले और शर्मिला के साथ रिश्ता पक्का किया. शर्मिला ने बीकौम किया था, मांबाप की वह इकलौती लड़की थी. उस के पिता देशमुख का स्पेयरपार्ट का कारखाना था. शर्मिला सुंदर व सुशील थी.


‘‘क्यों पक्या, भाभी पसंद आई तुझे?’’ भैया ने पूछा.


‘‘क्यों नहीं, शर्मिला टैगोर भी मात खाएगी, इतनी सुंदर और शालीन मेरी भाभी हैं. ऐसी भाभी किस को अच्छी नहीं लगेंगी. जोड़ी तो खूब जंच रही है आप की.’’


जल्दी ही सगाई हुई और 3 हफ्ते बाद शादी की तारीख तय हुई. बाद में एक महीने बाद दोनों अमेरिका जाने वाले थे. यह सब भैया ने ही तय किया था. दोनों साथसाथ घूमने लगे थे. सब खुशी में मशगूल थे. दोनों ओर शादी की शौपिंग चल रही थी.


‘‘चल पक्या, मेरे साथ शौपिंग को. सूट लेना है मुझे.’’


‘‘मैं? सूट तो आप को लेना है. तो भाभी को ले कर जाओ न.’’


‘‘भाभी? ओह शर्मिला, ये क्या पुराने लोगों जैसा भाभी बुलाते हो. शर्मिला बुलाओ, इतना अच्छा नाम है.’’


‘‘तो उन्हें बताइए मुझे प्रकाश नाम से बुलाए.’’


‘‘ओफ्फो, तुम दोनों भी न…बताता हूं उसे, लेकिन हम दोनों आज शौपिंग करने जा रहे हैं. नो मोर डिस्कशन.’’


हम शौपिंग करने गए. उन्होंने मेरे लिए भी अपने जैसा सूट खरीदा. यह मेरे लिए सरप्राइज था. शादी के दिन पहनने की शेरवानी भी दोनों की एकजैसी थी.


‘‘भैया शादी तुम्हारी है. मेरे लिए इन सब की क्या जरूरत थी?’’


‘‘अरे तेरी भी तो जल्दी शादी होगी. उस वक्त जल्दबाजी नहीं होनी चाहिए.’’


‘‘लगता है जेब गरम है आप की.’’


‘‘पूरी तैयारी के साथ आया हूं. शर्मिला के लिए अमेरिकन डायमंड का सैट भी ले कर आया हूं. मम्मीडैडी को भी शौपिंग करवाने वाला हूं. मेरे पुराने कपड़े तुझे पहनने पड़ते थे. चल, आज तुझे खुश कर देता हूं.’’


हमें कहां मालूम था कि यह खुशी दो पल की ही है. भैया के लिए मेरे मन में कृतज्ञता थी. कितने बड़े दिल के हैं भैया. उन्हें पूरा सहकार्य देने का मैं ने मन ही मन प्रण कर लिया. हम सब खुशी के 7वें आसमान पर थे, तब नियति हम पर हंस रही थी.


शादी का नजारा तो पूछो ही मत. शर्मिला सोलह सिंगार कर के मंडप में आई थी. सब की नजरें उस पर ही टिकी थीं. लड़की वालों ने शादी में किसी बात की कमी नहीं की. हम सब खुशी की लहर पर सवार थे.


ऐसे में बूआ ने मां को सलाह दी, ‘‘भाभी, प्रसाद के लिए शर्मिला तो ले आईं, अब प्रकाश के लिए उर्मिला ले आओ.’’ मैं ने तय किया अपनी पत्नी का नाम मैं उर्मिला ही रखूंगा, शर्मिला की मैचिंग. शादी की रस्में चल रही थीं. बीचबीच में दोनों की कानाफूसी चल रही थी. शर्मिला की मुसकराहट देख कर लग रहा था मानो दोनों मेड फौर ईच अदर हैं.’’ शर्मिला के आने से घर में एक अजीब सी सुगंध फैल गई. बहुत ही कम समय में वह सारे घर में घुलमिल गई. शादी के बाद सब रस्में पूरी कर नवविवाहित जोड़ा हनीमून के लिए बेंगलुरु रवाना हुआ. वे दोनों एक हफ्ते बाद लौटने वाले थे. उस के 2 हफ्ते बाद वे अमेरिका जाने वाले थे. भैया ने ही यह सारा प्रोग्राम तय किया था.


