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कहानी: प्रतीक्षा

नंदिता की बीमारी के दौरान राजेंद्र के अनमोल योगदान ने माधवेश को उस का ऋणी बना दिया था, इसीलिए जब माधवेश ने उसे नंदिता से मिलवाया तो बहुत कम समय में ही दोनों के बीच गहरी आत्मीयता देख वह संदेह में पड़ गया. आखिर क्या संबंध था नंदिता का राजेंद्र से? बहुधा नंदिता सिरदर्द की शिकायत करती रहती थी. लेकिन एक दिन जब वह अचेत हो गई तो शीघ्र ही डाक्टर से परामर्श लेना पड़ा. आननफानन अनेक जांचें की गईं और डाक्टर ने बताया कि मेरी पत्नी के मस्तिष्क में गांठ है जिस का एकमात्र उपचार औपरेशन है.

‘‘डाक्टर साहब, कब तक करा लेना चाहिए औपरेशन,’’ मैं ने पूछा. ‘‘जल्दी से जल्दी. मैं अन्य जांचें भी लिख देता हूं. 3 यूनिट खून की व्यवस्था भी करनी पड़ेगी. सारी तैयारियों के बाद मु?ा से मिल लीजिएगा. औपरेशन की तारीख तय कर ली जाएगी.’’ डाक्टर का यह संक्षिप्त सा उत्तर मु?ो किसी बड़े अनिष्ट का आभास दे गया. जांच से पता चला कि नंदिता का रक्त समूह ‘एबी नैगेटिव’ है जो एक दुर्लभ रक्त समूह है. सगेसंबंधियों एवं इष्ट मित्रों से सिर्फ 2 यूनिट रक्त की व्यवस्था हो पाई. आखिरकार, अखबारों में यह सोच कर अपील छपवाई कि शायद कोई रक्तदाता मेरी सहायता के लिए आगे आए. करीब एक सप्ताह बाद 35-36 साल का राजेंद्र नाम का एक युवक मेरे पास आया. उस ने सहर्ष रक्तदान किया और जब जाने लगा तो मैं ने आग्रह किया, ‘‘राजेंद्रजी, अपने रक्तदान से आप ने न केवल मेरी पत्नी की ही प्राण रक्षा की बल्कि मु?ो भी पुनर्जीवन दिया है.


मैं आप का आजीवन ऋणी तो रहूंगा किंतु आग्रह करूंगा कि आप एक बार घर अवश्य आइए. अपनी पत्नी से भी आप की भेंट करवाता कि आप ही वे शख्स हैं.’’ कहता हुआ मैं भावुक हो उठा था. ‘‘माधवेशजी, पहली बात तो यह कि मु?ा से आप उम्र में बड़े हैं. मु?ो केवल राजेंद्र कहिए. दूसरी बात, आप के घर कभी अवश्य आऊंगा और आप की पत्नी से भी भेंट करूंगा. उन्हें मेरी शुभकामनाएं कहिएगा,’’ राजेंद्र ने विनम्रता से कहा और चला गया. मैं ने अभी नंदिता से रोग की जटिलता के बारे में कुछ नहीं बताया था. एक दिन जब मैं घर लौटा तो पाया कि नंदिता और राजेंद्र आपस में बातें कर रहे हैं.


नंदिता बहुत खुश नजर आ रही थी. मु?ो भी काफी खुशी हुई. राजेंद्र ने मु?ो देखा तो खड़़ा हो कर मेरा अभिवादन किया. कुछ देर ठहरा और फिर चला गया. अब अकसर ही राजेंद्र मेरे घर आने लगा. कभी मु?ा से भेंट होती. कभी बिना मिले ही चला जाता. अकसर उस का आनाजाना मेरी गैरमौजूदगी में ही होता था, यह मु?ो कुछ असहज सा लगा. औपचारिकता का परिचय इतनी शीघ्रता से इतनी घनिष्ठता में परिवर्तित हो जाएगा, मु?ो इस का रंचमात्र भी आभास न था.


कभीकभी मेरे मन में संदेह का फन खड़ा होता कि कहीं नंदिता और राजेंद्र पूर्व परिचित तो नहीं, लेकिन अगले ही क्षण मैं उस खड़े फन को कुचल देता. मेरा अंतर्मन कहने लगता, तुम व्यर्थ शक कर रहे हो. नंदिता 18 वर्षों से तुम्हारी ब्याहता है, उसे भटकना होता तो वह अपनी यौवनावस्था में ही भटक गई होती. अब जब उस की जीवन संध्या समीप ही है तब भला वह क्यों भटकेगी? फिर भला एक रोगिणी से राजेंद्र इतनी प्रगाढ़ता क्यों रखना चाहेगा.


