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कहानी: मोह भंग

शीना अपनी मां को ले कर एक डेंटिस्ट के पास गई थी और वहीं डाक्टर संजय से प्यार हो गया. वह शादीशुदा था और बच्चे वाला भी. प्यार में पड़ वे दोनों अलग रहने लगे. पर, जब संजय और शीना दोनों ही कोरोना की चपेट में आ गए, पर ठीक होने के बाद दोराहे पर खड़ी शीना ने आखिर



बाहर फिर से बूंदाबांदी शुरू हो गर्ई थी. मर्ई महीने में इस बार गरमी और वर्षा आंखमिचौली खेल रही थी. सोच ही रही थी कि फोन की घंटी बज उठी. मेरा ध्यान घड़ी की ओर चला गया. ठीक 8 बजे थे. मैं ने फोन उठाया, ‘‘हां दीपक, मैं आ रही हूं. यह कह कर कमजोरी में मैं अपनेआप को चारों ओर से ढकते हुए बिस्तर से उठ गई.’’


सदे हुए कदमों से बाहर बरामदे में आ कर मैं ने देखा कि पुराना थैला चला गया था और नया थैला आ गया था. मैं ने दोनों हाथों से थैला उठाया और अंदर आ कर आवाज लगाई, ‘‘अन्नू बेटा, संजय खाना आ गया है, बाहर आ जाओ.’’


यों कह कर मैं मेज पर खाना जमाने लगी, 6 साल की अन्नू खूब चहक रही थी, फुलके, आलू की सब्जी, शिमला मिर्च, प्याजटमाटर, नमकीन और दही आया था. संजय चुपचाप कुरसी पर बैठ कर अपनी प्लेट लगाने लगे. खाना बहुत स्वादिष्ठ था.


संजय के चेहरे पर कई भाव आ रहे थे, पर कुछ बोल नहीं रहे थे. अन्नू खूब उछल रही थी, ‘‘मम्मी, यह किस होटल का खाना है. बहुत बढ़िया है.’’


मैं क्या जवाब देती, चुपचाप सब सामान समेट कर रसोर्ई में ले गई. बचा हुआ सामान फ्रिज में रखा और बरतन मांजने लगी, क्या करूं? शाम वाली बाई के पति को कोरोना हो गया था. सो, वह भी 3-4 दिन से नहीं आ रही थी. दोपहर में एक बाई जल्दीजल्दी झाड़ूपोंछा और कपड़े धो कर चली जाती थी.


टिफिन डब्बा साफ कर के मैं ने थैले सहित बाहर जाली वाले बरामदे में रख दिया. कल दोपहर में दीपक टिफिन वापस ले जाएगा. संजय अपने कमरे में चल गए और मैं दूसरे कमरे में आ गई. अन्नू अच्छी तरह मास्क लगा कर बैठती थी और मेरे पास भी नहीं आती थी. उसे सब समझा दिया था.


रात के 11 बज रहे थे, पर नींद तो मुझ से कोसों दूर थी. मैं इधरउधर करवटें बदल रही थी. कभी बाथरूम जाती तो कभी पानी के घूंट पी रही थी. मन में बहुत बेचैनी हो रही थी. घड़ी की सुइयां आगे बढ़ रही थी और मेरी जिंदगी की घड़ी पीछे की ओर झुक रही थी.


उन दिनों मैं एमबीए के दूसरे साल में पढ़ रही थी. 2-3 दिन से मम्मी की दाढ़ में बहुत दर्द हो रहा था. घरेलू इलाज करा रही थी, पर कुछ फायदा नहीं हुआ. सो, मुझ से बोली, ‘‘शीना, लगता है, डाक्टर के पास जाना ही पड़ेगा.’’


‘‘ठीक है मम्मी, मैं कालेज से आ कर आप को दिखा लाऊंगी,’’ मैं ने उन्हें सांत्वना दी.


कालेज के रास्ते में चौराहे पर एक डेंटिस्ट का बोर्ड देखती थी. सो, वहीं पर ले जाने का विचार कर लिया. मम्मी के कैप लगवानी थी. सो, मुझे कई बार मम्मी को डाक्टर के पास ले जाना पड़ा और इसी मिलनेमिलाने के चक्कर में डाक्टर मेरी आंखों में समा गया.