‘‘देखो न, कितनी जल्दी दिल जीत लिया. 8 दिनों के लिए गईर् तो घर सूनासूना लग रहा है. हमेशा के लिए गई, तो क्या हाल होगा? मां ने फोन पर भैया को कहा?’’ मगर मां घर तो नहीं रख सकते हैं न,’’ भैया बोले. उस के बाद 2 दिन दोनों लगातार फोन पर संपर्क में थे. लेकिन फिर वह काला दिन आया. छुट्टी का दिन था, इसलिए मैं घर पर ही था. दोपहर 3 बजे मेरा मोबाइल बजा.


‘‘हैलो मैं…मैं…शर्मिला, प्रकाश, एक भयंकर घटना घटी है,’’ वह रोतेरोते बोल रही थी. घबराईर् लग रही थी. मैं भी सहम सा गया.


‘‘शर्मिला, शांत हो जाओ, रोना बंद करो. क्या हुआ, ठीक से बताओ. भैया कैसे हैं? आप कहां से बोल रही हो?’’


‘‘प्रसाद नहीं हैं.’’


वह सिसकसिसक कर रोने लगी. तनाव और डर से मैं अपना संयम खो बैठा और जोर से चिल्लाया.


‘‘नहीं हैं, मतलब? हुआ क्या है? प्लीज, जल्दी बताओ. मेरी टैंशन बढ़ती जा रही है. पहले रोना बंद करो.’’


अब तक कुछ विचित्र हुआ है, यह मांबाबूजी के ध्यान में आ गया था. वे भी हक्केबक्के रह गए थे.


‘‘प्रकाश, प्रसाद अमेरिका चले गए.’’


वह धीरज के साथ बोली, ‘‘प्रसाद सुबह 10 बजे कोडाइकनाल की टिकटें निकालने के लिए बाहर गए. 2 दिन उधर रह कर मुंबई वापस आने का प्लान था.


‘‘कुछ भी क्या बोल रही हो, आप को छोड़ कर कैसे गए? और आप ने जाने कैसे दिया? सब डिटेल में बताओ. कुछ तो सौल्यूशन निकालेंगे. हम सब तुम्हारे साथ हैं. चिंता मत करो. मगर हुआ क्या है यह तो बताओ. खुद को संभालो और बताओ, क्या हुआ?’’


वह धीरज के साथ बोली, ‘‘प्रसाद सुबह 10 बजे कोडाइकनाल की टिकटें निकालने के लिए बाहर गए. 2 दिन उधर रह कर मुंबई वापस आने का प्लान था. अगर उन्हें आने में देर हुई तो खाना खाने को कह गए थे. मैं ने 2 बजे तक उन का इंतजार किया. उन का मोबाइल स्विचऔफ है. खाना खाने का सोच ही रही थी तो रूमबौय एक लिफाफा ले कर आया. मुझे लगा बिल होगा. खोल कर देखा तो ‘मैं अमेरिका जा रहा हूं’ ऐसा चिट्ठी में लिखा था और प्रसाद ने नीचे साइन किया था. मेरे ऊपर मानो आसमान टूट पड़ा. बेहोश ही होना बाकी था. जैसेतैसे हिम्मत जुटाई. बाद में देखा तो मेरे गहने भी नहीं थे जो रात को मैं ने अलमारी में रखे थे. मेरे पास पैसे भी नहीं हैं. मैं बहुत असहाय हूं. क्या करूं मैं अब पिताजी को भी नहीं बताया है.’’


वह फिर से रोने लगी. मैं भी अंदर से पूरा हिल गया. खुद को संभाल कर उसे धीरज देना आवश्यक था. ‘‘आप ने अपने पिताजी को नहीं बताया, यह अच्छा किया. शर्मिला, रोओ मत. आप अकेली नहीं हो. आप के पिताजी को कैसे बताना है, यह मैं देखता हूं. बहुत कठिन परिस्थिति है, लेकिन कोई न कोईर् हल जरूर निकालेंगे. आप होटल में ही रुको. कुछ खा लो. मैं सब से बात कर के उधर आप को लेने आता हूं. आज रात नहीं तो सुबह तक हम लोग पहुंच जाएंगे. फोन रखता हूं.’’


