कहानी: दैहिक भूख
आज मनोज बहुत खुश था और पहुंच गया यादों में. 4 साल पहले वह नौकरी की तलाश में मुंबई आया था. पढ़लिख कर गांव में रहने का कोई फायदा नहीं था. वहां तो कोई छोटीमोटी नौकरी मिलती या अपनी छोटी सी दुकान खोल कर बैठना पड़ता. इस के अलावा वहां और कुछ था भी नहीं, जिस पर अपनी गुजरबसर की जा सके. यही सोच कर मनोज ने मुंबई जाने वाली ट्रेन पकड़ ली थी. पहले कुछ दिन तो मनोज को एक लौज में रहना पड़ा, फिर धीरेधीरे उसे उस के गांव के लोग मिल गए, जो 3-4 के समूह में साथसाथ रहते थे. मनोज भी उन्हीं के साथ चाल में रहने लगा था.
चाल का मतलब है आधे कच्चेपक्के घरों की वे बस्तियां, जहां संकरी गलियों में छोटेछोटे कमरे होते हैं. पानी के लिए एक सरकारी नल का इंतजाम होता है, जहां बच्चेऔरतें और मर्द सुबह से ही अपनेअपने बरतन ले कर लाइन लगा देते हैं, ताकि वे पूरे दिन के लिए पीने व नहानेधोने का पानी भर सकें. अब मनोज बड़ी मेहनत से नौकरी कर के पैसा कमा रहा था और एकएक पैसा जोड़ रहा था, ताकि रहने के लिए अपना छोटा सा घर खरीद सके. आज मनोज इसीलिए खुश था, क्योंकि उस ने एक छोटा सा 8 बाई 8 फुट का कमरा खरीद लिया था. इधर उस के मातापिता भी काफी समय से जोर दे रहे थे कि शादी कर लो. रहने का ठिकाना हो गया था, सो अब मनोज ने भी इस के लिए हामी भर दी थी.
मां ने गांव में अपने ही रिश्ते में एक लड़की पसंद कर रखी थी, जिस का नाम शिल्पा था. शिल्पा भी राह देख रही थी कि कब मनोज आए और उसे ब्याह कर मुंबई ले जाए. मनोज गांव गया और फिर चट मंगनी पट ब्याह. वह एक महीने में शिल्पा को ले कर मुंबई आ गया. शिल्पा मुंबई के तौरतरीके सीख रही थी. वह भी रोज सुबह पानी की लाइन में लग जाती और वहां की मराठी औरतों के साथ बातें कर के थोड़ीथोड़ी मराठी भी सीखने लगी थी. जब शाम को मनोज दफ्तर से काम कर के खोली में लौटता और शिल्पा को अपनी बांहों में भर कर प्यार भरी बातें करता, तो वह कहती, ‘‘धीरे बोलिए, सब के कमरे आसपास हैं. खिड़की भी तो सड़क पर खुलती है. कोई सुन लेगा तो…’’
मनोज कहता, ‘‘सुन ले तो सुन ले, हम अपनी बीवी से बात कर रहे हैं, कोई चोरी थोड़े ही कर रहे हैं.’’ आसपास की जवान लड़कियां भी कभीकभार शिल्पा को छेड़ कर कहतीं, ‘भाभी, कल भैया से क्या बातें हो रही थीं? हम ने सुना था सबकुछ…’ शिल्पा जवाब में कहती, ‘‘कोई और काम नहीं है तुम्हारे पास, हमारी बातें सुनने के अलावा?’’
इस तरह 4 साल बीत गए और शिल्पा के 2 बच्चे भी हो गए. बड़ी बेटी संध्या और छोटा बेटा वीर. मनोज अपने परिवार में बहुत सुखी था. वह अब एक फ्लैट खरीदना चाहता था, ताकि जब उस के बच्चे बड़े हों तो थोड़े अच्छे माहौल में पलबढ़ सकें. इस के लिए वह एकएक पाई जोड़ रहा था. शिल्पा और मनोज सोने से पहले रोज नए फ्लैट के बारे में ही बात करते थे. मनोज कहता, ‘‘एक वन बैडरूम का फ्लैट हो जाए बस.’’ शिल्पा कहती, ‘‘हां, तुम नया घर लेने की तैयारी करो. हम उसे सजा देंगे और बाहर नेम प्लेट पर मेरा भी नाम लिखना. घर के दरवाजे पर हम लिख देंगे ‘आशियाना’.’’