जब ये सारे तर्क मेरे मस्तिष्क में उभरते तो मु?ो लगता यह मेरी ही भूल है. राजेंद्र और नंदिता की प्रगाढ़ता एक स्वाभाविक मानवीय व्यवहार ही है. मैं उस संदेह को भुला देता था. आज औपरेशन था. एक अज्ञात भय, अज्ञात अनहोनी और आशंका के बीच मैं औपरेशन कक्ष के सामने चहलकदमी करता रहा. राजेंद्र भी साथ था. उस की मौजूदगी से मु?ो बल मिला. साढ़े 5 घंटे बाद जब नंदिता बाहर आई तो मैं ने लपक कर पूछा, ‘‘कैसी हो नंदिता?’’ मेरे स्वर में बेचैनी थी. ‘‘ठीक हूं,’’ दर्दभरे शब्दों में उत्तर मिला. मेरे पीछे खड़े राजेंद्र ने मुसकरा कर हाथ हिलाया.


नंदिता ने उसे भरपूर नजर देखा और फिर दर्द के कारण आंखें बंद कर लीं. तभी राजेंद्र मेरे कंधे पर हाथ रख कर बोला, ‘‘भाईसाहब, धैर्य रखिए, सब ठीक हो जाएगा.’’ उस के सांत्वना के इन शब्दों से मु?ा में जैसे साहस का पुनर्संचार हुआ. आज नंदिता को अस्पताल से छुट्टी मिलनी थी. मैं बहुत खुश था. उल्लास से भरा था कि अब नंदिता रोगमुक्त हो चुकी है. जाने से पहले मैं डाक्टर से मिलने गया तो डाक्टर ने कहा, ‘‘माधवेशजी, बायोप्सी जांच की रिपोर्ट आ गई है और बहुत ही अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि ‘ट्यूमर’ कैंसरयुक्त है. सो, इस औपरेशन से कुछ दिनों का फायदा तो होगा किंतु रोग से स्थायी मुक्ति संभव नहीं है.’’ यह सुन कर तो मैं ठगा सा रह गया.


सारी खुशी, सारा उल्लास पलक ?ापकते ही एक आघात और विषाद में बदल गया. साथ में राजेंद्र भी था. उस ने मु?ो संभाला. हम तीनों घर पहुंचे. मैं निष्प्राण सा एक कुरसी पर जा गिरा. राजेंद्र ने ही नंदिता को सहारा दिया. उसे बिस्तर पर लिटाया. पास ही मेज पर उस की दवाइयां रख दीं. नंदिता को सहारा दे कर उस के सिर के पीछे तकिया लगा दिया. मैं मूकदर्शक सब देखता रहा. मेरी आंखों के सामने एक अपरिचित व्यक्ति मेरी पत्नी को स्पर्श कर रहा था और मैं चुपचाप देख रहा था. मु?ो गुस्सा नहीं आया, घृणा नहीं हुई, न ही दिमाग में कोई ईर्ष्या उपजी. ऐसा क्यों हुआ. मु?ो प्रतीत हुआ कि यह मेरी अपनी दुर्बलता थी जिस से राजेंद्र नंदिता को स्पर्श कर सकने की सीमा तक बढ़ गया, किंतु नंदिता को तो इस स्पर्श से बचना चाहिए था. इस अंतरंगता से राजेंद्र को दूर रखना चाहिए था.


कम से कम नंदिता मु?ो बुला ही लेती जबकि मैं सामने ही बैठा था. कुल मिला कर यह बात मु?ो ठीक नहीं लगी. न जाने क्यों, यह छोटी सी बात एक संदेह के रूप में मु?ा में घर कर गई. खैर, संभव हो यह सबकुछ परिस्थितिजन्य हो, यह मान कर मैं ने इस बात को भूलने का प्रयास किया. उपचार के दूसरे चरण में नंदिता की रेडियोथेरैपी की जानी थी. मैं ने नंदिता को भुलवा दिया कि गांठ दोबारा न उभरे, इसलिए रेडियोथेरैपी की जरूरत है. इस दौरान राजेंद्र बहुधा उपलब्ध ही रहता. न जाने क्यों, धीरेधीरे उस पर मेरी निर्भरता बढ़ती गई और आशा घटती गई. मैं बातबात पर अब ?ाल्लाने लगता. एक हफ्ते में लगातार 5 दिन रेडियोथेरैपी की जाती थी.