मां-बाबूजी को सारी कहानी सुनाई. बाबूजी बहुत शर्मिंदा थे. मां तो फूटफूट कर रोने लगीं.


‘‘मांबाबूजी, शर्मिला के पिता को कुछ नहीं मालूम. उन्हें बताना चाहिए. मैं खुद जा कर बताता हूं.’’


‘‘मैं भी आता हूं.’’


‘‘नहीं बाबूजी, मां अभी आने की स्थिति में नहीं हैं. उन्हें अकेला भी छोड़ना ठीक नहीं. मैं अकेले ही हो आता हूं. कठिन लग रहा है, लेकिन यह घड़ी मुझे ही संभालनी होगी.’’


मैं दबेपांव भाभी के घर गया.


‘‘आओ बेटा, और प्रसाद कब आ रहे हैं?’’


‘‘नहीं, मैं किसी और काम से आप के यहां आया हूं.’’


‘‘हांहां, बोलो, कुछ प्रौब्लम है क्या?’’


‘‘हां…हां, बहुत कठिन समस्या है. भैया अमेरिका चले गए.’’


‘‘क्या? लेकिन कल रात ही शमु का फोन आया था, उस ने तो कुछ नहीं कहा. यों अचानक कैसे तय किया?’’


‘‘नहीं, वे अकेले ही चले गए.’’


‘‘और शमु?’’


फिर मैं ने उन्हें सारी हकीकत बयान की. वे क्रोध से लाल हो गए. क्रोध से उन का शरीर कांप रहा था. उन्हें भी मैं ने गहनों के बारे में कुछ नहीं बताया.


‘‘हरामखोर, मेरी इकलौती बेटी की जिंदगी बरबाद कर दी. सामने होता तो गोली से उड़ा देता. मैं छोड़ं ूगा नहीं उसे.’’


उन को संभालने के लिए शर्मिला की मां आगे आईं, ‘‘आप शांत हो जाइए. यह लीजिए पानी पीजिए. संकट की घड़ी है. हमें पहले शमु को संभालना चाहिए. यह कैसा पहाड़ टूट पड़ा मेरी बेटी पर. है कहां है वह?’’


‘‘वे बेंगलुरु में होटल में हैं, मैं उन्हें लेने जा रहा हूं.’’


‘‘नहीं, हम दोनों उसे ले कर आते हैं. शमु से एक बार बात कर लेते हैं.’’


मैं ने शर्मिला के मोबाइल पर फोन लगाया.


‘‘मैं प्रकाश बोल रहा हूं, आप के घर से. आप कैसी हो? लो, बात करो उन से.’’


‘‘शमु, रो मत, धीरज रख. देख मैं उस के साथ ऐसा खेल खेलूंगा कि उसे फूटफूट कर रोना पड़ेगा. हम दोनों आ रहे हैं तुझे लेने. आखिरी फ्लाइट से निकलते हैं. तब तक खुद का ध्यान रख,’’ शर्मिला के पिताजी बोले.


क्रोध की जगह करुणा ने ले ली. शर्मिला की आंखों से आंसू छलक रहे थे. शर्मिला की मां भी व्याकुल थीं, लेकिन झठमूठ का धीरज दे रही थीं. मेरी मां ने तो बिस्तर पकड़ लिया था. उन के आंसू थम नहीं रहे थे. सब को इतने बड़े दुख में धकेलने वाले निर्दयी भैया से मुझे घृणा आने लगी. शर्मिला के अपने घर आने पर हम वहां पहुंचे.


‘‘शर्मिला, यह क्या हुआ बेटा,’’ यह बोल कर मां बेहोश हो गईं. बाबूजी शर्मिंदा हो कर उस के सामने हाथ जोड़ रहे थे.


‘‘हम आप के कुसूरवार हैं. ऐसा कुलक्षणी बेटा जना, मुझे शर्म आती है.’’


शर्मिला के पापा अब तक शांत हो गए थे.


शर्मिला की मां और शर्मिला मेरी मां को समझ रहे थे.


‘‘हम सब को यह दुख भोगना था शायद, लेकिन आप खुद को कुसूरवार न समझें. मैं उसे पाताल से भी ढूंढ़ कर लाऊंगा और सजा दूंगा. प्रकाश उसे अमेरिका में संपर्क करने का कोई रास्ता है क्या?’’ ‘‘हां पापा, प्रसाद का औफिस का नंबर तो नहीं है पर जहां रहता है वहां का नंबर ट्रेर्स करता हूं.’’