मनोज हर छुट्टी के दिन ब्रोकर से मिल कर फ्लैट देख कर आता. कोई बहुत अंदर गली में होता, जहां से मेन रोड पर आने में ही आधा घंटा लग जाए, तो कोई बच्चों के स्कूल से बहुत दूर होता. कोई बहुत पुरानी बिल्डिंग होती, जिस में लीकेज की समस्या होती, तो कोई बहुत अंधेरी सी बिल्डिंग होती और कीमत पूछते ही मकान मालिक भी बड़ा सा मुंह खोल देते. कीमत बड़ी और फ्लैट का साइज छोटा. लोग 30 लाख रुपए तक मांगते. कहां से लाता मनोज इतने पैसे?
सो, 20 लाख रुपए में अच्छी सी लोकेशन देख कर उस ने एक वन बैडरूम फ्लैट खरीद लिया, जिस के आसपास सारी सुविधाएं थीं और रेलवे स्टेशन भी नजदीक था. फ्लैट में रहने से शिल्पा और बच्चे भी मुंबई के रंग में रंगने लगे थे. मनोज की बेटी संध्या 13वें साल में थी. उस का शरीर अब गोलाई लेने लगा था और वह अब थोड़ा सजधज कर भी रहने लगी थी. ऊपर से टैलीविजन और मीडिया. आजकल के बच्चे वक्त से पहले ही सबकुछ समझने लग जाते हैं. फिर घर में जगह व एकांत की कमी. अब घर छोटा पड़ने लगा था.
मनोज अब बच्चों से नजरें बचा कर मौका ढूंढ़ता कि कब शिल्पा के करीब आए और उसे अपने आगोश में ले. वक्त तेजी से बीत रहा था. संध्या अब कालेज जाने लगी थी और रोजाना नए कपड़े, जूते, बैग वगैरह की मांग भी करने लगी थी. उस की ये सब जरूरतें पूरी करना मनोज के लिए मुश्किल होता जा रहा था. एक दिन संध्या बोली, ‘‘पापा, मेरी सारी सहेलियां नई फिल्म देखने जा रही हैं, मुझे भी जाना है. मां से कहिए न कि मुझे कुछ रुपए देंगी.’’
मनोज ने कहा, ‘‘देखो संध्या बेटी, तुम्हारी बात बिलकुल सही है. तुम्हें भी घूमनेफिरने की आजादी होनी चाहिए. लेकिन बेटी, हम इतने पैसे वाले नहीं हैं. अभी तुम्हारी पढ़ाईलिखाई के तमाम खर्च हैं और बाद में तुम्हारी शादी के. फिर तुम्हारा छोटा भाई भी तो है. उस के बारे में भी तो सोचना है. आज तो मैं तुम्हें पैसे दे रहा हूं, लेकिन रोजरोज जिद मत करना.’’
संध्या खुशीखुशी पैसे ले कर कालेज चली गई. शिल्पा मनोज से बोली, ‘‘कैसी बातें करते हैं आप. आज पैसे दिए तो क्या वह रोज नहीं मांगेगी? लड़की को इतनी छूट देना ठीक नहीं है.’’ मनोज बोला, ‘‘बच्चों के लिए करना पड़ता है शिल्पा. ये भी तो बाहर की दुनिया देखते हैं, तो इन का भी मन मचलता है. और अगर हम न दें, तो इन का हम पर से भरोसा उठ जाएगा.’’ अब संध्या तकरीबन हर रोज मनोज से पैसे मांगने लगी थी. कभीकभी मनोज मना कर देता, तो उस दिन संध्या मुंह फुला कर कालेज जाती. कालेज के बाद या कभीकभी कालेज से छुट्टी कर के लड़केलड़कियां हाथ में हाथ डाले मुंबई के बीच पर घूमते नजर आते. कई बार थोड़े अमीर परिवार के लड़के लड़कियों को अच्छे रैस्टोरैंट में ले जाते, तो कभी फिल्म दिखा कर भी लाते.
मनोज तो संध्या की जरूरत पूरी करने में नाकाम था, सो अब संध्या भी उन लड़कों के साथ घूमने लगी थी. किसी लड़की को बांहों में बांहें डाल कर घुमानाफिराना इस उम्र के लड़कों के लिए बड़े गर्व की बात होती है और लड़कियां सोचती हैं कि यह प्यार है और वह लड़का उन की खूबसूरती का दीवाना है. संध्या की दूसरी सहेलियां भी ऐसे ही लड़कों के साथ घूमती थीं. एक दिन सभी लड़के लड़कियां गोराई बीच चले गए. बोरीवली से छोटी नाव, जिसे ‘फेरी’ कहते हैं, चलती है, जो एक छोटी सी क्रीक को पार करा देती है और गोराई बीच आ जाता है. यह मछुआरों का गांव है. मछुआरे बहुत ही कम कीमत पर, यों समझिए 2 सौ, 3 सौ रुपयों में कमरे किराए पर दे देते हैं, ताकि लोग बीच से आ कर कपड़े बदल लें और आराम भी कर लें. सो, सारा ग्रुप पूरा दिन सैरसपाटा कर के आता और अलग अलग कमरों में बंद हो जाता. यह सारा खर्चा लड़के ही करते थे.
