कहानी: नहाने जाओ न पापा
सुबह से दस बार नहाने को कह चुकी पापा से. अभी किचन से निबटी तो देखा फिर मोबाइल हाथ में लिए चेस खेल रहे. अब मेरा पारा सातवें आसमान पर था. “पापा 11 बज गए, अभी मोबाइल से मन नही भरा. नहाते क्यों नहीं, फिर खाने का वक्त हो जाएगा.” कुछ तेज आवाज में मैंने पापा को डांट सी लगाई.
“हां भई, जा रहा हूं. गेम से एक्जिट तो करने दो. हमेशा हवा के घोड़े पर सवार रहती हो. काम निबटा लिया है तो दो मिनट चैन की सांस ले लो. आराम से बैठो, बातें करो. घड़ी तो रोज ही 11 बजाती है, इस में क्या ख़ास है बताने को. सच कहते हैं बच्चे, बातबात पर चिड़चिड़ाती हो. उम्र हो चली है तुम्हारी. यों बातबेबात गुस्सा करोगी तो बीपी बढ़ जाएगा.” मेरी बात को हवा में उड़ाते हुए पापा ने मुझे ही चार बातें पकड़ा दीं. उफ़्फ़ क्या करूं, कैसे पार पाऊं इन से. मन ही मन बड़बड़ाती हुई मैं ने माथा पकड़ लिया.
मम्मी को गए 2 साल बीत चुके थे. 64 सालों बाद जब जीवनसंगिनी बिछड़ी तभी शायद वे इस रिश्ते की गहराई समझ पाए थे. मम्मी के सामने बुढ़ापे तक मस्तमौला बने रहने वाले पापा, उन की बड़ी से बड़ी चिंता को भी हंस कर उड़ा देने वाले पापा अब ज्यादातर खामोश रहने लगे थे. पहले तो वे कभी किसी बात की टैंशन ही नहीं लेते थे. इन सब कामों के लिए तो मम्मी थीं. पापा का काम तो सिर्फ अपनी कमाई को मम्मी के हाथ में रखना भर था. उस के बाद वे पलट कर यह भी नहीं पूछते थे कि कितना पैसा कहां खर्च किया, महीने के आखिरी में कुछ बचा या नही, अगर नहीं तो कैसे काम चल रहा है? उन्हें इन सब बातों से कोई मतलब न था. ये सारी जिम्मेदारियां उठाने के लिए उन की श्रीमतीजी यानी हमारी मम्मी जो थीं.
अपनी ही दुनिया मे मस्त रहने वाले पापा औफिस के बाद शाम को रैकेट हाथ में घुमाते हुए फैक्ट्री के क्लब जा पहुंचते थे. वहां से लौटते तो दोचार दोस्त साथ में होते. अब जमती देररात तक चेस की बाजियां और बीचबीच में आती आवाज, ‘बिटिया इंदू, जरा चाय बना लाओ.’ अब उस ज़माने में बिस्कुट और नमकीन तो कभीकभार की बात होती, लिहाज़ा घर में बना नाश्ता या तरहतरह के पकौड़ों का दौर चाय के संग चालू रहता. मम्मी कभीकभार चिढ़ भी जातीं, ‘पूछते भी नहीं हैं कि घर में चायपत्ती, बेसन है या नहीं. बस, बैठेबैठे फरमान जारी कर दिया, बिटिया चाय दे जाना.’
उन की इस शिकायत पर वे जोर से हंस पड़ते, ‘भई, हम तो अपनी सारी तनख्वाह अपनी होम मिनिस्टर के हाथों में सौंप देते हैं. अब क्या सामान है, क्या नहीं, इस की चिंता हम क्यों पालें.’ उन के ऐसे जुमलों पर मम्मी देर तक बड़बड़ाती रहतीं.