मम्मी का दर्द तो खत्म हो गया था, पर मेरे मन में दर्द उभर आया. मैं किसी न किसी बहाने से अस्पताल पहुंच जाती थी. मुझे देख कर संजय डाक्टर की आंखों में भी चमक आ जाती थी.


बातों ही बातों में पता चला कि संजय के 2 बच्चे हैं और अच्छी पत्नी है और संजय के पापा जानेमाने ठेकेदार हैं.


इन सब बातों से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा. जब घर में सब को इस बात का पता चला, तो सब ने समझाने की कोशिश की, ‘‘क्यों तू अपनी जिंदगी खराब कर रही है? ऐसी औरततें न घर की रहती हैं और न घाट की.’’


पर, जब मुझ पर असर नहीं हुआ तो भाई ने मुझे थप्पड़ मार दिया और भाभी ताने कसने लगी और मुझे सब ने घर में कैद करने की कोशिश की.


धीरेधीरे संजय के घर में, आसपड़ोस और मेरी सहेलियों में हवा की तरह यह बात फैल गई. दोनों तरफ से समझाना शुरू हो गया, पर हमारी तो दीवानगी बढ़ रही थी.


डाक्टर की पत्नी गीता एक दिन रविवार को अचानक मेरे पास आ गर्ई और क्रोध से भरी फुफकार उठी, ‘‘तूझे क्या मेरा ही पति आंख लड़ाने को मिला था? मेरे 2 छोटेछोटे बच्चे हैं और हमारी सुखी गृहस्थी है. उस में आग का गोला क्यों फेंक रही हो?’’


मैं पहले तो एकदम अवाक रह गई, पर फिर मैं ने शांत स्वर में कहा, ‘‘देखिए, जो भी आप को कहना हो, अपने पति से कहो, मेरातुम्हारा कोर्ई रिश्ता नहीं है और न ही तुम मुझ पर कोई दबाव डाल सकती हो.’’


मैं निष्ठुर बनी बैठी रही, फिर एकाएक उस की आंखों में आंसू आ गए, ‘‘देखो, मैं तुम से विनती कररती हूं. मेरा घर मत उजाड़ो, तुम तो कुंआरी हो, तुम शादी कर सकती हो, पर इस गलत रिश्ते से तुम समाज में मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहोगी.’’


पर, हम दोनों की आंखों का पानी तो मर चुका था. अब हम रेस्टोरेंट, पार्क, सिनेमा सब जगह मिलने लगे.

4-5 दिन बाद संजय की मां हमारे घर आ गई. मैं उन्हें देख कर पिछले दरवाजे से बाहर खिसक गई. उन्होंने भी मेरे मांबाप को बहुत समझाने की कोशिश की. कहने लगी, ‘‘दोनों घरों की इज्जत धूल में मिल जाएगी. और तुम्हारी लड़की की शादी भी कहीं नहीं होगी.’’


मेरे वापस लौटने पर मेरे पिताजी ने गुस्से में मेरे 2-4 थप्पड़ जड़ दिए और साथ ही सख्त हिदायत दे दी कि पढ़ाई खत्म हो गई है. अब घर में रहो. बड़ी बहन ने भी समझाया, पर न जाने मुझ पर कैसा जुनून सवार था कि जितना सब कहते, उतनी ही मैं उद्दंड होती जा रही थी.


रोज की किचकिच से परेशान हो कर मैं ने घर से 50 किलोमीटर दूर नौकरी कर ली.


इस अपरिचित जगह में संजय सप्ताह में 2 दिन मेरे पास रह जाते थे, पर हमें संतुष्टि नहीं थी. कुछ दिन बाद संजय ने सुझाव दिया, ‘‘हम ऐसा करते हैं शहर से कुछ दूरी पर ही किराए पर मकान ले लेते हैं. मैं वहां से रोज अस्पताल चला जाऊंगा. यह सुन कर मेरी तो बांछे खिल गईं.


बस संजय ने चुपचाप एक मकान 10 किलोमीटर की दूरी पर ले लिया और थोड़ाबहुत सामान का भी इंतजाम कर लिया. मैं ने भी पास ही के स्कूल में नौकरी कर ली, पर 6 महीने बाद ही मैं गर्भवती हो गर्ई और पड़ोसियों की गढ़ती निगाहों से बचने के लिए मैं ने नौकरी छोड़ दी. हमारा कहीं भी आनाजाना नहीं था.