‘‘फोन लगाया था तो पता चला भैया 3 महीने पहले ही अपार्टमैंट छोड़ चुके थे.’’


‘‘हरामखोर, पहले से ही प्लान कर चुका था. उस ने मेरी बेटी की जिंदगी बरबाद कर दी. नया बिजनैस शुरू करने के बहाने मेरे पास से 5 लाख रुपए ले गया था.’’


‘‘हां, मुझे भी यही कारण बता कर पैसे मांगे, मैं ने पीएफ से 2 लाख रुपए निकाल कर दिए, शर्मिला के गहने भी गायब हुए हैं.’’ मैं ने बताया.


‘‘नीच अमानुष. अब मैं यह हकीकत अखबार में छपवाने वाला हूं. अमेरिका में मेरे कुछ रिश्तेदार हैं, उन को भी खबर दूंगा. सब जगह उस की बदनामी करूंगा.’’


अब बदनामी होगी, इस कारण बाबूजी डर गए.


‘‘देखिए, हमारे बेटे से अक्षम्य अपराध हुआ है. लेकिन जरा धीरज से काम लीजिए. ऐसी घड़ी में सोचविचार कर के निर्णय लीजिए, आप देख ही रहे हो हालात कितने नाजुक हैं और शर्मिला के भविष्य की दृष्टि से भी सोचना चाहिए. बस, एक हफ्ते का समय दीजिए हमें. देखते हैं कुछ हल निकलता है क्या. नहीं तो मानहानि सहने के सिवा और कोई चारा नहीं.’’


वे एक हफ्ता रुकने को राजी हो गए. बड़ी कृपा हुई थी हम पर. गए हफ्ते खुशी की तरंगों पर तैरने वाले हम, आज दुख के सागर में डूब चुके थे. केवल भैया की इस घिनौनी हरकत की वजह से फूल जैसी शर्मिला मुरझ कर सांवली पड़ गईर् थी. उस ने जैसे न बोलने का प्रण लिया था. हम दोनों सहारा बने, इसलिए मां थोड़ी संभल गईं, वरना उन के लिए सदमा असहनीय था.


‘‘कलमुंहा, बच्ची की जिंदगी की होली कर डाली.’’


‘‘सही कहती हो आप. हम उस के अपराधी हैं. कभी न भरने वाला जख्म है यह.’’ शर्मिला मां से मिल कर गई. आश्चर्य यह था कि दोनों संयम से काम ले रही थीं. एक दिन मैं औफिस से आया तो मांबाबूजी अभीअभी शर्मिला के घर से लौटे थे.


‘‘बाबूजी, उन्होंने बुलाया था क्या?’’


‘‘नहीं, ऐसे ही मिल कर आए, काफी दिन हुए, मिले नहीं थे. शर्मिला को भी देखने को दिल कर रहा था.’’


‘‘सब कुछ ठीक है न?’’


‘‘हां, ठीक ही कहना चाहिए, लेकिन भविष्य के बारे में सोचना जरूरी है.’’


‘‘प्रकाश अभीअभी आए हो न? हाथपांव धो आओ. मैं चाय बनाती हूं. कुछ खा भी लो.’’ मुझे मां का यह बरताव अजीब लगा.


चायनाश्ता हो गया. हम तीनों वहीं बैठे बातें कर रहे थे. मां मुझ से कुछ कहना चाहती हैं, ऐसा मैं महसूस कर रहा था. वे बहुत टैंशन में लग रही थीं.


‘‘मां, क्या हुआ, कुछ कहना है क्या, टैंशन में लग रही हो. बताओ अभी, क्यों टैंशन बढ़ा रही हो?’’


‘‘प्रकाश, देखो…हमें ऐसा लगता है, इसलिए सुझाव दे रही हूं. लेकिन सोच कर ही बताना.’’


‘‘क्या सोचना है? क्या सुझाव  दे रही हो? और ऐसे हकला कर क्यों बोल रही हो?’’


आखिरकार बाबूजी ने बड़ी हिम्मत कर बोल ही दिया, ‘‘प्रकाश, हमें लगता है कि तुम शर्मिला को पत्नी के रूप में स्वीकार करो.’’