पापा की बेख़बरी का आलम यह था कि कई बार तो उन्हें हम बच्चों की क्लास तक पता नहीं होती थी. किसी मेहमान के पूछने पर वे हमें आवाज़ लगाते और अपनी क्लास बताने को कहते. इधर पापा से बिलकुल उलट मम्मी की दुनिया सिर्फ अपने घर और बच्चों तक ही सीमित थी. उन्हें अपने अलावा सभी की फिक्र थी. सांवलेसलोने मुखड़े और आकर्षक नैननक्श की स्वामिनी हमारी मम्मी बेहद सरल, सुगढ़, मेहनती और मितभाषी थीं.
मम्मी की तसवीर जेहन में आते ही आंखें सजल हो उठीं. मेरी जननी, प्रथम गुरु, मार्गदर्शक, राजदार, सखीसहेली और भी न जाने वे क्याक्या थीं. जब तक वे रहीं, कभीकभार घरगृहस्थी के फेर में यादों व नजरों से ओझल हो भी जाया करती थीं लेकिन जब से वे गईं, एक भी पल मैं ने उन्हें अपने से अलग नहीं पाया. मां का रिश्ता शायद होता ही ऐसा है कि जब तक हमारे पास होता है, हम उस की महत्ता से अनजान रहते हैं लेकिन उस के खो जाने के बाद पलपल उस की कमी का गम हमें सालता है. “क्या हुआ बेटा?” पापा की आवाज ने मेरी तंद्रा भंग की. नहाधो कर वे मेरे सामने खड़े थे.
“कुछ नहीं, पापा.” अपने आंसुओं को जब्त करती मैं उठ खड़ी हुई. 85 साल के दिनोंदिन वृद्ध होते पापा को मैं एक भी पल उदास नहीं देखना चाहती थी. उन्हें खाना दे कर मैं अपने कमरे में चली आई. मन बहुत भारी हो रहा था तो अलमारी से पुरानी अलबम खोल कर बैठ गई. जैसेजैसे उसे पलटती जा रही थी, अनगिनत यादों का ज़खीरा सा आंखों के आगे तैर रहा था.
नौकर जब्बार के साथ आलू के चिप्स बनातीं मम्मी, गाय का बच्चा होने के समय उसे गुड़ की दलिया बना कर खिलातीं मम्मी, अपनी सखियों संग होली के रंगों में रंगी मम्मी, मेरी शादी में हर फंक्शन, में खासकर कन्यादान के वक्त मंडप के नीचे, पापा के साथ बैठीं मम्मी… हर फोटो के साथ उस वक्त की यादों ने मेरे अंदर भावनाओं का ज्वार ला दिया था. अलबम के पन्ने पलटते हुए मैं हिचकियां ले कर रोने लगी.
तभी पीछे से कंधे पर किसी ने हाथ रखा. “तुम्हारी मां ने तुम्हें इस तरह रोते देखा तो जहां भी होंगी, दुखी हो जाएंगी. जाओ मुंहहाथ धो लो. चाय बना कर लाया हूं. पियो और तरोताजा हो जाओ,” पापा मुसकराते हुए मेरे सिर पर स्नेह से हाथ फेर रहे थे. पता नहीं, पर उन्हें देख उन की समझाइश पर अमल कर मैं जल्द ही सहज हो मुसकराने लगी.
“अच्छा, अब मैं जाता हूं, आराम करूंगा थोड़ा,” कहते हुए पापा हौल में सोने चले गए. सच कितने बदल गए हैं पापा. व्यवहार में भी कुछ मम्मी सी झलक आने लगी है. उन का चेहरा देख कर लग रहा था कि अभी फफक पड़ेंगे. इसीलिए शायद मैं ने खुद को तुरंत कंट्रोल कर लिया था. अचानक ही दिमाग में मम्मी की शिकायतें घूमने लगीं.
