कहानी: करवाचौथ
‘‘कितनी बार समझाया है तुम्हें इन सब झमेलों से दूर रहने को? तुम्हारी समझ में नहीं आता है क्या?’’ अनुज ने गुस्से से कहा.
‘‘गुस्सा क्यों करते हो? तुम्हारी लंबी उम्र के लिए ही तो रखती हूं यह व्रत. इस में मेरा कौन सा स्वार्थ है?’’ निशा बोली.
‘‘मां भी तो रखती थीं न यह व्रत हर साल. फिर पापा की अचानक क्यों मौत हो गई थी? क्यों नहीं व्रत का प्रभाव उन्हें बचा पाया? मैं ने तो उन्हें अपना खून तक दिया था,’’ अनुज ने अपनी बात समझानी चाही.
‘‘तुम्हें तो हर वक्त झगड़ने का बहाना चाहिए. ऐसा इनसान नहीं देखा जो परंपराएं निभाना भी नहीं जानता,’’ निशा बड़बड़ाती रही.
अनुज ने निशा की आंखों में आंखें डालते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे भूखा रहने से ही मेरी उम्र बढ़ेगी, ऐसा ग्रंथों में लिखा है तो क्या सच ही है? ग्रंथों में तो न जाने क्या अनापशनाप लिखा हुआ है. सब मानोगी तो मुंह दिखाने लायक न रहोगी.’’
निशा बुरा सा मुंह बना कर बोली, ‘‘आप तो बस रहने दो. आप को तो बस मौका चाहिए मुझ पर किसी न किसी बात को ले कर उंगली उठाने का… मौका मिला नहीं तो जाएंगे शुरू सुनाने के लिए.’’
‘‘बात मौके की नहीं अंधविश्वास पर टिकी आस्था की है. ब्राह्मणों द्वारा विभिन्न प्रकार की धार्मिक रूढियों के जरीए स्त्री को ब्राह्मणवादी पित्रसत्ता के अधीन बनाए रखने की है.’’
‘‘बसबस आप तो चुप ही करो. क्यों किसी के लिए अपशब्द कहते हो. इस में ब्राह्मणों का क्या कुसुर… बचपन से सभी औरतों को यह व्रत करते हुए देख रही हूं. हमारे घर में मेरी मां भी यह व्रत करती हैं… यह तो पीढ़ी दर पीढ़ी चल रहा है.’’
अनुज अपने गुस्से को काबू करते हुए बोला, ‘‘व्रत, पूजापाठ ये सब ब्राह्मणों ने ही बनाए ताकि ज्यादा से ज्यादा आम लोगों को ईश्वर और भाग्य का भय दिखा कर अपना उल्लू सीधा कर सकें. उन्हें शारीरिक बल से कमजोर कर उन पर पूरी तरह से कंट्रोल कर के मानसिक बेडि़यां पहनाई जा सकें. तुम तो नहीं मानती थीं ये सब… क्या हो गया शादी के बाद तुम्हारी मानसिकता को? इतना पढ़ने के बाद भी इन दकियानूसी बातों पर विश्वास?’’ यह आस्था, अंधविश्वास सिर्फ इसलिए ही तो है ताकि आस्था में कैद महिलाओं को किसी भी अनहोनी का भय दिखा कर ये ब्राह्मण, ये समाज के ठेकेदार हजारों वर्षों तक इन्हीं रीतिरिवाजों के जरीए गुलाम बनाए रख सकें. यही तो कहती थीं न तुम?’’
‘‘मैं ने करवाचौथ का व्रत आप से प्रेम की वजह से रखा है… आप की लंबी आयु के लिए.’’
‘‘तुम मेरे जीवन में मेरे संग हो यही काफी है. तुम्हें अपना प्यार साबित करने की कोई जरूरत नहीं. हम हमेशा हर तकलीफ में साथ हैं. यह एक दिन का उपवास कुछ साबित नहीं करेगा. वैसे भी तुम्हारे लिए भूखा रहना सही नहीं.’’
मुझे आप से कोई बहस नहीं करनी. हम जिस समाज में रहते हैं उस के सब कायदेकानून मानने होते हैं. आप जल में रह कर मगर से बैर करने के लिए मत कहो… कल को कोई ऐसीवैसी बात हो गई तो मैं अपनेआप को कभी माफ नहीं कर पाऊंगी. आप चुपचाप घर जल्दी आ जाओ… मैं एक दिन भूखी रहने से मरने वाली नहीं हूं,’’ निशा रोंआसे स्वर में बोली.पत्नी की जिद्द और करवाचौथ के दिन को महाभारत में बदल जाने की विकट स्थिति के बीच अनुज ने चुप हो जाना ही बेहतर समझा.
तभी मां ने आवाज लगाई, ‘‘क्यों बेकार की बहस कर रहा है निशा से… औफिस जा.’’
‘‘अनुज नाराजगी से चला गया. उसे निशा से ऐसी बेवकूफी की आशा नहीं थी पर उस से भी ज्यादा गुस्सा उसे अपनी मां पर आ रहा था, जो इस बेवकूफी में निशा का साथ दे रही थीं. कम से कम उन्हें तो यह समझना चाहिए था. वे खुद 32 साल की उम्र से वैधव्य का जीवन जी रही हैं. सिर्फ 2 साल का ही तो था जब अचानक बाप का साया सिर से उठ गया.
अनुज को आज महसूस हो रहा था कि स्त्री मुक्ति पर कही, लिखी जाने वाली बातों का तब तक कोई औचित्य नहीं जब तक कि वे खुद इस आस्था और अंधविश्वास के मायाजाल से न निकलें. सही कह रहा था संचित (दोस्त) कि शुरुआत अपने घर से करो. गर एक की भी सोच बदल सको तो समझ लेना बदलाव है.