Today Breaking News

कहानी: बिन घुंघरू की पायल

वर्षों तक विदेश में जिस पायल की हंसी सुनने को मैं तरसती रही वही पायल आज उदास चेहरा, सूनी आंखें लिए मेरे सामने खड़ी थी. मैं समझ नहीं पा रही थी कि नई भाभी ने आखिर उस के होंठों से हंसी क्यों छीन ली. ‘‘पायल कैसा नाम है, दीदी,’’ पालने में बिटिया को लिटाते हुए निशा भाभी ने मुझे से पूछा. ‘‘हूं, पायल भी कोई नाम हुआ?’’ मां बीच में ही मुंह बिचकाती हुई बोल उठीं, ‘‘इस से तो ?मर, बिंदिया, माला न रख लो. पैर में पहनने की चीज का क्या नाम रखना.’’ ‘‘पैर में पहनने से क्या होता है? पायल की ?ानकार कितनी प्यारी होती है. नाम लेने में रुनन की आवाज कानों में गूंजने लगती है.’’ भाभी और मां में ऐसी ही कितनी ही बातों पर नोक?ांक हो जाया करती थी. मैं तटस्थ भाव से देख रही थी. न भाभी के पक्ष में कह सकती थी, न मां के. मां का पक्ष लेती तो भाभी को बुरा लगता.

भाभी का पक्ष लेती तो मां कहतीं, लो, अपने ही पेट की जाई पराई हो गई. यों भाभी और मां में बहुत स्नेह था पर कभीकभी किसी बात पर मतभेद हो जाता तो फिर एकमत होना मुश्किल हो जाता. भैया आयु में मु?ा से बड़े थे पर मेरा विवाह उन से पहले हो गया था. मेरे पति की नौकरी उसी शहर में थी, इसलिए मैं अकसर मां से मिलने आती रहती थी. विवाह के 2 वर्ष पश्चात जब भाभी के पैर भारी होने का आभास मां को हुआ तो उस पड्ड्रसन्नता में न जाने कितने नाम उन्होंने अपप्ने पोतेपोती के सोच डाले. बिटिया होते ही मां ने अपने सोचे हुए नामों की पूरी सूची ही सुना डाली. लक्ष्मी, सरस्वती, सीता जैसी देवियों के नाम के सामने मां को काजल, कोयल, पायल जैसे नाम बिलकुल बेतुके और सारहीन लगते. आधुनिक सभ्यता में पलीबढ़ीं भाभी को मां का रखा कोई भी नाम पसंद न आया.


उन्हें पायल पसंद था, सो वही रखा पर मां भी कहां मानने वाली थीं. उन्होंने कभी अपनी जबान से पायल न पुकारा और बिटिया को रुन?ान कहने लगीं. रुन?ान क्या हो गई थी, मां को जीने का सहारा मिल गया था. हरदम उसे सीने से लगाए रखतीं. निरे प्यार में पायल पल रही थी. जब कुछ चलने लायक हुई तो मां भाभी से बोलीं, ‘‘नाम तो इस का पायल रखा है, अब पैरों में भी पायल ला कर डाल दो न.’’ और फिर एक दिन स्वयं ही छोटेछोटे घुंघरुओं की पायल ला कर उस के पैरों में पहना दीं. घर का कोना छमछम की आवाज से गूंजने लगा. भाभी और मां उस की बलैया लेते न थकतीं. उस के गोलमटोल चेहरे पर बड़ीबड़ी आंखें बहुत ही प्यारी लगती थीं. खुश रहना उस का स्वभाव था. उस की खिलखिलाती हंसी को देख कर सब खुश हो उठते. पायल के साथ मां भी जैसे बच्चा बन गई थीं. कभी उस के साथ लुकाछिपी खेलतीं, कभी अक्कड़बक्कड़. उस की तोतली बोली सुन कर वे निहाल हो जातीं. फिर एक दिन मां को बीमारी ने आ पकड़ा.