अब कहीं भी जाने से हम कतराने लगे थे, अस्पताल तो चल रहा था, पर सामाजिक दायरा, यारदोस्त सब न के बराबर हो गए थे. मेरे घर वालों ने तो मुझ से बिलकुल ही रिश्ता तोड़ दिया था. इसलिए अन्नू के जन्मदिन की खुशी में भी हमारे साथ कोई भी शामिल नहीं था.


अन्नू 4 साल की हो गर्ई थी. तब मन लगाने के लिए मैं ने घर पर ही बच्चों की इंगलिश की कोचिंग लेनी शुरू कर दी.


पर, वो भी धीरेधीरे बंद हो गई. न जाने क्यों हमें ऐसा लगता था कि जैसे राह चलता हर आदमी हमें घूर रहा है और हमारा उपहास उड़ा रहा है. समय के साथ हमारा उन्माद भी कम हो रहा था.


सब से बड़ी बात यह हुई कि संजय ने न तो गीता को तलाक दिया और न ही मुझ से शादी की. संजय के पिताजी ने साफ कह दिया था, ‘‘तू रह उस औरत के साथ, मेरी भुजाओं में अभी भी इतनी ताकत है कि मैं बहू और बच्चों को आराम से रख सकता हूं. पर तुझे तलाक नहीं लेने दूंगा. याद रखना तू बहुत पछताएगा.”


संजय पैर पटकता हुआ चला गया. गीता संजय को जाते देख रोने लगी, तो उस के ससुर बोले, ‘‘सब ठीक हो जाएगा बहू. तू फिक्र मत कर, समय के साथ सब ठीक हो जाएगा. यहां तुझे कोई तकलीफ नहीं होने दूंगा.”


बस दूर रह कर संजय अपनी अधपकी जिंदगी जी रहे थे. वैसे भी धीरेधीरे हमारी जिंदगी रूखीसूखी होती जा रही थी. थोड़ाबहुत प्यार था तो वो सिर्फ अन्नू की वजह से, संजय अन्नू को बहुत प्यार करते थे.


सब से बड़ी बात जो मुझे खटकती थी वो यह कि संजय ने अपने घर जाना बंद नहीं किया था. सप्ताह में वो 3-4 चक्कर लगा ही लेते थे और उन की छोटीछोटी ख्वाहिश भी पूरी कर देते थे.


यह बात मुझे पता चल गर्ई थी, चिढ़ भी बहुत छूटती थी. हम दोनों के बीच इस बात को ले कर कई बार झगड़ा भी हुआ था और मैं अपने लिए असुरक्षा भी महसूस होती थी.


कोरोना की रिपोर्ट पौजिटिव आ गई थी. संजय तो ज्यादा ही घबरा रहे थे. संजय के घर से बारबार हालचाल पूछने के लिए लगातार फोन आ रहे थे. संजय ने धीरे से कहा, ‘‘मम्मी, दवा भी मंगानी है."


पर मुझे ही चुप होना पड़ता था. मेरे तो पीहर के दरवाजे भी बंद थे. कहां जाती. अन्नू कभीकभी कुछ प्रश्न करने लग गई थी, पर हम उसे बहला कर शांत कर देते थे.

इस उलझी हुई जिंदगी में अब कोरोना ने लंबी छलांग लगा दी थी. हर जगह कोरोना का खौफ छा गया था.


दिसंबर में संजय की बुआ के लड़के की शादी थी. मैं ने संजय को शादी में जाने से मना कर दिया था और अपने डरपोक स्वभाव की वजह से वो मान भी गए.


जनवरी में एकाएक मालूम पड़ा कि संजय के पिताजी और गीता को कोरोना हो गया है और वो अस्पताल में भरती हैं.


दोनों बच्चे नौकरानी के भरोसे थे. मैं ने तो उन के प्रति आंखें मूंद लीं. साथ ही, संजय को भी समझा दिया. ‘‘देखो, यह बहुत खराब बीमारी है, बात करने से या पास जाने से ही आदमी कोरोना की चपेट में आ जाता है. वैसे भी चिंता की क्या बात है. घर की नौकरानी संभाल रही है ना और बच्चे भी अब 13-14 साल के हैं और मां भी घर में हैं.’’