ज्यों ही नंदिता को ले कर अस्पताल के लिए निकलता, मैं बेचैन होने लगता था. मैं जान गया था कि मृत्यु ही अब नंदिता को इस रोग से मुक्ति दिला सकती है. यही भय, यही निराशा मु?ो अस्पताल जाने से रोकती. शुरू के 3-4 दिन मैं नंदिता के साथ गया किंतु फिर न जाने क्यों, मैं ने यह दायित्व राजेंद्र को सौंप दिया. वह एक अद्भुत अपनत्वभरे भाव से नंदिता की सेवा में लगा रहता. मैं ने महसूस किया कि राजेंद्र नंदिता का ज्यादा से ज्यादा सामीप्य चाहने लगा था. उस की इस चाह के पीछे क्या कारण हो सकता था, यह तो मैं नहीं भांप पाया किंतु यह निश्चित था कि जिस तन्मयता, तत्परता और समर्पण की भावना से वह नंदिता की सेवा में लगा था, वह मात्र परिस्थितिजन्य नहीं हो सकता था.


फिर नंदिता ने भी कभी ऐसा संकेत नहीं दिया कि राजेंद्र का इस सीमा तक हस्तक्षेप उसे स्वीकार नहीं बल्कि मैं ने यह महसूस किया कि राजेंद्र की मौजूदगी से वह खुश रहती थी. गाहेबगाहे मैं इस बारे में गंभीरता से सोचता भी, लेकिन संतोषजनक उत्तर नहीं मिल सका. रेडियोथेरैपी पूरी हुई. नंदिता का स्वास्थ्य फिर से डगमगाने लगा. डाक्टर ने कीमोथेरैपी का परामर्श दिया. मेरी हिम्मत जवाब दे रही थी. मु?ा में साहस नहीं था कि मैं नंदिता को कीमोथेरैपी के लिए तैयार करूं. ऐसी परिस्थिति में मैं ने राजेंद्र से राय ली तो वह बोला, ‘‘क्या कीमोथेरैपी से फायदा होने की संभावना है?’’ ‘‘शायद,’’ कहते हुए मैं कमरे से बाहर आ गया. रूमाल से आंखें पोंछीं. मेरे पीछेपीछे राजेंद्र भी आया. ‘‘अब क्या होगा?’’ राजेंद्र बोला. उस का स्वर भर्राया हुआ था. आंखें नम थीं. चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं.


मैं अपनी पीड़ा भूल गया. ‘‘तुम क्यों विचलित हो राजेंद्र? तुम ने ही तो नंदिता के जीवन में बहुमूल्य 8 महीने जोड़े वरना मैं न जाने कब का उसे खो चुका होता,’’ मैं ने उसे सम?ाने का प्रयास किया पर वह रुका नहीं. अपने भीगे नेत्रों को मु?ा से छिपाता हुआ तेजी से बाहर निकल गया. इस तरह से उस का भावविह्वल हो उठना, मेरे मन में फिर संदेह पैदा कर गया. उस के जाने के बाद घर में मरघट सी शांति छा गई थी. मैं ने कीमोथेरैपी का विचार त्याग दिया कि जब मृत्यु निश्चित है तो शरीर को पीड़ा पहुंचाने से क्या फायदा. उधर जब 4-5 दिन तक राजेंद्र नहीं आया तो मन में कई तरह के विचार उठने लगे. कभी सोचता, चलो, अच्छा हुआ, स्वयं ही चला गया.


फिर सोचता, राजेंद्र के रहने से कम से कम नंदिता खुश तो रहती थी. करीब 10 दिनों बाद अचानक ही राजेंद्र एक दिन आ गया. ‘‘कहां चले गए थे?’’ मैं ने आते ही पूछा. ‘‘नंदिता कैसी है?’’ उस ने मु?ा से ही प्रश्न पूछ डाला. ‘‘जाओ, स्वयं ही मिल लो,’’ मैं ने नंदिता के कमरे की ओर इशारा किया. राजेंद्र अंदर गया और मैं कमरे के बाहर छिप कर उन दोनों की बातें सुनने लगा. ‘‘अकेले नहीं रह सके न, क्यों?’’ नंदिता कह रही थी, जिसे सुन कर मैं हक्काबक्का रह गया था. ‘‘क्या चंदन से सुगंध को अलग किया जा सकता है कभी?’’ यह रहस्यमय प्रत्युत्तर राजेंद्र का था, ‘‘खैर, बताओ, तुम कैसी हो?’’ ‘‘जैसी देख रहे हो. मेरे पति और तुम मु?ा से जरूर कुछ छिपा रहे हो,’’ नंदिता ने पूछा. ‘‘कैसी बातें करती हो? तुम्हारे पति तुम्हें कितना चाहते हैं. इस का शायद तुम्हें आभास नहीं.