भाभी ने लाख सेवा की. भैया ने डाक्टरों को दिखाने में कोई कमी न की पर उन्हें जाना था, सो चली गईं. रुन?ान कुछ दिन बहुत उदास रही, फिर धीरेधीरे सब ठीक हो गया. भाभी के फिर बच्चा होने वाला था. नए भाईबहन के आने के एहसास से पायल बहुत खुश थी. फिर वह दिन भी आ गया जिस का सब को इंतजार था पर कितना दुखद दिन था वह. भाभी अस्पताल से वापस न आ पाईं. केस बिगड़ गया था. डाक्टर न बच्चे को बचा पाए, न भाभी को. 5 साल की उस अबोध बच्ची को मैं अपने पास ले आई थी. उस के पैरों में बंधी पायल, जो भाभी मरने से कुछ दिनों पहले ही लाई थीं, की रुन?ान में मैं कभी मां को और कभी निशा भाभी को ढूंढ़ने की कोशिश करने लगती. भाभी की पायल और मां की रुन?ान को मैं ने स्नेह और प्यार की डोर में इस कदर बांध लिया था कि वह एक हद तक उन्हें भूल गई थी. भैया को देख कर दिल में टीस सी उठती. भरी दोपहरी में अकेले जो रह गए थे.


2 साल में 2 सदमे सहे थे, इसलिए टूट से गए थे. काफी समय से मेरे पति का विदेश जाने का प्रस्ताव विचाराधीन था. अब सरकार की ओर से उन्हें 5 साल के लिए कनाडा भेजा जा रहा था. मैं ने भैया से पायल को भी अपने साथ ले जाने की स्वीकृति चाही. तब वे इतना ही कह पाए थे, ‘‘पायल निशा की आखिरी निशानी है. इतनी दूर चली जाएगी तो इसे देखे बिना मैं कैसे जी पाऊंगा?’’ उन के दिल का दर्द इन चंद शब्दों में सिमट कर आ गया था. फिर मैं पायल को ले जाने की जिद नहीं कर पाई थी. 5 साल हम कनाडा में रहे. इस बीच भैया के पत्र आते रहे. भैया ने दूसरा विवाह कर लिया था.


पायल के 2 छोटेछोटे भाई हो गए थे. 5 साल बाद जब स्वदेश लौटने का समय आया तो मन में सब से बड़ी इच्छा पायल को देखने की थी. वह गोलमटोल गुडि़या अब कैसी लगती होगी? उसे मेरी याद भी होगी या नहीं? ऐसे ही न जाने कितनी बातें रास्तेभर सोचती रही थी. मुंबई पहुंचने के बाद सब से पहले भैया के पास दिल्ली जाने का फैसला किया. भैया को आश्चर्य में डालने के लिए बिना सूचना के ही दिल्ली पहुंच गए. जुलाई की उमसभरी दोपहरी में दिल्ली तप रही थी. भैया के घर पहुंच कर द्वार पर दस्तक दी. जो शायद कूलर की आवाज में ही दब कर रह गई. दरवाजा अंदर से बंद नहीं था. हाथ से ठेलते ही खुल गया. रसोईघर से पानी गिरने की आवाज आ रही थी. सोचा, भाभी वहीं होंगी, सो सीधी वहीं चली गई. एक दुबलीपतली 11-12 साल की लड़की मैली सी फ्रौक पहने नल के पास बैठी बरतन धो रही थी. मु?ो अचानक देख कर जल्दी से हाथ धो कर खड़ी हो गई.