‘बिटिया, देखो तुम्हारे पापा मेरी जरा भी सुध नहीं लेते. कितनी बार कहा मोबाइल में भजन लगा दो मगर नहीं, समाचार देखते रहेंगे. ये न्यूज चैनल वाले भी एक ही खबर पचासों बार दिखाते हैं. नहीं तो बैठ कर चारछह लोग बहस के नाम पर लड़ते ही रहेंगे. अब बच्चों को तो फुरसत है नहीं मेरे पास बैठ कर बात करने की. कभी कहती हूं, साहब तनिक बैठ जाओ मेरे संग, कुछ बातें करो. मगर नहीं दिनभर चेस की किताब पढ़ेंगे, कोई पकड़ में आ गया तो रात 11 बजे तक खेलते रहेंगे. मगर क्या मजाल जो मेरे पास दो मिनट भी बैठ कर प्यार से बतिया लें.’ मां की उम्र के साथ पापा से उन की शिकायतों की फेहरिस्त भी बढ़ती जा रही थी. पापा को समझाने जाओ तो वे उलटे मां पर ही सारा ठीकरा फोड़ देते.
‘तुम्हारी मम्मी का कुछ नहीं किया जा सकता. धीरे बोलो तो सुन नहीं पातीं और जोर से बोल दो तो कहती हैं चिल्ला काहे रहे हो, बहरी हूं का? अब बताओ बेटा, क्या करूं. जब भी पास बैठो, पुरानी कहानियां ले कर बैठ जाएंगी और गड़े मुर्दे उखाड़ती हुई मुझ से लड़ने लगेंगी. फिर मनाते बैठो इन्हें पूरा दिन.’ तो अगर पापा का पक्ष लो तो मम्मी को और मम्मी का पक्ष लो तो पापा को बुरा लग जाता. फिर मेरे पास सिवा चुप होने के कोई चारा न बचता.
दरअसल, पहले मम्मी के पास इन सब बातों के लिए वक्त ही नहीं रहता था. शरीर में भी भरपूर शक्ति थी, पूरा दिन काम करती थीं और रात को बिस्तर पर लेटते ही नींद की आगोश में समा जाती थीं. लेकिन बुढ़ापे में दिनोंदिन अशक्त होती काया के कारण उन से ज्यादा काम सधता न था. तिस पर वर्षों से घरगृहस्थी की चिंता झेल रहा उन का शरीर भी हाई बीपी, शुगर, शारीरिक सूजन आदि कई बीमारियों का शिकार हो चुका था. इधर हम बच्चे भी बड़े हो कर अपनीअपनी उड़ान ले चुके थे. बस, कभीकभार वारत्योहार या किसी अन्य जरूरत पर ही घर जाना हो पाता था. ऐसे में पापा के साथ अकेली रह रहीं मम्मी किसी से दो बातें करने को भी तरस जाती थीं. ऊपर से उन्हें कानों से भी कम सुनाई देने लगा था, इसलिए ज्यादा टीवी वगैरह भी नहीं देख पाती थीं.
शारीरिक अक्षमता के चलते बीमारी और अकेलेपन का दंश झेलतीं मम्मी की सहनशक्ति धीरेधीरे जवाब देने लगी थी. लिहाज़ा, छोटीछोटी बातों पर अकसर ही वे चिड़चिड़ा उठतीं. हालांकि, उन की ऐसी हालत देख पापा में, थोड़ा सा ही सही, बदलाव तो आया था. जिंदगीभर एक गिलास पानी भी अपने हाथ से उठा कर न पीने वाले पापा अब घर के छोटेमोटे काम स्वयं ही निबटा लेते थे. जिन में सुबह की चाय बनाना, कपड़े सुखाना, बिस्तर तहा कर रखना, सागसब्जी वगैरह काट देना आदि शामिल थे. फिर भी पूरा जीवन जिम्मेदारी से परे गुजारने वाले पापा मम्मी की उम्मीदों पर पूरी तरह से खरा नहीं उतर पाते थे. सो, उन की आपसी खटरपटर चलती ही रहती.