ऐसे लग रहा था मानो सारे बदन में बिजली दौड़ रही है. मैं जोर से चिल्लाया. ‘‘यह कैसे हो सकता है? भाभी और पत्नी? नहीं, मैं सोच भी नहीं सकता. आप मुझे  ऐसा सुझाव कैसे दे सकते हो?’’


‘‘प्रकाश बेटे, यह कहते हुए हमें भी अच्छा नहीं लग रहा. हम जानते हैं कि तुम्हारे भी अपने वैवाहिक जीवन के कुछ सपने होंगे. तुम अच्छे पढ़ेलिखे हो, अच्छी तनख्वाह मिलती है तुम्हें. तुम्हें अच्छी लड़की मिल सकती है. लेकिन, हमें शर्मिला के बारे में भी तो सोचना चाहिए. उस की कोई गलती न होते हुए भी उस की जिंदगी यों बरबाद हो गई, और हमें यह देखना पड़ रहा है. अनजाने में हम ही इस के जिम्मेदार हैं न?’’


मां फिर से सिसकसिसक कर रोने लगीं.


‘‘मां, मुझे सोचने के लिए वक्त चाहिए. यही बोलने के लिए आप उन के यहां हो आए? क्या कहा उन्होंने?’’


‘‘हम ने बात की उन से. कुछ कहा नहीं उन्होंने. उन्हें भी वक्त चाहिए. फोन करेंगे वे. तुम्हारा कहना क्या है, यह पूछने को कहा है.’’


मेरे पांवतले जमीन खिसक रही थी. जेहन ने काम करना बंद कर दिया था.


‘‘मैं जरा घूम कर आता हूं.’’


‘‘इस वक्त?’’


‘‘हां.’’


दूर बगीचे तक घूम कर आया. तब कहीं थोड़ा सुकून महसूस हुआ. मेरे लौटने तक मांबाबूजी चिंता कर रहे थे. खाना गले के नीचे नहीं उतर रहा था. उठ कर बिस्तर पर लेटा. नींद आने का सवाल ही नहीं था. मेरी वैवाहिक जिंदगी शुरू होते ही खत्म होने वाली थी. भैया के पुराने कपड़े, किताबें इस्तेमाल करने वाला मैं अब उन की त्यागी पत्नी… नहीं, यह नहीं हो सकता. इस प्रस्ताव को नकारना चाहिए. मैं बहुत बेचैन था. लेकिन आंखों के सामने आंसू निगलती मां, शर्मिंदा बाबूजी, क्रोधित शर्मिला के पिता, उन को संभालने की कोशिश करती हुई शर्मिला की मां और जिंदगी के वीरान रेगिस्तान की बालू की तरह शुष्क शर्मिला दिखने लगी. इन सब की नजरें बड़ी आशा से मुझे  देख रही हैं, ऐसा लगने लगा. फिर से एक बार मेरे नसीब में उतरन ही आईर् थी. इस कल्पना से दिल जख्मी हो रहा था. ऐसी स्थिति में मुझे बचपन की एक घटना याद आई.


भैया की ड्राइंग अच्छी थी, वे बहुत अच्छे चित्र बनाते थे, और पूरे होने के बाद दोस्तों को दिखाने जाते थे. सारा सामान वैसे ही रखते थे. घर साफ होना चाहिए, इस पर बाबूजी का ध्यान रहता था. फिर मां मुझे मनाती थीं, ‘प्रकाश, ये सामान जरा उठा कर रख बेटे. वो देखेंगे तो बिगड़ेंगे. मैं ने लड्डू बनाए हैं. मैं लाती हूं तेरे लिए.’


‘मां भैया अपना सामान क्यों खुद नहीं रखते? लड्डू का लालच दे कर आप मुझे  से काम करवाती हो. भैया बिगाड़ेंगे और मैं संवारूंगा, यह अलिखित नियम बनाया है क्या आप ने.’


मां का यह अलिखित नियम मेरे पीछे हाथ धो कर पड़ा था. जिंदगी के इस मोड़ पर उस के किए अक्षम्य अपराध को मुझे ही सही करना था, मुझे ही अब शर्मिला से शादी करनी थी.


क्यों, क्योंकि वह सिर्फ मेरा बड़ा भाई है, इसलिए.

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