हम लोगों को बैठक में बैठा कर उस कमरे की ओर बढ़ गई जहां कूलर चल रहा था. 5 मिनट बाद ही एक सुंदर सी औरत, जिस के बाल कंधे तक कटे थे, सिल्क की साड़ी पहने आंखों में अजनबीपन का भाव लिए हमारे सामने खड़ी थी. भैया घर पर नहीं थे, इसलिए मु?ो अपना परिचय स्वयं ही देना पड़ा. मैं अपने को रोक नहीं पा रही थी, इसलिए पूछ लिया, ‘‘भाभी, पायल कहां है?’’ ‘‘वही तो आप को यहां बैठा कर गई है,’’ उन्होंने कहा तो विश्वास नहीं हुआ. ‘‘जो लड़की रसोई में बरतन मांज रही थी, वही पायल है?’’ ‘‘हां, आज महरी छुट्टी पर चली गई थी. मु?ो मालूम ही नहीं पड़ा कि कब पायल बरतन मांजने लगी.’’


नई भाभी ने मानो अपनी सफाई दी. ‘‘जरा, उसे बुलाइए तो.’’ भाभी की एक आवाज पर गोदी में बबलू को लिए पायल भागती हुई आई. मैं ने ?ाट से उस की गोद से बच्चे को ले कर पायल को अपने हृदय से लगा लिया. उस के नंगे पैरों में आज कोई पायल न थी. उस के बचपन के न जाने कितने चित्र मेरी आंखों के सामने थे. वह गोलमटोल बच्ची आज दुबलीपतली, शरमीली सी मेरे सामने खड़ी थी. शाम होतेहोते भैया आ गए थे. मैं सब के लिए कुछ न कुछ लाई थी. फ्रौक का पैकेट जब मैं ने पायल की ओर बढ़ाया तो संकोच और खुशी के मिलेजुले भाव उस की आंखों में तैर आए. अगले दिन भाभी ने फिल्म देखने का कार्यक्रम बनाया था. पायल स्कूल से लौट आई थी. मैं ने उस से अपनी लाई पिंक फ्रौक पहन कर तैयार होने को कहा तो उस के सहमे चेहरे पर खुशी के अनगिनत फूल खिल उठे.


अटैची में से साड़ी निकालते समय मेरा हाथ एक पैकेट से टकराया. बालों में लगाने की क्लिपें थीं जो मैं पायल को देना भूल गई थी. उसी पैकेट को देने के खयाल से मैं पायल के कमरे तक गई. अंदर शायद भाभी उस से कुछ कह रही थीं. जो सुना उस से मन के एक कोने में ?ाटका सा लगा था. पैकेट लिए वापस अपने कमरे में आ गई थी. पायल से कहे भाभी के शब्द अब तक कान में गूंज रहे थे, ‘चल उतार वह फ्रौक और चुपचाप घर में बैठ. बूआ क्या आ गईं, तेरा दिमाग ही आसमान पर चढ़ गया है. वह पूछे तो कह देना कि स्कूल का बहुत काम मिला है. बबलू सो रहा है. उठेगा तो दूध गरम कर के दे देना और खाना बना कर रखना. राजकुमारी की तरह बैठी मत रहना.’ पिक्चर जाने का सारा उत्साह ही खत्म हो गया था पर अब इनकार करने पर भाभी को बुरा लगेगा, यह सोच कर तैयार हो गई.


टैक्सी में बैठते समय पायल की ओर देखा था. उस की आंखें डबडबा आई थीं. मैं भाभी से यही कह पाई थी, ‘‘अकेली कैसे रहेगी यह?’’ ‘‘डर की कोई बात नहीं, आसपड़ोस में सब हैं ही,’’ उन्होंने सपाट स्वर में कहा और टैक्सी आगे बढ़ गई. अनमने भाव से फिल्म देखी. मन कहीं पायल के आसपास ही मंडरा रहा था. घर पहुंचने पर पायल ने खाना मेज पर लगा दिया था. ‘‘अरे, खाना क्यों बना लिया? मैं आ कर बना लेती,’’ भाभी ने कहा तो मन कुढ़ गया. एक बार सोचा कह दूं, मैं सब सुन चुकी हूं जो आप पायल से कह कर गई थीं पर रिश्ते में कटुता न पैदा हो, यह सोच कर बात को पी गई. एक हफ्ते भैया के पास रह कर यही सम?ा पाई थी कि नई भाभी का व्यवहार पायल के प्रति अच्छा नहीं है.