वास्तव में अपनी कायर प्रवृत्ति की वजह से घबरा कर संजय ने अपने घर की तरफ रुख भी नहीं किया और संजय की इसी आदत की वजह से अब मेरा मन कुढ़ता था. वो कोई भी निर्णय लेने में हिचकिचाते थे. न वो गीता को छोड़ पाए और न ही मुझे पूरी तरह से अपना पाए.


अब तो मुझे बहुत अफसोस होता था कि कैसे अपने निर्णय से मैं खुद ही मंझधार में फंस गई. अन्नू की स्कूल में भी पिता की जगह मैं ने संजय नाम बड़ी मुश्किल से लिखवाया था.


जिंदगी में धीरेधीरे एक सन्नाटा सा छाने लगा था. हमारी आपस की बातचीत भी कम होती जा रही थी.

25 अप्रैल का दिन था. सुबह जब 8 बजे तक संजय अपने कमरे से बाहर नहीं आए, तो मैं ने पास जा कर देखा. खांसी चल रही थी, हाथ लगाया तो बदन गरम लगा. मैं एकदम से घबरा गई. यह तो कोरोना के लक्षण लग रहे हैं. अभी तक हम ने वैक्सीन भी नहीं लगवाई थी. बुखार देखा तो पूरा 101 डिगरी था.


यह देख मेेरे तो हाथपांव फूल गए, क्या करूं. फौरन गरम पानी दिया. अब तो मुझे एक ही सहारा दिखा, संजय के पापा.


मैं ने संजय को फोन करने को कहा, पर पापा की सख्ती देखते हुए उस ने अपनी मम्मी को फोन लगाया.


मां का दिल पिघल गया, ‘‘घबराना नहीं बेटा.” और उन्होंने फौरन संजय के पापा को फोन पकड़ा दिया.


पापा ने कहा, “घबराना मत. मैं भाप का यंत्र भेज देता हूं. भाप लेते रहना. और मेरे कंपाउंडर को फोन कर के कोरोना की जांच भी करवा लेना.


“और हां, दीपक ड्राइवर के साथ डा. जोशी के पास चले जाना.”


कोरोना की रिपोर्ट पौजिटिव आ गई थी. संजय तो ज्यादा ही घबरा रहे थे. संजय के घर से बारबार हालचाल पूछने के लिए लगातार फोन आ रहे थे. संजय ने धीरे से कहा, ‘‘मम्मी, दवा भी मंगानी है.”


‘‘तू चिंता मत कर, ड्राइवर को लिस्ट दे दे. मैं मंगवा दूंगी. थोड़ी हिम्मत रख बेटा, सब ठीक हो जाएगा. और हां, सीटी स्केन भी करवा ले. मम्मी ने कई हिदायतें दे दीं.’’


दूसरे दिन शाम होतेहोते मेरी तबीयत भी ढीली हो गई, खांसी के झटकों से लग रहा था कि मुझे भी कोरोना ने अपनी चपेट में ले लिया है.

सुबह तो मुझ से उठा भी नहीं जा रहा था. अन्नू को समझाबुझा कर मैं ने दूसरे कमरे में भेज दिया. वो भी रोज कोरोना का सुनती थी. सो, डर कर झट से दूसरे कमरे में चली गई.


सुबह 8 बजे जैसे ही मम्मी का फोन आया, तो संजय ने कहा, ‘‘मम्मी, मेरा बुखार तो वैसा ही है, पर शीना को भी कोरोना हो गया है. अब तो औनलाइन ही नाश्ता खाना मंगवाना पड़ेगा.’’


मम्मी ने एकदम चौंकते हुए कहा, ‘‘कैसी बात करता है पगले, तू खाने की चिंता मत कर. गीता तुम तीनों का खाना बना कर ड्राइवर के साथ भेज देगी. और हां, डा. जोशी से बात हो गई है. अस्पताल जाने की जरूरत नहीं है. घर में ही धीरेधीरे ठीक हो जाएगा.’’


फिर मम्मी आगे बोली, ‘‘किसी भी चीज को मंगाने में संकोच मत करना. जिस चीज की जरूरत हो, लिस्ट बना कर ड्राइवर को दे देना.’’