बावजूद इस के, उन दोनों के बीच बेशुमार प्यार था जो एकदूसरे की चिंता में झलकता दिखाई देता. जहां तबीयत में जरा सा सुधार होते ही मम्मी उन का मनपसंद खाना बना कर उन्हें प्यारमनुहार कर खिलातीं. वहीं, हम लोगों का मम्मी को जरा सा भी कुछ कह देना पापा को बिलकुल बरदाश्त न होता. इस तरह समय के साथ उन का प्यार और भी गहरा हो चला था. “ओफ्हो नाना, थोड़ा धीरे गाओ न, मैं पढाई कर रही हूं.” तभी मिकी की तेज आवाज़ से मेरा ध्यान भटका.
“….तुझ को देखा है मेरी नजरों ने ….तेरी तारीफ हो मगर कैसे…” पापा ऊंची आवाज़ में तान ले रहे थे.
“मम्मा, प्लीज नाना को समझाओ न, परसों से मेरे एक्जाम हैं,” बेटी ने अब मुझे आवाज लगाई.
उठने ही लगी थी कि पापा की बड़बड़ाहट सुनाई दी, “चैन से गाना गाना भी मुश्किल है.” यह सुन कर हंसी आ गई.
सच पापा के इस शौक को कैसे भूल गई मैं. इस खूबसूरत गीत ने मुझे उस प्यारी शाम की याद दिला दी जिस दिन मम्मीपापा की शादी की 64वीं सालगिरह थी. पापा ने मम्मी की आंखों में झांकते हुए यह प्यारा गीत हम सभी को सुनाया था और मम्मी ने शर्माते हुए “तेरे नैनों ने मोह लिया…मेरा छोटा सा जिया परदेसिया हाय तेरे नैनों ने…’ गाया था. कितनी सुंदर लग रही थीं वे उस दिन.
दीदी की बेटी ने मेरी दोनों बेटियों के संग मिल कर उन्हें तैयार किया था. मम्मी ने जिद कर के पापा की लाई अपनी बरसों पुरानी औरेंज कलर की साड़ी पहनी थी. सच्चे सीपों और सितारों से कढ़ी इस साड़ी की चमक आज भी जस की तस बरकरार थी. दोनों हाथों में सुंदर सी मेहंदी लगाए हलका सा मेकअप कर के यह साड़ी पहन जब वे पापा के सामने आई थीं तो वे उन्हें अपलक निहारते रह गए थे. इतनी बीमारी के बीच भी उन का चेहरा लाज की स्वर्णिम आभा से दीपायमान हो चला था. फिर तो डीएसएलआर से तरहतरह के पोज बनवा कर बच्चों ने उन दोनों की ढेरों तसवीरें लीं. एकदूसरे की आंखों में निहारते, मम्मी की मेहंदी देखते, एकदूसरे को माला पहनाते, केक काटते, खीर खिलाते और जाने कितनी ही प्यारी तसवीरें उन पलों में कैद हो गईं. गाने चला कर हम सब ने खूब डांस किया, खानापीना हुआ और वह शाम हमारी कभी न भूल सकने वाली खूबसूरत यादों में तबदील हो गई.