मेरे सामने वे लाख दिखावा करने की कोशिश करतीं पर कहीं न कहीं चूक हो ही जाती. वास्तविक ममता और ममता का नाटक करने में अंतर होता ही है. हम लोग रोज ही कहीं न कहीं घूमने जाते थे पर भाभी किसी न किसी बहाने से पायल को घर पर ही छोड़ जातीं, तब बबलू को संभालने और खाना बनाने के काम से उन्हें छुट्टी मिल जाती. इस अपने स्वार्थ के कारण वे उस छोटी सी बालिका के मन में उठती न किसी इच्छा को सम?ातीं, न सम?ाना चाहती थीं. 5 साल तक विदेश में जिस खिलखिलाती हंसी को सुनने के लिए तरसती रही थी, वह यहां आने के बाद भी नहीं सुन पाई तो एक दिन बड़े प्यार से पूछ ही लिया, ‘‘तू इतनी खामोश क्यों रहती है, पायल? पायल तो बोलती है, बजती है.’’ उस की बड़ीबड़ी आंखों में पानी तैर आया था. ‘‘हर पायल कहां बोलती है, बूआ. कुछ पायल ऐसी भी होती हैं जिन में घुंघरू नहीं होते. मैं भी वैसी ही बिना घुंघरू की पायल हूं.’’ आश्चर्य से एक पल मैं उस का चेहरा देखती रह गई.


कितनी बड़ी बात कह दी थी उस छोटी सी बच्ची ने. मु?ो लगा, जैसे घर के हर कोने से मां चीखचीख कर कह रही हों, ‘कहां है मेरी रुन?ान? उस की पायल के घुंघरू कैसे टूट गए? उस की आवाज क्यों नहीं आती अब?’ सहसा मेरे मन से आवाज निकली, ‘तुम्हारी रुन?ान जरूर बोलेगी, मां. मैं उस की पायल में घुंघरू टांकूंगी.’ शाम को भैया के आते ही मैं ने बिना किसी भूमिका के कहा, ‘‘आप तो जानते ही हैं भैया, पायल से मैं बहुत प्यार करती हूं. बहुत छोटी सी थी, तभी से अजीब सा लगाव हो गया है इस से. अब तो भैया आप अकेले नहीं रहे. बंटू, बबलू हैं ही आप के पास. मैं पायल को अपने साथ ले जाना चाहती हूं.’’ ‘‘मैं उसे जरूर भेज देता, लेकिन उस के बिना यहां काम कैसे चलेगा? बंटू, बबलू अभी बहुत छोटे हैं. तुम्हारी भाभी की तबीयत भी ठीक नहीं रहती और तुम जानती ही हो, दिल्ली जैसे शहर में नौकर भी कहां मिलते हैं. 

तुम्हारी भाभी उसे कभी न जाने देगी.’’ भैया का जवाब हथौड़े की तरह लगा था. काश, भैया पहले की तरह कह देते कि पायल निशा की आखिरी निशानी है, उसे कैसे आंखों से दूर कर दूं तो मन खुशी से भर जाता पर अब लगा, जैसे मां की रुन?ान, निशा भाभी की पायल वास्तव में नई भाभी के पैरों की बिन घुंघरु की पायल बन कर रह गई है. उस रात फिर मैं सो नहीं पाई. पायल को इस तरह छोड़ कर भी नहीं जा सकती थी और जबरदस्ती अपने साथ ले जाने का अर्थ था इस घर से अपने मधुर संबंधों को समाप्त करना. कितना मजबूर हो जाता है इंसान, इसी सोचविचार में रात गुजर गई.