अब यह सब संध्या व उस की सहेलियों व लड़कों की रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन गया था. कभीकभी वे लड़के अपने दूसरे दोस्तों को भी वहां ले जाते और संध्या व उस की सहेलियां उन लड़कों से भी हिलमिल गईं. यही तो खास बात है इस उम्र की कि कुछ बुरा तो नजर आता ही नहीं. सब अच्छा ही अच्छा लगता है और अगर मातापिता कुछ कहें, तो उन की बातें दकियानूसी लगती हैं. लड़केलड़कियां एकदूसरे की सारी जरूरतें पूरी करते, दैहिक भूख व मौजमस्ती. कुछ महीनों तक ऐसा ही चलता रहा, लेकिन एक दिन वहां पर पुलिस की रेड पड़ गई, जिस में संध्या भी पकड़ी गई. फिर क्या था… सभी लड़केलड़कियों को पुलिस स्टेशन ले जाया गया और फोन कर के उन के मातापिता को भी वहां बुलाया गया.
मनोज के पास भी पुलिस स्टेशन से फोन आया. वह तो फोन सुनते ही हक्काबक्का रह गया. जल्दी से वह दफ्तर से आधे दिन की छुट्टी ले कर पुलिस स्टेशन पहुंचा. वहां संध्या को देखा और सारी बात मालूम होते ही उस की आंखों में खून उतर आया. खैर, पुलिस के हाथपैर जोड़ कर वह संध्या को वहां से ले कर घर आया. जब संध्या की मां ने सारी बात सुनी, तो उस ने संध्या को जोरदार तमाचा जड़ कर कहा, ‘‘शर्म नहीं आई तुझे उन लड़कों के साथ गुलछर्रे उड़ाते हुए?’’ संध्या कहां चुप रहने वाली थी. वह कहने लगी, ‘‘19 साल की हूं मैं और बालिग भी हूं. अगर आप और पापा सब कर सकते हैं, तो मैं क्यों नहीं? कितनी बार देखा है मैं ने आप और पापा को…’’
इतना सुनते ही शिल्पा ने संध्या के गाल पर दूसरा तमाचा जड़ दिया और गुस्से में बोली, ‘‘अरे, हम तो पतिपत्नी हैं, पर तुम इस पढ़नेलिखने की उम्र में बिन ब्याहे ही…’’ संध्या ने सारी हदें पार कर दीं और बोली, ‘‘तो क्या हुआ जो शादी नहीं हुई तो. तुम लोगों को देख कर बदन में उमंग नहीं जागती? कैसे शांत करूं मैं उसे बिन ब्याहे? अगर वे लड़के मुझे घुमातेफिराते हैं, मेरी जरूरतों का खयाल रखते हैं, तो बुराई भी क्या है इस दैहिक संबंध में? पापा और आप भी तो शादी कर के यही कर रहे हो. सिर्फ एकदूसरे की जरूरतों को पूरा करना. तो क्या इस पर शादी की मुहर लगाना जरूरी है?
‘‘आप लोग तो मेरी जरूरतें पूरी कर नहीं पाते. सिर्फ मैं ही नहीं, आजकल तो अकसर सभी लड़कियां करती हैं यह सब. ‘‘मां, अब तुम लोग पुराने जमाने के हो गए हो. आजकल सब चलता है. कुदरत ने देह दी है, तो उस को इस्तेमाल करने में क्या बुराई है?’’ संध्या की ये बेशर्मी भरी बातें सुनी नहीं जा रही थीं. मनोज तो अपने कानों पर हाथ रख मुंह नीचे किए बैठा था और संध्या लगातार बोले जा रही थी. उस ने तो मौजमस्ती की चाह और अपनी दैहिक भूख को शांत करने के लिए सारी हदें पार कर ली थीं. नएनए लड़कों से दैहिक संबंध बनाने में उसे कोई बुराई नजर न आई. इस का कोई दुख या गिला भी न था उसे. शिल्पा कोने में दीवार पर सिर टिका कर आंसू बहाए जा रही थी. अब मनोज जुट गया था 2 कमरों का घर ढूंढ़ने में.