तुम्हारे उपचार के लिए क्या नहीं कर रहे हैं वे पर जब बीमारी ही ठीक न होने वाली हो तो कोई भी…’’ कहता हुआ राजेंद्र अचानक चुप हो गया. वह भयानक गलती कर चुका था. जो अब तक एक भेद था, उसे उस की ही भावुकता ने खोल दिया. ‘‘मैं तो जानती थी कि सिरदर्द है, उपचार के बाद ठीक हो जाएगा. कौन सी बीमारी है मु?ो?’’ मगर राजेंद्र चुप रहा तो नंदिता फिर बोली, ‘‘तुम बताते क्यों नहीं?’’ इस बार नंदिता की आवाज तेज थी. शायद वह घबरा गई थी. राजेंद्र फिर भी चुप रहा. ‘‘राजेंद्र, तुम चुप क्यों हो? कुछ बोलते क्यों नहीं? कुछ बताते क्यों नहीं?’’ इस बार नंदिता लगभग चीख पड़ी थी. मु?ो लगा कि मेरा वहां पहुंचना ही ठीक होगा. मैं ने कुछ भी न देखनेसुनने का अभिनय करते हुए प्रवेश किया. ‘‘क्या बात है, नंदिता?’’ मैं बोला. ‘‘राजेंद्र कहता है कि मु?ो ठीक न होने वाली बीमारी है.


आप ने अब तक बताया नहीं मु?ो,’’ नंदिता आवेश में थी पर जिस अपनत्व से उस ने राजेंद्र का नाम लिया था उस से लगा कि उस पर उस का बहुत ही गहरा अधिकार है. ‘‘राजेंद्र को पूरी बात मालूम नहीं है. तुम इस हालत में ज्यादा दिनों तक नहीं रहोगी,’’ मैं ने स्थिति को संभालने का प्रयास करते हुए कहा. ‘‘मर जाऊंगी, यही कहना चाहते हैं आप. मैं जी ही कब रही थी. अब तक का मेरा पूरा जीवन विवशताओं और वेदनाओं के चक्रव्यूह में फंसा रहा लेकिन स्वेच्छा और स्वतंत्रता से मरने का अधिकार तो मत छीनिए,’’ कहती हुई नंदिता अब पूरी तरह असंतुलित हो चुकी थी. मैं सम?ा नहीं पा रहा था क्या कहूं.


राजेंद्र भी कुछ देर मौन खड़ा रहा, फिर चला गया. नंदिता के शब्दों ने न जाने क्यों मु?ो यह सोचने को मजबूर कर दिया कि हो न हो नंदिता और राजेंद्र एकदूसरे का होना चाहते रहे हों, लेकिन परिस्थितियों ने मु?ो नंदिता का पति बना दिया. रात हुई. हम दोनों की आंखों में नींद नहीं. आधी रात बाद नंदिता ने सिरदर्द की शिकायत की. दर्द बढ़ता ही गया. मैं ने डाक्टर को फोन किया. उस ने अगले दिन अस्पताल आने को कहा और तब तक नींद की दवा देने की सलाह दी. दवा लेने के कुछ देर बाद नंदिता सो गई लेकिन मेरी आंखों में नींद कहां, मैं चुपचाप उस के चेहरे की तरफ देखता रहा.