सुबह नाश्ते की मेज पर एक दृढ़ निश्चय मन में संजोए हुए मैं ने कहा, ‘‘भाभी, पायल भी शाम को मेरे साथ मुंबई जाएगी.’’ ‘‘यह कैसे हो सकता है?’’ उन्होंने भैया की ओर देख कर कहा. ‘‘हो क्यों नहीं सकता? आखिर मेरा भी तो उस पर कुछ अधिकार है,’’ मैं ने कहा. ‘‘अधिकार क्यों नहीं है, दीदी. आप का जब मन करे, आप उस से यहां मिलने आ सकती हैं. मैं उस के बिना कैसे रहूंगी? आखिर 5 साल में मु?ो भी तो उस से ममता हो गई है.’’ ‘‘जिसे आप ममता कह रही हैं, भाभी, वह निरा आप का स्वार्थ है. जहां अपनत्व की भावना न हो, वहां ममता कैसी? इस आयु में जब बच्चे दीनदुनिया की चिंता से दूर अपने में मस्त खेलकूद में लगे रहते हैं, आप ने पिंजरे के पंछी की तरह उसे कैद कर लिया है. 

वह न अपनी इच्छा से उठ सकती है, न बैठ सकती है. उस का एक भी क्षण अपना नहीं है.’’ मेरे मन का ज्वालामुखी जैसे फूट पड़ा था. मु?ो किसी भी रिश्ते का जैसे डर नहीं रह गया था. ‘‘हम अपने बच्चों से कैसा व्यवहार करते हैं, इस विषय में बोलने का अधिकार किसी को नहीं है.’’ क्रोध से भाभी का चेहरा तमतमा आया था. ‘‘अधिकार है क्यों नहीं. मरने से पहले निशा भाभी पायल को मु?ो सौंप गई थीं. यदि वह यहां ठीक से रहती तो मु?ो बोलने का कोई हक नहीं था पर वह मानसिक और शारीरिक दोनों रूप से अस्वस्थ हो गई है. जवाब दीजिए, भैया, क्या यह वही पायल है जिसे 5 साल पहले मैं आप के पास छोड़ गई थी?

हमेशा खिलखिलाने वाली पायल की हंसी कहां लुप्त हो गई. आप ने कभी जानने की कोशिश की? करते भी कैसे? आप को दफ्तर और क्लब से फुरसत मिले, तब न.’’ भावावेश में मैं बोलती जा रही थी. भैया मौन सुन रहे थे. जवाब देने के लिए उन के पास था ही क्या? भाभी दिनभर खिंचीखिंची रहीं. मैं ने पायल की 2-4 फ्रौक अपनी अटैची में रख लीं. शाम को भैया खामोश से स्टेशन तक मु?ो व पायल को छोड़ने आए थे. इंजन के सीटी देने पर अपनी जेब से एक पैकेट निकाल कर उन्होंने पायल को थमा दिया. ट्रेन की खिड़की से ?ांक कर मैं ने देखा, वे रूमाल से अपनी आंखों को पोंछ रहे थे. ट्रेन ने गति पकड़ ली थी. 

मैं ने पायल के हाथ के पैकेट को खोल कर देखा, उस में छोटेमोटे घुंघरूओं की पायल थी. मैं ने उसी समय उस के पैरों में उसे बांध दिया. पायल खिड़की के बाहर देख रही थी. आज उस के चेहरे पर भय और घबराहट की कोई लकीर न थी. जब भी कोई दृश्य उसे प्यारा लगता, वह खिलखिलाती हुई मेरा ध्यान उधर आकृष्ट करने की कोशिश करती. बीचबीच में उस की पायल के घुंघरू बोल उठते तो मु?ो लगता जैसे आज मां की रुन?ान वापस लौट आई है. भले ही उसे वापस लाने के लिए नई भाभी से संबंध बिगाड़ने पड़े थे पर मन में एक सुखद अनुभूति थी. आखिर एक बिना घुंघरू की पायल में घुंघरू जो टंक गए थे.

'