पर इतनी सारी खुशियों के पल बिताने के दूसरे दिन ही मम्मी को घबराहट और बेचैनी के चलते हौस्पिटल में एडमिट करना पड़ा था. करीब हफ्तेभर बाद वहां से डिस्चार्ज हुईं मम्मी फिर कभी पूरी तरह ठीक न हो सकीं और उस के करीब 2 महीने बाद ही वे चल बसी थीं. उन का इस तरह चले जाना पापा के लिए एक बहुत बड़ा सदमा था. वे सूनी आंखों से अंतरिक्ष की ओर निहारा करते. उस के बाद भैया ने उन्हें अकेले न रहने दिया था और जबरदस्ती अपने साथ लिवा लाए थे. वे और भाभी उन का पूरा ध्यान रखते थे. कुछ महीनों में पापा का जीवन पटरी पर लौटने लगा था. इस बीच किसी बच्चे ने स्मार्टफोन पर उन्हें चेस खेलना सिखा दिया था. नई तकनीक से चेस खेलने में उन्हें काफी मज़ा आने लगा. इधर कुछ समय से वे मां की याद में कुछ कविताएं, गज़ल आदि भी लिखने लगे थे. उन की लगन देख कर भैया ने उन का काव्य संग्रह प्रकाशित करवाने का निर्णय लिया था.
तकरीबन एक महीने से वे मेरे पास थे. सुबह उठ कर हलकीफुलकी ऐक्सरसाइज़ करने के बाद वे थोड़ा टहलते, फिर नाश्ता वगैरह करते. दोपहर में खाना खा कर आराम करते और बीच में अपने लेखन का कार्य करते. पर अभी भी उन का चेस खेलने का मोह जस का तस था. और बच्चों के साथ लड़ते वक्त तो वे पूरी तरह से बच्चे नजर आते थे. पर यह देख कर मैं बहुत खुश थी कि, थोड़ा ही सही, पापा अपने पुराने अंदाज में लौटने लगे हैं.
यादों का कारवां बढ़ता जाता अगर मेरी नजर तह किए हुए कपड़ों के साइड में रखे मोबाइल पर न पड़ती. देखा तो भैया के दो मिसकौल थे. ओहो, जाने कितनी देर से बज रहा था. बच्चों को पढ़ाई में डिस्टर्ब न हो, इसीलिए मैं उसे ज्यादातर म्यूट पर ही रखती थी. झपट कर फोन उठाया तो भैया बोले, “बेटा खुशखबरी है, पापा की किताब को हिंदी साहित्य अकादमी से प्रकाशन की मंजूरी मिल गई है और जानती हो, पापा की किताब में भूमिका कौन लिख रहा है? उन्होंने आगे कहा कि अकादमी के निदेशक ने ही पापा की किताब की भूमिका को लिखने का निर्णय लिया है. दरअसल, वे पापा के 85 साल में लिखने के हौसले और प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए हैं. अब देखो, शायद कुछ दिनों में हम पापा के हाथों में उन की किताब दे सकें.”
“सच भैया, यह आप की अथक मेहनत का परिणाम है. पापा के हाथ में उन की किताब देखना हम सभी के लिए गौरवशाली पल होगा,” कहते हुए मेरी आवाज़ भर्रा गई. भैया से बात कर के बाहर आई तो देखा पापा सो रहे हैं. गहरी नींद में उन का चेहरा किसी मासूम बच्चे की भांति निश्च्छल और शांत दिखाई दे रहा था.
उस पल मन में, बस, यही खयाल आया कि प्रकृति बिना कारण किसी को कुछ नहीं देती. बुजुर्गियत के दौर में अपने जीवनसाथी को खो देना किसी मानसिक संत्रास से कम नहीं. बहुत ही मुश्किल हो जाता है बुढ़ापे का जीवन अकेले जीना. कल तक पापा के जिस बेफिक्र और शौक़ीन नेचर से मम्मी सहित हम सभी को एक शिकायत सी रही, आज उन की वही बेफिक्री, जिंदादिली उन के काम आ रही थी. मम्मी की याद तो हर पल उन के मन में बसती है पर फिर भी अपने अकेलेपन को वे एक सकारात्मक उर्जा के साथ हंसतेगाते आज भी जी रहे हैं.
पापा का माथा सहलाते हुए मैं ने मन ही मन उन्हें उन की किताब की अग्रिम बधाई दी. कोने में रखी मम्मी की तसवीर भी मुसकराती हुई जैसे हम सभी पर अपना आशीष लुटा रही थी.