20 वर्ष पहले की युवा नंदिता, उस से वादविवाद प्रतियोगिता में भेंट, पहचान, घनिष्ठता, मेरा विवाह का प्रस्ताव, उस की अस्वीकृति, कुछ ही महीनों बाद स्वयं उस की तरफ से सहमति, विवाह, फिर संतानहीन वैवाहिक जीवन, नंदिता की बीमारी, राजेंद्र का प्रवेश, उन के संबंधों पर मेरा संदेह यह सब चलचित्र की तरह मेरी आंखों के सामने क्षणभर में घूम गया. न जाने क्यों, मु?ो बारबार लगता कि नंदिता और राजेंद्र के साथ कुछ अनहोनी जरूर हुई है. अगले दिन अस्पताल जाने के समय तक राजेंद्र भी आ गया. उस ने किसी से कोई बात नहीं की. बस, साथसाथ लगा रहा. डाक्टर ने दोबारा एमआरआई जांच की सलाह दी. मैं सम?ाता था, यह सब अंत समय की तैयारी थी, फिर भी सहमति दे दी. नंदिता जांच के लिए चली गई. मैं और राजेंद्र प्रतीक्षा करने लगे. दोनों मौन. मैं ने सोचा, क्यों न एक ?ाठ बोल कर सारा सच जान लूं तो पूछ ही बैठा, ‘‘राजेंद्र, क्या अब भी तुम मु?ा से छिपाओगे कि तुम और नंदिता एकदूसरे से पहले से परिचित नहीं हो?’’ मेरे इस प्रश्न से राजेंद्र कुछ घबरा सा गया था, कहने लगा, ‘‘तो फिर सच जान ही लीजिए.


मैं और नंदिता एकदूसरे को चाहते थे. यह चाहत शारीरिक नहीं, बल्कि मन से मन की थी. हम दोनों के परिवारों की आर्थिक स्थिति दयनीय थी. कालेज के दिनों में भी नंदिता सिरदर्द की शिकायत करती थी. घर वाले कामचलाऊ इलाज कराते रहे लेकिन एक दिन पता चल ही गया कि बीमारी आगे चल कर खतरनाक हो सकती है और उपचार भी काफी महंगा हो सकता है.’’ ‘‘लेकिन तुम दोनों ने विवाह क्यों नहीं किया?’’ ‘‘भाईसाहब, प्रेम मानव जीवन के लिए सर्वस्व है पर प्रेम से भूख नहीं मिटती. निर्धनता नहीं मिटती और न ही बीमारी मिटती है. नंदिता के घरवाले इतने समर्थ नहीं थे और न ही मैं कि नंदिता का उपचार करा पाता.’’ ‘‘फिर क्या सोचा तुम ने?’’ यही मेरा मुख्य प्रश्न था.


‘‘मैं नंदिता को खोना नहीं चाहता था, न ही वह मु?ो खोना चाहती थी. इसी बीच आप की भेंट नंदिता से एक वादविवाद प्रतियोगिता में हुई. आप ने विवाह का प्रस्ताव भी रखा.’’ ‘‘लेकिन नंदिता ने तो इनकार कर दिया था. कुछ ही दिनों बाद उस का निर्णय कैसे मेरे पक्ष में हो गया?’’ ‘‘यह निर्णय हृदय का नहीं, जबान का था. मैं नहीं चाहता था कि नंदिता उपचार के अभाव में असमय ही इस दुनिया से चली जाए, इसीलिए मैं ने अपने जीवन की सौंगध दे कर उसे एक तरह से विवश किया कि वह आप से विवाह कर ले. कम से कम जीवित तो रहेगी,’’ कह कर राजेंद्र कुछ देर रुका. ‘‘ओह, इसीलिए उस दिन नंदिता कह रही थी कि अब तक का मेरा पूरा जीवन विवशताओं में बीता है,’’ मैं ने बात दोहराते हुए कहा. ‘‘हां, यही सच है. नंदिता ने मेरी भावनाओं को सम्मान देते हुए आप से विवाह किया. विश्वास मानिए. विवाह के बाद हम दोनों एकदूसरे को लगभग भूल ही गए केवल इस इक आशा के साथ कि हम दोनों हैं.


हमारा प्रेम है,’’ कह कर राजेंद्र चुप हो गया. ‘‘तो क्या नंदिता ने मेरे साथ छल नहीं किया?’’ मैं ने पूछा. ‘‘क्या कभी आप को इस बात का रंचमात्र भी आभास हुआ कि पिछले 20 वर्षों से आप की ब्याहता नंदिता के किसी भी आचरण और चरित्र ने आप को अपमानित किया हो?’’ राजेंद्र के इस प्रश्न में एक यथार्थ था. शतप्रतिशत सचाई थी. नंदिता ने ऐसा कभी आभास नहीं होने दिया. मु?ो हमेशा लगा कि वह मन, वचन व कर्म से मेरी पत्नी है. ‘‘लेकिन इतने बड़े त्याग के बाद और वह भी इतने वर्षों बाद तुम अकस्मात ही प्रकट हो गए? तुम्हारा परिवार कहां है?’’ ‘‘मैं ने कहा था न कि मैं नंदिता को सुखी देखना चाहता था, उसे खोना नहीं. यह संयोग ही था कि मेरा भी रक्त समूह नंदिता से मिलता था.