मैं देख रही थी कि गीता दोनों समय मीठे नमकीन के साथ स्वादिष्ठ खाना बना कर भेज रही थी. खाते हुए मेरी आंखें अकसर तर हो जाती थीं.


इतना काम होते हुए भी गीता संजय को रोज 2 बार फोन कर देती थी, बल्कि उस ने 2-3 बार मुझे भी तबीयत का मैसेज भेज दिया था. मुझे शर्मिंदगी और ग्लानि महसूस हो रही थी.

15 दिन बीत चुके थे. दोनों की तबीयत काफी संभल गई थी. और साथ ही अब मेरे मन में बहुत उथलपुथल मच गई थी.


आज मुझे एहसास हो रहा था कि एक घर की खुशियों को छीन कर मुझे क्या मिला. मेरे पिताजी के घर के द्वार मेरे लिए हमेशा के लिए बंद हो गए थे. मेरे पिताजी मेरा गम लिए 2 साल बाद ही इस दुनिया से विदा हो गए थे.


ऐसे रिश्ते से न तो मैं अपना कैरियर बना पाई और न ही संजय को उन्नति के शिखर पर बैठा पाई, बल्कि सच पूछो तो एक होशियार डाक्टर को मैं ने कूपमंडूक बना दिया. समाज और परिवार से दूर हो कर भी मुझे पत्नी का दर्जा भी नहीं मिला.


रहरह कर मन सारे समय कचोटता था. मैं ने भी किस वृक्ष पर कुल्हाड़ी चलाई, जो हरभरा और फूलों से लदा था. मेरे मन ने कहा, ‘अरे पगली, प्यार का मतलब तो होता है सामने वाले की खुशियां, और तू ने तो संजय के चेहरे की रौनक और उत्साह ही खत्म कर दिया. आगे बढ़ने का रास्ता ही बंद कर दिया.’


‘‘शीना, अब तू कुछ ऐसा कर कि संजय का घर फिर से हराभरा हो जाए और तू स्वयं भी अपनी जिंदगी सही ढंग से जी सके.’’


मेरा मोह भंग हो चुका था.

कुछ सोच कर मैं ने दृढ़ता से अपनी बड़ी बहन मीना को फोन किया, जो गुरुग्राम में रहती थी और मेरी हमदर्द थी.


‘‘दीदी, मेरा इस शहर में अब दम घुटता है. यदि मैं आप के शहर में आ जाऊं तो क्या मुझे नौकरी मिल जाएगी?’’ मैं ने झिझकते हुए कहा.


मेरी बहन एकदम से बोल पड़ी, ‘‘हांहां, क्यों नहीं. शीना यह तू ने बहुत अच्छा सोचा है. कुछ दूरी पर यहां 2 महीने पहले ही नया कालेज खुला है. तेरे जीजाजी की पहचान भी है और फिर तेरी तो इंगलिश भी अच्छी है. तुझे तो जरूर ही रख लेंगे.’’


‘‘ठीक है,” मैं ने चहकते हुए कहा, ’’अन्नू को भी वहीं स्कूल में भरती करा दूंगी.

मुझे पैकिंग करते देख संजय ने संशय से पूछा, ‘‘कहीं जा रही हो क्या?’’


मैं ने इतमीनान से जवाब दिया, ‘‘देखो संजय, मैं तुम्हारी जिंदगी में एक मृगतृष्णा बन कर आई थी. अब इस दोहरी जिंदगी का बोझ हम खत्म कर दें, तो दोनों के लिए अच्छा है.’’


अटैची बंद करते हुए मैं ने आगे कहा, “तुम इसे एक बुरा सपना समझ कर भुला देना और अपने घर लौट जाना, वहां अभी भी तुम्हारा इंतजार है. मैं भी नई खुशियां बटोरने की कोशिश करूंगी.’’


फिर कुछ मिनट रुक कर मैं ने कहा, ‘‘मैं गीता और तुम्हारे बच्चों की गुनाहगार हूं, शायद अब वो मुझे माफ कर सकें.’’


लगा कि संजय भी इस जिंदगी से उकता गए थे. इसलिए बिना कुछ बोले अपने कमरे में चले गए.

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