उस का जीवन बचाने और एक बार देख लेने की सुप्त इच्छा एकाएक जाग उठी और मैं रक्तदान को माध्यम बना कर चला आया.’’ ‘‘जहां तक परिवार का प्रश्न है, मैं अभी भी अविवाहित हूं. अब जब जान गया हूं कि नंदिता को कैंसर है और वह कुछ ही दिनों की मेहमान है, मन कहता है जितना ज्यादा से ज्यादा उस के पास रह सकूं, रहूं. यही विवशता बारबार मु?ो उस के पास खींच लाती है, भाईसाहब,’’ कहते हुए राजेंद्र के स्वर में जो कंपन था वह मैं स्पष्ट अनुभव कर रहा था. ‘‘त्याग और प्रेम की पराकाष्ठा का ऐसा दुर्लभ दृष्टांत मैं ने न कभी सुना और न ही देखा, राजेंद्र. मैं तुम्हारी भावनाओं एवं मानसिकता को सम?ा सकता हूं. कैसा दुखद दुर्योग कि वर्षों पहले जिस प्रेमयज्ञ को तुम दोनों ने मिल कर प्रज्ज्वलित किया, उस के हवनकुंड में आज तुम ही दोनों को अपनाअपना जीवन होम करना पड़ा.’’ मैं कुछ कहता, तभी नंदिता जांच करा कर वापस लौट आई. मैं ने राजेंद्र के साथ नंदिता को घर भेज दिया.


मैं चाहता था अब हर क्षण वे दोनों साथ रहें. 2 घंटे बाद जब डाक्टर ने रिपोर्ट दी तो स्पष्ट कर दिया कि ‘ट्यूमर’ फिर बढ़ गया है और नंदिता का जीवन 3-4 महीने से ज्यादा का नहीं है. यह वज्रपात था मेरे ऊपर. नंदिता ने अब तक एक सच्चे जीवनसाथी सा साथ दिया लेकिन मैं क्या दे सका उसे, कुछ नहीं. जिस रोगमुक्त जीवन की आशा में नंदिता और राजेंद्र ने अपना सर्वस्व त्याग दिया, वह जीवन भी तो मैं नंदिता को नहीं दे सका. यही सब सोचतेसोचते घर आ गया. ‘‘क्या निकला रिपोर्ट में?’’ नंदिता और राजेंद्र ने लगभग साथ ही पूछा. ‘‘अभी तक तो सब ठीक ही है,’’ मैं ने ?ाठ बोल कर नंदिता को मृत्यु के भय से दूर रखना चाहा. ‘‘देखें, कब तक ठीक हो पाती हूं?’’ नंदिता बोली. उस के कथन से जीवन के प्रति मोह और मृत्यु के प्रति भय स्पष्ट ?ालक रहा था. अवसर देख कर राजेंद्र ने एकांत में मु?ा से पूछा, ‘‘कम से कम मु?ो तो अंधेरे में न रखिए.’’


‘‘अब आगे अंधेरा ही अंधेरा है, राजेंद्र, हम तीनों की नियति में घोर अंधकार ही शेष है,’’ क्षीण स्वरों में मैं बोला. ‘‘क्या कह रहे हैं आप?’’ ‘‘वही जो डाक्टर ने कहा. 3-4 महीने से ज्यादा का साथ नहीं है हमारा और नंदिता का,’’ न चाहते हुए भी मु?ो यह कठोर सच कहना पड़ा. ‘‘ओह, इतना कठिन जीवन रहा नंदिता का. क्या होगा अब? क्या करूं मैं? कुछ सू?ाता ही नहीं अब तो,’’ राजेंद्र बड़बड़ाने लगा. मैं भी बहुत असहज हो उठा था पर फिर भी राजेंद्र को सम?ाया. ‘‘होगा क्या, वही जो होना है. नंदिता के लिए एक पीड़ाविहीन और शांतिमय मृत्यु की प्रार्थना के अलावा हम कुछ भी नहीं कर सकते. राजेंद्र, उठो, चलो, अब नंदिता के शेष जीवन को हम दोनों अपने प्रेम और स्नेह से सींचें. मैं एक पति के रूप में, तुम एक प्रिय के रूप में.’’ हम दोनों साथ ही उठे और बढ़ चले उस कक्ष की ओर जिस में नंदिता प्रतीक्षा कर रही थी, न जाने किस की? मेरी, राजेंद्र की, हम दोनों की या अपने नश्वर नारीदेह के अनंत में मिल जाने की.

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